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सांविधानिक विधि
चुनावों में संपत्ति प्रकटीकरण आवश्यकताएँ
20-Aug-2025
अजमेरा श्याम बनाम श्रीमती. कोवा लक्ष्मी एवं अन्य (2025) "उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रकटीकरण आवश्यकताओं को अनुचित रूप से इतना नहीं बढ़ाया जाना चाहिये कि वैध रूप से घोषित चुनावों को मामूली तकनीकी गैर-अनुपालनों के आधार पर अमान्य कर दिया जाए, जो पर्याप्त प्रकृति के नहीं हैं।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत और एन. कोटिस्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
अजमेरा श्याम बनाम श्रीमती कोवा लक्ष्मी एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने आसिफाबाद निर्वाचन क्षेत्र से बी.आर.एस. विधायक कोवा लक्ष्मी के चुनाव में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया और कहा कि यदि संपत्ति का प्रकटीकरण न करना पर्याप्त प्रकृति का नहीं है तो यह भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाएगा।
- इससे नामांकन की स्वीकृति अनुचित नहीं होगी, जिससे निर्वाचन अमान्य हो जाएगा।
अजमेरा श्याम बनाम श्रीमती कोवा लक्ष्मी एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला तेलंगाना विधानसभा चुनाव, 2023 से उत्पन्न हुआ, जिसमें भारत राष्ट्र समिति (BRS) की प्रत्याशी कोवा लक्ष्मी आसिफाबाद निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुईं।
- कोवा लक्ष्मी ने अपने चुनावी शपथपत्र में अपनी संपत्ति, देनदारियों, पैन और आय के स्रोतों (जिला परिषद अध्यक्ष के रूप में मानदेय) का प्रकटीकरण किया था।
- उन्होंने वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए आयकर विवरणी (IT returns) प्रस्तुत की, किंतु वर्ष 2018 से 2022 तक की अवधि हेतु "शून्य" आय अंकित की।
- अपीलकर्त्ता अजमेरा श्याम ने उनके निर्वाचन को चुनौती देते हुए आरोप लगाया कि फॉर्म 26 शपथपत्र के अनुसार पूर्ण आय विवरण प्रकट न करना, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 100 के अधीन नामांकन की अनुचित स्वीकृति और भ्रष्ट आचरण के समान है।
- तेलंगाना उच्च न्यायालय ने पहले कोवा लक्ष्मी के निर्वाचन में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था, जिसके निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी।
- निर्वाचन संचालन नियम, 1961 के नियम 4क के अनुसार प्रत्याशियों को फॉर्म 26 शपथपत्र दाखिल करना होगा, जिसमें पिछले पाँच वर्षों की संपत्ति, देनदारियों और आयकर रिटर्न का प्रकटीकरण करना होगा।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि पूर्ण आय विवरण का प्रकटीकरण न करना इन आवश्यकताओं का उल्लंघन है तथा यह चुनाव को रद्द करने का आधार बनता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पर्याप्त दोषों और मामूली तकनीकी गैर-अनुपालनों के बीच अंतर करते हुए कहा कि "जहाँ तक परिसंपत्तियों और शैक्षणिक योग्यता का संबंध है, प्रकटन की आवश्यकता को इस प्रकार अत्यधिक रूप से नहीं बढ़ाया जाना चाहिये जिससे कि अन्यथा विधिवत घोषित चुनाव को मात्र किसी मामूली तकनीकी त्रुटि के कारण अमान्य ठहराया जाए, जो कि कोई गंभीर प्रकृति की न हो।"
- न्यायालय ने कहा कि "उल्लिखित गैर-प्रकटीकरण का दोष पर्याप्त प्रकृति का नहीं है, इसी कारण से प्रत्यर्थी संख्या 1 को अधिनियम की धारा 123 (2) के अर्थ के भीतर भ्रष्ट आचरण में लिप्त नहीं माना जा सकता है।"
- न्यायमूर्ति एन.के. सिंह ने कहा कि नियम 4क के अधीन आयकर रिटर्न का प्रकटन करना आवश्यक है, किंतु प्रकटन न करना भ्रष्ट आचरण के आधार पर चुनाव को अमान्य घोषित करने के लिये कोई बड़ा दोष नहीं होगा।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "केवल इस आधार पर कि एक निर्वाचित प्रत्याशी ने परिसंपत्तियों से संबंधित कुछ जानकारी का प्रकटन नहीं किया है, न्यायालयों को अत्यधिक तंग दृष्टिकोण अपनाकर जल्दबाज़ी में चुनाव को अमान्य नहीं करना चाहिये।"
- निर्णय में यह स्थापित किया गया कि वास्तविक परीक्षण यह है कि "किसी भी मामले में परिसंपत्तियों के बारे में जानकारी का प्रकटन न करना परिणामी या अप्रासंगिक है।"
- लोक प्रहरी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2018) का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने यह कहा कि, यद्यपि परिसंपत्तियों का प्रकटन न करना भ्रष्ट आचरण हो सकता है, तथापि वर्तमान वाद में यह त्रुटि "गंभीर प्रकृति की नहीं" है।"
चुनावों में संपत्ति प्रकटीकरण की आवश्यकताएँ क्या हैं?
बारे में:
- चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाने और मतदाताओं को सूचित मतदान करने में सक्षम बनाने के लिये संपत्ति प्रकटीकरण आवश्यकताओं को शुरू किया गया था।
- निर्वाचन संचालन नियम, 1961 के अंतर्गत फॉर्म 26 में परिसंपत्तियों, देनदारियों, शैक्षिक योग्यताओं और आपराधिक पृष्ठभूमि का प्रकटन अनिवार्य है।
- प्रत्याशियों को अपनी चल और अचल संपत्ति, आय के स्रोत और पिछले पाँच वर्षों के आयकर रिटर्न का प्रकटीकरण करते हुए शपथपत्र दाखिल करना होगा।
- इसका उद्देश्य आय से अधिक संपत्ति या अघोषित धन रखने वाले व्यक्तियों को निर्वाचन क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकना है।
विधिक ढाँचा:
- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 के अधीन भ्रष्ट आचरण में अनुचित प्रभाव डालना, रिश्वतखोरी और नामांकन पत्रों में मिथ्या कथन करना सम्मिलित है।
- लोक प्रतिनिधि अधिनियम की धारा 100(1)(ख) में उपबंध है कि यदि निर्वाचित प्रत्याशी द्वारा भ्रष्ट आचरण किया जाता है तो निर्वाचन को शून्य घोषित किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों में यह स्पष्ट किया है यदि शपथपत्र में कोई महत्त्वपूर्ण जानकारी को जानबूझकर छुपाया गया हो या मिथ्या विवरण दिया गया हो, तो वह भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आएगा।
- तथापि, न्यायालयों ने यह निरंतर कहा है कि प्रत्येक तकनीकी त्रुटि को गंभीर दोष मानते हुए चुनाव को निरस्त नहीं किया जा सकता।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 क्या है?
बारे में:
- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 भारत का एक मूलभूत विधिक अधिनियम है जो देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम 1951 में अधिनियमित किया गया था और इसका उद्देश्य स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं पारदर्शी निर्वाचन सुनिश्चित करना है।
मुख्य बातें:
प्रमुख धाराएँ:
- धारा 8 : आपराधिक दोषसिद्धि के आधार पर प्रत्याशियों को अयोग्य घोषित करती है, जिसमें विभिन्न अपराधों एवं कारावास की अवधियों के लिये पृथक् प्रावधान हैं।
- धारा 29क : राजनीतिक दलों के निर्वाचन आयोग में रजिस्ट्रीकरण हेतु प्रक्रिया निर्धारित करती है।।
- धारा 123 : रिश्वतखोरी और अनुचित प्रभाव सहित भ्रष्ट आचरण को परिभाषित करती है।
- धारा 126 : मतदान से पूर्व 48 घंटे की अवधि में टेलीविज़न पर चुनाव सामग्री के प्रदर्शन को निषिद्ध करती है (यह प्रिंट एवं डिजिटल मीडिया पर लागू नहीं होती)।
- धारा 126ए : निर्दिष्ट अवधि के दौरान एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगाती है।
- धारा 100 : कदाचार के कारण चुनाव रद्द करने की शर्तें निर्धारित करती है।
मुख्य विशेषताएँ:
अधिनियम में चार मुख्य क्षेत्र सम्मिलित हैं:
- निर्वाचन प्रक्रिया: निर्वाचन की प्रक्रिया, मतगणना एवं चुनावी विवादों के समाधान की व्यवस्था करता है।
- योग्यता और अयोग्यता: प्रत्याशियों के नैतिक आचरण को केंद्र में रखते हुए उनके पात्रता मापदंड निर्धारित करता है।
- निर्वाचन अपराध : रिश्वतखोरी और बूथ कैप्चरिंग जैसी निषिद्ध प्रथाओं को परिभाषित करता है।
- निर्वाचन आयोग की शक्तियां : निर्वाचन आयोग की नियामक भूमिका एवं अधिकारों को स्पष्ट करता है।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अधीन निर्वाचन अपराध:
यह अधिनियम विभिन्न भ्रष्ट आचरणों पर प्रतिबंध लगाता है, जिनमें सम्मिलित हैं:
- मतदाताओं या प्रत्याशियों को किसी प्रकार की अनुचित सुविधा या लाभ देना।
- मतदान के अधिकार में हस्तक्षेप करना।
- धर्म, जाति, मूलवंश या समुदाय के आधार पर मतदाताओं से अपील करना।
- विभिन्न समूहों के मध्य द्वेष या वैमनस्य फैलाना।
- प्रत्याशियों के विरुद्ध मिथ्या या अपमानजनक वक्तव्य प्रकाशित करना।
- मतदान केंद्रों पर जबरन नियंत्रण स्थापित करना (Booth Capturing)।
- सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग कर चुनावी लाभ प्राप्त करना।
मध्य प्रदेश
वाणिज्यिक नौसेना (मर्चेंट नेवी) अधिकारी का वेतन
20-Aug-2025
वंदना एवं अन्य बनाम केशव और अन्य "क्या मर्चेंट नेवी में अधिकारी के रूप में कार्यरत और भारत में रखे गए खातों से वेतन प्राप्त करने वाले व्यक्ति को आयकर के भुगतान से छूट प्राप्त है? यदि उसे कर के भुगतान से छूट प्राप्त है, तो अधिकरण को आयकर के कारण कोई कटौती लागू नहीं करनी चाहिये थी।" न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने यह निर्णय दिया है कि न्यायालय इस बात की जांच करेगा कि क्या मर्चेंट नेवी अधिकारियों की विदेश में अर्जित आय, जो भारतीय बैंक खातों में जमा की जाती है, आयकर अधिनियम, 1961 के अधीन आयकर से मुक्त है।
- उच्चतम न्यायालय ने वंदना एवं अन्य बनाम केशव एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
वंदना एवं अन्य बनाम केशव एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला एक मोटर दुर्घटना प्रतिकर दावे से उत्पन्न हुआ था, जहाँ मृतक ब्रिटिश मरीन पी.एल.सी., लंदन में वाणिज्यिक नौसेना (मर्चेंट नेवी) अधिकारी के रूप में कार्यरत था, तथा 3,200 अमेरिकी डॉलर मासिक वेतन पाता था।
- मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (Motor Accident Claims Tribunal (MACT)) ने शुरू में अपीलकर्त्ता, जो मृतक की पत्नी थी, को अंतिम प्रतिकर के रूप में 36,04,000 रुपए देने का आदेश दिया। यद्यपि, अधिकरण ने प्रतिकर की राशि में से 30% की कटौती कर दी और इसे मृतक की अर्जित आय पर कर देयता मान लिया।
- अपीलकर्त्ता ने इस कटौती को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि उसके पति द्वारा विदेशी संस्था के साथ काम करते हुए अर्जित आय को भारतीय आयकर से छूट दी जानी चाहिये।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने कर कटौती के संबंध में मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT) के निर्णय को बरकरार रखा, किंतु 40% संभावनाओं को जोड़कर समग्र प्रतिकर को 1.01 करोड़ रुपए तक बढ़ा दिया।
- इस वाद का मुख्य प्रश्न यह था कि क्या वाणिज्यिक नौसेना में अधिकारी के रूप में कार्यरत व्यक्ति, जिसकी वेतनराशि भारत स्थित बैंक खातों में जमा की जाती है, को भारतीय विधि के अधीन आयकर से छूट प्राप्त है या नहीं।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि यदि ऐसी आय कर से मुक्त है, तो प्रतिकर की राशि की गणना करते समय कोई कटौती लागू नहीं की जानी चाहिये थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि यह वाद वाणिज्यिक नौसेना सेवाओं में कार्यरत भारतीय निवासियों द्वारा विदेश में अर्जित आय पर कराधान (taxation) संबंधी एक महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न प्रस्तुत करता है।
- न्यायालय ने उल्लेख किया कि मूल विधिक प्रश्न यह है कि क्या वाणिज्यिक नौसेना में अधिकारी के रूप में कार्यरत व्यक्ति, जिसकी वेतनराशि भारत में संचालित खातों में जमा होती है, को आयकर अधिनियम, 1961 के अधीन आयकर भुगतान से छूट प्राप्त है या नहीं।
- न्यायालय ने यह भी अवलोकन किया कि यदि ऐसे व्यक्तियों को वास्तव में कर भुगतान से छूट प्राप्त है, तो दावा अधिकरण को प्रतिकर की गणना करते समय आयकर कटौती लागू नहीं करनी चाहिये थी।
- पीठ ने यह स्वीकार किया कि यह मुद्दा केवल इस वाद तक सीमित नहीं है, अपितु ऐसी ही स्थिति वाले अन्य व्यक्तियों को भी प्रभावित करता है; अतः न्यायालय ने वाद की शीघ्र सुनवाई का निदेश दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने मुख्य याचिका और प्रति-याचिका दोनों पर अनुमति प्रदान करते हुए व्यापक निर्णय के लिये उन पर एक साथ विचार करने का निर्णय लिया।
- न्यायालय ने मुख्य प्रश्न यह पूछा कि क्या वाणिज्यिक नौसेना अधिकारियों की विदेश में अर्जित आय भारत में कर योग्य है, और यदि नहीं, तो क्या अधिकरण और उच्च न्यायालय ने मोटर दुर्घटना प्रतिकर की गणना करते समय 30% आयकर की कटौती करने में कोई त्रुटि की है।
- सुनवाई में तेजी लाने का न्यायालय का निर्णय इस कराधान विवाद्यक को सुलझाने के महत्त्व और तात्कालिकता को इंगित करता है, जो न केवल वर्तमान मामले को प्रभावित करता है, अपितु विदेशी संस्थाओं के साथ वाणिज्यिक नौसेना (मर्चेंट नेवी) सेवाओं में कार्यरत संभावित रूप से कई अन्य व्यक्तियों को भी प्रभावित करता है।
विदेश से अर्जित आय पर कर से छूट कैसे मिलती है?
- भारत में आयकर अधिनियम, 1961 के अधीन निवास-आधारित नियम लागू है, जिसके अनुसार भारतीय निवासी को उनकी वैश्विक आय पर कर अदा करना होता है, चाहे वह आय भारत में अर्जित की गई हो या भारत के बाहर। विदेशी स्रोत आय (Foreign Source Income) वह आय मानी जाती है जो भारत के बाहर स्रोत से प्राप्त हो, बशर्ते कि अंतिम रूप से वह गतिविधि भारत के बाहर संपन्न हुई हो।
- आय की प्रथम प्राप्ति का स्थान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि छूट के लिये संभावित रूप से पात्र होने के लिये आय की प्राप्ति प्रारंभ में भारत के बाहर होनी चाहिये। यदि विदेश से अर्जित आय सीधे भारत में प्राप्त होती है, तो वह घरेलू कर विधियों के अधीन कर योग्य हो जाती है, चाहे वह मूल रूप से कहीं भी अर्जित की गई हो।
- विदेशी आय की करदेयता मुख्य रूप से आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 6 के अधीन किसी व्यक्ति की आवासीय स्थिति पर निर्भर करती है, जो लोगों को निवासी और सामान्य निवासी (Resident and Ordinarily Resident – ROR), निवासी लेकिन सामान्य निवासी नहीं (Resident but Not Ordinarily Resident – RNOR), या अनिवासी (Non-Resident – NR) के रूप में वर्गीकृत करती है।
- भारत के सामान्य निवासियों को अपनी वैश्विक आय पर कर का भुगतान करना होगा, जिसका अर्थ है कि सभी आय भारत में कर योग्य है, भले ही उस पर उस विदेशी देश में पहले ही कर लगाया जा चुका हो जहाँ वह अर्जित की गई थी।
- गैर-सामान्य निवासी (RNOR) एवं गैर-निवासी (NR) व्यक्तियों के लिये, आय केवल तभी भारत में करयोग्य होती है जब वह भारत में अर्जित, उत्पन्न (arisen) या प्राप्त (received) हुई हो। तथापि, दोहरे कराधान से राहत धारा 90 एवं 91 के अधीन विदेशी कर क्रेडिट के माध्यम से उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त, दोहरे कराधान परिहार संधियाँ (Double Tax Avoidance Agreements – DTAA) भी इस उद्देश्य से लागू हैं कि एक ही आय पर बहु-देशीय कराधान से बचा जा सके।
- केवल यह तथ्य कि विदेश में अर्जित आय भारतीय बैंक खाते में जमा की जाती है, उसे भारतीय आयकर दायित्त्व से स्वतः छूट नहीं देता है।
- सामान्यतः, भारतीय निवासी के लिये भारतीय बैंक खातों में जमा विदेशी आय, आयकर अधिनियम, 1961 के अधीन करयोग्य होती है। कर-मुक्ति का निर्धारण मुख्यतः निवासीय स्थिति एवं आय की प्रथम प्राप्ति के स्थान पर आधारित होता है, न कि मात्र बैंक खाते के स्थान पर।
वाणिज्यिक विधि
अंतरिम व्यादेश प्रदान करने के मानदंड
20-Aug-2025
पेरनोड रिकार्ड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम करणवीर सिंह छाबड़ा व्यापार चिह्न मामलों में अंतरिम व्यादेश जारी करने के लिये न्यायालय को कई परस्पर संबंधित कारकों पर विचार करना आवश्यक है: प्रथम दृष्टया मामला, भ्रम की संभावना, पक्षकारों के दावों के सापेक्ष गुण-दोष, सुविधा का संतुलन, अपूरणीय क्षति का जोखिम, और जनहित। ये सभी कारक संचयी रूप से कार्य करते हैं, और इनमें से किसी एक का भी अभाव अंतरिम अनुतोष देने से इंकार करने के लिये पर्याप्त हो सकता है। न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने यह निर्णय दिया है कि व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 में यह आकलन करने के लिये कोई कठोर मानदंड निर्धारित नहीं हैं कि कोई व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) धोखा देने या भ्रम पैदा करने वाला है या नहीं। इसके बजाय, प्रत्येक मामले का निर्णय उसके अपने तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने पर्नोड रिकार्ड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम करणवीर सिंह छाबड़ा (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
पेरनोड रिकार्ड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम करणवीर सिंह छाबड़ा, (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- प्रमुख मादक पेय निर्माता, पर्नोड रिकार्ड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, लोकप्रिय व्हिस्की ब्रांडों के लिये रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिह्न का स्वामी है, जिसमें "Blenders Pride" (1994 में रजिस्ट्रीकृत, 1995 से उपयोग में), "Imperial Blue" (1997 में लॉन्च) और " Seagram's" (1945 में रजिस्ट्रीकृत) सम्मिलित हैं, जिनका संयुक्त वार्षिक कारोबार ₹4,400 करोड़ से अधिक है।
- मई 2019 में, पेरनोड रिकार्ड को पता चला कि एक प्रत्यर्थी कंपनी मध्य प्रदेश में "London Pride" ब्रांड नाम के अधीन व्हिस्की का विपणन कर रही थी, जिसमें कथित तौर पर उनके स्थापित ब्रांडों के समान पैकेजिंग और डिज़ाइन तत्त्वों का उपयोग किया गया था।
- अपीलकर्त्ताओं ने वाणिज्यिक न्यायालय, इंदौर में व्यापार चिह्न उल्लंघन का वाद दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि "London Pride" शब्द "Pride" के साझा होने के कारण भ्रामक रूप से "Blenders Pride" के समान है और प्रत्यर्थी की पैकेजिंग "Imperial Blue" की रंग योजना और व्यापार चिह्न की नकल करती है।
- इसके अतिरिक्त, उन्होंने आरोप लगाया कि प्रत्यर्थी अपनी "London Pride" व्हिस्की बेचने के लिये "Seagram's" की उभरी हुई बोतलों का उपयोग कर रहा था, जो सीधे व्यापार चिह्न के उल्लंघन का मामला है।
- वाणिज्यिक न्यायालय ने 26 नवंबर 2020 को उनके अंतरिम व्यादेश आवेदन को नामंजूर कर दिया, क्योंकि उन्हें चिह्नों के बीच कोई भ्रामक समानता नहीं मिली।
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने 3 नवंबर 2023 को इस निर्णय को बरकरार रखा, अपीलकर्त्ताओं की अपील को खारिज कर दिया और निष्कर्ष निकाला कि प्रतिस्पर्धी उत्पाद उपभोक्ताओं के लिये स्पष्ट रूप से पहचाने जा सकते हैं।
- इसके कारण पेरनोड रिकार्ड ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तथा अधीनस्थ न्यायालय के दोनों आदेशों को चुनौती दी तथा कथित व्यापार चिह्न उल्लंघन, पासिंग ऑफ और अनुचित प्रतिस्पर्धा को रोकने के लिये अंतरिम अनुतोष की मांग की।
- यह मामला इस मूलभूत प्रश्न पर केंद्रित है कि व्यापार चिह्न समानता कब उपभोक्ता भ्रम पैदा करती है, तथा संयुक्त चिह्नों और ट्रेड ड्रेस तत्त्वों से संबंधित बौद्धिक संपदा विवादों में अंतरिम व्यादेश प्रदान करने के लिये उपयुक्त मानक क्या हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि व्यापार चिह्न विधि में भ्रामक समानता के लिये सटीक अनुकरण की आवश्यकता नहीं होती है, तथा इस बात पर बल दिया कि मुख्य विचार प्रतिस्पर्धी चिह्नों के बीच समग्र समानता से उत्पन्न होने वाले उपभोक्ताओं के मन में भ्रम या जुड़ाव की संभावना है, तथा न्यायालयों को समग्र व्यापार चिह्नों को अलग-अलग घटकों में विभाजित करने के बजाय संपूर्णता में चिह्नों का मूल्यांकन करना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि 'Blenders Pride' और London Pride' स्पष्ट रूप से समान नहीं हैं, तथा यह भी कहा कि तथापि उत्पाद समान हैं, किंतु ब्रांडिंग, पैकेजिंग और व्यापार चिह्न में काफी भिन्नता है, तथा 'Pride' शब्द का प्रयोग लोक रूप से किया जाता है और शराब उद्योग में इसका प्रयोग सामान्य रूप से किया जाता है।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि विचाराधीन उत्पाद प्रीमियम और अल्ट्रा-प्रीमियम व्हिस्की हैं, जो समझदार उपभोक्ता आधार को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं, जो क्रय संबंधी निर्णय लेने में अधिक सावधानी बरतते हैं, जिससे विशिष्ट व्यापार पोशाक और पैकेजिंग के कारण भ्रम की संभावना नगण्य हो जाती है।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं की विधिक रणनीति की आलोचना करते हुए इसे "मिश्रित और असमर्थनीय दलील" बताया और कहा कि 'London Pride' को चुनौती देने के लिये दो अलग-अलग चिह्नों - 'Blenders Pride' और 'Imperial Blue' के तत्त्वों को संयोजित करने का उनका प्रयास विधिक रूप से अस्थिर है, क्योंकि प्रत्येक चिह्न का मूल्यांकन स्वतंत्र रूप से किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 की धारा 17(1) केवल रजिस्ट्रीकृत चिह्नों के संबंध में ही अनन्य अधिकार प्रदान करती है, जबकि धारा 17(2) सामान्य या गैर-विशिष्ट तत्त्वों के लिये संरक्षण को बाहर करती है, जब तक कि उन्होंने द्वितीयक अर्थ प्राप्त न कर लिया हो, और अपीलकर्त्ता ऐसी विशिष्टता प्रदर्शित करने में विफल रहे।
- न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्त्ताओं द्वारा "Royal Challenger American Pride" में यूनाइटेड स्पिरिट्स द्वारा 'Pride' शब्द के प्रयोग को दी गई पूर्व असफल चुनौती से यह सिद्ध हो गया कि उनके पास 'Pride' शब्द के लिये कोई स्वतंत्र रजिस्ट्रीकरण नहीं था, अपितु केवल संयुक्त चिह्न 'Blenders Pride' के लिये रजिस्ट्रीकरण था, जिससे उनका वर्तमान प्रयत्न विधि और समता के स्थापित सिद्धांतों के विपरीत है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि शराब उद्योग में, जहाँ विज्ञापन पर अत्यधिक प्रतिबंध है, ब्रांड की पहचान मुख्य रूप से पैकेजिंग और उपभोक्ता निष्ठा पर निर्भर करती है, और जब तक नकल जानबूझकर और गुमराह करने के आशय से न की गई हो, तब तक भ्रम की संभावना न्यूनतम होती है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ता प्रथम दृष्टया भ्रामक समानता का मामला स्थापित करने में असफल रहे, जो अंतरिम व्यादेश देने को उचित ठहरा सके, तथा एक सामान्य शब्द के साझा उपयोग के अतिरिक्त चिह्नों के बीच कोई सार्थक समानता नहीं पाई गई।
अंतरिम व्यादेश प्रदान करने के लिये लागू मानदंड क्या हैं?
- गंभीर विचारणीय प्रश्न/विचारण योग्य विवाद्यक: वादी को विचारण के लिये उपयुक्त एक वास्तविक और सारवान प्रश्न प्रदर्शित करना होगा, तथा यह स्थापित करना होगा कि दावा तुच्छ, परेशान करने वाला या काल्पनिक से अधिक है, यद्यपि मध्यस्थ स्तर पर सफलता की संभावना स्थापित करना आवश्यक नहीं है।
- भ्रम/धोखे की संभावना: न्यायालय मामले की प्रथम दृष्टया मजबूती और उपभोक्ता के भ्रम या धोखे की संभावना का आकलन मध्यस्थता स्तर पर कर सकते हैं, और जहाँ भ्रम की संभावना कमजोर या काल्पनिक है, वहाँ गुण-दोष के विस्तृत विश्लेषण की आवश्यकता न होते हुए भी अंतरिम अनुतोष को सीमा पर अस्वीकार किया जा सकता है।
- सुविधा का संतुलन: न्यायालय को उस असुविधा या हानि का आकलन करना चाहिये जो व्यादेश देने या अस्वीकार करने से किसी भी पक्षकार को हो सकती है, तथा यदि व्यादेश अस्वीकार करने से वादी की साख को अपूरणीय क्षति होने की संभावना हो या बाजार में उपभोक्ता भ्रमित हो जाएं तो संतुलन वादी के पक्ष में होना चाहिये।
- अपूरणीय क्षति: जहाँ प्रतिवादी द्वारा विवादित चिह्न के उपयोग से वादी की ब्रांड पहचान कमजोर हो सकती है, उपभोक्ता सद्भावना की हानि हो सकती है, या सार्वजनिक धोखा हो सकता है - ऐसी क्षति, जिसका आकलन करना स्वाभाविक रूप से कठिन है – वहाँ क्षतिपूर्ति का उपाय अपर्याप्त हो सकता है और अपूरणीय क्षति का अस्तित्व माना जा सकता है।
- लोक हित: लोक स्वास्थ्य, सुरक्षा या व्यापक रूप से उपभोग की जाने वाली वस्तुओं से संबंधित मामलों में, न्यायालय इस बात पर विचार कर सकते हैं कि क्या लोक हित में बाजार में भ्रम या धोखाधड़ी को रोकने के लिये व्यादेश अनुतोष की आवश्यकता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि उपभोक्ता संरक्षण सर्वोपरि बना रहे।
- संचयी अनुप्रयोग: व्यापार चिह्न मामलों में अंतरिम व्यादेश प्रदान करने के लिये न्यायालयों को इन कई परस्पर संबंधित कारकों पर संचयी रूप से विचार करने की आवश्यकता होती है, जहाँ प्रथम दृष्टया मामला, भ्रम की संभावना, पक्षकारों के दावों के सापेक्ष गुण, सुविधा का संतुलन, अपूरणीय क्षति का जोखिम और लोक हित एक साथ काम करते हैं।
- इंकार की सीमा: इन आवश्यक मानदंडों में से किसी एक का अभाव अंतरिम अनुतोष को अस्वीकार करने के लिये पर्याप्त आधार हो सकता है, क्योंकि ये विचार व्यादेश अनुतोष प्रदान करने की उपयुक्तता का निर्धारण करने के लिये स्वतंत्र रूप से नहीं अपितु संयोजन में काम करते हैं।
- न्यायसंगत सिद्धांत: व्यादेश का प्रावधान न्यायसंगत सिद्धांतों द्वारा शासित होता है तथा यह स्वामित्व अधिकारों पर लागू सामान्य ढाँचे के अधीन होता है, जहाँ न्यायालयों को प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार अनुतोष प्रदान करने का विवेकाधिकार प्राप्त होता है।