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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 413
25-Aug-2025
खेम सिंह (मृत) विधिक प्रतिनिधियों (LRS) बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड राज्य) और अन्य इत्यादि “पीड़ित के विधिक उत्तराधिकारी दण्ड प्रक्रिया संहित की धारा 372 के अधीन दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध अपील जारी रख सकते हैं, क्योंकि उन्हें इस अधिकार से वंचित करना उपबंध के मूल उद्देश्य को ही विफल कर देगा।” न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने ने निर्णय दिया कि यदि पीड़ित की मृत्यु मामले के लंबित रहने के दौरान हो जाती है, तो पीड़ित के विधिक उत्तराधिकारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 372 के अधीन दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध दायर अपील को आगे बढ़ा सकते हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अपील का अधिकार निरर्थक न हो।
- उच्चतम न्यायालय ने खेम सिंह (मृत) विधिक प्रतिनिधियों (LRS) बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड राज्य) एवं अन्य इत्यादि (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
खेम सिंह (मृत) विधिक प्रतिनिधियों (LRS) बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड राज्य) एवं अन्य इत्यादि (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 8 दिसंबर 1992 को हरिद्वार जिले में लंबे समय से दुश्मनी रखने वाले विरोधी गुटों के बीच तीखी नोकझोंक हुई । अगले दिन, 9 दिसंबर 1992 को, लगभग 8:00 बजे, आग्नेयास्त्रों, धारदार हथियारों और ईंटों से एक हिंसक सशस्त्र हमला हुआ।
- परिवादकर्त्ता तारा चंद, उनके भाई वीरेंद्र सिंह और पुत्र खेम सिंह पर कई अभियुक्तों ने हमला किया। हमले के दौरान वीरेंद्र सिंह को गंभीर चोटें आईं और उनकी मृत्यु हो गई। तारा चंद और उनके पुत्र खेम सिंह दोनों को गंभीर चोटें आईं, किंतु वे बच गए।
- अभियोजन पक्ष ने तीन मुख्य अभियुक्तों पर अलग-अलग भूमिकाएँ आरोपित कीं। अभियुक्त संख्या 2 अशोक ने वीरेंद्र सिंह पर बंदूक से गोली चलाई। अभियुक्त संख्या 3 प्रमोद ने खेम सिंह पर बंदूक से गोली चलाई। अभियुक्त संख्या 4 अनिल उर्फ नीलू ने खेम सिंह की पत्नी श्रीमती मिथिलेश पर गोली चलाई।
- तारा चंद के परिवाद के आधार पर, 9 दिसंबर, 1992 को थाना ज्वालापुर, जिला हरिद्वार में मुकदमा अपराध संख्या 547/92 दर्ज किया गया। तीनों अभियुक्तों पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 148, 452, 302, 307, 149 और 326 सहित कई धाराओं के अधीन आरोप लगाए गए।
- सत्र परीक्षण संख्या 133/1993 अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, हरिद्वार के समक्ष चलाया गया।
- सेशन न्यायालय ने 2-4 अगस्त 2004 को निर्णय सुनाया, जिसमें तीनों अभियुक्तों को दोषसिद्ध ठहराया गया और उन्हें अतिरिक्त कठोर कारावास और जुर्माने के साथ आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया।
- दोषसिद्ध ठहराए गए अभियुक्तों ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल में आपराधिक अपील दायर की। उच्च न्यायालय ने 12 सितंबर, 2012 को अपने सामान्य निर्णय के माध्यम से सभी अपीलों को स्वीकार कर लिया और सेशन न्यायालय के निर्णय को पूरी तरह से पलटते हुए तीनों प्रत्यर्थियों-अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया।
- घायल पीड़ित खेम सिंह ने उच्च न्यायालय के दोषमुक्त करने के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिकाएँ दायर कीं। 6 जुलाई, 2017 को अनुमति प्रदान कर दी गई और याचिकाओं को आपराधिक अपील में परिवर्तित कर दिया गया।
- मामले के लंबित रहने के दौरान, खेम सिंह की मृत्यु हो गई, और उनके पुत्र राज कुमार ने अपीलों का अभियोजन जारी रखने के लिये विधिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रतिस्थापन के लिये आवेदन किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- पीड़ित का अपील का अधिकार:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में 2009 के संशोधनों, विशेष रूप से धारा 372 के प्रावधान और धारा 2(बक) के अधीन "पीड़ित" की परिभाषा ने पीड़ितों को दोषमुक्त होने, कम दण्ड या अपर्याप्त प्रतिकर के विरुद्ध अपील करने का एक स्वतंत्र सांविधिक अधिकार प्रदान किया है। यह अधिकार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 378(4) के अधीन परिवादकर्त्ताओं के विपरीत, उच्च न्यायालय से विशेष अनुमति की आवश्यकता के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करता है।
- अपील अधिकारों का निर्वचन:
- न्यायालय ने कहा कि "अपील करने के अधिकार" में केवल अपील दायर करना ही नहीं, अपितु "अपील पर अभियोजन का अधिकार" भी सम्मिलित है। इसे केवल अपील दायर करने तक सीमित करने से यह प्रावधान निरर्थक हो जाएगा और आपराधिक न्याय में पीड़ितों के अधिकारों को मज़बूत करने का संसदीय आशय विफल हो जाएगा।
- विधिक उत्तराधिकारी के निरंतरता अधिकार:
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि अपील लंबित रहने के दौरान पीड़ित-अपीलकर्त्ता की मृत्यु हो जाती है, तो उनके विधिक उत्तराधिकारी अपील पर अभियोजन जारी रख सकते हैं। यह "पीड़ित" की समावेशी परिभाषा से स्पष्ट है, जिसमें स्पष्ट रूप से विधिक उत्तराधिकारी सम्मिलित हैं। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 394 के अधीन उपशमन उपबंध मुख्य रूप से अभियुक्तों द्वारा दायर अपीलों पर लागू होते हैं, पीड़ितों की अपीलों पर नहीं।
- उच्च न्यायालय के निर्णय की आलोचना:
- न्यायालय ने आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय "गूढ़" था और उसमें तर्कपूर्ण विश्लेषण का अभाव था। तथापि निर्णयों का लंबा होना आवश्यक नहीं है, किंतु उनमें महत्त्वपूर्ण साक्ष्यों के उचित न्यायिक अनुप्रयोग को प्रतिबिंबित करना चाहिये और पर्याप्त तर्क प्रदान करना चाहिये। अपील न्यायालयों को स्वतंत्र रूप से साक्ष्यों का मूल्यांकन करना चाहिये और यह आकलन करना चाहिये कि क्या अपराध युक्तियुक्त संदेह से परे साबित होता है।
- प्रतिप्रेषण (रिमांड) आदेश
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को केवल अपर्याप्त तर्क के आधार पर अपास्त कर दिया, तथा मामले के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं की, तथा मामले को 1992 का होने के कारण शीघ्र निपटाने के निदेश देते हुए इसे नए सिरे से विचार के लिये वापस भेज दिया।
- न्यायालय ने स्थापित किया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता संशोधनों के अधीन पीड़ितों के अपील अधिकार मौलिक अधिकार हैं, जिन्हें विधिक उत्तराधिकारियों द्वारा विरासत में प्राप्त किया जा सकता है और उन पर अभियोजन चलाया जा सकता है, जिससे कार्यवाही के दौरान मूल पीड़ित की मृत्यु के बाद भी न्याय तक सार्थक पहुँच सुनिश्चित होती है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 413 क्या है?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 413 ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 372 का प्रतिस्थापन किया है, और उसी विधिक ढाँचे और सिद्धांतों को बरकरार रखती है। इस उपबंध को पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता से नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में समान भाषा और आशय के साथ आगे बढ़ाया गया है।
- अपील पर सामान्य प्रतिबंध:
- यह धारा यह स्थापित करती है कि आपराधिक न्यायालय के निर्णयों या आदेशों के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती, सिवाय इसके कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता या अन्य विधियों द्वारा विशेष रूप से उपबंध किया गया हो। यह न्यायिक पदानुक्रम को बनाए रखते हुए अनधिकृत अपीलों को रोकने के लिये एक प्रतिबंधात्मक मार्ग बनाता है।
- पीड़ित का स्वतंत्र अपील अधिकार:
- यह उपबंध पीड़ितों को तीन परिदृश्यों के विरुद्ध अपील करने का स्वायत्त अधिकार प्रदान करता है:
- अभियुक्तों को पूर्णतः दोषमुक्त किया जाना
- मूलतः आरोपित अपराधों से कम अपराधों के लिये दोषसिद्धि
- अपर्याप्त प्रतिकर लागू करना
- अपीलीय अधिकारिता:
- पीड़ितों की अपील उन न्यायालयों में की जाती हैं जो सामान्यत: दोषसिद्धि के आदेशों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करती हैं, और स्थापित अपील का पदानुक्रम को बनाए रखती हैं। इससे फोरम शॉपिंग को रोका जा सकता है और पीड़ितों के परिवादों की उचित न्यायिक समीक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।
- यह धारा राज्य-केंद्रित अभियोजन से पीड़ित-सहभागी मॉडल की ओर विकास को दर्शाती है, जिसमें पीड़ितों को प्राथमिक हितधारकों के रूप में मान्यता दी गई है, जो केवल साक्षी की स्थिति से परे स्वतंत्र अपीलीय अधिकारों के हकदार हैं।
- प्रक्रियात्मक ढाँचा:
- यह उपबंध पीड़ितों की अपीलों को विशेष तंत्र बनाने के बजाय स्थापित अपील न्यायालयों के माध्यम से प्रवाहित करके प्रक्रियात्मक अखंडता बनाए रखता है। यह न्यायिक विशेषज्ञता सुनिश्चित करते हुए न्याय तक पहुँच का विस्तार करता है।
- धारा 413 न्याय तक पहुँच और समान संरक्षण के सांविधानिक सिद्धांतों के अनुरूप है, तथा यह स्वीकार करती है कि अपीलीय संरक्षण तंत्र की आवश्यकता वाली आपराधिक कार्यवाहियों में पीड़ितों का वैध हित है।
- जबकि राज्य के पास अन्य प्रावधानों के अधीन अलग अपीलीय शक्तियां हैं, धारा 413 के अधीन पीड़ितों के अधिकार स्वतंत्र रूप से संचालित होते हैं। पीड़ितों को राज्य की कार्रवाई का इंतज़ार नहीं करना पड़ता और वे असंतोषजनक न्यायिक नतीजों को सीधे चुनौती दे सकते हैं।
- यह धारा पीड़ितों को अपीलीय समीक्षा की मांग करने का अधिकार देती है, जब विचारण न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करने, आरोपों में कमी करने या अपर्याप्त प्रतिकर के माध्यम से उनकी पीड़ा को पर्याप्त रूप से दूर करने में असफल रहती हैं, जिससे आपराधिक न्याय प्रक्रिया में सार्थक भागीदारी सुनिश्चित होती है।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 41 नियम 27
25-Aug-2025
इकबाल अहमद (मृत) एल.आर.एस. एवं अन्य बनाम अब्दुल शुकूर “सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 27 के अधीन अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति केवल तभी दी जा सकती है जब वह आवश्यक अभिवचनों द्वारा समर्थित हो; ऐसे अभिवचनों के बिना, साक्ष्य विसंगत और अग्राह्य है।” न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और ए.एस. चंदुरकर |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर की पीठ ने निर्णय दिया कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) आदेश 41 नियम 27 के अधीन अधीन अपीलीय चरण में अतिरिक्त साक्ष्य पेश नहीं किये जा सकते हैं यदि वे अभिवचनों के साथ असंगत हैं, और इस निर्णय ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया, जिसमें अभिवचनों की परीक्षा किये बिना ऐसे साक्ष्य को स्वीकार किया गया था।
उच्चतम न्यायालय ने इकबाल अहमद (मृत) एल.आर.एस. एवं अन्य बनाम अब्दुल शुकूर ( 2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
इकबाल अहमद (मृत) एल.आर.एस. एवं अन्य बनाम अब्दुल शुकूर ( 2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- फरवरी 1995 में, प्रत्यर्थी-प्रतिवादी ने बैंगलोर स्थित अपनी आवासीय संपत्ति अपीलकर्त्ता-वादी को ₹10,67,000 में बेचने का करार किया। वादी ने अग्रिम राशि के रूप में दो किश्तों में ₹5,00,000 का संदाय किया, और करार में डेढ़ वर्ष के भीतर काम पूरा करने की शर्त रखी गई।
- वादी के मामले का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने बेन्सन टाउन में अपनी मूल्यवान अचल संपत्ति बेचकर, वाद वाली संपत्ति खरीदने के लिये धन की व्यवस्था की थी, जिसकी उन्हें अपने वास्तविक कब्जे के लिये आवश्यकता थी।
- जब प्रतिवादी अप्रैल और जुलाई 1996 में विधिक नोटिस के बावजूद विक्रय विलेख निष्पादित करने में असफल रहा, तो वादी ने विनिर्दिष्ट पालन के लिये एक वाद दायर किया। प्रतिवादी ने करार के अस्तित्व से इंकार करते हुए तर्क दिया कि उसने वादी से केवल कारबार विस्तार के लिये ₹1,00,000 उधार लिये थे और उसके हस्ताक्षर कोरे स्टाम्प पेपर पर लिये गए थे। गौरतलब है कि अपने लिखित कथन के पैराग्राफ 11 में, प्रतिवादी ने कहा कि यह "उसकी जानकारी में नहीं" था कि वादी ने अपनी बेन्सन टाउन संपत्तियाँ बेची थीं या नहीं।
- विचारण न्यायालय ने दोनों पक्षकारों के साक्ष्य की परीक्षा करने के बाद फरवरी 2000 में वादी के पक्ष में निर्णय सुनाया, जिसमें पाया गया कि करार साबित हो गया था और वादी ने अपने दायित्त्वों को पूरा करने के लिये तत्परता और इच्छा प्रदर्शित की थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और मामले को नए सिरे से विचार के लिये वापस भेज दिया, तथा निदेश दिया कि अपील और अतिरिक्त साक्ष्य के लिये आवेदन, दोनों पर स्थापित विधिक सिद्धांतों के अनुसार पुनर्विचार किया जाए।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अपील न्यायालयों को प्रक्रियागत निष्पक्षता और विधिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति देने से पहले अनिवार्य रूप से याचिकाओं की परीक्षा करनी चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति अतुल एस. चंदुरकर के माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक विवाद्यक की पहचान की: क्या अपीलीय न्यायालयों को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 41 नियम 27(1) के अधीन अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति देने से पहले अभिवचनों की परीक्षा करनी चाहिये।
- अपील के दौरान, प्रतिवादी ने संपत्ति अभिलेख सहित अतिरिक्त दस्तावेज़ी साक्ष्य प्रस्तुत करने की मांग की, तथा दावा किया कि उसने पाया कि वादी ने वास्तव में अपनी बेन्सन टाउन संपत्तियाँ कभी नहीं बेची थीं।
- उच्च न्यायालय ने इस साक्ष्य को स्वीकार कर लिया तथा इन नए दस्तावेज़ों के आधार पर विचारण न्यायालय के निर्णय को पलट दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण में एक बुनियादी खामी देखी। प्रतिवादी ने शुरू में संपत्ति की बिक्री के बारे में केवल "कोई जानकारी नहीं" का तर्क दिया था, किंतु अब वह सकारात्मक रूप से यह साबित करने की कोशिश कर रहा था कि कोई बिक्री हुई ही नहीं थी। इससे अपीलीय स्तर पर एक नया बचाव खड़ा हो गया, जिसका उसके मूल अभिवचनों द्वारा कोई समर्थन नहीं किया गया था।
- न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण विधिक सिद्धांत स्थापित किया: "इस बात पर विचार करने से पहले कि क्या कोई पक्षकार संहिता के आदेश 41 नियम 27(1) के अधीन अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने का हकदार है, सबसे पहले ऐसे पक्षकार के अभिवचनों की परीक्षा करना आवश्यक होगा जिससे यह पता लगाया जा सके कि क्या स्थापित किये जाने वाले मामले में अतिरिक्त साक्ष्य का समर्थन करने के लिये अभिवचन दिया गया है।"
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उचित अभिवचन समर्थन के बिना अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति देना इस प्रक्रिया को निरर्थक बना देगा, क्योंकि ऐसे साक्ष्य पर विधिक रूप से विचार नहीं किया जा सकता है, यदि वह पक्षकार के अभिवचन वाले मामले के विपरीत हो या उससे परे हो।
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 41 नियम 27 क्या है?
- सामान्य निषेध:
- अपील के पक्षकारों को अधिकार के रूप में अपीलीय न्यायालय में अतिरिक्त साक्ष्य, चाहे मौखिक हो या दस्तावेज़ी, प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है।
- स्वीकृति के लिये असाधारण परिस्थितियाँ:
- अपीलीय न्यायालय द्वारा निम्नलिखित विनिर्दिष्ट परिस्थितियों में अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति दी जा सकती है:
- खण्ड (क): जहाँ वह न्यायालय जिसके निर्णय के विरूद्ध अपील की गई है, ने ऐसे साक्ष्य को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है जिसे विचारण कार्यवाही के दौरान स्वीकार किया जाना चाहिये था।
- खण्ड (कक): जहाँ अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की मांग करने वाला पक्षकार यह स्थापित करता है कि सम्यक् तत्परता का प्रयोग करने के बावजूद, ऐसा साक्ष्य उसके ज्ञान में नहीं था या सम्यक् तत्परता बरतने के बाद, उसके द्वारा उस समय प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था जब अपील की गई डिक्री पारित की गई थी।
- खण्ड (ख) : जहाँ अपीलीय न्यायालय को निर्णय सुनाने के लिये, या किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कारण से, किसी दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने या किसी साक्षी से पूछताछ करने की आवश्यकता होती है।
- अपीलीय न्यायालय द्वारा निम्नलिखित विनिर्दिष्ट परिस्थितियों में अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति दी जा सकती है:
- विवेकाधीन शक्ति:
- यह प्रावधान अपीलीय न्यायालय को विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है कि वह ऐसे साक्ष्य या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने या साक्षी की परीक्षा करने की अनुमति दे, बशर्ते कि वह संतुष्ट हो जाए कि खण्ड (क), (कक) या (ख) के अधीन विहित शर्तों में से कोई भी शर्त पूरी हो गई है।
- अनिवार्य अभिलेखबद्ध की आवश्यकता:
- उप-नियम (2) में यह अधिदेश दिया गया है कि जहाँ कहीं भी अपील न्यायालय द्वारा अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाती है, तो न्यायालय उसकी स्वीकृति का कारण लेखबद्ध करेगा, जिससे इस विवेकाधीन शक्ति के प्रयोग में न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित होगी।
- विधायी आशय:
- यह उपबंध अधीनस्थ न्यायालय की कार्यवाही की अंतिमता और न्याय सुनिश्चित करने के अपील न्यायालय के कर्त्तव्य के बीच संतुलन स्थापित करता है, साथ ही पक्षकारों को विचारण के दौरान साक्ष्य को रोककर रखने से रोकता है, जिससे वे अपील के दौरान उसे रणनीतिक रूप से प्रस्तुत कर सकें।
- यह नियम यह सुनिश्चित करता है कि अपील की कार्यवाही उचित विचारण के संचालन का विकल्प न बने तथा पक्षकार उचित स्तर पर अपना मामला प्रस्तुत करने में समुचित सावधानी बरतें।
- प्रक्रियात्मक सुरक्षा:
- खण्ड (कक) के अधीन सम्यक् तत्परता स्थापित करने की आवश्यकता प्रावधान के दुरुपयोग को रोकती है और यह सुनिश्चित करती है कि अपील के चरण में केवल वास्तव में अनुपलब्ध साक्ष्य की ही अनुमति दी जाए।
- खण्ड (ख) के अंतर्गत "पर्याप्त कारण" मानदंड अपील न्यायालयों को विवादों के उचित निर्णय के लिये आवश्यक साक्ष्य को स्वीकार करने के लिये लचीलापन प्रदान करता है, जबकि परिभाषित मापदंडों के भीतर न्यायिक विवेक को बनाए रखा जाता है।
पारिवारिक कानून
वैवाहिक इतिहास का दुर्व्यपदेशन
25-Aug-2025
एक्स. बनाम वाई. “दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘कभी विवाह न किया हो’ (Never Married) और ‘अविवाहित’ (Unmarried) स्थिति के मध्य भेद स्पष्ट करते हुए यह प्रतिपादित किया कि वैवाहिक इतिहास से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों का प्रकटीकरण किया जाना आवश्यक है, जिससे वैवाहिक सहमति विधिसम्मत रूप से और पूर्ण जानकारी के आधार पर प्रदान की जा सके।” न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और हरीश वैद्यनाथन शंकर |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने एक्स. बनाम वाई. मामले में विवाह को अकृत करने को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया और इस बात पर बल दिया कि पूर्व विवाह और आय संबंधी दुर्व्यपदेशन जैसे महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाना हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधीन कपट माना जाता है। यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12 के अधीन बाद में होने वाले विवाह को शून्यकरणीय घोषित करता है।
एक्स. बनाम वाई. (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पक्षकारों के मध्य विवाह एक वैवाहिक पोर्टल के माध्यम से निश्चित हुआ, जहाँ अपीलकर्त्ता (पति) ने अपना प्रोफ़ाइल निर्मित किया था।
- उस वैवाहिक प्रोफ़ाइल में अपीलकर्ता ने स्वयं को “Never Married” (कभी विवाह न किया हो) के रूप में प्रस्तुत किया तथा अपनी वार्षिक आय “USD 200K और उससे अधिक” दर्शाई।
- प्रत्यर्थी (पत्नी) ने अपनी प्रोफाइल में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था कि वह ऐसे जीवनसाथी की तलाश कर रही थी जो "कभी विवाहित न हुआ हो"।
- इस प्रोफ़ाइल के आधार पर, प्रत्यर्थी ने अपीलकर्त्ता के विज्ञापन का जवाब दिया और तत्पश्चात् दोनों पक्षकारों का विवाह संपन्न हुआ।
- प्रत्यर्थी को बाद में पता चला कि अपीलकर्त्ता पहले भी विवाहित था और उस विवाह से उसका एक बच्चा भी था।
- यह भी पाया गया कि अपीलकर्त्ता की वास्तविक आय प्रोफ़ाइल में दर्शाई गई आय से बहुत कम थी - 2014 में उसका वास्तविक सकल वेतन 120k-130k USD के बीच था।
- प्रत्यर्थी ने 27 जनवरी 2016 को सी.ए.डब्ल्यू. सेल, प्रशांत विहार, दिल्ली में परिवाद दर्ज कराया, जिसके परिणामस्वरूप 12 मई 2016 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 0401/2016 दर्ज की गई ।
- प्रत्यर्थी ने बाद में 21 अगस्त 2017 को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12(1)(ग) के अधीन विवाह को अकृत करने के लिये याचिका दायर की।
- कुटुंब न्यायालय, रोहिणी (उत्तर) जिला न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और 19 जनवरी 2024 के निर्णय द्वारा विवाह को अकृत कर दिया ।
- पति ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की, जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
" Never Married" और " Unmarried" के बीच अंतर:
- न्यायालय ने इन शब्दों के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर करते हुए कहा कि "कभी विवाहित नहीं (Never Married)" से तात्पर्य आजीवन स्थिति से है, जो किसी भी पूर्व वैवाहिक बंधन से मुक्त है, जबकि "अविवाहित (Unmarried)" शब्द में तलाकशुदा या विधवा/विधुर व्यक्तियों को भी सम्मिलित कर सकता है।
- "कभी विवाहित नहीं" शब्द का अर्थ यह है कि व्यक्ति ने कभी विवाह नहीं किया है और यह "अविवाहित" शब्द से काफी भिन्न है।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता द्वारा "कभी विवाह नहीं किया" की व्याख्या केवल "उस समय विवाहित नहीं था" के रूप में करने के प्रयास को अस्वीकार कर दिया, जब उसने प्रत्यर्थी से विवाह किया था।
महत्त्वपूर्ण तथ्य और परिस्थितियाँ:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किसी पक्षकार की विवाह-पूर्व स्थिति एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है, जिसे विवाह के लिये सहमति देने से पहले दूसरे पक्षकार को अवश्य जानना चाहिये।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12(1)(ग) में "कपट" शब्द किसी भी सामान्य तरीके से कपट की बात नहीं करता है और हर दुर्व्यपदेशन या छिपाव कपटपूर्ण नहीं होगा।
- कपट केवल उसी स्थिति में माना जाएगा जब वह विवाह की प्रकृति अथवा प्रत्यर्थी से संबंधित किसी महत्त्वपूर्ण तथ्य या परिस्थिति से संबद्ध हो।
- न्यायालय ने यह ठहराया कि मासिक आय एवं संपत्ति की स्थिति के संबंध में मिथ्या जानकारी प्रदान करना धारा 12, हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत कपट की परिभाषा में आता है।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के इस बचाव को खारिज कर दिया कि प्रोफ़ाइल उसके माता-पिता द्वारा बनाई गई थी, तथा कहा कि अपीलकर्त्ता यह तर्क नहीं दे सकता कि उसे प्रोफ़ाइल की विषय-वस्तु की जानकारी नहीं थी।
- न्यायालय ने पाया कि ऑनलाइन वैवाहिक पोर्टलों पर वैवाहिक स्थिति के लिये "तलाकशुदा" विकल्प दिया गया है, तथा विवाह से पहले किसी भी समय प्रोफाइल में कोई सुधार नहीं किया गया था।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 क्या है ?
बारे में:
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 में शून्यकरणीय विवाह के लिये उपबंध इस प्रकार है:
- शून्यकरणीय विवाह तब तक वैध रहता है जब तक कि उसे किसी पक्षकार द्वारा अकृत न किया जाए और ऐसा तभी किया जा सकता है जब विवाह के पक्षकारों में से कोई एक इसके लिये याचिका दायर करे।
- यद्यपि, यदि कोई भी पक्षकार विवाह को अकृत करने के लिये याचिका दायर नहीं करता है, तो यह वैध रहेगा।
आधार:
- यदि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के खण्ड (ii) का अनुपालन नहीं किया जाता है तो विवाह शून्यकरणीय हो जाता है।
- धारा 5 के अनुसार - (ii) विवाह के समय, कोई भी पक्षकार –
(क) मानसिक विकृति के कारण विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ है;
(ख) यद्यपि वह विधिमान्य सम्मति देने में सक्षम है, तथापि वह ऐसे प्रकार या सीमा तक मानसिक विकार से ग्रस्त है कि वह विवाह और संतानोत्पत्ति के लिये अयोग्य है; या
(ग) उसे उन्मत्तता का दौरे बार-बार पड़ते रहे हों ।
- धारा 5 के अनुसार - (ii) विवाह के समय, कोई भी पक्षकार –
- धारा 12 में निम्नलिखित आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर विवाह को शून्यकरणीय घोषित किया जा सकता है:
- यदि प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण विवाहोत्तर संभोग नहीं हुआ है।
- यदि विवाह में सम्मिलित कोई भी पक्षकार सम्मति देने में असमर्थ है या उसे बार-बार उन्मत्तता का दौरा पड़ता है।
- यदि याचिकाकर्त्ता की सम्मति या याचिकाकर्त्ता के संरक्षक की सम्मति बलपूर्वक या कपट द्वारा प्राप्त की गई हो।
- यदि प्रत्यर्थी विवाह से पहले याचिकाकर्त्ता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी ।
प्रभाव:
- दोनों पक्षकारों को पति-पत्नी का दर्जा प्राप्त है और उनकी संतान हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 के अनुसार धर्मज माने जाते हैं । पति-पत्नी के अन्य सभी अधिकार और दायित्त्व बरकरार रहते हैं।