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आपराधिक कानून
अग्रिम जमानत और जांच सहयोग
27-Aug-2025
"अंतरिम अग्रिम जमानत संरक्षण को पूर्ण बना दिया गया, यह देखते हुए कि केवल इसलिये कि कोई भी दोषपूर्ण सामग्री नहीं पाई जा सकी, इसका अर्थ यह नहीं होगा कि अभियुक्त की ओर से असहयोग किया जा रहा है।" न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और उज्ज्वल भुइयां |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
जुगराज सिंह बनाम पंजाब राज्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने अंतरिम अग्रिम जमानत संरक्षण को पूर्ण बनाते हुए एक आपराधिक अपील का निपटारा किया।
- न्यायालय ने यह टिप्पणी करते हुए एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित किया कि केवल अपराध सिद्ध करने वाली सामग्री का न मिलना, अभियुक्त की ओर से असहयोग का सूचक नहीं है, साथ ही न्यायालय ने अन्वेषण में सहयोग और साक्षियों के संरक्षण के लिये विनिर्दिष्ट शर्तें भी निर्धारित कीं।
जुगराज सिंह बनाम पंजाब राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह अपील पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय, चंडीगढ़ द्वारा 3 अप्रैल 2025 को पारित आदेश से उत्पन्न हुई, जिसमें अपीलकर्त्ता की अग्रिम जमानत याचिका को खारिज कर दिया गया था।
- यह मामला पुलिस स्टेशन सदर पट्टी, जिला तरनतारन में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 06/2025 से जुड़ा हुआ था।
- अपीलकर्त्ता का मामला यह था कि उसके पास से कोई भी आपत्तिजनक वस्तु बरामद नहीं हुई थी तथा उसे केवल सह-अभियुक्त रशपाल सिंह, जिसके पास से बरामदगी हुई थी, द्वारा दिये गए प्रकटीकरण कथन के आधार पर मिथ्या फंसाया गया था।
- अपीलकर्त्ता को पहले भी एक सह-अभियुक्त के प्रकटीकरण कथन के आधार पर इसी तरह फंसाया गया था, जिसमें उसे अग्रिम जमानत संरक्षण प्रदान किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने 23 जून 2025 को अंतरिम संरक्षण प्रदान किया था, जिसके अधीन अन्वेषण अधिकारी द्वारा बुलाए जाने पर अन्वेषण में शामिल होने पर गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी।
- राज्य ने एक प्रति-शपथपत्र दायर किया जिसमें स्वीकार किया गया कि अपीलकर्त्ता का आरोप सह-अभियुक्त रशपाल सिंह द्वारा दिये गए संस्वीकृत कथन पर आधारित था।
- राज्य ने अन्वेषण में असहयोग का आरोप लगाया क्योंकि अपीलकर्त्ता ने पूछताछ के दौरान बताया कि उसने अपना मोबाइल फोन नदी में फेंक दिया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि अपीलकर्त्ता को जब बुलाया गया तो वह अन्वेषण में सम्मिलित हुआ।
- पीठ ने एक महत्त्वपूर्ण न्यायिक टिप्पणी करते हुए कहा कि "केवल इसलिये कि कोई भी आपत्तिजनक सामग्री नहीं पाई जा सकी, इसका अर्थ यह नहीं है कि अभियुक्त की ओर से असहयोग किया जा रहा है।"
- यह अवलोकन आपराधिक अन्वेषण में असहयोग के निर्वचन के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करता है ।
- राज्य ने पूछताछ के दौरान असहयोग का आरोप लगाया था जब अपीलकर्त्ता ने बताया था कि उसने अपना मोबाइल फोन नदी में फेंक दिया था ।
- तथापि, न्यायालय ने पाया कि प्रति-शपथपत्र में यह नहीं कहा गया कि अपीलकर्त्ता के मोबाइल नंबर का पता लगाने और कॉल विवरण रिकॉर्ड एकत्र करने के लिये कोई प्रयास किया गया था।
- न्यायालय ने इसी प्रकार के आरोपों के पैटर्न पर विचार किया तथा यह भी कहा कि इससे पहले भी अपीलकर्त्ता को सह-अभियुक्तों के कथनों के आधार पर इसी प्रकार अभियुक्त बनाया गया था तथा उसे भी इसी प्रकार का संरक्षण प्रदान किया गया था।
- न्यायालय ने अपील का प्रभावी ढंग से निपटारा करते हुए, विनिर्दिष्ट शर्तों के साथ अंतरिम आदेश को पूर्ण बनाना उचित समझा।
न्यायालय के निदेश:
न्यायालय ने अंतरिम अग्रिम जमानत आदेश को दो विनिर्दिष्ट शर्तों के अधीन पूर्ण बनाते हुए अपील का निपटारा किया :
- शर्त 1: अपीलकर्त्ता अन्वेषण में सहयोग करेगा और अन्वेषण एजेंसी द्वारा अपेक्षित होने पर पूछताछ के लिये उपलब्ध रहेगा।
- शर्त 2: वह संबंधित विचारण न्यायालय की संतुष्टि के लिये जमानत बंधपत्र प्रस्तुत करेगा और साथ ही यह वचन भी देगा कि वह साक्षियों को धमकी नहीं देगा या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा।
अग्रिम जमानत क्या है?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 482 में अग्रिम जमानत का उपबंध है, जिसके अधीन किसी व्यक्ति को अजमानतीय अपराध के लिये गिरफ्तारी की आशंका होने पर वह गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के लिये उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
- 1 जुलाई, 2024 को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के प्रभावी होने पर यह उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438 के स्थान पर प्रतिस्थापित होगा।
- धारा 482(2) के अधीन न्यायालय पुलिस पूछताछ के लिये अनिवार्य उपलब्धता, साक्षियों को प्रभावित करने पर प्रतिबंध और न्यायालय की अनुमति के बिना भारत छोड़ने पर प्रतिबंध सहित शर्तें अधिरोपित कर सकता हैं।
- अग्रिम जमानत की अवधारणा 41वें विधि आयोग की प्रतिवेदन रिपोर्ट से विकसित हुई, जिसमें यह आवश्यकता प्रतिपादित की गई थी कि व्यक्तियों को मिथ्या आरोप एवं निराधार निरुद्ध से होने वाली अपमानजनक स्थिति से संरक्षण प्रदान किया जाए।
- जबकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 अग्रिम जमानत के लिये आवश्यक ढाँचे को बरकरार रखती है, यह उन कारकों को छोड़ देती है जिन पर न्यायालयों को पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन विचार करना आवश्यक था।
- पूर्व धारा 438 के खण्ड (1क) और (1ख), जिनमें लैंगिक अपराधों के संबंध में विशेष उपबंध थे, को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की रूपरेखा में हटा दिया गया है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता के मूल उपबंध से खण्ड (2), (3) और (4) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 में उसी रूप में बनाए रखा गया है।
- धारा 482(3) के अधीन, यदि अग्रिम जमानत प्राप्त व्यक्ति को बिना वारण्ट के गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा; और यदि मजिस्ट्रेट वारण्ट जारी करने का निर्णय लेता है, तो यह न्यायालय के निदेश के अनुरूप जमानतीय वारण्ट होना चाहिये।
आपराधिक कानून
साक्षी कठघरे में उपस्थित होने में असफलता
27-Aug-2025
"सिविल कार्यवाहियों में, विशेष रूप से जहाँ तथ्य केवल पक्षकार के व्यक्तिगत ज्ञान में ही निहित हों, साक्षी के कठघरे में आने से इंकार करने के गंभीर साक्ष्य संबंधी परिणाम हो सकते हैं।" न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा ने यह प्रतिपादित किया कि सिविल मामलों में यदि कोई पक्षकार अपने व्यक्तिगत ज्ञान से संबंधित तथ्यों पर साक्ष्य देने से इंकार करता है, तो इससे गंभीर साक्ष्यगत परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। यह अवलोकन संपत्ति विवाद की सुनवाई के दौरान किया गया, जिसमें दावे पूर्ववर्ती विवाह की वैधता पर आधारित थे।
- उच्चतम न्यायालय ने चौडम्मा (मृत) बाय एल.आर. एवं अन्य बनाम वेंकटप्पा (मृत) बाय एल.आर. एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
चौडम्मा (मृत) विधिक प्रतिनिधि और अन्य बनाम वेंकटप्पा (मृत) विधिक प्रतिनिधि और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यह विवाद पैतृक संपत्ति के दो दावेदारों के बीच उत्पन्न हुआ था। वादी दो व्यक्ति थे जो अपनी दिवंगत माँ, भीमक्का (जिन्हें सत्यक्का भी कहा जाता है) के माध्यम से उत्तराधिकार का दावा कर रहे थे। प्रतिवादी चौडम्मा (प्रतिवादी संख्या 1) और उसका पुत्र (प्रतिवादी संख्या 2) थे, जिन्होंने वादी के दावों का विरोध किया।
- विवादित संपत्तियों में विशिष्ट सर्वेक्षण संख्या (39/1B, 149, 41/lP, 37/1, 37/lA, and 29/9) वाली कृषि भूमि और होसदुर्गा तालुका के देवीगेरे और कल्लाहल्ली गाँवों में स्थित एक आवासीय मकान (संख्या 38) शामिल था। ये संपत्तियाँ पैतृक प्रकृति की थीं, जो थिम्माबोवी वेल्लप्पा नामक व्यक्ति के वंशज थे।
- मूल विवाद मृतक दासबोवी (जिसे दासप्पा के नाम से भी जाना जाता है) की प्रथम विवाह की वैधता स्थापित करने पर केंद्रित था।
- वादीगण ने तर्क दिया कि उनकी माँ, भीमक्का, दासबोवी की विधिपूर्वक विवाहित पहली पत्नी थीं, जिससे उन्हें पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ। इसके विपरीत, प्रतिवादी संख्या 1 (चौदम्मा) ने दावा किया कि वह मृतक दासबोवी की एकमात्र वैध पत्नी थीं, इस प्रकार उन्होंने पैतृक संपत्ति में किसी भी अंश के लिये वादीगण के अधिकार को चुनौती दी।
- वादी के मामले के अनुसार, दासबोवी ने शुरू में उनकी माता भीमक्का से पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया था।
- यह दंपत्ति गलीरंगैयाहट्टी में साथ रहता था, जहाँ वादी का जन्म हुआ था। इसके बाद, दासबोवी ने चौडम्मा के साथ संबंध बनाए और उसे दूसरी पत्नी के रूप में अपने घर में ले आया।
- इस घटना के परिणामस्वरूप कथित तौर पर प्रथम पत्नी और उसके बच्चों को विस्थापित होना पड़ा, तथा उन्हें अंतरगंगे गाँव में भीमक्का के पैतृक घर में स्थानांतरित होना पड़ा।
- कथित प्रथम विवाह के औपचारिक दस्तावेज़ी सबूत के अभाव के कारण मामले में साक्ष्य संबंधी महत्त्वपूर्ण जटिलताएँ उत्पन्न हुईं।
- वादी मुख्यतः मौखिक परिसाक्ष्य पर निर्भर थे, खासकर हनुमंथप्पा (PW-2) की, जिसने विवाह और पारिवारिक संबंधों की व्यक्तिगत जानकारी होने का दावा किया था। प्रतिवादियों ने इस साक्ष्य का खंडन किया और राजस्व अभिलेखों का हवाला दिया, जिसमें दासबोवी के साथ केवल चौडम्मा का नाम दिखाया गया था।
- वादीगण ने शुरू में पारिवारिक संपत्ति में अपना आधा अंश पाने के लिये बँटवारे का वाद दायर किया था। विचारण न्यायालय ने दासबोवी और उनकी माता के बीच कथित विवाह के पर्याप्त सबूत न पाकर उनका वाद खारिज कर दिया। इसके पश्चात् वादीगण ने उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए वाद का निर्णय उनके पक्ष में सुनाया। इसके बाद प्रतिवादियों ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि जब तथ्य केवल किसी पक्षकार के व्यक्तिगत ज्ञान में ही हों, तो साक्षी के कठघरे में न आने के गंभीर साक्ष्य संबंधी परिणाम हो सकते हैं। सिविल कार्यवाहियों में, ऐसे मामलों में परिसाक्ष्य देने से इंकार करना न्यायिक जाँच से जानबूझकर बचने के समान है।
- न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी संख्या 1 का साक्षी कठघरा से अनुपस्थिति प्रक्रियागत चूक नहीं थी, अपितु जानबूझकर की गई वापसी थी। अन्य साक्षियों की परीक्षा के दौरान शारीरिक रूप से उपस्थित होने के बावजूद, साक्ष्य देने में उसकी विफलता साक्ष्य अधिनियम की धारा 114(छ) के अधीन प्रतिकूल उपधारणा को आकर्षित करती है।
- न्यायालय ने गठिया (Arthritis) के बचाव को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि प्रतिवादी संख्या 1 वाद की कार्यवाही के दौरान कई बार न्यायालय में उपस्थित हुई थी। न्यायालय में उपस्थित होने की उसकी क्षमता, परिसाक्ष्य देने में चिकित्सीय अक्षमता के दावों को खारिज करती है।
- न्यायालय ने PW -2 की परिसाक्ष्य को विश्वसनीय माना, क्योंकि यह व्यक्तिगत ज्ञान और दीर्घकालिक परिचय पर आधारित था। उसका साक्ष्य प्रतिपरीक्षा में खरा उतरा और वंशावली चार्ट से भी उसकी पुष्टि हुई।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वादीगण ने नपे-तुले परिसाक्ष्य के माध्यम से अपना मामला सफलतापूर्वक स्थापित किया। साक्ष्य सामग्री से वंचित प्रतिवादियों ने केवल खंडन पर विश्वास किया। संभावनाओं की प्रबलता के आधार पर, तराजू वादीगण के पक्ष में झुक गया।
- न्यायालय ने दोहराया कि यदि कोई पक्षकार शपथ लेकर अपना पक्ष रखने के लिये कटघरे में उपस्थित नहीं होता है, तो यह उपधारणा की जाती है कि उसका मामला गलत है। जहाँ प्रकटीकरण का कर्त्तव्य हो, वहाँ न्यायालय सोची-समझी चुप्पी का सहारा नहीं ले सकता।
साक्षी कठघरा (Witness Box) में प्रवेश करने में विफलता क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114(छ): न्यायालय किसी भी तथ्य के अस्तित्व की उपधारणा कर सकता है, जिसके बारे में वह सोचता है कि वह घटित हुआ है, विशेष मामले के तथ्यों के संबंध में प्राकृतिक घटनाओं, मानवीय आचरण और लोक और निजी कारबार के सामान्य अनुक्रम को ध्यान में रखते हुए।
- यह उपबंध अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के 119 के अधीन समाहित किया गया है।
- दृष्टांत (छ) में स्पष्ट रूप से कहा गया है: "यदि वह साक्ष्य जो पेश किया जा सकता था और पेश नहीं किया गया है , पेश किया जाता तो उस व्यक्ति के अनुकूल होता जो उसका विधारण किये हुए है।"
- जब किसी पक्षकार को महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अनन्य व्यक्तिगत ज्ञान होता है और वह जानबूझकर साक्षी कठघरे में जाने से परहेज करता है, तो न्यायालय धारा 114(छ) के अधीन प्रतिकूल निष्कर्ष निकालती हैं। यह उपधारणा की जाती है कि रोका गया साक्ष्य, उसे रोकने वाले पक्ष के लिये प्रतिकूल होगा।
- न्यायिक पूर्ण निर्णय - विद्याधर बनाम माणिकराव (1999): उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि जहाँ वाद का कोई पक्षकार शपथ पर अपना मामला बताने के लिये साक्षी कठघरे में उपस्थित नहीं होता है और विरोधी पक्षकार द्वारा प्रतिपरीक्षा के लिये स्वयं को पेश नहीं करता है, तो यह उपधारणा की जाती है कि उनके द्वारा स्थापित मामला सही नहीं है।
- परिसाक्ष्य न देने से साक्ष्य संबंधी भार प्रतिकूल रूप से स्थानांतरित हो जाता है। यद्यपि अपना मामला साबित करने का प्रारंभिक भार वादी पर होता है, किंतु प्रथम दृष्टया साबित हो जाने पर, खंडन करने का भार प्रतिवादी पर आ जाता है। अनन्य ज्ञान होने पर भी साक्षी कठघरे में उपस्थित न होना इस भार के निर्वहन में विफलता माना जाता है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 26, नियम 1 में आयु, बीमारी या अन्य दुर्बलता के मामलों में आयोग द्वारा साक्ष्य दर्ज करने का उपबंध है। अक्षमता का दावा करते समय ऐसे प्रावधानों का प्रयोग न करने से प्रतिकूल अनुमान को बल मिलता है।
आपराधिक कानून
भारतीय न्याय संहिता की धारा 152
27-Aug-2025
“यह भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 का उल्लंघन करता है और उपबंध की सांविधानिक वैधता पर प्रश्न उठाता है।” न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह ने असम सरकार के भूमि आवंटन और कथित सांप्रदायिक राजनीति की आलोचना करने वाले अपने वीडियो के लिये भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 152 के अधीन दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को चुनौती दी।
- उच्चतम न्यायालय ने अभिसार शर्मा बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
अभिसार शर्मा बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता, अभिसार शर्मा, एक पत्रकार और यूट्यूबर हैं, जिन्होंने भारतीय न्याय संहिता, 2023 के प्रावधानों के अधीन असम पुलिस द्वारा दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के विरुद्ध अनुतोष की मांग करते हुए भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।
- वर्तमान विवाद याचिकाकर्त्ता द्वारा एक वीडियो सामग्री के प्रकाशन के बाद उत्पन्न हुआ, जिसमें उन्होंने असम सरकार की 'सांप्रदायिक राजनीति' के विरुद्ध आलोचना की और एक निजी वाणिज्यिक संस्था को 3000 बीघा भूमि के आवंटन के संबंध में प्रश्न उठाए।
- विवादित वीडियो में याचिकाकर्त्ता ने माननीय गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष कार्यवाही का उल्लेख किया है, जिसमें असम राज्य सरकार से दीमा हसाओ क्षेत्र में खनन कार्यों के लिये महाबल सीमेंट नामक एक निजी सीमेंट निर्माण कंपनी को 3000 बीघा भूमि के आवंटन के संबंध में पूछताछ की गई थी।
- उपर्युक्त भूमि आवंटन मामले के संदर्भ में, याचिकाकर्त्ता ने आरोप लगाया कि असम सरकार ने अडानी समूह को 9000 बीघा भूमि आवंटित की है।
- याचिकाकर्त्ता ने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा पर अडानी समूह के हितों को प्राथमिकता देने और सांप्रदायिक राजनीति में शामिल होने का आरोप लगाया।
- याचिकाकर्त्ता पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 152 (राष्ट्र की संप्रभुता को खतरे में डालना), धारा 196 (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और धारा 197 (राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन) के अधीन आरोप लगाए गए हैं।
- यह परिवाद आलोक बरुआ नामक व्यक्ति द्वारा दायर किया गया था, जिन्होंने आरोप लगाया था कि याचिकाकर्त्ता के कथनों और टिप्पणियों से सांप्रदायिक भावनाएँ भड़कीं तथा राज्य प्राधिकारियों के प्रति अविश्वास की भावना उत्पन्न हुई।
- याचिकाकर्त्ता ने भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 की सांविधानिक वैधता को चुनौती दी है, जिसके बारे में कहा गया है कि उसने भारतीय दण्ड संहिता में निहित पूर्ववर्ती राजद्रोह विधि को प्रतिस्थापित किया है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- माननीय उच्चतम न्यायालय वर्तमान में विभिन्न मामलों में भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 को दी गई चुनौतियों से ग्रस्त है, जो इस उपबंध की न्यायिक जांच का संकेत देता है।
- न्यायालय ने हाल ही में द वायर समाचार पोर्टल (The Wire news portal) के पत्रकारों, अर्थात् संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और सलाहकार संपादक करण थापर को असम पुलिस द्वारा भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 के अधीन दर्ज एक पृथक् प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण प्रदान किया है।
- यह मामला संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोक व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने की राज्य की शक्ति के बीच संतुलन से संबंधित मौलिक प्रश्नों से जुड़ा है।
- यह मामला प्रादेशिक अधिकारिता के विवाद्यकों को प्रस्तुत करता है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) असम में दर्ज की गई है, जबकि याचिकाकर्त्ता कहीं और स्थित हो सकता है, जिससे आपराधिक अधिकारिता लागू करने के औचित्य पर प्रश्न उठता है।
- लगाए गए आरोप राज्य के विरुद्ध गंभीर अपराधों से संबंधित हैं, जिनमें राष्ट्रीय संप्रभुता को खतरे में डालना और समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना सम्मिलित है, जिसके गंभीर दण्डात्मक परिणाम होते हैं और जिसके लिये सावधानीपूर्वक न्यायिक परीक्षा की आवश्यकता होती है।
- यह मामला 28 अगस्त को माननीय न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और माननीय न्यायमूर्ति एन.कोटिस्वर सिंह की खंडपीठ के समक्ष सुनवाई के लिये निर्धारित है।
- यह मामला भारतीय न्याय संहिता के अंतर्गत नव अधिनियमित प्रावधानों के दायरे और अनुप्रयोग की परीक्षा से संबंधित है, विशेष रूप से सरकारी नीतियों और कार्यों की मीडिया आलोचना के संदर्भ में।
- मीडिया कर्मियों से जुड़े इसी प्रकार के मामलों में उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण आपराधिक विधि प्रावधानों के संबंध में पत्रकारों के अधिकारों और प्रेस की स्वतंत्रता के न्यायिक विचार को दर्शाता है।
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 को सांविधानिक चुनौती पूर्ववर्ती राजद्रोह विधि के प्रतिस्थापन के रूप में उपबंध की वैधता और दायरे पर प्रश्न उठाती है।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 क्या है?
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 उन कृत्यों को आपराधिक बनाती है जो प्रयोजनपूर्वक या जानबूझकर संसूचना या अभिव्यक्ति के किसी भी साधन से भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालते हैं ।
- यह उपबंध अलगाव को प्रदीप्त करने या प्रदीप्त करने का प्रयास करने, सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियों या अलगाववादी भावनाओं को प्रोत्साहित करने को सम्मिलित किया गया है।
- इसके लिये आजीवन कारावास या अधिकतम सात वर्ष तक का कारावास तथा अनिवार्य जुर्माना विहित है।
- इस धारा में इलेक्ट्रॉनिक संसूचना और वित्तीय साधनों के उपयोग जैसी आधुनिक संसूचना पद्धतियाँ सम्मिलित हैं।
- वैध परिवर्तन के उद्देश्य से सरकारी उपायों की वैध आलोचना को स्पष्टीकरण के अधीन संरक्षित किया गया है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124क और भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 के बीच मुख्य अंतर
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124क "राजद्रोह" और सरकार के प्रति असंतोष पर केंद्रित है, जबकि भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 राष्ट्रीय संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने वाले विशिष्ट कृत्यों को लक्षित करती है।
- भारतीय न्याय संहिता के अधीन "प्रयोजनपूर्वक या जानबूझकर" कृत्य करने की आवश्यकता होती है, जो भारतीय दण्ड संहिता के व्यापक अनुप्रयोग की तुलना में अधिक कठोर मानसिक तत्त्व को सम्मिलित करता है।
- भारतीय दण्ड संहिता में अधिकतम तीन वर्ष का कारावास (वैकल्पिक जुर्माना) का उपबंध है, जबकि भारतीय न्याय संहिता में अनिवार्य जुर्माने के साथ सात वर्ष तक के कारावास का उपबंध है।
- भारतीय न्याय संहिता में स्पष्ट रूप से इलेक्ट्रॉनिक संसूचना और वित्तीय साधन सम्मिलित हैं, तथा भारतीय दण्ड संहिता में शामिल नहीं किये गए आधुनिक तरीकों को भी शामिल किया गया है।
- वैध सरकारी आलोचना के लिये भारतीय दण्ड संहिता के व्यापक सुरक्षा उपायों की तुलना में भारतीय न्याय संहिता आलोचना के लिये संकीर्ण सुरक्षा प्रदान करता है।