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सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 नियम 102

 29-Aug-2025

ताहिर वी. इसानी बनाम मदन वामन चोदनकर 

"सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 102 केवल वाद के लंबित रहने के दौरान निर्णीत-ऋणी से अंतरिती व्यक्तियों पर लागू होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी तृतीय पक्षकार से संपत्ति अर्जित करता है, भले ही वह वाद लंबित हो, तो उसे नियम 102 द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जाता है और वह नियम 97 से 101 के अधीन सुरक्षा का सहारा ले सकता है।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता ने स्पष्ट किया कि आदेश 21 नियम 102 सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के अधीन प्रतिबंध तीसरे पक्षकार (निर्णीत-ऋणी नहीं) से अंतरिती लोगों पर लागू नहीं होता है, जिससे उन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता के नियम 97-101 के अधीन डिक्री निष्पादन पर आक्षेप करने की अनुमति मिलती है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने ताहिर वी. इसानी बनाम मदन वामन चोडानकर (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

ताहिर वी. इसानी बनाम मदन वामन चोदनकर (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • श्रीमती मारिया एडुआर्डो अपोलिना गोंसाल्वेस मिस्किटा के पास गोवा में 477 वर्ग मीटर का एक भूखंड था, जिसमें दो मंजिली इमारत थी, जिसका भूतल भाग उन्होंनेफरवरी 1977 में मदन वामन चोडानकर को पट्टे पर दे दिया था। 
  • इसके बाद चोडनकर ने मार्च 1977 में ज्ञानेश्वर केशव मलिक और अन्य ('मलिक') के साथ भागीदारी की और पट्टे पर दिये गए परिसर से हार्डवेयर का कारबार संचालित किया, जबकि किराएदारी उनके नाम पर बनी रही। 
  • जनवरी 1988 में श्रीमती मिस्किटा ने पूरी संपत्ति मेसर्स रिजवी एस्टेट एंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड को बेच दी, जिसके बाद अप्रैल 1988 में रिजवी एस्टेट और मलिक के बीच भवन के पुनर्निर्माण के लिये कब्जा सौंपने का करार हुआ। 
  • रिज़वी एस्टेट ने 1989 मेंबेदखली की कार्यवाही दायर की, जिसमें चोडनकर द्वारा मलिकों को अनधिकृत रूप से उप-पट्टे पर देने का आरोप लगाया गया, जबकि चोडनकर ने 1988 में विध्वंस को रोकने के लिये व्यादेश का वाद दायर किया। 
  • चोडानकर के व्यादेश वाद का निर्णय 1999 में उनके पक्ष में हुआ तथा 2001 में अपील पर इसे बरकरार रखा गया, जिससे विध्वंस गतिविधियों पर रोक लग गई। 
  • 1996 में, चोडनकर ने मलिक के विरुद्ध विशेष सिविल वाद संख्या 97/1996/ B शुरू किया, जिसमें भागीदारी विघटन, लाभ वसूली और बेदखली की मांग की गई, मलिक ने अपने लिखित कथन में स्वीकार किया कि सभी पक्षकारों ने अप्रैल 1988 में रिजवी एस्टेट में अपने अधिकार त्याग दिये थे 
  • रिज़वी एस्टेट ने अप्रैल 2007 में रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से ताहिर बनाम इसानी (अपीलकर्त्ता) को संपत्ति बेच दी, जिसके बाद मलिक ने अक्टूबर 2007 में अपीलकर्त्ता के पक्ष में 10 लाख रुपए में एक समर्पण विलेख निष्पादित किया। भागीदारी विघटन वाद को अप्रैल 2008 में चोडनकर के पक्ष में एकतरफा रूप से घोषित कर दिया गया क्योंकि मलिक ने कार्यवाही का विरोध करना बंद कर दिया था। 
  • चोडानकर के विधिक प्रतिनिधियों ने 2008 के आदेश के लियेनिष्पादन कार्यवाही शुरू की , जिससे अपीलकर्त्ता को फरवरी 2009 में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 97 और 101 के अधीन आक्षेप दर्ज करने के लिये प्रेरित किया गया। 
  • साक्ष्य रिकॉर्डिंग के साथ दस वर्षों से अधिक समय तक चली लंबी कार्यवाही के बाद, चोडानकर के विधिक उत्तराधिकारियों ने 2019 में लिस पेंडेंस (lis pendens) के सिद्धांत के आधार पर जांच को बंद करने के लिये आवेदन किया। 
  • निष्पादन न्यायालय ने सितंबर 2021 में जांच बंद करने के लिए 2019 के आवेदन कोखारिज कर दिया, जिसके कारण चोडनकर के विधिक उत्तराधिकारियों ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की। 
  • उच्च न्यायालय ने रिट याचिका को स्वीकार कर लिया और जांच बंद कर दी, जिसके बाद अपीलकर्त्ता ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आदेश 21 नियम 102 न्यायिक निर्णयों की अंतिमता सुनिश्चित करने के विचार को संरक्षित करने का आशय रखता है, जिसमें " interest reipublicae ut sit finis litium" (यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाजी का अंत हो) के सिद्धांत को सम्मिलित किया गया है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि निर्णय न केवल मुकदमा लड़ने वाले पक्षकारों को, अपितु उन लोगों को भी बाध्य करते हैं जिन्होंने वाद लंबित रहने के दौरान किये गए अंतरण के माध्यम से उनके अधीन स्वामित्व प्राप्त किया है, भले ही ऐसे अंतरिती व्यक्तियों को कार्यवाही की सूचना हो या नहीं। 
  • न्यायालय ने कहा कि नियम 102, विवेकहीन निर्णीत ऋणियों और उनके पश्चात्वर्ती अंतरिती व्यक्तियों के विरुद्ध डिक्रीदारों के हितों की रक्षा करता है, जो डिक्रीदारों को उनके पक्ष में दी गई डिक्री का लाभ उठाने से वंचित करने की गतिविधियों में संलग्न हैं। यह नियम, प्रकृति में न्यायसंगत होने के कारण, अधिकारों के आगे निर्माण को स्पष्ट रूप से यह कहकर रोकता है कि नियम 98 और 100 में कुछ भी निर्णीत ऋणियों के लंबित अंतरिती व्यक्तियों द्वारा प्रतिरोध या बाधा पर लागू नहीं होगा। 
  • न्यायालयने नियम 102 के अनुप्रयोग के लिये चार पूर्व शर्तें निर्धारित कीं: 

    (1) अचल संपत्ति के कब्जे के लिये डिक्री का अस्तित्व। 

    (2) उक्त डिक्री के निष्पादन में प्रतिरोध या बाधा। 

    (3) ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई बाधा, जिसे निर्णीत-ऋणी ने संपत्ति अंतरित की हो। 

    (4) ऐसा अंतरण जो उस मूल वाद के संस्थित होने के पश्चात् होता है जिसमें डिक्री पारित की गई थी। 

  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नियम 102 केवल उन व्यक्तियों पर लागू होता है जिन्हें निर्णीत-ऋणियों ने वह स्थावर संपत्ति अंतरित की हैजो लंबित वादों का विषय थी। यदि निष्पादन का विरोध करने वाला व्यक्ति निर्णीत-ऋणी से स्वामित्व का पता नहीं लगा पाता है, तो नियम 102 का प्रतिबंध लागू नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति आदेश 21 के नियम 97 से 101 के अधीन लाभ प्राप्त करने के लिये पात्र हैं, भले ही उन्होंने संपत्ति लंबित रहते हुए अर्जित की हो। 
  • न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि अपीलकर्त्ता नेअपना स्वामित्व निर्णीत-ऋणियों (मलिकों) से प्राप्त नहीं किया थाऔर इसलिये वह निर्णीत-ऋणि वादकालीन अंतरिती नहीं था। अपीलकर्त्ता एक वास्तविक क्रेता था जिसने मेसर्स रिज़वी एस्टेट एंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड से वादकालीन संपत्ति खरीदी थी, जिसने अपना स्वामित्व मूल स्वामी श्रीमती मिस्किटा से प्राप्त किया था। चूँकि अंतरणकर्त्ता वाद में पक्षकार नहीं था और एक तृतीय पक्ष था जिसने 1988 में मूल स्वामी से स्वामित्व अधिकार प्राप्त किये थे, इसलिये नियम 102 के उपबंध अपीलकर्त्ता को आक्षेप करने से नहीं रोकते थे। 
  • न्यायालय ने प्रत्यर्थी द्वारा 2019 में जांच बंद करने के लिये दायर आवेदन की विलम्बित और दुर्भावनापूर्ण प्रकृति पर ध्यान दिया, जो 2009 में अपीलकर्त्ता के मूल आक्षेप के दस वर्ष बाद दायर किया गया था, जबकि विक्रय और समर्पण विलेखों सहित सभी सुसंगत तथ्यों का शुरू से ही प्रकटीकरण किया गया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी ने बिना किसी आक्षेप के वर्षों तक जांच में भाग लिया, जिससे उनका बाद का आवेदन अस्वीकार्य हो गया। 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 नियम 102 क्या है? 

  • दायरा और अनुप्रयोग:सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 102 में यह स्थापित किया गया है कि नियम 98 और 100 के सुरक्षात्मक प्रावधान विशिष्ट श्रेणियों के अंतरितियों द्वारा स्थावर संपत्ति के कब्जे के लिये डिक्री के निष्पादन में किसी भी प्रतिरोध या बाधा पर लागू नहीं होंगे। 
  • प्राथमिक प्रतिबंध:नियम में विशेष रूप से उन व्यक्तियों के लिये संरक्षण को सम्मिलित नहीं किया गया है, जिन्हें निर्णीत-ऋणि ने उस वाद के संस्थापित करने के बाद संपत्ति अंतरित की है जिसमें डिक्री पारित की गई थी, जिससे ऐसे अंतरिती व्यक्तियों को सामान्य निष्पादन प्रावधानों के अधीन लाभ का दावा करने से रोका जा सके। 
  • बेदखली संरक्षण अपवर्जन:नियम 102, बेदखली से संबंधित मामलों में वादकालीन अंतरिती व्यक्तियों को संरक्षण देने से भी इंकार करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे व्यक्ति वैध पक्षकारों के लिये उपलब्ध मानक निष्पादन प्रक्रियाओं के अधीन अनुतोष की मांग नहीं कर सकते। 
  • अस्थायी तत्त्व:महत्त्वपूर्ण अस्थायी आवश्यकता यह है कि अंतरण उस मूल वाद के संस्थित होने के बाद हुआ होगा जिसमें डिक्री पारित की गई थी, जिससे अंतरण का समय इस प्रतिबंध की प्रयोज्यता के लिये निर्धारण कारक बन जाता है। 
  • अंतरण की समावेशी परिभाषा:नियम 102 का स्पष्टीकरण स्पष्ट करता है कि "अंतरण" में विधि के संचालन द्वारा किये गए अंतरण सम्मिलित हैं, जिसमें स्वैच्छिक अंतरण और विधिक प्रक्रियाओं या न्यायालय के आदेशों के माध्यम से होने वाले अंतरण दोनों शासम्मिलितमिल हैं। 
  • अंतर्निहित नीति:यह नियम मुकदमेबाजी के दौरान तीसरे पक्ष को संपत्ति अंतरित करके निर्णीत-ऋणी को डिक्री के निष्पादन को असफल करने से रोकने के सिद्धांत को मूर्त रूप देता है, जिससे डिक्रीदारों के हितों की रक्षा होती है और न्यायिक निर्णयों की अंतिमता सुनिश्चित होती है। 
  • अपवाद परिसीमा:नियम 102 विशेष रूप से निर्णीत- ऋणियों से अंतरिती व्यक्तियों पर लागू होता है और उन व्यक्तियों पर लागू नहीं होता है जो तीसरे पक्षकार से स्वामित्व प्राप्त करते हैं जो मूल वाद में पक्षकार नहीं थे, दुरुपयोग को रोकने और वैध संपत्ति अधिकारों की रक्षा के बीच संतुलन बनाए रखते हैं। 

पारिवारिक कानून

विवाह रजिस्ट्रीकरण

 29-Aug-2025

सुनील दुबे बनाम मिनाक्षी (2025) 

"रजिस्ट्रीकरण प्रमाणपत्र ही विवाह को साबित करने का एकमात्र साक्ष्य है और विवाह के रजिस्ट्रीकरण का अभाव हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 8 की उपधारा 5 के अधीन विवाह को अमान्य नहीं करेगा।"  

न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम की पीठ ने सुनील दुबे बनाम मीनाक्षी (2025)मामले में, में उस याचिका को स्वीकार किया जिसमें परिवार न्यायालय द्वारा विवाह-विच्छेद की कार्यवाही में विवाह-रजिस्ट्रीकरण प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने की अनिवार्यता से छूट देने से इंकार करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि हिन्दू विवाह केवल इस आधार पर अमान्य नहीं हो जाता कि उसका रजिस्ट्रीकरण नहीं हुआ है और इसलिये, कुटुंब न्यायालय परस्पर सहमति से तलाक के मामले में विवाह- रजिस्ट्रीकरण प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने पर बल नहीं दे सकता।

सुनील दुबे बनाम मीनाक्षी (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • पति-याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादी-पत्नी ने 23अक्टूबर 2024 को आपसी सहमति से तलाक के लियेहिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 ()के अधीन आवेदन दायर किया । 
  • कुटुंब न्यायालय के न्यायाधीश नेयाचिका लंबित रहने के दौरान 29 जुलाई 2025 तक विवाह प्रमाणपत्र दाखिल करने का आदेश दिया। 
  • याचिकाकर्त्ता ने रजिस्ट्रीकरण प्रमाणपत्र दाखिल करने से छूट कीमांग करते हुए आवेदन दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि यह उपलब्ध नहीं है और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन विवाह रजिस्ट्रीकरण के लिये कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं है। 
  • आवेदन का समर्थन प्रतिपक्ष (पत्नी) द्वारा किया गया, जो आपसी सहमति दर्शाता है। 
  • पारिवारिक न्यायालय ने 31 जुलाई 2025 को हिंदू विवाह और तलाक नियम, 1956 के नियम 3(क) का हवाला देते हुए आवेदन को खारिज कर दिया, जिसके अनुसार हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन प्रत्येक कार्यवाही में विवाह प्रमाण पत्र संलग्न करना आवश्यक है। 
  • यहविवाहउत्तर प्रदेश विवाह रजिस्ट्रीकरण नियम, 2017 के लागू होने से पूर्व 27 जून 2010 को को संपन्न हुआ था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • धारा 8 के अधीन विवाह रजिस्ट्रीकरण पर:न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 8 में विवाह के रजिस्ट्रीकरण का उपबंध है, किंतु रजिस्ट्रीकरण के अभाव में विवाह अमान्य नहीं हो जाता। रजिस्ट्रीकरण का उद्देश्य केवल "हिंदू विवाहों के सबूत को सुगम बनाना" है और यह एक सुविधाजनक साक्ष्य के रूप में कार्य करता है, न कि वैधता की पूर्वशर्त।  
  • प्रक्रियात्मक बनाम मौलिक अधिकार:न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि प्रक्रियात्मक नियमों से न्याय में सुविधा होनी चाहिये, न कि तकनीकी बाधाएँ उत्पन्न होनी चाहिये, तथा उन्होंने उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी का हवाला दिया कि "प्रक्रिया मौलिक अधिकारों की दासी है।" 
  • हिंदू विवाह और तलाक नियम, 1956 के नियम 3(क) पर:न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नियम 3(क) के अधीन विवाह प्रमाण पत्र की आवश्यकता केवल तभी होती है "जब विवाह इस अधिनियम के तहत रजिस्ट्रीकृत किया गया हो।" 
  • उत्तर प्रदेश विवाह रजिस्ट्रीकरण नियम, 2017 पर:न्यायालय ने कहा कि ये नियम विवाह के प्रारंभ होने के बाद उसके रजिस्ट्रीकरण को अनिवार्य बनाते हैं, किंतु इससे पहले हुए विवाह इससे अप्रभावित रहते हैं। 

उद्धृत विधिक पूर्व निर्णय: 

  • डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल (2024):रजिस्ट्रीकरण केवल धारा 7 के अधीन वैध विवाह के लिये संस्कार की पुष्टि करता है; अमान्य विवाह को वैध नहीं बना सकता। 
  • संग्राम सिंह बनाम चुनाव अधिकरण (1955):प्रक्रियात्मक विधियों को न्याय को सुगम बनाना चाहिये, न कि तकनीकी जाल बिछाना चाहिये 

न्यायालय के निदेश: 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय: 

  • याचिका को स्वीकार कर लिया गयातथा कुटुंब न्यायालय के 31 जुलाई 2025 के आदेश को अपास्त कर दिया गया 
  • कुटुंब न्यायालय कोविवाह रजिस्ट्रीकरण प्रमाण पत्र की आवश्यकता के बिना आपसी तलाक के मामले को आगे बढ़ाने का निदेश दिया। 
  • 2024 से लंबित तलाक की कार्यवाही को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करते हुएशीघ्र निपटाने का आदेश दिया गया। 
  • सांविधिक समयसीमा के संबंध में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 21-ख केअनुपालन पर बल दिया गया। 

विवाह रजिस्ट्रीकरण के संबंध में क्या प्रावधान हैं? 

हिंदू विधि: 

  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8(1) राज्य सरकारों कोविवाह रजिस्ट्रीकरण के प्रयोजनार्थ नियम बनाने का अधिकार देती है। 
  • धारा 8(2) मेंउल्लेख है कि उपधारा (1) में जो कुछ भी कहा गया है, उसके होते हुए भी, राज्य सरकार, यदि वह आवश्यक या उचित समझे, तो संपूर्ण राज्य या विशिष्ट क्षेत्रों में, सार्वभौमिक रूप से या विशिष्ट मामलों के लिये उपधारा (1) में उल्लिखित विवरण प्रस्तुत करने का आदेश दे सकती है। 
  • ऐसे मामलों में जहाँ ऐसे निदेश जारी किये जाते हैं, इस संबंध में स्थापित किसी भी विनियमन का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति कोपच्चीस रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है। 

मुस्लिम विधि: 

  • मुस्लिमों में विवाह का रजिस्ट्रीकरण आवश्यक एवं अनिवार्य है, क्योंकि मुस्लिम विवाह को एक सिविल संविदा माना जाता है। 
  • इस अधिनियम के लागू होने के बाद मुस्लिमों के बीच हुआ प्रत्येक विवाह, निकाह समारोह के समापन से तीस दिनों के भीतर, इसके बाद प्रदान की गई व्यवस्था के अनुसार रजिस्ट्रीकृत किया जाएगा। 
  • निकाहनामामुस्लिम विवाह में एक प्रकार का विधिक दस्तावेज़ है जिसमेंविवाह की आवश्यक शर्तें/विवरण सम्मिलित होते हैं। 

क्रिश्चियन विधि: 

  • धारा 27-37भारतीय क्रिश्चियन विवाह अधिनियम, 1872 के भाग 4 का निर्माण करती हैं, जो विशेष रूप सेभारतीय क्रिश्चियन के बीच इस अधिनियम के अधीन किये गएविवाहों के रजिस्ट्रीकरण की प्रक्रिया की बात करती हैं। 
    • विवाहों कोनिर्धारित नियमों का पालन करना चाहिये, और इन्हें सामान्यत: चर्च ऑफ इंग्लैंडसे संबद्धपादरी द्वारा संपन्न कराया जाता है । 

विवाह का रजिस्ट्रीकरण न कराने का क्या परिणाम होता है? 

  • भारत में विवाह रजिस्ट्रीकरण न कराने के परिणाम संदर्भ और विधिक आवश्यकताओं के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं। यहाँ कुछ सामान्य निहितार्थ दिये गए हैं: 
    • विधिक मान्यता: यद्यपि अधिकतर मामलों में विवाह का रजिस्ट्रीकरण उसकी वैधता के लिये अनिवार्य नहीं है, फिर भी यह विवाह के होने का निश्चायक साक्ष्य होता है। रजिस्ट्रीकृत विवाह प्रमाणपत्र के बिना, विवाह के अस्तित्व को साबित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, विशेष रूप से विधिक कार्यवाही में। 
    • अधिकार और लाभ: सरकार द्वारा प्रदान किये जाने वाले विभिन्न अधिकारों और लाभों, जैसे उत्तराधिकार अधिकार, पति/पत्नी लाभ और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं, का लाभ उठाने के लिये प्राय: रजिस्ट्रीकृत विवाह प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती है। इसलिये, रजिस्ट्रीकरण न कराने पर इन अधिकारों से वंचित किया जा सकता है। 
    • विधिक कार्यवाही: वैवाहिक स्थिति, संपत्ति के अधिकार या तलाक से संबंधित विवादों के मामले में, रजिस्ट्रीकृत विवाह प्रमाणपत्र विवाह का स्पष्ट दस्तावेज़ीकरण प्रदान करके विधिक कार्यवाही को सरल बना सकता है। रजिस्ट्रीकरण न होने पर ऐसे मामले जटिल हो सकते हैं और विधिक प्रक्रिया लंबी हो सकती है। 
    • वीज़ा और आप्रवास: कुछ मामलों में, वीज़ा आवेदनों और आप्रवास उद्देश्यों के लिये, विशेष रूप से उन पति-पत्नी के लिये जो किसी अन्य देश में अपने साथी के साथ रहने का आशय रखते हैं, रजिस्ट्रीकृत विवाह प्रमाणपत्र की आवश्यकता हो सकती है। इसलिये, रजिस्ट्रीकरण न होने से ऐसी प्रक्रियाओं में बाधा आ सकती है। 

विवाह रजिस्ट्रीकरण के लिये महत्त्वपूर्ण मामले कौन से हैं? 

  • सीमा बनाम अश्वनी कुमार (2007) : 
    • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन विवाह का रजिस्ट्रीकरण पक्षकारों के विवेक पर छोड़ दिया गया है, वे या तो उप-रजिस्ट्रार के समक्ष विवाह संपन्न करा सकते हैं या प्रथागत मान्यताओं के अनुसार विवाह संस्कार संपन्न करने के बाद इसे रजिस्ट्रीकृत करा सकते हैं। 
  • अब्दुल कादिर बनाम सलीमा और अन्य (1886): 
    • न्यायमूर्ति महमूद ने मुस्लिम विवाह की प्रकृति को एक संस्कार के बजाय विशुद्ध रूप से एक सिविल संविदा के रूप में देखा। 

पारिवारिक कानून

मातृत्व अवकाश की अस्वीकृत

 29-Aug-2025

सुशीला पटेल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य 

"यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस न्यायालय द्वारा अनेक याचिकाओं में जारी निदेशों के बावजूद कि दो गर्भधारणों के मध्य न्यूनतम दो वर्ष की अवधि का होना प्रसूति अवकाश (Maternity Leave) प्राप्त करने के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है... तथापि, उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ के निदेशक ने उक्त विधिक स्थिति को स्वीकार नहीं किया और प्रसूति अवकाश हेतु प्रस्तुत आवेदन को बिना किसी औचित्यपूर्ण कारण के अस्वीकार कर दिया।"  

न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम ने उत्तर प्रदेश के बागवानी निदेशक को एक महिला कर्मचारी के प्रसूति अवकाश को दो गर्भधारण के बीच दो वर्ष के अंतराल के अवैध आधार पर बार-बार अस्वीकार करने के लिये अवमानना ​​नोटिस जारी किया, जबकि पूर्व के न्यायालय के निर्णयों में कहा गया था कि ऐसी शर्त अनिवार्य नहीं है। 

  • इलाहाबादउच्च न्यायालय नेसुशीला पटेल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 3 अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया 

सुशीला पटेल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 3 अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • उत्तर प्रदेश के उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के निदेशकके अधीन कार्यरत सरकारी कर्मचारीसुशीला पटेल नेइलाहाबाद उच्च न्यायालयमें एक याचिका दायर करअपने प्रसूति अवकाश के आवेदन को बार-बार अस्वीकार किये जाने को चुनौती दी।  
  • याचिकाकर्त्ता ने प्रसूति अवकाश के लिये आवेदन किया था, किंतु निदेशक ने इस आधार पर आवेदन अस्वीकार कर दिया कि उसके पहले और दूसरे प्रसूति अवकाश के बीच दो वर्ष का अनिवार्य अंतराल नहीं बीता था। यह अस्वीकृति एक कथित विभागीय आवश्यकता पर आधारित थी, जिसमें प्रसूति अवकाश का लाभ प्राप्त करने के लिये निरंतर गर्भधारण के बीच न्यूनतम प्रतीक्षा अवधि निर्धारित की गई थी। 
  • इससे पहले, नवंबर 2024 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय नेसमान आधारों पर एक ही निदेशक द्वारा जारीसितंबर 2024 के दो अस्वीकृति आदेशों को पहले ही अपास्त कर दिया था। न्यायालय ने विशेष रूप सेगुड्डी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (अप्रैल 2022) में स्थापित पूर्ण निर्णय का सहारा लिया था, जिसमें स्पष्ट रूप से घोषित किया गया था कि सरकारी सेवा में प्रसूति अवकाश स्वीकृत करने के लिये गर्भधारण के बीच न्यूनतम 180 दिन या दो वर्ष का अंतराल अनिवार्य नहीं है। 
  • न्यायालय के स्पष्ट निदेशों और उसके पहले के आदेश की बाध्यकारी प्रकृति के होते हुए भी, जब याचिकाकर्त्ता ने 7 दिसंबर 2024 को एक नया आवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें उच्च न्यायालय के आदेश की एक प्रति संलग्न की गई, तो निदेशक ने एक बार फिर उसी आधार का हवाला देते हुए उसके आवेदन को खारिज कर दिया, जिसे पहले न्यायालय ने खारिज कर दिया था। 
  • इस बार-बार अस्वीकृति के कारण याचिकाकर्त्ता ने पुनः उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तथा न्यायालय के पूर्व निदेशों की जानबूझकर अवज्ञा करने का आरोप लगाया तथा प्रसूति अवकाश प्रदान करने के लिये उचित अनुतोष की मांग की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति अजीत कुमारकी अध्यक्षता वालीइलाहाबादउच्च न्यायालय नेउत्तर प्रदेश के उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के निदेशकके आचरण पर गंभीर नाराजगी व्यक्त की । 
  • न्यायालय ने कहा कि यह "दुर्भाग्यपूर्ण" है कि निदेशक ने न्यायालय के बाध्यकारी निदेशों की अनदेखी की तथा अस्वीकृति के लिये उसी आधार को दोहराया जिसे पहले की कार्यवाही में पहले ही खारिज किया जा चुका है। 
  • न्यायालय ने विशेष रूप से उल्लेख किया कि अनेक याचिकाओं में जारी स्पष्ट निदेशों के होते हुए भी कि प्रसूति अवकाश का लाभ प्राप्त करने के लिये गर्भधारण के बीच न्यूनतम दो वर्ष की अवधि की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है, निदेशक विधिक स्थिति को समझने में विफल रहे और बिना न्यायसंगत कारण बताए आवेदन को खारिज कर दिया। 
  • न्यायालय ने निदेशक के आचरण को उच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना ​​का स्पष्ट मामला बताया तथा कहा कि निदेशक ने बाध्यकारी प्रकृति के न्यायिक निदेशों की जानबूझकर अवहेलना की है। 
  • न्यायालय ने कहा कि न्यायिक आदेशों की ऐसी जानबूझकर की गई अवज्ञा न्यायालय के अधिकार को कमजोर करती है और न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 के तहत अपराध है । 
  • परिणामस्वरूप, न्यायालय नेनिदेशक, उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग, उत्तर प्रदेश को 1 सितंबरको न्यायालय के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होनेऔर कारण बताने का निदेश दिया कि न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 के अधीन उनके विरुद्ध न्यायालय की अवमानना ​​की कार्यवाही क्यों शुरू की जाए। 
  • न्यायालय ने कहा कि इस तरह के आचरण पर औपचारिक आरोप विरचित करने तथा न्यायिक निदेशों का पालन करने में निरंतर असफल रहने के लिये दोषी अधिकारी के विरुद्ध अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करने के लिये गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये 

संदर्भित विधिक प्रावधान क्या थे? 

प्राथमिक विधि विवाद्यक: प्रसूति अवकाश की आवश्यकताएँ 

  • केंद्रीय विधिक प्रश्न:क्या सरकारी कर्मचारियों को दूसरी प्रसूति अवकाश का लाभ लेने के लिये गर्भधारण के बीच दो वर्ष की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि की आवश्यकता है। 

न्यायालय की विधिक स्थिति 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्थापित किया है कि: 

  • 180 दिन के अंतराल की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है - न्यायालय ने निर्णय दिया कि गर्भधारण के बीच 180 दिन के अंतराल के संबंध में विवाद अब " was no more res integra " (अब खुला प्रश्न नहीं है) नहीं है, क्योंकि इस प्रावधान को सरकारी सेवा मामलों में गैर-अनिवार्य माना गया है। 
  • दो वर्ष की प्रतीक्षा अवधि आवश्यक नहीं है - न्यायालय ने अनेक मामलों में निरंतर यह माना है कि प्रसूति अवकाश का लाभ प्राप्त करने के लिये दो गर्भधारण के बीच न्यूनतम दो वर्ष की अवधि अनिवार्य नहीं है। 

पूर्ववर्ती पूर्ण निर्णय 

  • गुड्डी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य (Writ A No. 4996/2022, 8 अप्रैल, 2022 को निर्णय) - यह ऐतिहासिक निर्णय प्रतीत होता है जो यह स्थापित करता है कि प्रतीक्षा अवधि की आवश्यकताएँ अनिवार्य नहीं हैं। 

विधिक ढाँचा  

यद्यपि इस आदेश में विशिष्ट सांविधिक प्रावधानों का विस्तृत विवरण नहीं दिया गया है, फिर भी इस मामले में निम्नलिखित सम्मिलित हैं: 

  • सरकारी सेवा नियमों के अधीन प्रसूति अवकाश उपबंध 
  • न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 - न्यायालय के आदेशों का पालन न करने पर 
  • न्यायिक निदेशों के अनुपालन के संबंध में प्रशासनिक विधि सिद्धांत