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आपराधिक कानून

अजमानतीय वारण्ट की प्रक्रियाएँ

 02-Sep-2025

चंद्र लेखा और जी. जयराज बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य 

"अजमानतीय वारण्ट अंतिम उपाय के रूप में जारी किये जाने चाहिये, जिसका उद्देश्य केवल अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना है।" 

न्यायमूर्ति एन. तुकारामजी 

स्रोत: तेलंगाना उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एन. तुकारामजी नेजे. चंद्र लेखा और जी. जयराज बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य (2025)के मामले में सेशन न्यायालय के आदेशों को अपास्त कर दिया और अजमानतीय वारण्ट (NBW) जारी करने की उचित प्रक्रिया पर महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान किया, जिसमेंसतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2021) में स्थापित उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन करने पर बल दिया गया। 

जे. चंद्रलेखा और जी. जयराज बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • सेशन न्यायाधीश के दिनांक 10.07.2025 के आदेश को अपास्त करनेऔर याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध जारी अजमानतीय वारण्ट को वापस लेनेके लिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 528 के अधीन याचिका दायर की गई थी। 
  • याचिकाकर्त्ताओं को भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 329(4), 232, 351(3), और 3(5) के अधीन अपराधों के लिये C.C.No. 15408/2024 में अभियुक्त बनाया गया था। 
  • विचारण न्यायालय ने पाया कि अभियुक्त संख्या 3 और 4 (याचिकाकर्त्ता) कार्यवाही शुरू होने के बाद से फरार थे औरउनके विरुद्ध सीधे अजमानतीय वारण्ट जारी किया गया 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने समन के चरण में उनके विरुद्ध जारी अजमानतीय वारण्ट को चुनौती दी थी, तथा तर्क दिया था किपहले समन जारी किये बिना तथा विहित अनुक्रमिक प्रक्रिया का पालन किये बिना अजमानतीय वारण्ट जारी नहीं किया जा सकता । 

दोनों मामलों में सामान्य विवाद्यक: 

  • अन्वेषण एजेंसी ने सभी अभियुक्तों को उचित तामील के बिना चुनिंदा तरीके से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35(3) के अधीन नोटिस दिया था। 
  • दोनों मामलों में कार्यवाही के किसी भी चरण में याचिकाकर्त्ताओं को कोई नोटिस नहीं दिया गया। 
  • विचारण न्यायालय नेउच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों द्वारा स्थापित अनिवार्य अनुक्रमिक प्रक्रिया का पालन किये बिना अजमानतीय वारण्ट जारी कर दिया 
  • अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद से ही अभियुक्त फरार था, जिससे अजमानतीय वारण्ट जारी करना उचित हो गया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

प्रक्रियात्मक उल्लंघन: 

  • न्यायालय ने पाया कि विचारण न्यायालय ने अजमानतीय वारण्ट जारी करने से पहले विहित अनुक्रमिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया, तथा यह भी पाया कि ऐसी कोई सामग्री नहीं थी जो यह प्रदर्शित करती हो कि याचिकाकर्त्ताओं की उपस्थिति या अभिरक्षा सुनिश्चित करना अन्वेषण के प्रयोजनों के लिये आवश्यक था। 
  • सतेंदर कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2022) में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश: 
  • न्यायालय ने इस मामले में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों का व्यापक संदर्भ दिया, जिसमें अपराधों को वर्गीकृत किया गया था और विशिष्ट प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई थीं: 
  • श्रेणी A अपराध (7 वर्ष या उससे कम कारावास से दण्डनीय): 
    • प्रथम दृष्टया: साधारण समन (अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थिति की अनुमति सहित)। 
    • दूसरा चरण: यदि अभियुक्त समन की तामील के होते हुए भी उपस्थित नहीं होता है तो उसके लिये भौतिक उपस्थिति हेतु जमानतीय वारण्ट जारी किया जाएगा। 
    • अंतिम चरण: जमानतीय वारण्ट जारी होते हुए भी उपस्थित न होने पर ही अजमानतीय वारण्ट जारी किया जाएगा।  
  • श्रेणी B अपराध (मृत्यु, आजीवन कारावास या 7 वर्ष से अधिक का दण्ड): उपस्थिति पर, जमानत आवेदन पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय लिया जाएगा। 
  • श्रेणी C अपराध (NDPS, PMLA, UAPA जैसे विशेष अधिनियमों के अंतर्गत): श्रेणी B के समान, अतिरिक्त अनुपालन आवश्यकताओं के साथ। 
  • श्रेणी D अपराध (विशेष अधिनियमों के अंतर्गत न आने वाले आर्थिक अपराध): श्रेणी B के समान। 

न्यायिक मूल्यांकन आवश्यकताएँ: 

न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि दण्डात्मक उपाय जारी करने से पहले मजिस्ट्रेट को: 

  • अन्वेषण एजेंसी द्वारा प्रस्तुत सामग्री की सावधानीपूर्वक जांच करें। 
  • जारी की गई प्रक्रिया, लगाए गए आरोपों और एकत्रित साक्ष्य की प्रकृति पर विचार करें। 
  • अभियुक्त की उपस्थिति या अभिरक्षा की आवश्यकता निर्धारित करने के लिये स्वतंत्र न्यायिक मूल्यांकन करना। 
  • ऐसी राय के लिये कारण अभिलिखित करें। 

न्यायालय के निदेश: 

  • तत्काल अनुतोष:विहित प्रक्रिया का पालन न करने के कारण विवादित आदेश को अपास्त कर दिया गया। 
  • याचिकाकर्त्ताओं के दायित्त्व:अगली स्थगन तिथि को या उससे पहले विचारण न्यायालय के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने और उचित याचिका दायर करने का निदेश दिया गया।  
  • विचारण न्यायालय के निदेश:मजिस्ट्रेट को अजमानतीय वारण्ट वापस लेने तथा मामले को विधि के अनुसार सख्ती से आगे बढ़ाने का निदेश दिया गया।  
  • प्रक्रियागत बल:दोहराया गया कि अजमानतीय वारण्ट केवल अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये अंतिम उपाय के रूप में जारी किया जाना चाहिये 

अजमानतीय वारण्ट क्या है? 

  • अजमानतीय वारण्ट एक न्यायिक निदेश है जो विधि प्रवर्तन एजेंसियों को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और उसे न्यायालय में पेश करने के लिये अधिकृत करता है, गिरफ्तारी के बाद तत्काल जमानत का विकल्प प्रदान किये बिना। 
  • जब अजमानतीय वारण्ट जारी किया जाता है, तो गिरफ्तार व्यक्ति को वारण्ट निष्पादित करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा जमानत पर छोड़ा नहीं जा सकता है; इसके बजाय, जमानत केवल मामले की विनिर्दिष्ट परिस्थितियों पर विचार करने के बाद ही सक्षम न्यायालय द्वारा दी जा सकती है। 
  • अजमानतीय वारण्ट जारी करना सामान्यत: गंभीर अपराधों, ऐसे मामलों के लिये आरक्षित होता है, जहाँ अभियुक्त बार-बार अवसर मिलने के बावजूद न्यायालय में पेश होने में असफल रहा हो, या ऐसी स्थिति हो, जहाँ न्यायालय के पास यह मानने के लिये युक्तियुक्त आधार हों कि अभियुक्त फरार हो सकता है या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 73 गिरफ्तारी वारण्ट के प्रारूप को नियंत्रित करती है, जबकि धारा 72, 74, 75, 76, 78 और 80 ऐसे वारण्ट के निष्पादन के लिये प्रक्रियात्मक ढाँचा प्रदान करती हैं। 
  • जैसा कि बिहार राज्य बनाम जे.ए.सी. सलदान्हा (1980) मामलेमें स्थापित किया गया है, अजमानतीय वारण्ट नियमित या यंत्रवत् जारी नहीं किये जाने चाहिये, अपितु स्वतंत्रता पर इस तरह के गंभीर प्रतिबंध को आवश्यक बनाने वाली परिस्थितियों पर उचित न्यायिक विचार के बाद ही जारी किये जाने चाहिये 
  • अजमानतीय वारण्ट के निष्पादन में विशिष्ट प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिये, जिसमें गिरफ्तार व्यक्ति को वारण्ट की विषय-वस्तु के बारे में सूचित करना और उसे बिना किसी विलंब के, सामान्यतः गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर, न्यायालय के समक्ष पेश करना सम्मिलित है।  

सिविल कानून

इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य

 02-Sep-2025

अतिरिक्त महानिदेशक न्यायनिर्णयन, राजस्व खुफिया निदेशालय बनाम सुरेश कुमार एंड कंपनी इम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य 

"अधिकरण द्वारा पारित निर्णय और आदेश को एतद्द्वारा अपास्त किया जाता है। अधिकरण के समक्ष करदाताओं द्वारा दायर अपीलों को उनकी मूल फाइल में बहाल करने और अधिनियम, 1962 की धारा 138(4) के अलावा अन्य आधारों पर अधिकरण द्वारा पुनः सुनवाई करने का आदेश दिया जाता है।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और के.वी. विश्वनाथन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और के.वी. विश्वनाथन नेयह निर्णय दिया कि राजस्व खुफिया निदेशालय (DRI) द्वारा जब्त इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 138(4) के अधीन प्रमाण पत्र के बिना ग्राह्य हो सकते हैं, यदि करदाता ने धारा 108 के अधीन अभिलिखित कथनों में दस्तावेज़ों को अभिस्वीकृत किया है। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि प्रमाण पत्र आवश्यकताओं के कठोर अनुपालन में छूट दी जा सकती है जब करदाता द्वारा साक्ष्य को विधिवत स्वीकार कर लिया जाता है। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि प्रमाण पत्र की आवश्यकताओं के कठोर अनुपालन में तब ढील दी जा सकती है, जब करदाता द्वारा साक्ष्य को विधिवत स्वीकार कर लिया जाता है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने अतिरिक्त महानिदेशक न्यायनिर्णयन, राजस्व खुफिया निदेशालय बनाम सुरेश कुमार एंड कंपनी इम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया । 

अतिरिक्त महानिदेशक न्यायनिर्णयन, राजस्व खुफिया निदेशालय बनाम सुरेश कुमार एंड कंपनी इम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • प्रत्यर्थी दिल्ली और मुंबई में विक्रय के लिये विभिन्न देशों से ब्रांडेड खाद्य पदार्थों का आयात करते थे। राजस्व खुफिया निदेशालय ने आरोप लगाया कि प्रत्यर्थियों ने खुदरा विक्रय मूल्य/अधिकतम खुदरा मूल्य (Retail Sale Price/Maximum Retail Price – RSP/MRP) को बिल ऑफ एंट्री दाखिल करते समय कम दर्शाया, जिसके परिणामस्वरूप सीमा शुल्क में चोरी हुई।  
  • राजस्व खुफिया निदेशालय (DRI) ने व्यावसायिक और आवासीय परिसरों पर छापे मारे और लैपटॉप और हार्ड ड्राइव सहित इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ज़ब्त कियेअन्वेषण में वास्तविक विक्रय मूल्यों की गलत घोषणा के ज़रिए सीमा शुल्क का कम भुगतान करने के साक्ष्य मिले। 
  • दिनांक 06.06.2016 को जारी कारण बताओ नोटिस में प्रत्यर्थी संख्या 1 से 9,24,50,644/- रुपये तथा प्रत्यर्थी संख्या 2 से 9,83,614/- रुपए के अंतर शुल्क के साथ-साथ ब्याज और जुर्माने की मांग की गई। 
  • अपर महानिदेशक ने 17.07.2017 के आदेश द्वारा मांगों की पुष्टि की। सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क एवं सेवा कर अपीलीय अधिकरण (CESTAT) ने प्रत्यथियों की अपील स्वीकार करते हुए कहा कि सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 138(4) का अनुपालन न होने के कारण इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य अग्राह्य हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने यह पता लगाया कि क्या अधिकरण ने केवल सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 138(4) का अनुपालन न करने के आधार पर अपील की अनुमति देकर गलती की है। 
  • न्यायालय ने कहा कि सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 138(4) भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(4) के समरूप है। इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के लिये प्रमाणपत्र आवश्यकताओं की अनिवार्य प्रकृति को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने विधिक सिद्धांतों " impotentia excusat legem" और " lex non cogit ad impossibilia" को लागू किया - जिससे यह स्थापित हुआ कि विधि असंभव कार्यों को करने के लिये बाध्य नहीं करती।  
  • न्यायालय ने माना कि उचित अनुपालन के लिये धारा 138(4) के अधीन स्ट्रिक्टो सेन्सो (stricto senso) प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है। सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 108 के अधीन दर्ज कार्यवाही का अभिलेख और कथन धारा 138(4) के उचित अनुपालन का गठन कर सकते हैं। 
  • न्यायालय ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ कंपनी निदेशकों की उपस्थिति में एकत्र किये गए थे, जिन्होंने प्रिंटआउट के प्रत्येक पृष्ठ पर हस्ताक्षर किये थे और धारा 108 के अधीन बिना वापस लिये गए कथनों में उनकी प्रामाणिकता को स्वीकार किया था। प्रत्यर्थियों ने जब्त हार्ड ड्राइव से मुद्रण प्रक्रिया के दौरान अभिलेख की सटीकता और उनकी उपस्थिति की पुष्टि की। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 108 के कथनों में अभिस्वीकृति धारा 138(4) के अनुपालन को निर्धारित करती है, किंतु अन्य कार्यवाहियों में उनके साक्ष्य मूल्य पर विधि के अनुसार विचार किया जाना चाहिये, जिसमें सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 138ख का अनुपालन भी सम्मिलित है। 

इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य क्या है? 

  • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य आधुनिक विधिक कार्यवाहियों का मूलभूत आधार बन गए हैं, जिससे ग्राह्यता और प्रमाणीकरण के लिये मज़बूत सांविधिक ढाँचे की आवश्यकता होती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अंतर्गत, धारा 65क और 65 इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों को नियंत्रित करते थे, जिसके लिये धारा 65(4) के अधीन प्रमाणपत्र प्रावधानों का कठोरता से अनुपालन आवश्यक था। इस उपबंध के अधीन उत्तरदायी अधिकारियों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों की पहचान, उत्पादन विधियों का विवरण और संचालन स्थितियों की पुष्टि करने वाले प्रमाणपत्र अनिवार्य थे। 
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 ने धारा 62 और 63 के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य नियमों का आधुनिकीकरण किया है। धारा 63 पारंपरिक कंप्यूटरों से आगे बढ़कर संसूचना उपकरणों और सेमीकंडक्टर मेमोरी स्टोरेज को भी इसमें सम्मिलित करती है। नया ढाँचा विभिन्न प्रारूपों और स्थानों में संग्रहीत इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में मान्यता देता है, और क्लाउड स्टोरेज और नेटवर्क-आधारित प्रणालियों जैसी समकालीन डिजिटल प्रथाओं को भी संबोधित करता है। 
  • प्रमुख सुधारों में संसूचना उपकरणों को सम्मिलित करते हुए व्यापक परिभाषाएँ, बहु-भंडारण प्रारूपों की पहचान, और विशेषज्ञ सत्यापन के साथ मानकीकृत प्रमाणपत्र आवश्यकताएँ सम्मिलित हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) निर्धारित अनुसूची प्रारूप में प्रमाणपत्रों को दोहरे सत्यापन के साथ अनिवार्य बनाता है - भाग A उत्पादक पक्ष द्वारा और भाग B तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा पूरा किया जाता है। 
  • यद्यपि, "इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख" और "इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म" जैसे अपरिभाषित शब्दों को लेकर चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिससे संभावित अस्पष्टताएँ उत्पन्न हो रही हैं। अर्जुन पंडितराव खोतकर मामले में स्थापित कठोर अनुपालन सिद्धांतों और नए ढाँचे के अधीन कठोर प्रमाणपत्र आवश्यकताओं के बीच संबंध को न्यायिक निर्वचन की आवश्यकता है। 
  • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य उपबंधों का उद्देश्य तकनीकी प्रगति को साक्ष्य विश्वसनीयता के साथ संतुलित करना है, तथा जटिल डिजिटल वातावरण में औपचारिक प्रमाण पत्र प्राप्त करने में व्यावहारिक सीमाओं को पहचानते हुए प्रामाणिक दस्तावेजीकरण सुनिश्चित करना है। 

सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 138ग क्या है? 

  • धारा 138ग का अवलोकन 
    • सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 138, सीमा शुल्क कार्यवाहियों में दस्तावेज़ी साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों, माइक्रोफिल्मों, फैक्स प्रतियों और कंप्यूटर प्रिंटआउट की ग्राह्यता को नियंत्रित करती है। वाणिज्यिक संव्यवहार में इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ीकरण के बढ़ते उपयोग को देखते हुए, यह उपबंध 1 जुलाई 1988 से अधिनियम 29, 1988 द्वारा जोड़ा गया था। 
  • प्रमुख प्रावधान 
    • ग्राह्यता का दायरा:धारा 138(1) घोषित करती है कि माइक्रो फिल्म, फैक्स प्रतियाँ और कंप्यूटर प्रिंटआउट को सीमा शुल्क अधिनियम के अधीन दस्तावेज़ माना जाएगा और मूल प्रस्तुत किये बिना साक्ष्य के रूप में ग्राह्य होगा, बशर्ते निर्दिष्ट शर्तें पूरी हों। 
    • कंप्यूटर प्रिंटआउट के लिये अनिवार्य शर्तें:उपधारा (2) कंप्यूटर प्रिंटआउट स्वीकार करने के लिये चार आवश्यक शर्तें स्थापित करती है: प्रासंगिक गतिविधियों के दौरान सूचना संग्रहीत करने के लिये कंप्यूटर का नियमित रूप से उपयोग किया जाना चाहिये; गतिविधियों के सामान्य क्रम में सूचना नियमित रूप से प्रदान की जानी चाहिये; कंप्यूटर को संपूर्ण सामग्री अवधि में उचित रूप से संचालित किया जाना चाहिये; और विवरण में सामान्य क्रम में प्रदान की गई सूचना को पुन: प्रस्तुत किया जाना चाहिये 
    • प्रमाणपत्र की आवश्यकता:उपधारा (4) के अनुसार, दस्तावेज़ की पहचान, उत्पादन विधि, उपकरण का विवरण और उपधारा (2) में उल्लिखित शर्तों का विवरण देने वाले किसी उत्तरदायी आधिकारिक पदधारी व्यक्ति से प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य है। यह प्रमाणपत्र इसमें वर्णित मामलों के साक्ष्य के रूप में कार्य करता है। 
    • व्यावहारिक परिभाषाएँ:यह धारा "कम्प्यूटर" को मोटे तौर पर किसी भी उपकरण के रूप में परिभाषित करता है जो डेटा प्राप्त करता है, संग्रहीत करता है और संसाधित करता है, और स्पष्ट करता है कि सूचना व्युत्पन्न में गणना, तुलना या अन्य प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। 
  • विधिक महत्त्व 
    • साक्ष्य ढाँचा:धारा 138ग सीमा शुल्क कार्यवाहियों में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की ग्राह्यता के लिये एक व्यापक ढाँचा तैयार करती है, जो तकनीकी प्रगति और साक्ष्य विश्वसनीयता के बीच संतुलन स्थापित करती है। यह उपबंध इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ीकरण में व्यावहारिक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए प्रामाणिकता सुनिश्चित करता है। 
    • साक्ष्य अधिनियम के साथ संबंध:धारा 138(4) भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(4) के समरूप है, जो विभिन्न सांविधिक ढाँचों में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य मानकों में एकरूपता बनाए रखती है। 
    • अनुपालन आवश्यकताएँ:यह धारा स्थापित करती है कि यद्यपि प्रमाणपत्र आवश्यकताएँ अनिवार्य हैं, किंतुं न्यायालय पर्याप्त अनुपालन पर विचार कर सकते हैं, जहाँ पक्षकार के नियंत्रण से परे परिस्थितियों के कारण कठोर तकनीकी अनुपालन असंभव हो जाता है, जैसा कि हाल के न्यायिक घोषणाओं में माना गया है। 

सिविल कानून

पत्ति अंतरण अधिनियम के अधीन पावर ऑफ अटॉर्नी

 02-Sep-2025

रमेश चंद (मृत) थ्री. LRs बनाम सुरेश चंद और अन्य 

"रजिस्ट्रीकृत वसीयत संदिग्ध थी, क्योंकि इसमें चार में से तीन बालकों को बिना किसी स्पष्टीकरण या अलगाव के साक्ष्य के बाहर रखा गया था, और इस प्रकार वादी को वैध स्वामित्व नहीं दिया जा सका।" 

न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता ने निर्णय दिया कि रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के बिना स्थावर संपत्ति का स्वामित्व अंतरित नहीं किया जा सकता है, तथा इस तरह उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस निर्णय को अपास्त कर दिया, जिसमें विक्रय करार, जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी (GPA) और अन्य रजिस्ट्रीकृत दस्तावेज़ों के आधार पर स्वामित्व को बरकरार रखा गया था

  • उच्चतम न्यायालय ने रमेश चंद (मृत) थ्री LRs बनाम सुरेश चंद एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया । 

रमेश चंद (मृत) थ्री Lrs. बनाम सुरेश चंद एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • भाइयों सुरेश चंद (वादी) और रमेश चंद (प्रतिवादी) नेअपने पिता श्री कुंदन लाल, जिनकी मृत्यु 10 अप्रैल, 1997 को हो गई थी, के मूल स्वामित्व वालीसंपत्ति को लेकर विवाद किया। 
  • संपत्ति संख्या 563, बाल्मीकि गेट के पास अंबेडकर बस्ती, दिल्ली - 110053। 
  • सुरेश चंद ने 16 मई, 1996 के दस्तावेज़ों के ज़रिए मालिकाना हक़ का दावा किया: विक्रय का करार, जनरल पावर ऑफ़ अटॉर्नी, शपथपत्र, 1,40,000 रुपए की रसीद और रजिस्ट्रीकृत वसीयत। उन्होंने अभिकथित किया कि रमेश चंद एक अनुज्ञप्तिधारी थे, जो बाद में अतिक्रमणकारी बन गए और उन्होंने आधी संपत्ति सदोष तरीके से किसी अन्य पक्षकार को बेच दी। 
  • रमेश चंद ने जुलाई 1973 में मौखिक अंतरण का दावा किया और तब से निरंतर कब्ज़ा बनाए रखा। उन्होंने वादी के सभी दस्तावेज़ों को अमान्य बताते हुए चुनौती दी और कहा कि वादी ने पहले के वाद (OS No.294/1996) में स्वीकार किया था कि उनके पिता संपत्ति के स्वामी हैं, जो मई 1996 के खरीद दावे का खण्डन करता है। 
  • विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय सुनाया। उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व में दिये गए निर्णय के कारण रिमांड के बाद, उच्च न्यायालय ने 9 अप्रैल, 2012 को प्रतिवादी की अपील फिर से खारिज कर दी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि विक्रय करार, संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 के अंतर्गत अंतरण विलेख नहीं है। ऐसे करार केवल संविदात्मक अधिकार निर्मित करते हैं और स्वामित्व का अंतरण या अचल संपत्ति में कोई हित उत्पन्न नहीं करते। न्यायालय ने कहा कि जहाँ विक्रय में स्वामित्व का अंतरण सम्मिलित होता है, वहीं विक्रय संविदा केवल एक दस्तावेज़ है जो संव्यवहार को पूरा करने के लिये रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी (सामान्य मुख्तारनामा) स्थावर संपत्ति के अंतरण का साधन नहीं है, भले ही उसमें ऐसे खण्ड सम्मिलित हों जो उसे अपरिवर्तनीय बनाते हों या पावर ऑफ अटॉर्नी धारक को विक्रय करने के लिये अधिकृत करते हों। न्यायालय ने कहा कि पावर ऑफ अटॉर्नी अनिवार्य रूप से एक अभिकरण का निर्माण है जिसके द्वारा अनुदानकर्त्ता, अनुदान प्राप्तकर्त्ता को अनुदानकर्त्ता की ओर से निर्दिष्ट कार्य करने के लिये अधिकृत करता है। न्यायालय ने पाया कि विचाराधीन विशिष्ट जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी केवल संपत्ति के मामलों के प्रबंधन को अधिकृत करता है, जिसमें किराए पर देना और बंधक बनाना सम्मिलित है, किंतु अंतरण के पहलुओं पर मौन है। 
  • न्यायालय ने पाया कि 16 मई, 1996 की वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों से घिरी हुई थी और विधि के अनुसार सिद्ध नहीं हुई थी। न्यायालय ने यह भी कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के अधीन किसी भी सत्यापनकर्त्ता साक्षी से पूछताछ नहीं की गई, जबकि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 के अधीन वसीयत को दो साक्षियों द्वारा सत्यापित किया जाना आवश्यक था। न्यायालय ने यह भी पाया कि यह बेहद संदिग्ध था कि वसीयतकर्त्ता ने अपने चार बच्चों में से तीन को बिना किसी अलगाव या अन्य संपत्ति के प्रावधान के वसीयत से अपवर्जित रखा। 
  • न्यायालय ने कहा कि वादी भागिक पालन से संबंधित संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 53क के अधीन सुरक्षा का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि संपत्ति पर उसका कब्ज़ा नहीं था। न्यायालय ने कहा कि वादी द्वारा कब्जे के लिये वाद दायर करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि दाखिल करने की तिथि तक उसके पास कब्ज़ा नहीं था, जो धारा 53क के अधीन सुरक्षा का दावा करने के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि श्री कुंदन लाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार का रास्ता खुल गया था और वैध वसीयत के अभाव में प्रथम वर्ग के विधिक उत्तराधिकारी विधि के अनुसार संपत्ति में अंश के हकदार होंगे। 
  • न्यायालय ने कहा कि दूसरे प्रतिवादी (प्रत्यर्थी संख्या 2), जिसने अपीलकर्त्ता से 50% शेयर खरीदा था, के अधिकारों को केवल अपीलकर्त्ता के शेयर की सीमा तक ही संरक्षित किया जाएगा, तथा सभी पक्षकारों को विधि के अनुसार अपने अधिकारों का निपटान करने के लिये स्वतंत्र रखा जाएगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि स्वामित्व का दावा करने वाले दस्तावेज़ों के प्रस्तावक को उचित साक्ष्य के माध्यम से उनकी वैधता साबित करनी होगी, जिसमें सत्यापन करने वाले साक्षियों की परीक्षा और ऐसे दस्तावेज़ों के निष्पादन के आसपास की संदिग्ध परिस्थितियों को हटाना सम्मिलित है। 

क्या भारतीय विधि के अधीन संपत्ति अंतरण के लिये पावर ऑफ अटॉर्नी एक वैध साधन के रूप में काम कर सकता है? 

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872: 

  • अध्याय 10 - "अभिकरण" से संबंधित है जो पावर ऑफ अटॉर्नी के मूल सिद्धांतों को नियंत्रित करती है।  
  • धारा 201 – अभिकरण का पर्यवसान (इसमें अभिकरण संबंधों के अंत का विवरण सम्मिलित है)।  
  • धारा 202 –जहाँ अभिकर्त्ता का विषय वस्तु में हित है वहाँ अभिकरण का पर्यवसान (अपरिवर्तनीय पावर ऑफ अटॉर्नी निर्धारित करने के लिये महत्त्वपूर्ण) 

पावर ऑफ अटॉर्नी अधिनियम, 1882: 

  • धारा 1-क और धारा 2 - पावर ऑफ अटॉर्नी के दायरे और प्रकृति को परिभाषित करें ।  

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882: 

  • धारा 5 - "संपत्ति के अंतरण" को परिभाषित करता है 
  • धारा 54 - "विक्रय" को परिभाषित करती है और वैध संपत्ति अंतरण के लिये आवश्यकताएँ ।  
  • धारा 53- – भागिक पालन का सिद्धांत ।  

स्थापित प्रमुख विधिक सिद्धांत: 

रमेश चंद बनाम सुरेश चंद (2025) औरएम.एस. अनंतमूर्ति एवं अन्य बनाम जे. मंजुला (2025) मामलेमें उच्चतम न्यायालय के निर्णय मेंकई महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किये गए हैं: 

  1. पावर ऑफ अटॉर्नी की प्रकृति: पावर ऑफ अटॉर्नी एक अभिकरण संबंध बनाती है, न कि संपत्ति अधिकारों का अंतरण ।  
  2. अपरिवर्तनीयता: किसी पावर ऑफ अटॉर्नी को वास्तव में अपरिवर्तनीय बनाने के लिये, उसे "स्वामित्त्व के साथ जोड़ा जाना चाहिये" - केवल "अपरिवर्तनीय" शब्द का प्रयोग करना पर्याप्त नहीं है 
  3. कोई हक अंतरण नहीं: एक सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी अचल संपत्ति के अंतरण का साधन नहीं है, भले ही इसमें ऐसे खण्ड हों जो इसे अपरिवर्तनीय बनाते हों 
  4. अभिकार पर्यवसान : धारा 201 के अधीन, अभिकरण सामान्यत: मालिक की मृत्यु पर समाप्त हो जाती है, जब तक कि अभिकर्त्ता का विषय वस्तु में कोई हित न हो (धारा 202) ।  
  5. प्रत्ययी संबंध: पावर ऑफ अटॉर्नी धारक प्रत्ययी क्षमता में कार्य करता है और जब तक विशेष रूप से अधिकृत न किया जाए, वह व्यक्तिगत लाभ के लिये अपनी शक्ति का उपयोग नहीं कर सकता है। 

ये प्रावधान सामूहिक रूप से यह स्थापित करते हैं कि पावर ऑफ अटॉर्नी मुख्य रूप से एजेंसी प्रयोजनों के लिए सुविधा का दस्तावेज है, न कि संपत्ति हस्तांतरण का तरीका, और इसकी वैधता और दायरा भारतीय अनुबंध अधिनियम के तहत एजेंसी कानून के सिद्धांतों द्वारा नियंत्रित होता है।