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पारिवारिक कानून

कार्यवाही के स्थगन के दौरान रखरखाव पेंडेंट लाइट

 03-Sep-2025

अंकित सुमन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 

"न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कार्यवाही पर रोक लगाने मात्र से कार्यवाही समाप्त नहीं हो जाती तथा भार-पोषण देने का दायित्त्व तब तक जारी रहता है जब तक कि आदेश को अपास्त, परिवर्तित या संशोधित नहीं कर दिया जाता।" 

न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

अंकित सुमन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025)के मामले में न्यायमूर्तिमनीष कुमार निगमकी पीठ नेवादकालीन भरण-पोषण के लिये वसूली वारण्ट को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि स्थानांतरण याचिका के कारण वैवाहिक कार्यवाही पर रोक लगाने से पति कोहिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 24 के अधीन भरण-पोषण के संदाय करने के दायित्त्व से मुक्ति नहीं मिलती है।  

अंकित सुमन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • याचिकाकर्त्ता पति ने 20 जुलाई 2018 कोहिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के अधीन अपनी पत्नी के विरुद्ध कुटुंब न्यायालय, पीलीभीत मेंतलाक की याचिका दायर की । 
  • पत्नी नेआरोपों से इंकार करते हुए एक लिखित कथन दायर किया और बाद में 26 मार्च 2019 को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अधीन भरण-पोषण के लिये एक आवेदन दायर किया। 
  • कुटुंब न्यायालय नेशुरू में 30 अक्टूबर 2020 को पत्नी के भरण-पोषण के आवेदन को खारिज कर दिया था, किंतुइस आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 18 नवंबर 2021 को अपास्त कर दिया था 
  • उच्च न्यायालय ने पत्नी को 10,000 रुपए प्रति माह तथा अवयस्क पुत्री को 10,000 रुपए प्रति माह तथा मुकदमेबाजी खर्च के रूप में 30,000 रुपए देने का आदेश दिया। 
  • पति ने इस आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, जिसने 29 नवंबर 2022 को भरण-पोषण राशि को संशोधित कर पत्नी के लिये 10,000 रुपए और अवयस्क पुत्री के लिये 5,000 रुपए कर दिया। 
  • पत्नी ने 26 अगस्त 2024 तक 2,50,000/- रुपए के भरण-पोषण बकाया की वसूली के लिये निष्पादन मामला दायर किया। 
  • इस बीच, पत्नी ने तलाक के मामले को पीलीभीत से बरेली स्थानांतरित करने के लियेस्थानांतरण याचिकादायर की थी, और उच्च न्यायालय ने 18 सितंबर 2023 को तलाक की कार्यवाही पर रोक लगा दी थी । 
  • पति ने तर्क दिया कि चूँकि कार्यवाही पर रोक लगा दी गई है, इसलिये वहरोक की अवधि के लिये भरण-पोषण देने के लिये उत्तरदायी नहीं था 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 का विश्लेषण किया, जिसमें वैवाहिक कार्यवाही के दौरान वादकालीन भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय का उपबंध है। 
  • न्यायमूर्ति निगम ने इस बात पर बल दिया कि धारा 24 का उद्देश्यवैवाहिक कार्यवाही में आर्थिक रूप से कमजोर पक्षकारों को तत्काल अनुतोष प्रदान करनाहै, जिससे मुकदमेबाजी के दौरान उन्हें वंचित होने से बचाया जा सके। 
  • न्यायालय ने कार्यवाही को "रद्द" करने और "स्थगित" करने के बीच अंतर स्पष्ट करते हुएश्री चामुंडी मोपेड्स लिमिटेड बनाम चर्च ऑफ साउथ इंडिया ट्रस्ट एसोसिएशन (1992) काहवाला देते हुए कहा कि किसी आदेश पर रोक लगाने सेउसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता, अपितु केवल उसका संचालन निलंबित हो जाता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि भरण-पोषण संदाय के लिये उच्चतम न्यायालय का 29 नवंबर 2022 का आदेश वैध है और उसे न तो वापस लिया गया है और न ही अपास्त किया गया है। 
  • निर्णय में यह स्थापित किया गया कि स्थानांतरण कार्यवाही स्वयं "हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन कार्यवाही" है। 
  • न्यायालय ने अनेक पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए बताया कि धारा 24 के आवेदन, पुनर्स्थापन आवेदन, पुनरीक्षण कार्यवाही तथा अन्य सहायक कार्यवाहियों के दौरान भीविचारणीय हैं। 
  • न्यायालय ने पति के तर्क को "पूर्णतया गलत" बताते हुए खारिज कर दिया तथा कहा कि कार्यवाही पर रोक मात्र से विवाह समाप्ति नहीं हो जाती, अतः इससे भरण-पोषण दायित्त्व समाप्त नहीं होता। 

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 क्या है? 

बारे में: 

  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 में वादकालीन भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय का उपबंध है। भरण-पोषण एक मानवीय और कानूनी अधिकार दोनों है।  
  • यह धारा वादकालीन मुकदमे के दौरान पति-पत्नी को अस्थायी भरण-पोषण सुनिश्चित करती है।   

भरण-पोषण का अर्थ: 

  • पिता द्वारा संतानों को या पति द्वारा पत्नी को आश्रितों के व्यय और आवश्यकताओं के लिये प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता। 
  • इसे निर्वाह व्यय भी कहा जाता है, यह जीवन-यापन के व्ययों के संदाय की बात करता है। निर्वाह व्यय इस बात की परवाह किये बिना दिया जाता है कि पक्ष साथ रहते हैं या हिंदू विधि के अधीन तलाक हो गया है। 

वादकालीन (Pendente Lite) का अर्थ: 

  • "पेंडेंट लाइट (वादकालीन)" का अर्थ है "मुकदमा लंबित रहने तक" या "मामले के लंबित रहने के दौरान।" 
  • यह हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन कार्यवाही के दौरान आजीविका सहायता और आवश्यक व्यय के लिये अंतरिम भरण-पोषण को नियंत्रित करता है, जब स्वतंत्र आय अपर्याप्त हो या न हो। 
  • वादकालीन भरण-पोषण का अर्थ: 
  • पक्षकारों के बीच मुकदमा लंबित रहने के दौरान पत्नी और संतानों को जीवन-यापन व्यय और वित्तीय सहायता प्रदान करना। 
  • यह प्रावधान लिंग-तटस्थ अधिकार प्रदान करता है, जिससे पति और पत्नी दोनों को इस उपचार के लिये आवेदन करने की अनुमति मिलती है। 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के उपबंध: 

  • जब किसी पति या पत्नी के पास मुकदमेबाजी की कार्यवाही के लिये पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं होती है, तो न्यायालय प्रत्यर्थी को प्रत्यर्थी की आय को ध्यान में रखते हुए याचिकाकर्त्ता के कार्यवाही व्यय और भरण-पोषण का संदाय करने का आदेश दे सकता है। 
  • आवेदनों का निपटान नोटिस की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिये 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के मूल सिद्धांत:  

  • कार्यवाहियों का व्यय:लंबित हिंदू विवाह अधिनियम कार्यवाही के दौरान होने वाले व्यय की बात करता है, जिसमें अधिवक्ता की फीस, न्यायालय फीस, स्टांप शुल्क, यात्रा व्यय और संबंधित व्यय सम्मिलित हैं। यह सुनिश्चित करता है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर पति-पत्नी बिना किसी व्यय के विधिक प्रक्रियाओं में प्रभावी ढंग से भाग ले सकें। 
  • न्यायालय का विवेकाधिकार:न्यायालयों के पास वादकालीन और व्यय के लिये भरण-पोषण देने का विवेकाधिकार है। इससे भरण-पोषण की रकम के उचित निर्धारण के लिये व्यक्तिगत मामले की परिस्थितियों पर विचार करने की अनुमति मिलती है। न्यायालय दोनों पक्षकारों की आय, संपत्ति और आवश्यकताओं का आकलन करते हैं। 
  • अस्थायी प्रकृति:धारा 24 के अधीन भरण-पोषण अस्थायी है, जो केवल लंबित विधिक कार्यवाही के दौरान ही वित्तीय सहायता प्रदान करता है। न्यायालयों को मामलों का निपटारा करते समय अंतिम भरण-पोषण राशि तय करने का विवेकाधिकार है। 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) के बीच अंतर: 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) 

केवल हिंदुओं पर लागू 

धर्म, जाति, विश्वासों की परवाह किये बिना सभी नागरिकों पर लागू 

केवल विवाह-विच्छेद याचिका लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण 

विवाह-विच्छेद के दौरान और पश्चात् भरण-पोषण 

केवल पति/पत्नी ही पात्र हैं 

पति/पत्नी, बच्चे (धर्मज/अधर्मज), माता-पिता पात्र 

जीवन स्तर, आय, आवश्यकताओं के आधार पर पंचाट 

दावेदार की आवश्यकताओं और प्रत्यर्थी की संदाय करने की क्षमता के आधार पर पंचाट 


पारिवारिक कानून

अविवाहित पुत्री भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती

 03-Sep-2025

अनुराग पांडे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, अपर प्रधान सचिव, गृह विभाग, लखनऊ एवं अन्य 

यदि कोई पुत्री दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन आवेदन के लंबित रहने के दौरान वयस्क हो जाती है, तो 1956 अधिनियम की धारा 20 (3) के उपबंधों को लागू करके कुटुंब न्यायालय द्वारा उसी कार्यवाही में उसे भरण-पोषण की अनुमति दी जा सकती है।” 

न्यायमूर्ति रजनीश कुमार 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति रजनीश कुमार नेयह निर्णय दिया कि मानसिक एवं शारीरिक रूप से सक्षम वयस्क अविवाहित पुत्री दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती, अपितु उसे हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) के अंतर्गत दावा प्रस्तुत करना होगा। यह निर्णय उस कुटुंब न्यायालय के आदेश को अपास्त करते हुए पारित किया गया, जिसमें एक वयस्क पुत्री को धारा 125, दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत भरण-पोषण प्रदान करने का निदेश दिया गया था। 

  • उच्चतम न्यायालय ने अनुराग पांडे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, अपर प्रधान सचिव, गृह, लखनऊ एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया । 

अनुराग पांडे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अपर प्रधान सचिव गृह लखनऊ एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अविवाहित अवयस्क पुत्री कुमारी नेहा पांडे नेअपने पिता अनुराग पांडे से भरण-पोषण की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) कीधारा 125 के अधीन आवेदन दायर किया। 
  • आवेदन दाखिल करते समय, पुत्रीवयस्क हो चुकी थी, जिसका प्रकटन आवेदन में ही किया गया था। 
  • कुटुंब न्यायालय ने, यह देखते हुए कि याचिका दायर करते समय वह वयस्क थी, पिता को हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) का हवाला देते हुए, प्रति माह 10,000 रुपए का भरण-पोषण देने का निदेश दिया। 
  • पिता ने इस आदेश को आपराधिक पुनरीक्षण के माध्यम से चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि विचारण न्यायालय ने अभिलाषा बनाम प्रकाश (2020) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का गलत निर्वचन किया था 
  • पिता ने तर्क दिया कि वयस्क पुत्री दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीनभरण-पोषण पाने की हकदार नहींहै और ऐसा अनुतोष केवल 1956 अधिनियम की धारा 20(3) के अधीन सिविल वाद दायर करके ही प्राप्त किया जा सकता है। 
  • पुत्री के अधिवक्ता ने निष्पक्ष रूप से स्वीकार किया कि पिता द्वारा प्रस्तुत विधिक स्थिति सही थी और उन्होंने सुझाव दिया कि मामलों की बहुलता से बचने के लिये मामले को धारा 20(3) के अधीन कार्यवाही में परिवर्तित करने के लिये कुटुंब न्यायालय को भेज दिया जाना चाहिये 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • केवल अवयस्क संतान अथवा वे वयस्क संतानें, जो शारीरिक/मानसिक विकृति से ग्रसित हों, ही दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं। मानसिक एवं शारीरिक रूप से सक्षम वयस्क अविवाहित पुत्री इस उपबंध के अंतर्गत भरण-पोषण की हकदार नहीं है 
  • वयस्क अविवाहित पुत्रियों को भरण-पोषण का दावा हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) के अंतर्गत करना होगा, जिसके लिये उचित अभिवचन एवं साक्ष्यों सहित सिविल न्यायालय में कार्यवाही आवश्यक है। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 संक्षिप्त कार्यवाही के माध्यम से तत्काल अनुतोष प्रदान करती है, जबकि हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 20(3) में बड़े अधिकार सम्मिलित हैं जिनके लिये सिविल न्यायालय के निर्णय की आवश्यकता होती है। 
  • धारा 20(3) के अधीन भरण-पोषण के लिये 1956 अधिनियम की धारा 23 और 24 के अधीन विनिर्दिष्ट कारकों पर विचार करने की आवश्यकता होती है, जिसमें पक्षकारों की स्थिति, दावेदार की उचित आवश्यकताएँ और संपत्ति का मूल्य सम्मिलित है। 
  • कुटुंब न्यायालयउचित सिविल प्रक्रिया का पालन किये बिना और अनिवार्य कारकों पर विचार किये बिना, धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता की कार्यवाही में धारा 20(3) हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण के अधीनभरण-पोषण का आदेश नहीं दे सकता। 
  • यदि धारा 125 की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान पुत्री वयस्क हो जाती है, तो धर्म परिवर्तन की अनुमति है। यद्यपि, यदि आवेदन वयस्क होने के बाद दायर किया जाता है, तो उसे हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण की धारा 20(3) के अंतर्गत सिविल वाद में परिवर्तित किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने मामलों की अधिकता से बचने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के आवेदन को धारा 20(3) हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण के अधीन सिविल वाद में परिवर्तित करने का निदेश दिया, जिसका छह मास के भीतर शीघ्र निपटारा किया जाना था। 

क्या एक वयस्क अविवाहित पुत्री दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण का दावा कर सकती है या क्या उसे हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम के अदीन दावा दायर करना होगा? 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन आयु प्रतिबंध:एक वयस्क अविवाहित पुत्री जो मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ है, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (1) (ख) के अधीन भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है, जो विशेष रूप से केवल "अवयस्क संतान" के लिये भरण-पोषण का उपबंध करती है जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं 
  • अक्षमता तक सीमित अपवाद:दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125(1)(ग) वयस्क संतानों के लिये  भरण-पोषण की अनुमति केवल तभी देती है जब वे "शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति" से पीड़ित हों, जिसके कारण वे स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हों, स्वस्थ वयस्क पुत्रियों को छोड़कर। 
  • विधायी आशय स्पष्ट:दण्ड प्रक्रिया संहिता जानबूझकर भरण-पोषण के दावों को अवयस्कों या असमर्थ वयस्क संतानों तक सीमित रखती है, जिससे यह संकेत मिलता है कि स्वस्थ वयस्क अविवाहित पुत्रियाँ इसके संरक्षण के दायरे से बाहर हैं। 
  • संक्षिप्त कार्यवाही की सीमाएँ:दण्ड प्रक्रिया संहिता की की धारा 125 संक्षिप्त कार्यवाही के माध्यम से तत्काल अनुतोष के लिये बनाई गई है और यह वयस्क पुत्री के भरण-पोषण के दावों के लिये आवश्यक जटिल विचारों को समायोजित नहीं कर सकती है। 
  • वैकल्पिक विधिक उपचार उपलब्ध:वयस्क अविवाहित पुत्रियों को हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) के अधीन भरण-पोषण का दावा करना चाहिये, जो विशेष रूप से सिविल कार्यवाही के माध्यम से उनके भरण-पोषण के अधिकारों को संबोधित करता है। 
  • अधिकारिता की सीमा का सम्मान:कुटुंब न्यायालय मामले के उचित रूपांतरण के बिना दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन संक्षिप्त आपराधिक कार्यवाही करते समय हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम के अधीन सिविल अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। 
  • प्रक्रियागत सुरक्षा बनाए रखी गई:विधिक ढाँचा यह सुनिश्चित करता है कि वयस्क पुत्रियों के भरण-पोषण के दावों पर साक्ष्य और अभिवचनों के साथ उचित सिविल विचारण हो, न कि तत्काल अनुतोष के लिये त्वरित आपराधिक भरण-पोषण कार्यवाही में निर्णय लिया जाए। 

वाणिज्यिक विधि

परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि

 03-Sep-2025

ज्ञान चंद गर्ग बनाम हरपाल सिंह एवं अन्य 

"एक बार जब परिवादकर्त्ता ने डिफ़ॉल्ट राशि के पूर्ण और अंतिम निपटान में राशि को स्वीकार करते हुए समझौता विलेख पर हस्ताक्षर कर दिये हैं, तो परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन कार्यवाही नहीं चल सकती है, इसलिये, निचले न्यायालयों द्वारा दी गई समवर्ती दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया जाना चाहिये।" 

न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता ने निर्णय दिया कि एक बार परिवादकर्त्ता द्वारा पूर्ण समझौते को स्वीकार करते हुए समझौता विलेख पर हस्ताक्षर करने के बाद परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती है। उन्होंने उच्च न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दिया, जिसमें अभियुक्त के संशोधन के आवेदन को खारिज कर दिया गया था 

  • उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान चंद गर्ग बनाम हरपाल सिंह एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

ज्ञान चंद गर्ग बनाम हरपाल सिंह एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • हरपाल सिंह ने ज्ञान चंद गर्ग के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीनपरिवाद दर्ज कराया, जिसमें अभिकथित गया कि अपीलकर्त्ता ने 5,00,000 रुपए की राशि उधार ली थी। 
  • उधार ली गई राशि के पुनर्भुगतान के लिये, अपीलकर्त्ता ने एक चेक (Ex. C-1) जारी किया, जिसे प्रस्तुत करने पर, "धन अपर्याप्त है" (Ex. C-2) के समर्थन के साथ वापस कर दिया गया। 
  • परिवादकर्त्ता ने सांविधिक प्रावधानों के अधीन अपीलकर्त्ता को विधिक नोटिस (Ex. C-4) जारी किया। 
  • यह परिवाद परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अधिकारिता प्राप्त मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर की गई थी।  
  • सुनवाई के पश्चात्, अपीलकर्त्ताको आपराधिक मामला संख्या 90/2009 में प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) द्वारा दिनांक 21.04.2010 के आदेश द्वारादोषी ठहराया गया। अपीलकर्त्ता को छह माह के साधारण कारावास और 1,000 रुपए के जुर्माने का दण्ड दिया गया, जबकि व्यतिक्रम की दशा में उसे पंद्रह दिन के साधारण कारावास का दण्ड दिया गया 
  • अपर सेशन न्यायाधीश नेदिनांक 14.09.2010 के आदेश द्वारा आपराधिक अपील संख्या 67/2010 मेंदोषसिद्धि की पुष्टि की । तत्पश्चात, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने दिनांक 27.03.2025 के आदेश द्वारा आपराधिक पुनरीक्षण याचिका संख्या 2563/2010 में पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी। 
  • पुनरीक्षण याचिका खारिज होने के बाद, दोनों पक्षकारों ने 06 अप्रैल 2025 कोसमझौता/ निपटान करार किया।इस समझौते के अधीन, परिवादकर्त्ता ने अपीलकर्त्ता द्वारा दोषमुक्त किये जाने की मांग पर कोई आक्षेप नहीं किया।  
  • समझौता निम्नलिखित बातों पर विचार करते हुए किया गया: 
    • दो डिमांड ड्राफ्ट संख्या 004348 दिनांक 04 अप्रैल 2025 और 004303 दिनांक 11.02.2025, प्रत्येक 2.5 लाख रुपए के 
    • तीन चेक संख्या 354412 दिनांक 10 मई 2025, 354413 दिनांक 10.06.2025, तथा 354414 दिनांक 10.07.2025, प्रत्येक 1 लाख रुपए के। 
  • अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के 27 मार्च 2025 के आदेश में संशोधन की मांग करते हुए एक आवेदन (CRM No. 15127/2025) दायर किया, किंतु उच्च न्यायालय ने 09 अप्रैल 2025 को अग्रहणीयता (non-maintainability) के आधार परइस आवेदन को खारिज कर दिया । 
  • परिणामस्वरूप, अपीलकर्त्ता ने विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 8050/2025 के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराधमुख्यतः एक सिविल अपराधहै , जिसे परक्राम्य लिखतों की विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिये आपराधिक परिणामों से युक्त किया गया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि 2002 के संशोधन द्वारा सम्मिलित परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 147, धारा 138 के अंतर्गत अपराध को विशेष रूप सेसमझौता योग्य बनाती है, जिससे पक्षकारों को कार्यवाही के किसी भी चरण में विवादों को निपटाने की अनुमति मिलती है।  
  • न्यायालय ने धारा 138 के अपराधों को "आपराधिक भेड़ की पोशाक में सिविल भेड़" के रूप में वर्णित करने की बात दोहराई, तथा संकेत दिया कि यद्यपि इस उपबंध में आपराधिक दण्ड का उपबंध है, किंतु अंतर्निहित विवाद अनिवार्य रूप से निजी सिविल प्रकृति के हैं। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब पक्षकार स्वेच्छा से समझौता करते हैं, तो वे ऐसा खुली आँखों से करते हैं, जोखिमों और लाभों को समझते हुए। ऐसे समझौते मूल परिवाद को समाहित कर लेते हैं और मूल और बाद के दोनों परिवादों पर कार्रवाई करके उन्हें उलटा नहीं किया जा सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब पक्षकार अपराधों को कम करने तथा मुकदमेबाजी की प्रक्रिया से स्वयं को बचाने के लिये करार करते हैं, तो न्यायालय ऐसे शमन को रद्द नहीं कर सकते तथा पक्षकारों के स्वैच्छिक निर्णय के विरुद्ध अपनी इच्छा नहीं थोप सकते। 
  • न्यायालय ने कहा कि एक बार जब परिवादकर्त्ता विवादित राशि के पूर्ण और अंतिम निपटान के रूप में एक राशि स्वीकार करते हुए समझौता विलेख पर हस्ताक्षर कर देता है, तो परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन कार्यवाही जारी नहीं रह सकती है, और समवर्ती दोषसिद्धि को अपास्त किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विधायिका ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 147 के माध्यम से, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के होते हुए भी, ऐसे अपराधों के शमन की स्पष्ट अनुमति दी है, विशेषकरत: जब पक्षकार स्वेच्छा से समझौता कर लेते हैं।  
  • न्यायालय ने विशेष रूप से उल्लेख किया कि इस मामले में समझौता बिना किसी दबाव के, स्वेच्छया से तथा परिवादकर्त्ता की स्वयं की इच्छा से किया गया था, जिससे यह विधिक रूप से बाध्यकारी और प्रभावी है। 

परक्राम्य लिखत अधिनियमकी धारा 138 क्या है ? 

बारे में: 

  • धारा 138 के अधीन अपराध की श्रेणी में तब आता है जब किसी व्यक्ति द्वारा किसी बैंक में अपने खाते से किसी अन्य व्यक्ति को संदाय के लिये निकाला गया चेक अपर्याप्त धनराशि या सहमत ओवरड्राफ्ट सीमा से अधिक होने के कारण बिना संदाय के वापस कर दिया जाता है, जिससे लेखिवाल पर आपराधिक अभियोजन चलाया जा सकता है। 
  • लेखिवाल को दो वर्ष तक के कारावास या चेक की राशि के दोगुने तक के जुर्माने या ऐसे कारावास और जुर्माने दोनों से दण्डित किया जाएगा।  
  • चेक जारी होने की तिथि से छह मास के भीतर या इसकी वैधता अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, बैंक को प्रस्तुत किया जाना चाहिये, अन्यथा इस धारा के अधीन कोई अपराध नहीं माना जाएगा। 
  • अपराध सिद्ध होने के लिये, चेक पाने वाला या धारक को बैंक से चेक अनादरण के संबंध में सूचना प्राप्त होने के तीस दिन के भीतर संदाय की मांग करते हुए, चेक लेखिवाल को लिखित सूचना देनी होगी।  
  • मांग नोटिस प्राप्त होने के बाद संदाय करने के लिये आहर्ता को पंद्रह दिन का समय दिया जाना चाहिये, तथा इस अवधि के भीतर संदाय न करने पर ही धारा 138 के अधीन आपराधिक दायित्त्व लागू होता है। 
  • यह धारा केवल विधिक रूप से लागू ऋण या अन्य देयता के भुगतान के लिये जारी किये गए चेकों पर लागू होती है, तथा यह सुनिश्चित करती है कि उपबंध वास्तविक वाणिज्यिक संव्यवहार की बात करता है, न कि अनावश्यक संदाय को। 

निर्णय विधि: 

  • मेसर्स मीटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम कंचन मेहता (2018): 
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराध मुख्यतः एक सिविल अपराध है और 2002 के संशोधन द्वारा सम्मिलित परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 147 द्वारा इसे विशेष रूप से शमनीय बनाया गया है। इस संविधि का उद्देश्य कारबार के संव्यवहार के सुचारू संचालन को सुगम बनाना था क्योंकि चेक के अनादरण से पाने वाले को अपूरणीय क्षति होती है और कारबार के संव्यवहार की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।   
  • मोहनराज एवं अन्य बनाम मेसर्स शाह ब्रदर्स इस्पात प्राइवेट लिमिटेड (2021): 
    • न्यायालय ने धारा 138 परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत अपराध को "आपराधिक भेड़ की खाल में सिविल भेड़" कहा। इस उपबंध के अंतर्गत पक्षकारों द्वारा उठाए गए विवाद्यक निजी प्रकृति के होते हैं, जिन्हें परक्राम्य लिखतों की विश्वसनीयता मज़बूत करने के लिये आपराधिक अधिकारिता के दायरे में लाया जाता है। 
  • मेसर्स जिम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मनोज गोयल (2021): 
    • जब पक्षकार स्वेच्छया से समझौता करार करते हैं, तो उन्हें मूल परिवाद और गैर-अनुपालन से उत्पन्न होने वाले बाद के परिवाद, दोनों पर कार्रवाई करके परिणामों को उलटने की अनुमति नहीं दी जा सकती। समझौता करार मूल परिवाद को समाहित कर लेता है, और परिवादकर्त्ता खुली आँखों से संबंधित जोखिमों को उठाते हुए समझौता करते हैं। 
  • वी. शेषैया बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य (2023): 
    • जब पक्षकार करार करते हैं और अपराध का शमन करते हैं, तो वे ऐसा मुकदमेबाजी की प्रक्रिया से स्वयं को बचाने के लिये करते हैं। जब विधि ऐसे शमन की अनुमति दिति है, तो न्यायालय ऐसे शमन को रद्द नहीं कर सकतीं और पक्षकारों के स्वैच्छिक निर्णय के विरुद्ध अपनी इच्छा नहीं थोप सकते