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आपराधिक कानून

विवाह का मिथ्या वचन करके बलात्संग

 10-Sep-2025

प्रदीप कुमार केसरवानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 

बलात्संगऔर सहमति से लैंगिक संबंध अलग-अलग हैं, और विवाह करने के वचन के मामलों में, यह देखा जाना चाहिये कि वचन वास्तविक था या प्रवंचना के दुर्भावनापूर्ण आशय से किया गया मिथ्या बहाना था।”  

न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवालाऔरन्यायमूर्ति संदीप मेहता नेनिर्णय दिया कि विवाह के सत्य वचन पर सहमति से बनाया गया लैंगिक संबंध, जो बाद में टूट जाता है, बलात्संग नहीं माना जा सकता, जब तक कि वचन मिथ्या न हो और शुरू से ही दुर्भावनापूर्ण आशय से किया गया हो। उन्होंने एक अभियुक्त के विरुद्ध बलात्संग की कार्यवाही को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि केवल वचन तोड़ना ही प्रवंचना नहीं माना जा सकता। 

उच्चतम न्यायालय ने प्रदीप कुमार केसरवानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया। 

प्रदीप कुमार केसरवानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • अगस्त 2014 में एक अनुसूचित जाति की छात्रा ने प्रदीप कुमार केसरवानी के विरुद्ध एक निजी परिवाद दर्ज कराया था, जिसमें कथित तौर पर 2010 में हुए आपराधिक कृत्यों का आरोप लगाया गया था।  
  • परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि केसरवानी ने उसके विरोध और आपत्ति के होते हुए भी उसके कपड़े फाड़कर उसके साथ बलपूर्वक बलात्कार किया। उसने दावा किया कि उसने पुलिस से संपर्क करने पर उसकी नग्न तस्वीरें ऑनलाइन अपलोड करने की धमकी दी और कथित तौर पर हमले के दौरान एक वीडियो भी रिकॉर्ड किया।   
  • प्रारंभिक घटना के बाद, केसरवानी ने कथित तौर पर परिवादकर्त्ता से विवाह करने का वचन किया और उससे अनुरोध किया कि वह उसे अपने पति के रूप में स्वीकार कर ले। 
  • परिवादकर्त्ता ने कहा कि वह फंसी हुई महसूस कर रही थी और उसके पास कोई विकल्प नहीं था, इसलिये वह उसके साथ पत्नी के रूप में रहने लगी। 
  • सहवास की अवधि के दौरान, उसनेभारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अधीन प्रकृति विरुद्ध संभोग सहित निरंतर लैंगिक उत्पीड़न का आरोप लगाया। 
  • वर्ष 2011 में जब परिवादकर्त्ता गर्भवती हो गई तो उसने औपचारिक विवाह का अनुरोध किया किंतु केसरवानी ने कथित तौर पर इंकार कर दिया और उसे दवाओं के माध्यम से गर्भपात कराने के लिये विवश किया। 
  • केसरवानी को 2011 में फरीदाबाद में एन.जे. वेल्थ एडवाइजर कंपनी में नौकरी मिल गई। जब उसके माता-पिता ने वैवाहिक संबंध तलाशने शुरू किये तो उसने अपनी स्थिति बताई और उन्होंने केसरवानी के साथ विवाह के लिये सहमति दे दी। 
  • परिवादकर्त्ता 21 जुलाई 2010 को विवाह की औपचारिकताएँ तय करने के लिये केसरवानी के फरीदाबाद कार्यालय गई थी। केसरवानी ने कथित तौर पर इस मुलाक़ात में अपने माता-पिता और सहयोगियों को मौजूद रहने के लिये पहले से ही तय कर लिया था। 
  • इन व्यक्तियों ने कथित तौर पर उसके साथ जातिगत विभेद किया, उसकी अनुसूचित जाति की स्थिति के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ कीं। उन्होंने अंतर-सामुदायिक विवाह को असंभव घोषित कर दिया और जातिवादी गालियों के साथ गंदी भाषा का प्रयोग किया। 
  • परिवादकर्त्ता ने इस झड़प के दौरान सहायता के लिये फरीदाबाद पुलिस से संपर्क किया। पुलिस दोनों पक्षकारों को थाने ले गई, जहाँ अधिकारियों ने कहा कि विवाह से इंकार करना एक आपराधिक मामला होगा।  
  • पुलिस के दबाव में, केसरवानी ने शुरुआत में तो विवाह के लिये सहमती दी, किंतु बाद में अपनी सहमति वापस ले ली। परिवादकर्त्ता ने जुलाई 2014 में रजिस्ट्रीकृत पत्रों के माध्यम कई अधिकारियों से संपर्क किया, परंतु कोई कार्रवाई नहीं हुई।  
  • उन्होंने एक निजी परिवाद दर्ज कराया जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की कई धाराओं के अधीन अभियोजन चलाने की मांग की गई, जिनमें 323 (उपहति), 504 (अपमान), 376 (बलात्संग), 452 (अतिचार), 377 (प्रकृति विरुद्ध अपराध), और 120ख (षड्यंत्र) सम्मिलित हैं। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 3(1)(10) के अधीन अतिरिक्त आरोप भी सम्मिलित किये गए। कथित घटनाओं और परिवाद दर्ज होने के बीच चार वर्ष के विलंब की विश्वसनीयता का एक गंभीर मुद्दा बन गया  

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि तुच्छ परिवादों पर व्यक्तियों को समन भेजने से उनकी प्रतिष्ठा धूमिल होती है और इसके लिये गहन न्यायिक जांच की आवश्यकता है। न्यायालयों को मामलों की गहन जांच करनी चाहिये, केवल कथनों से आगे बढ़कर अंतर्निहित परिस्थितियों को समझना चाहिये। बलात्कार और विवाह के वचनों सहित सहमति से बनाए गए लैंगिक संबंध के बीच स्पष्ट अंतर है। न्यायालयों को सावधानीपूर्वक परीक्षा करनी चाहिये कि क्या अभियुक्त का वास्तव में विवाह करने का आशय था या प्रारंभ से ही उसके मन में दुर्भावनाएँ थीं। 
  • सम्मति अभिव्यक्त या विवक्षित, विवश करके या गुमराह करके, स्वेच्छा से या प्रवंचना से प्राप्त की जा सकती है। सम्मति एक विचारशील तर्कपूर्ण कार्य है, जहाँ मन अच्छे और बुरे पहलुओं पर विचार करता है। न्यायालयों को केवल वचन तोड़ने और प्रवंचनशील आशय से किये गए मिथ्या वचन को पूरा करने के बीच अंतर करना चाहिये। किसी अभियुक्त को बलात्संग के लिये तभी दोषसिद्ध ठहराया जा सकता है जब न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आशय दुर्भावनापूर्ण और गुप्त उद्देश्यों से था। 
  • इस बात के पर्याप्त साक्ष्य होने चाहिये कि अभियुक्त का शुरू से ही विवाह के वचन को निभाने का कोई आशय नहीं था। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जहाँ वास्तविक आशय रखने वाला व्यक्ति अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण विवाह करने में असमर्थ हो जाता है। न्यायालय ने चार-चरणीय परीक्षण स्थापित किया है जिसके अनुसार सामग्री ठोस और निर्विवाद होनी चाहिये, आरोपों को खारिज किया जाना चाहिये, उनका खंडन नहीं किया जाना चाहिये, और यह दर्शाना चाहिये कि मुकदमे में प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। 
  • परिवादकर्त्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय का नोटिस स्वीकार करने से इंकार करना शुरू से ही गंभीरता की कमी दर्शाता है। ठोस विवरणों के अभाव और अस्पष्ट आरोपों के कारण परिवाद विश्वसनीय नहीं बन पायापरिवाद दर्ज करने में चार वर्ष के अस्पष्ट विलंब ने विश्वसनीयता को काफी कम कर दिया। घटना की विशिष्ट तिथियों और स्थानों का अभाव, और स्वतंत्र पुष्टिकरण साक्ष्यों के अभाव ने मामले को कमजोर कर दिया। 
  • न केवल अपीलकर्त्ता को फंसाया गया, अपितु उसके माता-पिता को भी अनावश्यक रूप से निराधार अपराधों की कार्यवाही में घसीटा गया। आपराधिक कार्यवाही जारी रखना विधिक प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग होगा। उच्च न्यायालय को ऐसी कार्यवाही को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन निहित शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये था। जब अभियुक्त दावा करते हैं कि कार्यवाही तुच्छ या परेशान करने वाली है, तो न्यायालयों का कर्त्तव्य है कि वे परिवादों की सावधानीपूर्वक जांच करें। गुप्त उद्देश्यों वाले परिवादकर्त्ता अक्सर यह सुनिश्चित करते हैं कि परिवाद कथित अपराधों के आवश्यक तत्त्वों को उजागर करने के लिये अच्छी तरह से तैयार किये गए हों। 

भारतीय न्याय संहिता, 2024 (BNS) की धारा 69 क्या है? 

  • धारा 69 प्रवंचनापूर्ण साधनों, आदि का प्रयोग करके या विवाह के मिथ्या वचन को पूरा करने के वास्तविक आशय के बिना मैथुन को अपराध मानती है। 
  • यह उपबंध तब लागू होता है जब मैथुन बलात्संग नहीं माना जाता है, किंतु इसमें प्रवंचना या कपटपूर्ण विवाह का वचन सम्मिलित होता है। 
  • इस धारा में जुर्माने के साथ-साथ दस वर्ष तक के कारावास की दण्ड का उपबंध है। 
  • धारा 69 विशेष रूप से उन मामलों को लक्षित करती है जहाँ सम्मति बल या प्रपीड़न के बजाय साशय प्रवंचना से प्राप्त की जाती है।  
  • उपबंध में यह माना गया है कि कपट या मिथ्या वचनों के माध्यम से प्राप्त सम्मति, मैथुन की स्पष्ट स्वैच्छिक प्रकृति को दूषित कर देती है। 
  • यह धारा प्रवंचनशील प्रथाओं से जुड़े शोषणकारी आचरण को संबोधित करके सहमति से मैथुन और बलात्संग के बीच विधिक अंतर को भरती है। 
  • धारा 69 के अधीन अपराध के लिये यह साबित करना आवश्यक है कि अभियुक्त का का प्रारंभ से ही विवाह के वचन को पूरा करने का कोई आशय नहीं था। 

धारा 69 के आवश्यक तत्त्व क्या हैं? 

  • पहले आवश्यक तत्त्व के रूप में अभियुक्त और परिवादकर्त्ता के बीच मैथुन का सबूत आवश्यक है। 
  • दूसरा तत्त्व यह अनिवार्य करता है कि ऐसा मैथुन प्रवंचनापूर्ण साधनों या विवाह के मिथ्या वचन से किया गया हो। 
  • तीसरे तत्त्व के लिए यह स्थापित करना आवश्यक है कि अभियुक्त का प्रारंभ से ही विवाह के वचन को पूर्ण करने का कोई वास्तविक आशय नहीं था। 
  • चौथा तत्त्व यह निर्दिष्ट करता है कि विद्यमान सांविधिक प्रावधानों के अधीन मैथुन बलात्संग का अपराध नहीं माना जाना चाहिये 
  • पाँचवें तत्त्व में यह प्रदर्शित करना आवश्यक है कि परिवादकर्त्ता की सम्मति विशेष रूप से प्रवंचनापूर्ण साधनों या विवाह के मिथ्या वचनों के कारण प्राप्त की गई थी। 
  • सांविधिक स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है कि प्रवंचनापूर्ण साधनों में वास्तविक पहचान छिपाकर नियोजन, पदोन्नति या विवाह के मिथ्या वचन के माध्यम से प्रलोभन देना सम्मिलित है। 
  • अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करना होगा कि अभियुक्त ने रिश्ते की शुरुआत से ही दुर्भावनापूर्ण आशय और गुप्त उद्देश्य रखे थे। 
  • कपटपूर्ण आशय का अनिवार्य तत्त्व इस अपराध को केवल वचन के भंग या अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण विवाह न कर पाने के अपराध से अलग करता है। इसके लौकिक पहलू के लिये यह साबित करना आवश्यक है कि मैथुन के समय ही प्रवंचना विद्यमान थी, न कि केवल बाद में मन परिवर्तित किया गया था। 
  • कारण-कार्य तत्त्व यह स्थापित करता है कि परिवादकर्त्ता ने मिथ्या वचन या प्रवंचनशील प्रतिनिधित्व के बिना मैथुन के लिये सहमति नहीं दी होगी। इस धारा में यह प्रदर्शित करना आवश्यक है कि अभियुक्त ने भावी विवाह की आड़ में मैथुन के लिये जानबूझकर प्रवंचनशील हथकंडे अपनाए।  

सांविधानिक विधि

संविधान का अनुच्छेद 16

 10-Sep-2025

भारत संघ एवं अन्य। बनाम साजिब रॉय 

"यह प्रश्न कि क्या आरक्षित वर्ग के वे अभ्यर्थी, जो आवेदन फीस अथवा आयु-सीमा में छूट का लाभ प्राप्त करते हैं, अनारक्षित (सामान्य) सीटों पर विचारार्थ पात्र हो सकते हैं, पूर्णतः संबंधित भर्ती नियमों पर निर्भर करता है। यदि ऐसे नियमों में कोई निषेध नहीं है, तो ऐसे अभ्यर्थी अपनी योग्यता के आधार पर सामान्य वर्ग की सीटों पर प्रव्रजन कर सकते हैं। किंतु यदि भर्ती नियमों में इसका स्पष्टतः प्रतिबंध किया गया है, तो ऐसा प्रव्रजन अनुमन्य नहीं होगा।" 

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जॉयमाल्या बागची 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में माननीय न्यायमूर्ति सूर्यकान्त तथा माननीय न्यायमूर्ति जॉयमल्य बागची ने यह अभिमत व्यक्त किया कि यदि किसी आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी ने नियुक्ति की प्रक्रिया में आयु में छूट का लाभ प्राप्त कर पात्रता अर्जित की है, तो ऐसे अभ्यर्थी को भर्ती नियमों द्वारा अनारक्षित (सामान्य) श्रेणी में प्रव्रजन करने से वंचित किया जा सकता है, यदि उक्त नियम ऐसे प्रव्रजन को निषिद्ध करते हों। न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दिया, जिसमें कर्मचारी चयन आयोग (SSC) द्वारा संचालित कांस्टेबल भर्ती में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) अभ्यर्थियों को सामान्य वर्ग  के अंतर्गत विचार किये जाने की अनुमति प्रदान की गई थी 

  • उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ एवं अन्य बनाम साजिब रॉय (2025)के मामले में यह निर्णय दिया । 

भारत संघ एवं अन्य बनाम साजिब रॉय (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • कर्मचारी चयन आयोग (SSC) ने BSF, CRPF, ITBP, SSB, NIA, SSF सहित विभिन्न अर्धसैनिक बलों में कांस्टेबल (जनरल ड्यूटी) और असम राइफल्स में राइफलमैन पदों पर भर्ती के लिये एक नियोजन अधिसूचना प्रकाशित की है। भर्ती प्रक्रिया में शारीरिक परीक्षण, लिखित परीक्षा और चिकित्सीयपरीक्षा सम्मिलित थी। 
  • रोजगार अधिसूचना में पात्र अभ्यर्थियों के लिये दिनांक 01.08.2015 को आयु सीमा 18 से 23 वर्ष निर्धारित की गई थी। विभिन्न आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को आयु में छूट प्रदान की गई, जिसके अंतर्गत अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) अभ्यर्थियों को 3 वर्ष की छूट प्राप्त हुई, जिससे उनकी उच्चतम आयु सीमा 26 वर्ष हो गई। 
  • सभी प्रत्यर्थी-रिट याचिकाकर्त्ता अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) वर्ग से संबंधित थे और भर्ती प्रक्रिया में भाग लेने के लिये आयु सीमा में छूट का लाभ उठा रहे थे। इस छूट के बिना, वे आवेदन करने के पात्र नहीं होते क्योंकि उनकी आयु सीमा सामान्य वर्ग की 23 वर्ष से अधिक थी।  
  • भर्ती प्रक्रिया समाप्त होने के बाद, इन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) अभ्यर्थियों को असफल घोषित कर दिया गया क्योंकि उनके अंक उनके संबंधित विभागों के अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में अंतिम चयनित अभ्यर्थी से कम थे। यद्यपि, उनके अंक उन्हीं विभागों के अनारक्षित (सामान्य) वर्ग में अंतिम चयनित अभ्यर्थी से अधिक थे। 
  • इस आधार पर कि उनके अंक सामान्य वर्ग के चयनित अभ्यर्थियों से अधिक हैं, उत्तरदायी-याचिकाकर्त्ताओं ने यह दावा करते हुए उच्च न्यायालय की शरण ली कि उन्हें सामान्य वर्ग में प्रव्रजन (migration) का अधिकार है तथा मेरिट (Merit) को प्रधानता दी जानी चाहिये।  
  • भारत संघ ने इस प्रार्थना का विरोध करते हुए तर्क दिया कि चूँकि प्रत्यर्थियों ने आयु सीमा में छूट प्राप्त करने के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में आवेदन किया था, इसलिये उन्हें अनारक्षित वर्ग में नियुक्ति के लिये पात्र नहीं माना जा सकता। संघ ने दिनांक 01.07.1998 के कार्यालय ज्ञापन No. 36011/1/98-Estt. (Res) का हवाला दिया, जिसमें इस तरह के प्रव्रजन पर स्पष्ट रूप से रोक लगाई गई थी। 
  • प्रत्यर्थियों ने पूरी भर्ती प्रक्रिया में भाग लिया था, बिना उस कार्यालय ज्ञापन की सांविधानिक वैधता को चुनौती दिये, जिसने उन्हें सामान्य वर्ग में स्थानांतरित होने से रोक दिया था। उन्होंने यह विवाद्यक परिणाम घोषित होने के बाद ही उठाया, जब उन्हें पता चला कि वे ऐसी स्थिति में हैं जहाँ प्रव्रजन उनके लिये फायदेमंद होगा। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मुख्य विवाद्यक यह है कि क्या उच्च न्यायालय ने 01 जुलाई 1998 के कार्यालय ज्ञापन के अस्तित्व के होते हुए भी जितेंद्र कुमार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के अनुपात को लागू करने में गलती की है, जिसमें स्पष्ट रूप से उन आरक्षित अभ्यर्थियों के प्रव्रजन पर रोक लगाई गई है, जिन्होंने आयु में छूट का लाभ उठाया था, अनारक्षित वर्गों के पदों पर। 
  • न्यायालय ने कहा कि जितेंद्र कुमार मामले में निर्णय विशिष्ट सांविधिक प्रावधानों और सरकारी निदेशों के आधार पर किया गया था, जो स्पष्ट रूप से ऐसे प्रवास की अनुमति देते थे, जबकि वर्तमान मामला 1998 के कार्यालय ज्ञापन द्वारा शासित था, जिसमें विशेष रूप से उन अभ्यर्थियों के लिये ऐसे प्रवास पर रोक लगाई गई थी, जिन्होंने कोई छूट प्राप्त की थी। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किसी भी निर्णय में अनुपात को किसी विशेष मामले के तथ्यों के दायरे में ही पढ़ा जाना चाहिये और इसका सार्वभौमिक अनुप्रयोग नहीं हो सकता। न्यायालय ने दीपा ई.वी. बनाम भारत संघ मामले का हवाला देते हुए कहा कि जितेंद्र कुमार मामले में दिये गए सिद्धांत को वहाँ लागू नहीं किया जा सकता जहाँ स्पष्ट सांविधिक प्रतिबंध विद्यमान हों, जिसमें भी इसी तरह के विचार व्यक्त किये गए थे। 
  • न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि उच्च न्यायालय ने जितेन्द्र कुमार निर्णय को यांत्रिक ढंग से लागू कर दिया, बिना इस तथ्यात्मक परिस्थिति का समुचित विचार किये कि प्रव्रजन को निषिद्ध करने वाला कार्यालय ज्ञापन अस्तित्व में था 
  • विभिन्न पूर्व निर्णयों का विश्लेषण करने के पश्चात्, न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि आरक्षित वर्ग के वे अभ्यर्थी, जिन्होंने किसी प्रकार की छूट का लाभ लिया है, उन्हें अनारक्षित वर्ग की सीटों पर नियुक्त किया जा सकता है अथवा नहीं—यह प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जहाँ भर्ती नियमों में कोई प्रतिबंध न हो, वहाँ यदि ऐसे अभ्यर्थियों के अंक अंतिम चयनित अनारक्षित अभ्यर्थी से अधिक हों, तो उन्हें सामान्य वर्ग में प्रव्रजन की अनुमति दी जा सकती है। किंतु जहाँ संबंधित भर्ती नियमों के अंतर्गत स्पष्टतः प्रतिबंध निहित हो, वहाँ ऐसे अभ्यर्थी अनारक्षित वर्ग की सीटों पर प्रव्रजित नहीं हो सकते 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि प्रत्यर्थियों ने आयु में छूट का लाभ उठाया था और 1998 के कार्यालय ज्ञापन के अधीन स्पष्ट प्रतिबंध विद्यमान था, अतः उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें अनारक्षित वर्ग में नियुक्ति हेतु विचार किये जाने की अनुमति प्रदान करना विधिसम्मत नहीं था। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 क्या है? 

  • अनुच्छेद 16(1) – लोक नियोजन में अवसर की समता: 
    • यह उपबंध राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समता को प्रत्याभूत करता है। 
    • इसका संदर्भ यह जांचने के लिये दिया गया था कि क्या आरक्षित अभ्यर्थियों के लिये आयु और फीस में छूट असमान व्यवहार उत्पन्न करके समता के सिद्धांत का उल्लंघन करती है। 
    • उपबंध यह स्थापित करता है कि कि छूट योग्यता-आधारित लाभों के बजाय प्रतियोगिता-पूर्व पात्रता रियायतों के रूप में कार्य करती है, जिससे लिखित परीक्षाओं के माध्यम से वास्तविक प्रतियोगिता शुरू होने पर समान अवसर प्राप्त होते हैं 
    • यह खण्ड यह सुनिश्चित करता है कि जाति, धर्म या अन्य प्रतिषिद्ध आधारों पर विभेद किये बिना योग्यता-आधारित मानदंडों के आधार पर सभी योग्य व्यक्तियों के लिये सरकारी पद सुलभ रहें। 
  • अनुच्छेद 16(4) - आरक्षण के लिये सक्षम उपबंध: 
    • यह खण्ड राज्य को सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न पाने वाले पिछड़े वर्गों के पक्ष में नियुक्तियों में आरक्षण का उपबंध करने का अधिकार देता है। यह अनुच्छेद 16(1) के लिये एक सांविधानिक अपवाद बनाता है, जिससे सकारात्मक कार्रवाई के उपाय संभव हो पाते हैं। 
    • आयु और फीस में छूट को "आकस्मिक और सहायक प्रावधान" या "आरक्षण में सहायता" के रूप में वर्णित किया गया है, जो मूल आरक्षण अवधारणा को प्रभावी बनाता है, तथा योग्यता-आधारित चयन सिद्धांतों से समझौता किये बिना सार्थक भागीदारी को सक्षम बनाता है। 
    • यह उपबंध पदों के प्रत्यक्ष आरक्षण तथा पिछड़े वर्गों के समक्ष ऐतिहासिक रूप से आई असुविधाओं को दूर करने के लिये पात्रता मानदंडों में ढील जैसे सहायक उपायों की अनुमति देता है। 
  • अनुच्छेद 16(2) – विभेद न करने का खण्ड: 
    • यह उप-खण्ड धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान या निवास के आधार पर लोक नियोजन में विभेद को प्रतिबंधित करता है। 
    • यह उपबंध अनुच्छेद 16(4) के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करता है कि पिछड़े वर्गों के लिये सकारात्मक कार्रवाई की अनुमति तो है, किंतु किसी भी नागरिक को प्रतिषिद्ध विशेषताओं के आधार पर लोक नियोजन के अवसरों तक पहुँचने में विभेद का सामना नहीं करना पड़े। 
  • सांविधानिक संतुलन: 
    • अनुच्छेद 16(1) और 16(4) के बीच परस्पर क्रिया एक सांविधानिक ढाँचा बनाती है जो व्यक्तिगत समता के अधिकारों को सामूहिक सकारात्मक कार्रवाई की आवश्यकताओं के साथ संतुलित करती है। 
    • यह संतुलन राज्य को आरक्षण नीतियों को लागू करने की अनुमति देता है, जबकि यह सुनिश्चित करता है कि योग्यता चयन के लिये प्राथमिक मानदंड बनी रहे, छूट केवल योग्य अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ाने के लिये हो, न कि चयन मानक को कम करने के लिये 

संदर्भित मामले  

  • जितेंद्र कुमार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2010): यह स्थापित किया गया कि आयु और फीस में छूट "आरक्षण में सहायक" है, जो समान अवसर को प्रभावित किये बिना योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धा को सक्षम बनाती है, तथा उच्च अंक प्राप्त करने वाले अभ्यर्थियों के लिये अनारक्षित सीटों पर प्रव्रजन की अनुमति देती है, किंतु यह विशिष्ट उत्तर प्रदेश सांविधिक ढाँचे पर आधारित है, जो स्पष्ट रूप से ऐसे प्रव्रजन की अनुमति देता है। 
  • दीपा ई.वी. बनाम भारत संघ (2017): विशिष्ट जितेन्द्र कुमार सिंह ने कहा कि इसके सिद्धांत वहाँ लागू नहीं होते जहाँ स्पष्ट सांविधिक अवरोध विद्यमान हो, वहाँ उक्त निर्णय का अनुप्रयोग नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से यह रेखांकित किया गया कि कार्यालय ज्ञापन, 1998 द्वारा प्रव्रजन पर प्रतिबंध होने के कारण जितेन्द्र कुमार सिंह का सामान्य सिद्धांत उन भर्ती प्रक्रियाओं में अप्रासंगिक हो जाता है, जिनमें ऐसा निषेध लागू है। 
  • गौरव प्रधान बनाम राजस्थान राज्य (2018): यह पुष्टि की गई कि जितेन्द्र कुमार सिंह में प्रतिपादित सिद्धान्त उन परिस्थितियों में सहायक नहीं हो सकते, जहाँ भर्ती नियमों में स्पष्ट निषेध निहित हो। न्यायालय ने बल दिया कि यदि सांविधिक योजना अथवा परिपत्र इसके विपरीत हो, तो उन सिद्धांतों का विस्तार उनकी विशेष परिधि से परे नहीं किया जा सकता। 
  • सौरव यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021): यह मुद्दा महिलाओं एवं अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की अभ्यर्थियों के क्षैतिज आरक्षण  के अंतर्गत सामान्य वर्ग रिक्तियों में समायोजन से संबंधित था। न्यायालय ने यह अनुमन्य किया कि जहाँ अभ्यर्थियों ने कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं किया हो तथा भर्ती नियमों में कोई स्पष्ट निषेध विद्यमान न हो, वहाँ उन्हें सामान्य श्रेणी में प्रव्रजन की अनुमति दी जा सकती है।