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आपराधिक कानून
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 के अधीन दाँत घातक आयुध नहीं हैं
11-Sep-2025
खेलो राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य "पुनरीक्षण न्यायालय अपीलीय न्यायालय की तरह बैठकर साक्षियों के कथनों में विसंगतियां ढूंढकर साक्ष्यों की जांच नहीं कर सकता, और यह विधिक रूप से ग्राह्य नहीं है।" न्यायमूर्ति राकेश कैंथला |
स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
खेलो राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2025) मामले में न्यायमूर्ति राकेश कैंथला की पीठ ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार किया, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 452, 354 और 323 के अधीन दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया, जबकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 के अधीन दोषसिद्धि को खारिज करते हुए कहा गया कि मानव दाँतों को घातक आयुध नहीं माना जा सकता।
खेलो राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 5 मार्च 2007 की एक घटना से शुरू हुआ, जब अभियुक्त खेलो राम ने कथित तौर पर रात में पीड़िता के घर में उस समय घुसपैठ की, जब वह अपने 4 साल के बच्चे के साथ सो रही थी।
- पीड़िता ने बताया कि उसका पति एक विवाह में शामिल होने गया था और रात करीब 11:30 बजे उसे अपने बच्चे के साथ घर पर अकेला छोड़ गया था।
- अभियोजन पक्ष के अनुसार, अभियुक्त ने खुले कमरे में प्रवेश किया, पीड़िता का हाथ पकड़ लिया, उसे चूमना शुरू कर दिया और जब उसने सहायता के लिये चिल्लाया तो उसके गाल पर काट लिया।
- पीड़िता की चीख-पुकार सुनकर उसका देवर उसे बचाने आया, जिससे अभियुक्त मौके से भाग गया।
- मामले की सूचना तुरंत पुलिस को दी गई और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 452, 354, 324 और 323 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- मेडिकल परीक्षा में पीड़िता के गाल पर काटने के निशान तथा गर्दन में दर्द और कोमलता का पता चला।
- विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को सभी आरोपों में दोषसिद्ध ठहराते हुए तीन से छह मास तक के साधारण कारावास का दण्ड सुनाया।
- सेशन न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निष्कर्षों से सहमति जताते हुए अभियुक्त की अपील खारिज कर दी ।
- इसके बाद अभियुक्त ने दोनों निर्णयों को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
पुनरीक्षण अधिकारिता:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 के अधीन पुनरीक्षण अधिकारिता अत्यंत संकीर्ण है और इसे अपीलीय अधिकारिता की तरह प्रयोग नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि पुनरीक्षण न्यायालय केवल प्रत्यक्ष दोषों, अधिकारिता या विधि की त्रुटियों को ही सुधार सकते हैं, तथा विकृतियों के अभाव में साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकते।
- न्यायमूर्ति कैंथला ने कहा कि दो न्यायालयों के समवर्ती निष्कर्षों के आधार पर पुनरीक्षण में हस्तक्षेप करने के लिये असाधारण परिस्थितियों की आवश्यकता होती है।
साक्ष्य मूल्यांकन पर:
- न्यायालय ने पाया कि पीड़िता का परिसाक्ष्य विश्वसनीय था तथा चिकित्सीय साक्ष्य और उसके देवर के कथन से इसकी संपुष्टि हुई।
- पीड़िता के परिसाक्ष्य में कथित सुधार के संबंध में, न्यायालय ने माना कि चूँकि अन्वेषण अधिकारी से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 के अधीन लोप के बारे में पूछताछ नहीं की गई थी, इसलिये विरोधाभास स्थापित नहीं किया जा सका।
- न्यायालय ने विरोधाभासों को साबित करने की उचित प्रक्रिया को स्पष्ट किया, जिसके अधीन जब कोई साक्षी अपने पूर्व कथनों से इंकार करता है तो अन्वेषण अधिकारी के परिसाक्ष्य की आवश्यकता होती है।
पक्षद्रोही साक्षी के परिसाक्ष्य पर:
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि पक्षद्रोही साक्षियों के परिसाक्ष्य स्वतः खारिज नहीं होते, अपितु उसे उस सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है, जहाँ तक वह अभियोजन या बचाव पक्ष को समर्थन देती है, यदि उसकी संपुष्टि हो जाती है।
- यद्यपि पीड़िता के बहनोई को पक्षद्रोही घोषित कर दिया गया था, परंतु उसने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन करने वाले तथ्य स्वीकार कर लिये थे तथा उनके पूर्वर्ती कथन का उचित ढंग से खंडन नहीं किया गया था।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 और मानव दाँतों पर:
- न्यायालय ने शकील अहमद बनाम दिल्ली राज्य (2004) मामले में विभिन्न उच्च न्यायालयों के निर्णयों और उच्चतम न्यायालय के दृष्टांतों का व्यापक विश्लेषण किया तथा निष्कर्ष निकाला कि मानव दाँतों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 के अधीन घातक आयुध नहीं माना जा सकता।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 क्या है?
बारे में:
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 खतरनाक आयुधों या साधनों से स्वेच्छया उपहति कारित करने से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जो कोई भी, धारा 334 द्वारा प्रदान की दशा के सिवाय, जिसके लिये धारा 334 में उपबंध है, जो कोई असन, वेधन या काटने के किसी उपकरण द्वारा या किसी ऐसे उपकरण द्वारा जो यदि आक्रामक आयुध के तौर पर उपयोग में लाया जाए, तो उससे मृत्यु कारित होना संभाव्य है, या अग्नि या किसी तप्त पदार्थ द्वारा, या किसी विष या किसी संक्षारक पदार्थ द्वारा या किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा या किसी ऐसे पदार्थ द्वारा, जिसका श्वास में जाना या निगलना या रक्त में पहुँचना मानव शरीर के लिये हानिकारक है, या किसी जीवजंतु द्वारा स्वेच्छया उपहति कारित करेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
भारतीय न्याय संहिता के अंतर्गत उपबंध:
- भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 118 खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छया से उपहति या घोर उपहति कारित करने के अपराध से संबंधित है ।
- यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 और 326 को प्रतिस्थापित करती है/ उनका संयोजन करती है।
आपराधिक विधि के अधीन घातक आयुध क्या है?
विधिक परिभाषा:
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 और 326 के अधीन, घातक आयुध उन विशिष्ट प्रकार के उपकरणों को संदर्भित करती है जिनका उपयोग उपहति कारित करने या घोर उपहति कारित करने के लिये किया जाता है। प्रावधानों में इन्हें इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
- "गोली चलाने, छुरा घोंपने या काटने का कोई भी उपकरण, या कोई भी ऐसा उपकरण जो अपराध के आयुध के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिससे मृत्यु होने की संभावना हो।"
घातक हथियारों की श्रेणियाँ:
1. गोली चलाने के उपकरण:
- आग्नेयास्त्र, बंदूकें, राइफलें
- कोई भी उपकरण जो प्रक्षेप्य को आगे बढ़ाता है
2. छुरा घोंपने के उपकरण:
- चाकू, खंजर, तलवारें
- तीक्ष्ण नुकीली वस्तुएँ जो छेदने के लिये बनाई गई हैं
3. काटने के उपकरण:
- ब्लेड, माचेटे, कुल्हाड़ी
- कोई भी तेज धार वाला उपकरण जो काटने में सक्षम हो
4. मृत्यु का कारण बनने वाले संभावित उपकरण:
- लोहे की छड़ें, हथौड़े जैसी भारी कुंद वस्तुएँ
- कोई भी उपकरण जो आक्रामक रूप से उपयोग किये जाने पर घातक जोखिम उत्पन्न करता है
5. अन्य निर्दिष्ट साधन:
- आग या गर्म पदार्थ
- विष या संक्षारक पदार्थ
- विस्फोटक पदार्थ
- हानिकारक पदार्थ (श्वास लेने, निगलने या अवशोषित करने पर हानिकारक)
- पशु (जब हथियार के रूप में उपयोग किये जाते हैं)
घातक हथियार क्या नहीं है:
- खेलो राम मामले में कई महत्त्वपूर्ण अपवर्जन स्पष्ट किये गए:
मानव शरीर के अंग:
- दाँत, मुट्ठियाँ, पैर को घातक आयुध नहीं माना जाता।
- शकील अहमद बनाम दिल्ली राज्य (2004) मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से निर्णय दिया कि मानव दाँतों को घातक आयुध के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
मुख्य विधिक तर्क:
- भारतीय दण्ड संहिता में "उपकरण" शब्द का तात्पर्य बाह्य उपकरणों से है, न कि शरीर के अंगों से।
- "किसी भी उपकरण के माध्यम से" का तात्पर्य मानव शरीर से अलग किसी वस्तु से है।
सिविल कानून
पासपोर्ट अधिनियम, 1967
11-Sep-2025
नवप्रीत कौर बनाम भारत संघ और अन्य "पासपोर्ट आवेदन में वैवाहिक स्थिति या पति/पत्नी के नाम में अनजाने में हुई भूल पासपोर्ट अधिनियम की धारा 10(3)(ख) के अंतर्गत नहीं आती है और इसके लिये पासपोर्ट जब्त या रद्द करने का औचित्य नहीं ठहराया जा सकता है ।" न्यायमूर्ति हर्ष बंगर |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति हर्ष बंगर ने निर्णय दिया कि पासपोर्ट आवेदन में वैवाहिक स्थिति या पति या पत्नी के नाम का उल्लेख करने में अनजाने में हुई भूल पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 10(3)(ख) के अधीन पासपोर्ट को जब्त करने या रद्द करने का औचित्य नहीं रखती है। इसने स्पष्ट किया कि ऐसी अनजाने त्रुटियों को दण्डात्मक कार्रवाई के लिये "रिष्टि" नहीं माना जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने नवप्रीत कौर बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
नवप्रीत कौर बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- व्यक्तिगत इतिहास और विवाह: याचिकाकर्त्ता, नवप्रीत कौर ने 2000 में डॉ. सिद्धार्थ नरूला से विवाह किया और उनकी एक पुत्री है। विवाह से पहले उनके पास पासपोर्ट संख्या P514726 था और उन्होंने 2005 में पासपोर्ट संख्या F1754413 प्राप्त किया, जिसमें उनके पति का नाम "डॉ. सिद्धार्थ नरूला" दर्ज था। चंडीगढ़ के जिला न्यायाधीश द्वारा 02.04.2011 को जारी तलाक के आदेश के माध्यम से उनका विवाह भंग हो गया।
- पासपोर्ट समस्या: 2015 में, याचिकाकर्त्ता ने एक अज्ञात ट्रैवल एजेंट के माध्यम से अपना पासपोर्ट नवीनीकृत कराया और उसे 26.05.2015 दिनांकित पासपोर्ट संख्या M9280984 प्राप्त हुआ, जो 25.05.2025 तक वैध था। 2011 में तलाक के होते हुए भी, पति का नाम गलती से "सिद्धार्थ नरूला" लिखा गया था। याचिकाकर्त्ता का दावा है कि यह ट्रैवल एजेंट की अनजाने में हुई भूल थी।
- पश्चात्वर्ती घटनाएँ और परिवाद: याचिकाकर्त्ता ने 19.11.2023 को श्री नीरज कुमार से पुनर्विवाह किया। उसने 12.03.2024 और 18.12.2024 को पति/पत्नी के नाम में संशोधन के लिये आवेदन किया। यद्यपि, उसके दूसरे पति ने पंजाब सरकार के प्रवासी भारतीय मामलों के अधीक्षक के माध्यम से परिवाद दर्ज कराया, जिसमें उसके तलाकशुदा पति का नाम बताकर कपटपूर्ण पासपोर्ट बनवाने का आरोप लगाया गया।
- प्रशासनिक कार्रवाई: क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय, चंडीगढ़ ने वैवाहिक स्थिति की जानकारी छिपाने के संबंध में दिनांक 21.01.2025 को कारण बताओ नोटिस जारी किया। याचिकाकर्त्ता ने स्व-घोषणा प्रस्तुत कर बताया कि यह भूल जागरूकता की कमी और ट्रैवल एजेंट की संलिप्तता के कारण हुई। उसके स्पष्टीकरण के बावजूद, पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 10(3)(ख) के अधीन 29.01.2025 को उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया गया। संयुक्त सचिव एवं मुख्य पासपोर्ट अधिकारी, नई दिल्ली के समक्ष उसकी अपील 27.03.2025 को खारिज कर दी गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 10(3)(ख) के अधीन पासपोर्ट जब्त करने या रद्द करने का पासपोर्ट प्राधिकारियों का अधिकार विवेकाधीन है, जैसा कि "हो सकता है" शब्द से संकेत मिलता है। धारा 10(5) के अधीन इस अधिकार का प्रयोग करते समय प्राधिकारियों को संक्षिप्त कारण दर्ज करने होंगे।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 10(3)(ख) और 12(1)(ख) के अनुसार "पासपोर्ट प्राप्त करने के उद्देश्य से" जानकारी को छिपाना या गलत जानकारी देना आवश्यक है। ऐसी छिपाई गई जानकारी इतनी महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये कि यदि उसे सही ढंग से प्रकट किया जाता, तो धारा 5(2)(ग) के अधीन पासपोर्ट देने से इंकार कर दिया जाता।
- न्यायालय ने कहा कि वैवाहिक स्थिति या पति या पत्नी के नाम का प्रकटन करने में अनजाने में हुई भूल या चूक धारा 10(3)(बी) के अधीन रिष्टि नहीं मानी जाती हैं और पासपोर्ट जब्त करने या रद्द करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि पासपोर्ट नियम, 1980 की अनुसूची 3 में वैवाहिक स्थिति/पति/पत्नी के नाम की जानकारी अनजाने में छिपाने को मामूली अपराध माना गया है, जिसके लिये साक्षर आवेदकों पर केवल 500 रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है।
- न्यायालय ने पाया कि पासपोर्ट के दुरुपयोग या अनुचित लाभ को दर्शाने वाले साक्ष्य के अभाव में याचिकाकर्त्ता का स्पष्टीकरण उचित था। पूर्व पति का यह कथन कि उसके नाम का उल्लेख एक वास्तविक चूक थी, इस निष्कर्ष को और पुष्ट करता है।
- न्यायालय ने पाया कि अपीलीय प्राधिकारी याचिकाकर्त्ता के तर्क को नकारने में असफल रहे तथा केवल यह कहा कि पासपोर्ट रद्द के बाद उसका पुनः उपयोग नहीं किया जा सकता, जबकि उन्होंने नए आवेदन के लिये उसकी व्यावसायिक आवश्यकताओं को स्वीकार किया।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय, चंडीगढ़ और अपीलीय प्राधिकरण दोनों ने विधि और तथ्य में भूल की, जिसके कारण 29.01.2025 और 27.03.2025 के आदेशों को रद्द कर दिया गया।
पासपोर्ट अधिनियम, 1967 क्या है?
बारे में
- पासपोर्ट अधिनियम, 1967 भारत की संसद द्वारा पारित एक व्यापक विधि है जो भारतीय नागरिकों को पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज़ जारी करने और भारत से उनके प्रस्थान को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम भारत में पासपोर्ट प्रशासन के लिये प्राथमिक विधिक ढाँचे के रूप में कार्य करता है और पासपोर्ट जारी करने के लिये प्राधिकरण, प्रक्रियाएँ और शर्तें निर्धारित करता है।
- यह अधिनियम 24 जून, 1967 को लागू हुआ और पूरे भारत में लागू है, साथ ही भारत के बाहर रहने वाले भारतीय नागरिकों पर भी लागू होता है। यह पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज़ जारी करने, भारतीय नागरिकों और अन्य व्यक्तियों के भारत से प्रस्थान को विनियमित करने, और पासपोर्ट प्रशासन से संबंधित या उससे संबंधित मामलों का समाधान करने का प्रावधान करता है।
संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं?
पासपोर्ट अधिनियम, 1967:
- धारा 5(2)(ग) - पासपोर्ट, यात्रा दस्तावेज़ आदि के लिये आवेदन और उन पर आदेश।
- पासपोर्ट प्राधिकरण को पासपोर्ट या यात्रा दस्तावेज़ जारी करने से इंकार करने या अनुमोदन करने से इंकार करने का अधिकार देता है।
- धारा 6(2) - पासपोर्ट, यात्रा दस्तावेज़ आदि देने से इंकार करना।
- इसमें उन विशिष्ट आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर पासपोर्ट प्राधिकारी पासपोर्ट जारी करने से इंकार कर सकता है, जिनमें सम्मिलित हैं:
- भारत की गैर-नागरिकता
- भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिये हानिकारक गतिविधियाँ
- सुरक्षा चिंताएँ
- आपराधिक दोषसिद्धि
- लंबित आपराधिक कार्यवाही
- लंबित वारण्ट
- जनहित संबंधी विचार
- धारा 10(3)(ख) - पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज़ों में परिवर्तन, जब्ती और निरसन।
- पासपोर्ट प्राधिकरण को पासपोर्ट जब्त करने या रद्द करने का अधिकार देता है, यदि पासपोर्ट महत्त्वपूर्ण जानकारी छिपाकर या गलत जानकारी के आधार पर प्राप्त किया गया हो।
- धारा 10(5) - कारणों का अभिलेखन
- पासपोर्ट प्राधिकारी को आदेश दिया गया है कि वह परिवर्तन, निरस्तीकरण, जब्ती या निरसन के आदेश देते समय कारणों का संक्षिप्त विवरण लिखित रूप में दर्ज करे।
- धारा 11 - अपील प्रावधान
- पासपोर्ट अधिनियम, 1967 के अंतर्गत अपीलीय प्राधिकारी का प्रावधान।
- धारा 12(1)(ख) - अपराध और दण्ड
- पासपोर्ट प्राप्त करने के उद्देश्य से जानबूझकर गलत जानकारी देने या महत्त्वपूर्ण जानकारी छिपाने पर दण्ड का उपबंध।
- इसमें उन विशिष्ट आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर पासपोर्ट प्राधिकारी पासपोर्ट जारी करने से इंकार कर सकता है, जिनमें सम्मिलित हैं:
पासपोर्ट नियम, 1980:
- अनुसूची 3 - सूचना छिपाने पर दण्ड
- वैवाहिक स्थिति/पति या पत्नी के नाम के बारे में जानकारी को अनजाने में छिपाने को मामूली अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
- ऐसे छोटे-मोटे दोषों के लिये साक्षर आवेदकों के लिये 500 रुपए का जुर्माना निर्धारित किया गया है।
वाणिज्यिक विधि
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138
11-Sep-2025
एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक "भले ही परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 142 के अधीन विलंब को क्षमा किया जा सकता है, न्यायालय को पहले विलंब को नोट करना चाहिये, परिवादकर्त्ता के कारणों का आकलन करना चाहिये, और उसके बाद ही संज्ञान और समन पर निर्णय लेना चाहिये।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और के विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने एक चेक अनादरण परिवाद को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 142(ख) के अधीन 30 दिन की समय-सीमा अनिवार्य है। उन्होंने कहा कि विलंब को केवल वैध कारणों के साथ औपचारिक आवेदन के माध्यम से ही क्षमा किया जा सकता है, न कि उपधारणा या स्वतः क्षमा के माध्यम से।
- उच्चतम न्यायालय ने एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- वर्तमान मामला मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक द्वारा एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड और इसके निदेशकों एच.एस. ओबेरॉय और मनवीर सिंह ओबेरॉय के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अधीन दर्ज चेक अनादरण के परिवाद से उत्पन्न हुआ।
- प्रत्यर्थी मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत परक्राम्य लिखत (चेक) के अनादरण का आरोप लगाते हुए एक परिवाद दर्ज कराया। यद्यपि, यह परिवाद अधिनियम की धारा 142(ख) के अधीन निर्धारित 30 दिनों की सांविधिक परिसीमा काल से पाँच दिन बाद दर्ज की गई थी।
- परिवाद दर्ज करने में हुई विलं की बात स्वीकार करने के बावजूद, विचारण न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को समन जारी किया। विचारण न्यायालय ने अपने आदेश में गलती से यह दर्ज कर दिया कि परिवाद समय-सीमा के भीतर दर्ज किया गया था, जो तथ्यात्मक रूप से गलत था।
- अपीलकर्त्ताओं ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने समन जारी करने के विचारण न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा, तथा कहा कि विचारण न्यायालय को अधिनियम की धारा 142(ख) के अधीन विलंब को क्षमा करने का अधिकार है और विलंब को क्षमा करने के लिये औपचारिक आवेदन दायर करना कोई सांविधिक आदेश नहीं है।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ताओं ने विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसे आपराधिक अपील में परिवर्तित कर दिया गया।
- प्रत्यर्थी के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि विलंब की क्षमा के लिये आवेदन तैयार किया गया था, परंतु अनजाने में उसे परिवाद के साथ दायर नहीं किया गया, तथा ऐसा आवेदन अभी भी विचारण न्यायालय में लंबित है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत परिसीमा काल की अनिवार्य प्रकृति और विलंब की क्षमा की प्रक्रिया के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं:
- न्यायालय ने कहा कि जब किसी संविधि में परिवाद दर्ज करने के लिये अनिवार्य समय सीमा विहित कर दी जाती है, तो उसमें कोई विचलन नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि परिवाद के साथ उचित आवेदन दायर किया जाए, जिसमें विलंब के लिये क्षमा मांगी जाए और विलंब के कारणों का प्रकटन किया जाए।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि न्यायालय के लिये यह अनिवार्य है कि वह परिसीमा से परे इस तरह के दाखिलों पर ध्यान दे तथा किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले स्वतंत्र रूप से प्रकट किये गए कारणों पर विचार करे कि उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, क्षमा न्यायोचित है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विशुद्ध रूप से विधिक दृष्टिकोण से, जहाँ यह तथ्य स्वीकार किया जाता है कि परिवाद विधि के अधीन विहित काल के बाद दायर किया गया था, वहाँ विलंब के लिये स्वतः या प्रकल्पित क्षमा नहीं हो सकती।
- न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय ने यह मानते हुए गलत उपधारणा की थी कि परिवाद परिसीमा काल के भीतर दायर किया गया था, जबकि यह निश्चित रूप से विहित समय सीमा से पाँच दिन बाद दायर किया गया था।
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 142 के अधीन न्यायालय को विलंब को क्षमा करने की शक्ति होने पर भी, प्रथम आवश्यकता यह है कि न्यायालय को इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिये कि विलंब हुआ है और उसके बाद जांच करनी चाहिये कि क्या परिवादकर्त्ता द्वारा दिये गए कारण ऐसे विलंब को क्षमा करने के लिये पर्याप्त हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय की यह राय कि विलंब की माफी के लिये आवेदन दायर करना अधिनियम की धारा 142(ख) के अधीन सांविधिक आदेश नहीं है, विधि की दृष्टि से गलत है।
- न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में उचित प्रक्रिया का बिल्कुल भी पालन नहीं किया गया है, क्योंकि न तो परिवाद के साथ विलंब के लिये माफी का कोई औपचारिक आवेदन दायर किया गया था, न ही विचारण न्यायालय ने संज्ञान लेने से पहले विलंब के कारणों की न्यायिक जांच की थी।
- उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संज्ञान लेने और समन जारी करने के आदेश में हस्तक्षेप की आवश्यकता है और इसे विधि में कायम नहीं रखा जा सकता।
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और 142 क्या है?
धारा 138 - अपराध के तत्त्व:
बारे में:
- धारा 138 अपर्याप्त धनराशि या निर्धारित राशि से अधिक होने के कारण चेक के अनादरण को सांविधिक अपराध बनाती है।
- इस धारा के अंतर्गत अपराध गठित करने के लिये आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं:
- प्राथमिक आवश्यकता : किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को धन के संदाय के लिये बैंक में अपने खाते पर लिखे गए चेक को अपर्याप्त धनराशि या निर्धारित ओवरड्राफ्ट सीमा से अधिक धनराशि होने के कारण बैंक द्वारा बिना संदाय के वापस कर दिया जाना चाहिये।
परंतुक के अंतर्गत तीन अनिवार्य शर्तें:
- लिखे जाने की तिथि से छह मास के भीतर या इसकी वैधता अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, बैंक को प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- चेक पाने वाला या धारक को बैंक से चेक के अवैतनिक वापस आने की सूचना प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर लेखीवाल को लिखित मांग नोटिस जारी करना होगा।
- मांग नोटिस प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर लेखीवाल को चेक राशि का संदाय करने में असफल होना होगा ।
- दण्ड का उपबंध : इन शर्तों की पूर्ति होने पर, चेक के लेखिवाल द्वारा अपराध किया जाता है जिसके लिये दो वर्ष तक का कारावास या चेक राशि के दोगुने तक का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
- परिसीमा का विस्तार : ऋण या दायित्त्व विधिक रूप से प्रवर्तनीय होना चाहिये जैसा कि धारा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है।
धारा 142 - संज्ञान के लिये प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ
धारा 142, धारा 138 के अंतर्गत अपराधों का संज्ञान लेने के लिये अनिवार्य प्रक्रियात्मक ढाँचा निर्धारित करती है:
- परिवाद-आधारित अधिकारिता : न्यायालय केवल चेक पाने वाले या धारक द्वारा चेक जारी करने के समय दायर किये गए लिखित परिवाद पर ही संज्ञान ले सकते हैं।
- परिसीमा काल : धारा 138 के उपबंध के खण्ड (ग) के अधीन वाद-हेतुक उत्पन्न होने के एक मास के भीतर परिवाद दर्ज किया जाना चाहिये, जिसका अर्थ है पंद्रह दिन की नोटिस अवधि की समाप्ति से एक मास के भीतर।
- क्षमा उपबंध : धारा 142(ख) का परंतुक न्यायालयों को विहित एक मास की अवधि के पश्चात् दायर परिवादों का संज्ञान लेने का अधिकार देता है, बशर्ते परिवादकर्त्ता न्यायालय को विलंब के लिये पर्याप्त कारण बता दे।
- न्यायालय पदानुक्रम : केवल महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट को ही ऐसे अपराधों का विचारण करने का अधिकार है।
- प्रादेशिक अधिकारिता : धारा 142(2) में निर्दिष्ट किया गया है कि अपराध का विचारण केवल उन न्यायालयों द्वारा किया जाएगा जिनकी अधिकारिता में या तो चेक पाने वाले की बैंक शाखा (खाते के माध्यम से संग्रहण के लिये) या ऊपरवाल की बैंक शाखा (प्रत्यक्ष प्रस्तुति के लिये) स्थित है।