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आपराधिक कानून
संयुक्त विचारण का पृथक्करण
16-Sep-2025
"उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब अपराध एक ही संव्यवहार से उत्पन्न होते हैं तो संयुक्त विचारण अनिवार्य है, तथा केवल राजनीतिक स्थिति ही पृथक् विचारण को उचित नहीं ठहरा सकती।" न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने मम्मन खान बनाम हरियाणा राज्य (2025) मामले में विचारण न्यायालय के उन आदेशों को अपास्त कर दिया, जिनमें एक मौजूदा विधायक के विचारण को सह-अभियुक्तों से केवल उसकी राजनीतिक स्थिति के आधार पर पृथक् कर दिया गया था। पीठ ने इस बात पर बल दिया कि इस तरह का पृथक्करण समता और निष्पक्ष विचारण के सांविधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब अपराध एक ही संव्यवहार से उत्पन्न होते हैं तो संयुक्त विचारण अनिवार्य है, तथा केवल राजनीतिक स्थिति के आधार पर पृथक् विचारण को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
मम्मन खान बनाम हरियाणा राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता मम्मन खान हरियाणा के फिरोजपुर झिरका निर्वाचन क्षेत्र से विधान सभा का सदस्य (MLA) हैं।
- उन्हें नूंह जिले के नगीना पुलिस स्टेशन में दिनांक 01.08.2023 को दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 149 और 150 में एक अभियुक्त के रूप में नामित किया गया था।
- ये दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIRs) 31.07.2023 को नूंह जिले में हुई बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा के संबंध में दर्ज की गईं।
- आरोपों में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराएँ 148, 149, 153क, 379क, 395, 397, 427, 436, 506, 201, 120ख और 107 सम्मिलित थीं।
- अन्वेषण के दौरान, कई व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया गया और विचारण न्यायालय में संयुक्त कार्यवाही शुरू हुई।
- दिनांक 28.08.2024 और 02.09.2024 के आदेशों द्वारा, अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश, नूंह ने स्टेशन हाउस अधिकारी को अपीलकर्त्ता के विरुद्ध एक पृथक् आरोप पत्र दायर करने का निदेश दिया और उसके विचारण को सह-अभियुक्तों से अलग कर दिया।
- विचारण न्यायालय का तर्क था कि एक मौजूदा विधायक के रूप में, अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ (2024) में उच्चतम न्यायालय के निदेशों के अनुसार उनके मामले को दिन-प्रतिदिन के आधार पर लिया जाना चाहिये।
- अपीलकर्त्ता ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक विविध याचिकाओं के माध्यम से पृथक्करण आदेशों को चुनौती दी, जिन्हें 12.12.2024 को खारिज कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
मुख्य टिप्पणियाँ:
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि यह पृथक्करण केवल अपीलकर्त्ता के विधायक होने की स्थिति के आधार पर किया गया था, तथा इसका कोई विधिक औचित्य नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि पृथककरण आदेश पारित करने से पहले अपीलकर्त्ता को कोई नोटिस जारी नहीं किया गया था, न ही अभियोजन पक्ष द्वारा ऐसी कार्रवाई की मांग करते हुए कोई आवेदन दायर किया गया था।
- अपीलकर्त्ता को सुनवाई का अवसर दिये बिना, स्वप्रेरणा से पृथक्करण का आदेश दिया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विचारण न्यायालय ने पुलिस को अलग से आरोप पत्र दाखिल करने का निदेश देकर अपनी अधिकारिता का अतिक्रमण किया है, क्योंकि यह विवेकाधिकार पूरी तरह से अन्वेषण अभिकरण के पास है।
- न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष का मामला एक व्यापक षड्यंत्र पर आधारित है, जिसमें साक्ष्य आपस में जुड़े हुए हैं, जिससे पृथक्करण विधिक रूप से अग्राह्य है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अश्विनी कुमार उपाध्याय के निदेश शीघ्र निपटान पर बल देते हैं, परंतु संयुक्त विचारणों को नियंत्रित करने वाले अनिवार्य विधिक मानदंडों से विचलन को अधिकृत नहीं करते हैं ।
- न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता का वर्तमान विधायक होने का दर्जा अपने आप में पृथक् विचारण चलाने का औचित्य नहीं दे सकता, क्योंकि विधि के समक्ष सभी अभियुक्त समान हैं।
- न्यायालय ने निदेश दिया कि मामले को विधि के अनुसार संयुक्त विचारण करने के निदेश के साथ विचारण न्यायालय को भेज दिया जाए।
संयुक्त विचारणों पर प्रमुख विधिक प्रस्ताव:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 223 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 243) की व्याख्या करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहाँ एक ही संव्यवहार से उत्पन्न अपराधों में कई अभियुक्त सम्मिलित हैं, वहाँ संयुक्त विचारण ग्राह्य है, और पृथक् विचारण तभी उचित होगा जब प्रत्येक अभियुक्त के कृत्य भिन्न-भिन्न और पृथक् करने योग्य हों।
- न्यायालय ने संयुक्त विचारण के संबंध में पाँच मौलिक प्रस्ताव रखे, जो भविष्य में एक से अधिक अभियुक्तों से संबंधित मामलों के लिये रूपरेखा स्थापित करते हैं।
(i) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 218 के अधीन सुभिन्न विचारण का नियम है, संयुक्त विचारण की अनुमति हो सकती है जहाँ अपराध एक ही संव्यवहार का भाग हैं या दण्ड प्रक्रिया संहिता की की धारा 219-223 की शर्तें पूरी होती हैं, परंतु तब भी यह न्यायिक विवेक का मामला है।
(ii) संयुक्त या पृथक् विचारण का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही के प्रारंभ में तथा ठोस कारणों से लिया जाना चाहिये।
(iii) ऐसे निर्णय लेने में दो सर्वोपरि विचारणीय बातें यह हैं कि क्या संयुक्त विचारण से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा, और क्या इससे न्यायिक समय में देरी होगी या उसकी बर्बादी होगी।
(iv) एक विचारण में दर्ज साक्ष्य को दूसरे विचारण में सम्मिलित नहीं किया जा सकता, जिससे विचारण के दो हिस्सों में बंट जाने पर गंभीर प्रक्रियागत जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
(v) दोषसिद्धि या दोषमुक्ति के आदेश को केवल इसलिये अपास्त नहीं किया जा सकता कि संयुक्त या पृथक् विचारण संभव था; हस्तक्षेप केवल तभी उचित है जब पक्षपात या न्याय में चूक दिखाई गई हो।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 243 क्या है?
यह धारा पाँच परिदृश्यों को रेखांकित करती है जहाँ एक ही व्यक्ति पर एक ही विचारण में कई अपराधों के लिये विचारण चलाया जा सकता है:
- एक ही संव्यवहार का नियम (उपधारा 1):
- जब एक ही संव्यवहार से संबंधित कई अपराध जुड़े हुए कार्यों की एक श्रृंखला से उत्पन्न होते हैं।
- ऐसे सभी अपराधों का विचारण एक ही विचारण में एक साथ किया जा सकता है।
- मिथ्याकरण के साथ आपराधिक न्यासभंग (उपधारा 2):
- जब किसी पर आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से संपत्ति के दुर्विनियोग का आरोप लगाया जाता है।
- और प्राथमिक अपराध को सुविधाजनक बनाने या छिपाने के लिये लेखाओं में मिथ्याकरण भी करता है।
- दोनों प्रकार के अपराधों का विचारण एक साथ किया जा सकता है।
- बहुविध विधिक परिभाषाएँ (उपधारा 3):
- जब एक ही कृत्य विभिन्न विधिक परिभाषाओं या विधियों के अधीन अपराध बनते हैं।
- अभियुक्त पर प्रत्येक अपराध के लिये एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण चलाया जा सकता है।
- भिन्न अपराध उत्पन्न करने वाले संयुक्त कृत्य (उपधारा 4):
- जब कई कृत्य पृथक्-पृथक् अपराध बनाते हैं, किंतु संयुक्त होने पर एक पृथक् अपराध बनाते हैं।
- व्यक्ति पर संयुक्त अपराध और व्यक्तिगत घटक अपराध दोनों के लिये विचारण चलाया जा सकता है।
- व्यावृति खण्ड (उपधारा 5):
- यह धारा भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 9 को प्रभावित नहीं करती है।
आपराधिक कानून
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अधीन आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना
16-Sep-2025
“अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा है कि पीड़िता को आवेदक द्वारा बहला-फुसलाकर ले जाया गया था। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अधीन अपराध के आवश्यक तत्त्व सिद्ध नहीं हुए हैं।” न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हिमांशु दुबे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 363 के अधीन आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि पीड़ित से केवल बात करना व्यपहरण के आरोपों के लिये उसे बहकाना नहीं माना जा सकता, जब पीड़ित ने पारिवारिक उत्पीड़न के कारण स्वेच्छा से घर छोड़ दिया हो।
हिमांशु दुबे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- दिनांक 25.12.2020 को थाना गौरी बाजार, जिला देवरिया में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अधीन एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी, जिसमें अभिकथन किया गया था कि दिनांक 24.12.2020 को शाम 7:30 बजे, आवेदक ने सूचना देने वाली की भतीजी, जिसकी आयु लगभग 16 वर्ष थी, को बहला-फुसलाकर भगा ले गया।
- कथित पीड़िता के परिवार के सदस्यों ने आवेदक के साथ उसकी फोन पर बातचीत का पता चलने पर उसकी पिटाई की और उसे बिजली का झटका दिया, जिसके कारण वह 23.12.2020 को शाम 6:30 बजे स्वेच्छा से घर छोड़कर चली गई।
- अन्वेषण के दौरान, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन पीड़िता के कथन से पता चला कि वह पारिवारिक उत्पीड़न के कारण अकेले घर छोड़कर सीवान चली गई थी और पुलिस थाने लाए जाने से पहले दो दिन तक वहीं रही।
- दिनांक 28.12.2020 को मेडिकल परीक्षण कराया गया, जिसमें पीड़िता ने आंतरिक एवं बाह्य परीक्षण से इंकार किया तथा डॉक्टर के समक्ष बताया कि वह पारिवारिक प्रताड़ना के कारण स्वेच्छा से घर से चली गयी थी।
- मुख्य चिकित्सा अधिकारी के अनुसार 29.12.2020 को किये गए एक्स-रे से पीड़िता की आयु लगभग 18 वर्ष निर्धारित हुई।
- 1.1.2021 को दर्ज दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन पीड़िता के कथन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वह स्वेच्छा से घर से गई थी और उसके परिवार के सदस्यों ने आवेदक को गलत तरीके से फंसाया था।
- अन्वेषण अधिकारी ने 19.1.2021 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अधीन आरोप पत्र प्रस्तुत किया और मजिस्ट्रेट ने 7.7.2023 को संज्ञान लिया।
- उल्लेखनीय बात यह है कि अभियोजन पक्ष के आरोपपत्र में पीड़िता को साक्षी नहीं बनाया गया, केवल सूचनाकर्त्ता और पीड़िता की माता को ही साक्षी के रूप में उद्धृत किया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
विधिक ढाँचे का विश्लेषण:
- न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 361 की जांच की, जो वैध संरक्षकता से व्यपहरण को परिभाषित करती है, जिसके अधीन 18 वर्ष से कम आयु की किसी अवयस्क (महिला) को उसकी सम्मति के बिना वैध संरक्षक की देखरेख से बाहर ले जाना या बहलाना सम्मिलित है।
- न्यायमूर्ति चौहान ने इस बात पर बल दिया कि धारा 361 लागू होने के लिये, अभियुक्त की ओर से "वचन, प्रस्ताव, प्रलोभन या बल" होना चाहिये, जिसके परिणामस्वरूप अवयस्क को वैध संरक्षकता से दूर ले जाया गया हो या बहकाया गया हो।
उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णय:
- न्यायालय ने ठाकोरलाल डी. यादगदामा बनाम गुजरात राज्य (1973) मामले पर विश्वास किया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि यदि कोई अवयस्क "दोषी पक्षकार की ओर से दिये गए किसी भी वचन, प्रस्ताव या प्रलोभन से पूरी तरह अप्रभावित" होकर अपने माता-पिता का घर छोड़ता है, तो धारा 361 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन कोई अपराध नहीं होता है।
- वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1965) का संदर्भ दिया गया, जिसमें "ले जाने" और "अवयस्क को साथ जाने की अनुमति देने" के बीच अंतर किया गया, जिसमें अवयस्क के जाने के आशय को बनाने में "किसी प्रकार के प्रलोभन" या "सक्रिय भागीदारी" की आवश्यकता होती है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 क्या है?
बारे में:
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 में व्यपहरण के लिये दण्ड का उपबंध है, जिसमें धारा 359 के अधीन दो प्रकार सम्मिलित हैं - भारत से व्यपहरण और वैध संरक्षकता से व्यपहरण।
दण्ड:
- धारा 363 के अधीन सात वर्ष तक के कारावास का उपबंध है तथा जुर्माना भी देना होगा।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 137 (BNS):
- नई दण्ड संहिता में धारा 363 भारतीय दण्ड संहिता के समतुल्य प्रावधान।
- समान दायरा : व्यपहरण के अपराधों के लिये दण्ड को सम्मिलित करता है।
- निरंतरता : भारतीय दण्ड संहिता के समान दण्ड ढाँचे को बनाए रखता है।