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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में 2018 का संशोधन भूतलक्षी प्रभाव नहीं रखता

 31-Oct-2025

"विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में 2018 के संशोधन का कोई भूतलक्षी प्रभाव नहीं है और यह उन वादों या संव्यवहार पर लागू नहीं होता है जो इसके लागू होने से पहले उत्पन्न हुए थे।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अन्नामलाई बनाम वासंती एवं अन्य (2025)के मामले में स्पष्ट कियाकि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 में 2018 का संशोधन, जिसने संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन को अनिवार्य अनुतोष बना दिया था, का कोई भूतलक्षी प्रभाव नहीं है और यह उन वादों या संव्यवहारों पर लागू नहीं होता है जो इसके लागू होने से पहले उत्पन्न हुए थे। 

अन्नामलाई बनाम वसंती एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ता (क्रेता) और प्रतिवादी (विक्रेता) के बीच विक्रय हेतुएककरार किया गया। 
  • प्रतिवादी ने संविदा की अवधि समाप्त होने के छह महीने बाद वादी से अतिरिक्त राशि स्वीकार करने के बावजूद, संविदा को समाप्त करने का प्रयास किया, जबकि उसके पास संविदा समाप्त करने का कोई अधिकार नहीं था। 
  • विचारण न्यायालय नेवादी केविनिर्दिष्ट पालन के वाद को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद दायर करने से पहले वादी द्वारा समाप्ति को अमान्य करने की कोई घोषणा नहीं मांगी गई थी। 
  • प्रथम अपीलीय न्यायालय नेविचारण न्यायालय के निर्णय को पलट दियातथा वाद को विनिर्दिष्ट पालन के लिये आदेशित किया, यह मानते हुए कि समाप्ति को अमान्य घोषित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।  
  • प्रथम अपीलीय न्यायालय ने तर्क दिया कि अतिरिक्त प्रतिफल राशि स्वीकार करने पर, विक्रेता ने अतिरिक्त प्रतिफल स्वीकार करने के आचरण के माध्यम से संविदा को समाप्त करने के अपने अधिकार का परित्याग करके संविदा को गलत तरीके से अस्वीकार कर दिया था। 
  • उच्च न्यायालय ने द्वितीय अपील में प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को उलट दिया, जिसके कारण वादी-क्रेता को उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। 
  • उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय 2018 के संशोधन से पहले 2 फरवरी, 2018 को दिया गया था। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 2018 के संशोधन (2018 के अधिनियम 18 के माध्यम से लाया गया) से पूर्व, विनिर्दिष्ट पालन का अनुदान न्यायिक विवेक का मामला था, अनिवार्य अनुतोष नहीं। 
  • पीठ नेकट्टा सुजाता रेड्डी बनाम सिद्धमसेट्टी इंफ्रा प्रोजेक्ट्स (पी.) लिमिटेड (2022) में अपने पहले के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि 2018 का संशोधन प्रकृति में भावी था और इसके लागू होने से पूर्व संस्थित की गई संविदाओं या वादों को नियंत्रित नहीं कर सकता था। 
  • यद्यपि कट्टा सुजाता रेड्डी मामले में दिये गए निर्णय पर बाद में पुनर्विचार किया गया औरसिद्धमसेट्टी इंफ्रा प्रोजेक्ट्स (पी.) लिमिटेड बनाम कट्टा सुजाता रेड्डी (2024)में इसे वापस ले लिया गया, किंतु उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पुनर्विचार निर्णय में भी ऐसा कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं था कि संशोधित प्रावधान पहले दायर किये गए वादों पर लागू होंगे।  
  • न्यायालय ने कहा: "इसमें कोई संदेह नहीं है कि सिद्धमसेट्टी इंफ्रा प्रोजेक्ट्स (पी.) लिमिटेड बनाम कट्टा सुजाता रेड्डी के मामले में इस निर्णय पर पुनर्विचार किया गया और इसे वापस लिया गया, किंतु पुनर्विचार आदेश/निर्णय में इस न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह नहीं माना कि संशोधित प्रावधान 2018 के संशोधन से पूर्व संस्थित किये गए वादों पर लागू होंगे। पुनर्विचार निर्णय केवल इस धारणा पर आगे बढ़ा कि संशोधन से पूर्व संस्थित किये गए वादों के लिये विनिर्दिष्ट पालन का अनुदान विवेकाधीन बना रहा।"    
  • न्यायालय ने कहा कि चूँकि विवादित निर्णय 2 फरवरी, 2018 को दिया गया था, संशोधन लागू होने से पहले, इसलिये वह उस समय लागू विधि के आधार पर इस विवाद्यक पर निर्णय लेने के लिये बाध्य था।   
  • न्यायालय ने कहा: "हमारे विचार में, अतिरिक्त धनराशि की स्वीकृति न केवल अग्रिम धनराशि/प्रतिफल को जब्त करने के अधिकार का परित्याग दर्शाती है, अपितु करार के अस्तित्व को भी स्वीकार करती है।" 
  • न्यायालय ने कहा कि बाद में समाप्ति का नोटिस गलत तरीके से अस्वीकार किया गया था, न कि संविदात्मक अधिकार का वैध प्रयोग। 
  • इस प्रकार क्रेता को बिना किसी घोषणा के सीधे विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद करने का अधिकार प्राप्त हो गया। 
  • उच्चतम न्यायालय नेउच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दियातथा प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को बहाल कर दिया तथा अपील को स्वीकार कर लिया। 

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 क्या है? 

बारे में: 

  • विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 एक ऐसी विधि है जो उन व्यक्तियों के लिये उपचार प्रदान करती है जिनके सिविल या संविदात्मक अधिकारों का उल्लंघन किया गया है। 
  • यह अधिनियम संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन, लिखतों के सुधार, संविदाओं के निरसन और लिखतों के निरस्तीकरण से संबंधित है। 

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम संशोधन अधिनियम, 2018:  

विनिर्दिष्ट अनुतोष (संशोधन) अधिनियम, 2018  

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गए।  

राष्ट्रपति की स्वीकृति 

1 अगस्त 2018 

प्रवर्तन तिथि 

1 अक्टूबर 2018 

सिफारिश 

विशेषज्ञ समिति ने श्री आनंद देसाई के नेतृत्व में सरकार द्वारा गठित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की जांच शुरू की। 

उद्देश्य 

कारबार में आसानी सुनिश्चित करने के लिये 

 प्रमुख संशोधन: 

धारा 10 और 11 - मुख्य परिवर्तन: 

  • विनिर्दिष्ट पालन को विवेकाधीन ("हो सकता है") से अनिवार्य ("होगा") में परिवर्तित किया गया।  
  • न्यायालयों को अब विनिर्दिष्ट पालन प्रदान करना होगा जब तक कि विशिष्ट अपवाद लागू न हों (धारा 11(2), 14, और 16)। 

धारा 6 –बेकब्जा किये गए वाद में : 

  • इसमें "वह व्यक्ति जिसके माध्यम से" पीड़ित पक्षकार का कब्जा था, को सम्मिलित करने के लिये दायरा बढ़ाया गया। 
  • अब अधिक पक्षकार स्थावर संपत्ति से बेकब्जा होने के लिये वाद दायर कर सकेंगे। 

धारा 20 - प्रतिस्थापित पालन (नया उपबंध): 

  • पीड़ित पक्षकार 30 दिन का नोटिस देकर तीसरे पक्षकार से पालन करा सकते है। 
  • व्यतिकारी पक्षकार से लागत वसूल की जा सकती है। 
  • यह तब तक लागू होता है जब तक संविदा में अन्यथा उल्लेख न हो। 

धारा 21 – प्रतिकर: 

  • "या तो...या" को "इसके अतिरिक्त" में परिवर्तित किया गया है - अब प्रतिकर विनिर्दिष्ट पालन का पूरक होगा (प्रतिस्थापित नहीं)  

ऐसी संविदाएँ, जो प्रवर्तनीय नहीं है (धारा 14) 

निम्नलिखित के लिये विनिर्दिष्ट पालन प्रदान नहीं किया जा सकता:  

  • प्रतिस्थापित पालन संविदा 
  • निरंतर कर्त्तव्य से संबंधित संविदा 
  • संविदा व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर होती हैं। 
  • अवधारणीय प्रकृति की संविदा 

अवसंरचना परियोजनाओं के लिये विशेष उपबंध 

नई धाराएँ 20, 20, 20: 

  • 20:अवसंरचना परियोजना की प्रगति में बाधा डालने वाले व्यदेशों पर रोक लगाती है। 
  • 20:अवसंरचना संविदा विवादों के लिये विशेष न्यायालयों को नामित करती है। 
  • 20: 12 महीने के भीतर निपटान अनिवार्य (6 मास तक बढ़ाया जा सकता है)  
  • धारा 41(जक): कोईव्यादेश नहीं जिससे अवसंरचना परियोजनाओं में विलंब हो। 
  • अनुसूची:इसमें सम्मिलित अवसंरचना परियोजनाओं की श्रेणियों को सूचीबद्ध करता है। 

अन्य उल्लेखनीय परिवर्तन: 

धारा 14क - विशेषज्ञ सहायता: 

  • न्यायालय विनिर्दिष्ट विवाद्यकों पर राय के लिये विशेषज्ञों की सेवाएँ ले सकते हैं। 
  • पक्षकार खुले न्यायालय में विशेषज्ञों से पूछताछ कर सकते हैं।  

धारा 15 और 19 - सीमित देयता भागीदारी (LLP) उपबंध : 

  • एकीकृत सीमित देयता भागीदारी (LLP) घटक की संविदाओं को लागू कर सकते हैं/उनसे बाध्य हो सकते हैं। 

धारा 16() – सबूत की आवश्यकताएँ: 

  • पक्षकार को केवल निष्पादन हेतु तत्परता/इच्छा साबित करने की आवश्यकता होती है। 
  • अभिवचनों में कथन की आवश्यकता नहीं है। 

धारा 25:माध्यस्थम्और सुलह अधिनियम, 1996 को प्रतिबिंबित करने के लिये अद्यतन किया गया। 


सिविल कानून

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263

 31-Oct-2025

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 के स्पष्टीकरण (क) से (ङ) प्रोबेट या प्रशासन पत्रों के अनुदान को प्रतिसंह्रत या बातिल करने के लिये न्यायोचित कारण' के संदर्भ में दृष्टांतदर्शक प्रकृति के हैं।" 

न्यायमूर्ति एम.एस. कार्णिक और एन.आर. बोरकर 

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

सरवन कुमार झाबरमल चौधरी बनाम सचिन श्यामसुंदर बेगराजका (2025)के मामले में न्यायमूर्ति एम.एस. कार्णिक और एन.आर. बोरकर की खंडपीठ नेनिर्णय दिया कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 के स्पष्टीकरण (क) से (ङ) दृष्टांतदर्शक हैं और प्रोबेट या प्रशासन पत्रों के अनुदान का प्रतिसंहरण करने या निरस्त करने के लिये "न्यायोचित कारण" निर्धारित करने में संपूर्ण नहीं हैं।  

सरवन कुमार झाबरमल चौधरी बनाम सचिन श्यामसुंदर बेगराजका (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

तथ्यात्मक पृष्ठभूमि: 

  • इक्वाडोर के निवासी राजेश चौधरी की 25 जुलाई 2020 कोआत्महत्या (फाँसी से दम घुटने) से मृत्यु हो गई। 
  • 9 दिसंबर 2020 को प्रत्यर्थी ने वसीयती याचिका संख्या 109/2021 दायर की, जिसमें मृतक द्वारा कथित रूप से 3 मार्च 2022 को निष्पादित वसीयत की प्रोबेट की मांग की गई। 
  • याचिकाकर्त्ता (मृतक के पुत्र) ने 20 मई 2021 को सहायक शपथपत्र के साथ एक कैविएट दायर की। 
  • अधिवक्ता द्वारा कार्यालय संबंधी आपत्तियां दूर करने में असफल रहने के कारण कैविएट खारिज कर दी गई। 
  • 10 नवंबर 2023 को अतिरिक्त प्रोथोनोटरी और वरिष्ठ मास्टर ने प्रोबेट प्रदान किया। 

याचिकाकर्त्ता की चुनौती: 

  • याचिकाकर्त्ता नेभारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 के अधीन प्रोबेट अनुदान का प्रतिसंहरण करने के लिये एक विविध याचिका दायर की।  
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि मृतक की मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई। 
  • दो सत्यापनकर्त्ता साक्षियों के शपथपत्रों से पता चला कि वसीयतकर्त्ता ने वसीयत पर हस्ताक्षर इक्वाडोर में किये थे, जबकि साक्षियों ने भारत में हस्ताक्षर किये, जो कथित तौर पर उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 का उल्लंघन है, जिसके अधीन सत्यापनकर्त्ता साक्षियों को वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में हस्ताक्षर करना आवश्यक है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि तकनीकी कारणों से कैविएट खारिज होने के कारण वैध आपत्तियाँ प्रस्तुत नहीं की जा सकीं। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

लागू किये गए प्रमुख सिद्धांत: 

खण्डपीठ ने सांविधिक निर्वचन के सिद्धांतों पर विश्वास किया: 

  • स्पष्टीकरण खण्डों का कार्य:स्पष्टीकरण मुख्य प्रावधान को उसके दायरे को विस्तारित या सीमित किये बिना स्पष्ट करता है और इसे मुख्य धारा के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ा जाना चाहिये 
  • "डीम्ड" का अर्थ:यह शब्द एक विधिक कल्पना का निर्माण करता है। स्पष्टीकरण (क) से (ङ) में वर्णित परिस्थितियों में, उचित कारण स्वतः ही अस्तित्व में माना जाता है, किंतु इससे अन्य परिस्थितियों में न्यायोचित कारण का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। 
  • उद्देश्यपूर्ण निर्माण:जब भाषा अनेक निर्वचनों की अनुमति देती है, तो न्यायालयों को ऐसे निर्वचन अपनाने चाहिये जो विधायी उद्देश्य को आगे बढ़ाए और बेतुकेपन से बचाए। 
  • विधायी आशय: "न्यायोचित कारण है" से "जहाँ विद्यमान माना जाएगा" में जानबूझकर किया गया परिवर्तन, निर्दिष्ट परिस्थितियों के लिये एक काल्पनिक कल्पना का निर्माण करते हुए न्यायिक विवेक को व्यापक बनाने की विधायी आशय को दर्शाता है। 

न्यायिक पूर्व निर्णयों की जांच: 

  • बाल गंगाधर तिलक बनाम सकवरबाई (1902)जैसेपूर्ववर्ती मामलों मेंपूर्ववर्ती अधिनियमों के प्रावधानों की व्याख्या भिन्न सांविधिक भाषा के अंतर्गत संपूर्ण के रूप में की गई थी। 
  • जॉर्ज एंथनी हैरिस (1933)औरशरद शंकरराव माने (1997) नेस्पष्टीकरण को संपूर्ण माना, किंतु 1925 के अधिनियम में परिवर्तित शब्दावली पर विचार करने में असफल रहे। 
  • मद्रास, कलकत्ता और अन्य न्यायालयों ने माना था कि " न्यायोचित कारण" का विस्तार प्रगणित आधारों से परे है।  

मुख्य निर्णय: 

  1. स्पष्टीकरण दृष्टांतदर्शक हैं:धारा 263 के स्पष्टीकरण (क) से (ङ) दृष्टांतदर्शक हैं, न कि संपूर्ण, जो प्रोबेट का प्रतिसंहरण करने के लिये "न्यायोचित कारण" निर्धारित करते हैं।     
  2. व्यापक न्यायिक विवेकाधिकार:स्पष्टीकरण (क) से (ङ) के अंतर्गत शामिल न की गई परिस्थितियाँ प्रतिसंहरण के लिये "न्यायोचित कारण" का गठन कर सकती हैं, जिसका अवधारण प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर न्यायालयों द्वारा किया जाएगा। 
  3. पूर्ववर्ती निर्णयों को खारिज किया गया:जॉर्ज एंथनी हैरिस (1933)औरशरद शंकरराव माने (1997)के निर्णयधारा 263 के संबंध में विधि की सही स्थिति निर्धारित नहीं करते हैं। 

वर्तमान मामले पर आवेदन: 

न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता की वैध चिंताओं पर ध्यान दिया: 

  • इक्वाडोर में आत्महत्या से मृतक की संदिग्ध मृत्यु 
  • धारा 63 की आवश्यकता का संभावित उल्लंघन जिसमें साक्षियों को वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में हस्ताक्षर करना होता है (साक्षियों ने भारत में हस्ताक्षर किये जबकि वसीयतकर्त्ता ने इक्वाडोर में हस्ताक्षर किये)। 
  • तकनीकी कारणों से चेतावनी खारिज होने के कारण गंभीर आपत्तियों पर विचार नहीं किया जा सका। 
  • न्यायालय ने कहा कि ये परिस्थितियाँ "न्यायोचित कारण" हो सकती हैं, जिसके लिये न्यायिक जांच की आवश्यकता होती है, भले ही वे स्पष्टीकरण (क) से (ङ) के अंतर्गत न आती हों।  

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 क्या है? 

उपबंध: 

  • धारा 263 में उपबंध है कि प्रोबेट या प्रशासन पत्र का अनुदान "न्यायोचित कारण" के लिये प्रतिसंह्रत या बातिल किया जा सकता है। 

धारा 263 का स्पष्टीकरण: 

स्पष्टीकरण में कहा गया है कि "न्यायोचित कारण वहाँ विद्यमान माना जाएगा जहाँ": 

  • (क)अनुदान अभिप्राप्त करने की कार्यवाही मूलतः त्रुटीपूर्ण थी; या 
  • (ख)अनुदान असत्य सुझाव देकर या महत्त्वपूर्ण तथ्य छिपाकर कपटपूर्वक अभिप्राप्त किया गया था; या 
  • (ग)अनुदान को न्यायोचित ठहराने के लिये विधि में आवश्यक असत्य अभिकथन के माध्यम से अनुदान अभिप्राप्त किया गया था, भले ही वे अज्ञानता या अनजाने में किये गए हों; या 
  • (घ)अनुदान परिस्थितियों के कारण अनुपयोगी और अप्रवर्तनीय हो गया है; या 
  • ()अनुदान प्राप्तकर्त्ता ने जानबूझकर सूची या लेखा प्रदर्शित नहीं किया, या असत्य सूची/लेखा पेश किया। 

दृष्टांत: 

इस धारा में आठ दृष्टांत सम्मिलित हैं, जो अधिकारिता की कमी, कूटकृत विल, बाद में वसीयत का पता चलना, तथा अनुदान प्राप्तकर्त्ता की विकृतचित्त जैसी स्थितियों को दर्शाते हैं। 

विधायी इतिहास: 

  • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1865 (धारा 234)औरप्रोबेट एवं प्रशासन अधिनियम, 1881 (धारा 50): इसमें "न्यायोचित कारण है" वाक्यांश का प्रयोग किया गया है, जिसके बाद आधारों का उल्लेख किया गया है। 
  • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (धारा 263): इसमेंभाषा को परिवर्तित कर "न्यायोचित कारण वहाँ विद्यमान माना जाएगा, जहाँ" कर दिया गया, जो एक महत्त्वपूर्ण वाक्यांशगत परिवर्तन को दर्शाता है।