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आपराधिक कानून
आशय और ज्ञान कैसे आपराधिक मानव वध की प्रकृति तय करते हैं
11-Nov-2025
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नंदकुमार उर्फ़ नंदू मणिलाल मुदलियार बनाम गुजरात राज्य "उच्चतम न्यायालय ने हत्या तथा ऐसी आपराधिक मानव वध, जो हत्या के समकक्ष नहीं है, के मध्य महत्त्वपूर्ण भेद का परीक्षण किया। न्यायालय ने इस प्रक्रिया में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के अंतर्गत पारित दोषसिद्धि को धारा 304, भाग–1 में परिवर्तित कर दिया। उक्त निर्णय में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि दोषसिद्धि के स्तर का निर्धारण करते समय “आशय” एवं “ज्ञान” की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है।" न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और एनवी अंजारिया |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने नंदकुमार उर्फ़ नंदू मणिलाल मुदलियार बनाम गुजरात राज्य (2025) के मामले में अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के अधीन हत्या से धारा 304 भाग 1 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव वध में परिवर्तित कर दिया, यह मानते हुए कि यह कृत्य ज्ञान के साथ किया गया था, किंतु मृत्यु का कारण बनने के आशय के बिना।
नंदकुमार @ नंदू मणिलाल मुदलियार बनाम गुजरात राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता नंदकुमार को सिटी सेशन न्यायालय, अहमदाबाद द्वारा सेशन मामला संख्या 25/1999 में धारा 302 और 504 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराधों के लिये दोषसिद्ध ठहराया गया था।
- उसे हत्या के आरोप में आजीवन कारावास और 2,000 रुपए के जुर्माने का दण्ड दिया गया था, तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 के अधीन अपराध के लिये एक वर्ष के कठोर कारावास और 1,000 रुपए के जुर्माने का दण्ड दिया गया।
- 12 जून 1998 को, लगभग 8:00 बजे, अपीलकर्त्ता और उसका भाई तनवेल एक दूसरे के साथ झगड़ा कर रहे थे, और राजेश (मृतक का भतीजा) ने हस्तक्षेप किया, जिसके बाद अपीलकर्त्ता ने कथित तौर पर राजेश की जांघ पर चाकू से वार किया।
- मध्य रात्रि में लगभग 1:00 बजे, अपीलकर्त्ता मृतक लुईस विलियम्स के घर गया, गाली-गलौज की और जब लुईस ने हस्तक्षेप किया, तो अपीलकर्त्ता ने पीठ के बाईं ओर और दाहिने हाथ पर चाकू से वार कर घायल कर दिया।
- लुइस को उसकी बहन गजराबेन (PW 2) के साथ एल.जी. अस्पताल ले जाया गया, और धारा 324 और 504 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराधों के लिये C.R. No.I -107/98 के अनुसार प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई।
- पीड़ित की चोटों का ऑपरेशन किया गया और उसे पहले तो छुट्टी दे दी गई, किंतु उसे पुनः भर्ती कराया गया और 26 जून 1998 को अस्पताल में उपचार के दौरान उसकी मृत्यु हो गई।
- मृत्यु का कारण सेप्टिसीमिया (Septicemia) (संक्रमित घावों से रक्त विषाक्तता) बताया गया।
- मृत्यु के बाद मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन आरोप जोड़ा गया।
- अपीलकर्त्ता ने 29 जून 1998 को स्वेच्छा से पुलिस थाने में आत्मसमर्पण कर दिया तथा हमले में प्रयुक्त चाकू भी साथ ले आया।
- अभियोजन पक्ष ने विचारण के दौरान 14 साक्षियों से पूछताछ की, जिनमें प्रत्यक्षदर्शी गजराबेन (मृतक की बहन) और राजेश (मृतक का भतीजा) सम्मिलित थे।
- विचारण न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 504 के अधीन दोषी ठहराया, किंतु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 के अधीन उसे दोषमुक्त कर दिया।
- गुजरात उच्च न्यायालय ने दाण्डिक अपील संख्या 137/2000 में 4 दिसंबर, 2009 को विचारण न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की।
- अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, जिसने 13 जून 2014 को यह कहते हुए अनुमति दे दी कि अपीलकर्त्ता पहले ही 14 वर्ष से अधिक जेल में दण्ड काट चुका है तथा उसे जमानत पर रिहा किया गया है।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता ने मृतक पर चाकू से तीन बार वार किया, जिसमें पेट के नीचे तथा दोनों हाथों पर घाव शामिल थे, जिसके कारण 13 दिनों के अस्पताल उपचार के बाद सेप्टिसीमिया से उसकी मृत्यु हो गई।
- केसर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2008) और विरसा सिंह बनाम पंजाब राज्य (ए.आई.आ.र 1958 एस.सी. 465) का हवाला देते हुए, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आपराधिक मानव वध एक वंश है और हत्या उसकी प्रजाति है, जिसमें mens rea (मनःस्थिति) विभेदक कारक है। धारा 304 भाग 1 तब लागू होता है जब क्षति कारित करने का आशय हो जिससे मृत्यु होने की संभावना हो, किंतु स्वयं मृत्यु कारित करने का आशय न हो।
- न्यायालय ने पाया कि यद्यपि क्षति मृत्यु का कारण बनने के लिये पर्याप्त थीं और अपीलकर्त्ता को इसकी जानकारी थी, किंतु परिस्थितियों से पता चलता है कि हत्या करने की पूर्व योजना के बिना, झगड़े के बाद आवेग और क्रोध उत्पन्न हुआ था।
- प्रमुख कारकों में सम्मिलित हैं: 13 दिनों के बाद मृत्यु (तत्काल नहीं), उपचार के दौरान सेप्टिक स्थिति का विकसित होना, तथा मृत्यु का कारण प्रत्यक्ष क्षति के बजाय सेप्टिसीमिया होना।
- न्यायालय ने दोषसिद्धि को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 से धारा 304 भाग 1 भारतीय दण्ड संहिता में परिवर्तित कर दिया और इस कृत्य को 'हत्या की कोटि में न आने वाला आपराधिक मानव वध' माना, क्योंकि मृत्यु कारित करने का आशय नहीं था, यद्यपि ज्ञान था। पहले से काटे गए 14 वर्ष के दण्ड को पर्याप्त माना गया।
आपराधिक मानव वध क्या है?
बारे में:
- आपराधिक मानव वध मानव शरीर के विरुद्ध सबसे गंभीर अपराधों में से एक है।
- culpable शब्द लैटिन शब्द " culpe" से आया है, जिसका अर्थ है दण्ड। लैटिन शब्द " Homo + Cida", जिसका अर्थ है मानव + हत्या, यहीं से होमिसाइड शब्द की उत्पत्ति हुई है। यह मानव द्वारा मानव की हत्या को संदर्भित करता है। होमिसाइड (मानव वध) विधिपूर्व या विधिविरुद्ध हो सकता है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 (भारतीय न्याय संहिता की धारा 100):
- यह धारा आपराधिक मानव वध से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जो कोई व्यक्ति मृत्यु कारित करने के आशय से, या ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से, जिससे मृत्यु कारित होना संभाव्य है, या यह ज्ञान रखते हुए कि यह संभाव्य है कि वह उस कार्य से मृत्यु कारित कर दे, कोई कोई कार्य करके मृत्यु कारित कर देता है, वह आपराधिक मानव वध का अपराध करता है।
- स्पष्टीकरण 1. वह व्यक्ति, जो किसी दूसरे व्यक्ति को, जो किसी विकार रोग या अंग-शैथिल्य से ग्रस्त है, शारीरिक क्षति कारित करता है और तद्द्वारा उस दूसरे व्यक्ति की मृत्यु त्वरित कर देता है, उसकी मृत्यु कारित करता है, यह समझा जाएगा।
- स्पष्टीकरण 2. जहाँ कि शारीरिक क्षति से मृत्यु कारित की गई हो, वहाँ जिस व्यक्ति ने, ऐसी शारीरिक क्षति कारित की हो, उसने वह मृत्यु कारित की है, यह समझा जाएगा, यद्यपि उचित उपचार और कौशलपूर्ण चिकित्सा करने से वह मृत्यु रोकी जा सकती थी।
- स्पष्टीकरण 3. माँ के गर्भ में स्थित किसी शिशु की मृत्यु कारित करना मानव वध नहीं है। किंतु किसी जीवित शिशु की मृत्यु कारित करना आपराधिक मानव वध की कोटि में आ सकेगा, यदि उस शिशु का कोई भाग बाहर निकल आया हो, यद्यपि उस शिशु ने श्वांस न ली हो या वह पूर्णतः उत्पन्न न हुआ हो।
आपराधिक मानव वध के आवश्यक तत्त्व:
- आपराधिक मानव वध के आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं:
- व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी होनी चाहिये।
- मृत्यु किसी अन्य व्यक्ति के कृत्य से हुई होनी चाहिये।
- मृत्यु का कारण बनने वाला कृत्य निम्नलिखित कारणों से किया गया होगा:
- मृत्यु कारित करने का आशय ; या
- शारीरिक क्षति कारित करने का आशय जिससे मृत्यु होने की संभावना हो; या
- इस ज्ञान के साथ कि इस तरह के कृत्य से मृत्यु होने की संभावना है।
हत्या की कोटि में न आने वाला आपराधिक मानव वध:
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवादों में कुछ ऐसे मामले गिनाए गए हैं जिनमें आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है:
- यदि अपराधी गंभीर और अचानक प्रकोपन के कारण आत्म-नियंत्रण की शक्ति से वंचित हो जाता है और प्रकोपन देने वाले व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है या भूल से या दुर्घटनावश किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, तो आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है। यह अपवाद निम्नलिखित उपबंधों के अधीन है:
- प्रकोपन ऐसी नहीं होना चाहिये जो अपराधी द्वारा स्वयं उत्पन्न या साशय प्रकोपन हो।
- विधि के पालन में की गई किसी कार्रवाई से या किसी लोक सेवक द्वारा अपनी शक्तियों के विधिपूर्ण प्रयोग से प्रकोपन नहीं दिया जाता है।
- निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के वैध प्रयोग में की गई किसी भी कार्रवाई से प्रकोपन नहीं मिलता।
- यदि निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जाता है, तो आपराधिक मानव वध हत्या नहीं।
- यदि यह सदभावनापूर्वक कार्य करने वाले लोक सेवक द्वारा किया गया हो तो आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है ।
- यदि यह बिना किसी पूर्व-योजना के, आवेश में, अचानक झगड़े के बाद अचानक लड़ाई में किया गया हो, तो आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है ।
- यदि अपराधी गंभीर और अचानक प्रकोपन के कारण आत्म-नियंत्रण की शक्ति से वंचित हो जाता है और प्रकोपन देने वाले व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है या भूल से या दुर्घटनावश किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, तो आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है। यह अपवाद निम्नलिखित उपबंधों के अधीन है:
- यदि वह व्यक्ति जिसकी मृत्यु हुई है, अठारह वर्ष से अधिक आयु का है और अपनी सहमति से मृत्यु का जोखिम उठाता है, तो उसे आपराधिक मानव वध नहीं कहा जाएगा।
वाणिज्यिक विधि
रियल एस्टेट संव्यवहार पर सेवा कर
11-Nov-2025
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सेवा कर आयुक्त बनाम मेसर्स एलिगेंट डेवलपर्स "उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भूमि के स्वामित्व के अंतरण से संबंधित संव्यवहार, जहाँ कोई पक्षकार सलाहकार या परामर्श सेवाएँ प्रदान किये बिना लाभ-हानि का जोखिम उठाता है, रियल एस्टेट एजेंट श्रेणी के अधीन कर योग्य सेवाएँ नहीं हैं।" न्यायमूर्ति संदीप मेहता और जे.बी. पारदीवाला |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
सेवा कर आयुक्त बनाम मेसर्स एलिगेंट डेवलपर्स (2025) के मामले में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और संदीप मेहता की पीठ ने स्पष्ट किया कि भूमि संव्यवहार, जहाँ एक पक्षकार लाभ-हानि जोखिम उठाता है और स्वामित्व के अंतरण की सुविधा देता है, वित्त अधिनियम, 1994 के अधीन 'रियल एस्टेट एजेंट' की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता है, और इसलिये सेवा कर के अधीन नहीं है।
सेवा कर आयुक्त बनाम मेसर्स एलिगेंट डेवलपर्स (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एलिगेंट डेवलपर्स ने 2002-2005 के बीच राजस्थान, गुजरात और हरियाणा में तीन स्थानों पर भूमि अधिग्रहण के लिये सहारा इंडिया कमर्शियल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (SICCL) के साथ समझौता ज्ञापन (MOU) पर हस्ताक्षर किये।
- समझौता ज्ञापनों के अधीन, सहारा इंडिया कमर्शियल कॉर्पोरेशन लिमिटेड प्रति एकड़ एक निश्चित औसत दर का संदाय करने के लिये सहमत हुई, जिसमें भूमि की लागत और विकास व्यय सम्मिलित थे, जबकि एलिगेंट डेवलपर्स भूमि खरीदने, स्वामित्व पत्र प्रस्तुत करने, अनुमति प्राप्त करने और रजिस्ट्रीकरण के लिये भूमि स्वामियों को आगे लाने के लिये उत्तरदायी थे।
- मुख्य विशेषता यह थी कि भूस्वामियों को दी गई राशि और निर्धारित दर के बीच का कोई भी अंतर एलिगेंट डेवलपर्स का लाभ या हानि होगा, जिसका अर्थ है कि फर्म को वाणिज्यिक जोखिम उठाना होगा।
- महानिदेशालय ने अन्वेषण शुरू किया और 22 अप्रैल 2010 को कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें अक्टूबर 2004 से मार्च 2007 तक की अवधि के लिये 10.28 करोड़ रुपए का सेवा कर मांगा गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि एलिगेंट डेवलपर्स एक 'रियल एस्टेट एजेंट' है।
- आयुक्त ने मांग की पुष्टि की तथा 2013 में जानबूझकर दमन के आधार पर विस्तारित सीमा अवधि लागू करते हुए जुर्माना लगाया।
- अपीलीय अधिकरण ने 2019 में आयुक्त के आदेश को उलट दिया, जिसे आयुक्त ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को रियल एस्टेट अभिकर्त्ता के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिये, एस्टेट एजेंसी करार के माध्यम से मालिक-अभिकर्त्ता का संबंध होना चाहिये।
- समझौता ज्ञापनों की जांच करने के बाद, न्यायालय ने पाया कि इनमें कोई मालिक-अभिकर्त्ता संबंध नहीं था, क्योंकि शर्तों में प्रति प्लॉट एक निश्चित दर का उल्लेख था, जिसमें कोई सेवा या परामर्श शुल्क नहीं था।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि एलिगेंट डेवलपर्स का लाभ मूल्य अंतर से उत्पन्न हुआ तथा इसमें लाभ-हानि का जोखिम भी सम्मिलित था, जो कमीशन-आधारित सेवा संविदा में विद्यमान नहीं होता।
- न्यायालय ने माना कि ये संव्यवहार वित्त अधिनियम, 1994 की धारा 65ख(44)(क)(झ) के अधीन अपवाद के अंतर्गत आते हैं, जो अचल संपत्ति में स्वामित्व के अंतरण को 'सेवा' की परिभाषा से बाहर रखता है।
- विस्तारित परिसीमा पर, न्यायालय ने दोहराया कि बिना किसी आशय या छिपाव के केवल कर का संदाय न करना अपर्याप्त है, तथा कहा कि सभी संव्यवहार वैध बैंकिंग चैनलों के माध्यम से हुए थे, जिनमें कोई छिपाव नहीं था।
- उच्चतम न्यायालय ने अपीलों को खारिज करते हुए कहा कि ये संव्यवहार 'रियल एस्टेट एजेंट' या 'रियल एस्टेट सलाहकार' की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते।