ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (नई दिल्ली)   |   ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (प्रयागराज)










होम / एडिटोरियल

आपराधिक कानून

बाल अश्लील साहित्य डाउनलोड करने पर मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय

    «    »
 09-Feb-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

एस. हरीश बनाम पुलिस निरीक्षक (2024) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय ने बालकों को ऑनलाइन शोषण से बचाने के संबंध में बहस और चिंता उत्पन्न कर दी है। अपने निर्णय में, उच्च न्यायालय ने न्यायिक कार्यवाही को यह कहते हुए पलट दिया, कि बाल अश्लील साहित्य डाउनलोड करना सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम, 2000 की धारा 67B के तहत अपराध नहीं है। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के एक निर्णय पर भरोसा किया और किशोरों के अश्लील साहित्य के जाल में फँसने से संबंधित डेटा दिया।

एस. हरीश बनाम पुलिस निरीक्षक (2024) मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • आरंभ:
    • अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त के पास (महिलाओं एवं बालकों के विरुद्ध अपराध) से एक पत्र प्राप्त हुआ था।
    • उस पत्र में कहा गया था कि याचिकाकर्त्ता ने अपने मोबाइल फोन में बालकों से संबंधित अश्लील सामग्री डाउनलोड की थी।
  • FIR दर्ज करना:
    • पत्र प्राप्त होने पर, दूसरे प्रतिवादी ने IT अधिनियम, 2000 की धारा 67B और यौन अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 14(1) के तहत अपराध के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की थी।
  • साक्ष्य का अभिग्रहण:
    • जाँच के दौरान याचिकाकर्त्ता का मोबाइल फोन ज़ब्त कर लिया गया और उसे विश्लेषण के लिये फोरेंसिक साइंस विभाग को भेज दिया गया।
    • विश्लेषक द्वारा विशेष रूप से दो फाइलों की पहचान करते हुए एक रिपोर्ट दी गई थी जिसमें बाल अश्लील साहित्य शामिल था।
    • उन दो वीडियो में, लड़के (किशोरावस्था से कम) एक वयस्क महिला/लड़की के साथ यौन गतिविधि में शामिल पाए गए।
  • अंतिम रिपोर्ट एवं संज्ञान:
    • जाँच के दौरान ज़ब्त की गई सामग्रियों के आलोक में, उच्च न्यायालय के अधीनस्थ एक न्यायालय के समक्ष एक अंतिम रिपोर्ट दायर की गई।
    • अधीनस्थ न्यायालय ने अपराधों के लिये संज्ञान लिया।
  • उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती:
    • इससे व्यथित होकर, कार्यवाही को रद्द करने के लिये कार्यवाही को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई है।

IT एक्ट की धारा 67B क्या है?

  • परिचय:
    • IT अधिनियम की धारा 67B(b) स्पष्ट रूप से बाल अश्लील साहित्य से संबंधित विभिन्न गतिविधियों के अपराधीकरण की रूपरेखा तैयार करती है, जिसमें बालकों को अश्लील या अशिष्ट तरीके से चित्रित करने वाली सामग्री डाउनलोड करना भी शामिल है।
  • प्रावधान:
    • यह उस व्यक्ति को दंडित करता है जो टेक्स्ट या डिजिटल छवियाँ बनाता है, बालकों को अश्लील या अशिष्ट या यौन रूप से स्पष्ट तरीके से चित्रित करने वाली किसी भी इलेक्ट्रॉनिक रूप में सामग्री एकत्र करता है, खोजता है, ब्राउज़ करता है, डाउनलोड करता है, विज्ञापन करता है, प्रचार करता है, आदान-प्रदान करता है या वितरित करता है।
  • सज़ा:
    • धारा 67B के तहत अपराधी प्रथम दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी और ज़ुर्माने से, जो दस लाख रुपए तक का हो सकेगा, और दूसरी और पश्चात्वर्ती दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी और ज़ुर्माने से भी, जो दस लाख रुपए तक का हो सकेगा, से दंडित किया जाएगा।
  • धारा 67B के अनुपालन का अभाव:
    • अभियुक्त के मोबाइल फोन पर ऐसी सामग्री की मौजूदगी की पुष्टि करने वाले फोरेंसिक साक्ष्य के बावजूद, उच्च न्यायालय ने तर्क दिया कि अभियुक्त धारा 67B(b) के तहत अपराध करने के लिये बालकों से जुड़ी यौन सामग्री के प्रकाशन, प्रसारण या निर्माण में शामिल हुआ होगा।
    • यह चयनात्मक व्याख्या विधि की व्यापक प्रकृति को नज़रअंदाज करती है और ऑनलाइन बाल शोषण से निपटने के प्रयासों को कमज़ोर करती है।

निर्णय में किशोरों की पोर्न की लत से जुड़ा डेटा क्या है?

यह उल्लेख किया गया था कि एक हालिया अध्ययन में किशोरों में पोर्न के ये आँकड़े सामने आए हैं:

  • 10 में से 9 लड़के 18 वर्ष की आयु से पूर्व किसी न किसी प्रकार के अश्लील साहित्य के संपर्क में आते हैं।
  • 10 में से 6 लड़कियाँ 18 वर्ष की आयु से पूर्व ही अश्लील साहित्य के संपर्क में आ जाती हैं।
  • औसतन, एक पुरुष का पहली बार अश्लील साहित्य से संपर्क 12 वर्ष की आयु में होता है।
  • 12-17 वर्ष के किशोर लड़कों में पोर्न की लत विकसित होने का खतरा सबसे अधिक होता है।

मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा उद्धृत मामला क्या था?

  • निर्भरता रखी गई:
    • न्यायालय ने अनीश बनाम केरल राज्य (2023) के मामले में केरल उच्च न्यायालय के एक पूर्व निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें बाल अश्लील साहित्य के बजाय वयस्क अश्लील साहित्य को संबोधित किया गया था।
  • केरल उच्च न्यायालय के निर्णय का सारांश:
    • हालाँकि अकेले में वयस्क अश्लील साहित्य देखना भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 292 के तहत अपराध नहीं माना जा सकता है, लेकिन ऐसा बाल अश्लील साहित्य के मामलों में नहीं माना जा सकता है।
    • जिस क्षण अभियुक्त अश्लील तस्वीरें या वीडियो प्रसारित करने या वितरित करने या सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने का प्रयास करता है, तब अपराध का संघटक शुरू हो जाता है।

मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय क्या था?  

  • विनिश्चय आधार (Ratio Decidendi):
    • मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध कार्यवाही जारी रखना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।
    • इसके अलावा, यह भविष्य में याचिकाकर्त्ता के कॅरियर के लिये एक बाधा होगी।
      • इसलिये, उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध कार्यवाही रद्द कर दी।
  • इतरोक्ति (Obiter Dicta):
    • जेनरेशन Z के बच्चे इस गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं और उन्हें डाँटने व दंडित करने के बजाय, समाज को इतना परिपक्व होना चाहिये कि वह उन्हें उचित सलाह दे एवं शिक्षित करे तथा उन्हें उस लत से छुटकारा पाने के लिये परामर्श देने का प्रयास करे।
      • इसकी शिक्षा विद्यालय स्तर से शुरू होनी चाहिये क्योंकि वयस्क सामग्री का संपर्क उसी स्तर पर शुरू होता है।
    • न्यायालय ने उपस्थित याचिकाकर्त्ता को सलाह दी कि यदि वह अभी भी इस लत से पीड़ित है तो उसे परामर्श में भाग लेना चाहिये।
    • उच्च न्यायालय ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से याचिकाकर्त्ता को सहायता नहीं मिलेगी और याचिकाकर्त्ता को इस लत से छुटकारा पाकर स्वयं की सहायता करनी होगी।

बाल अश्लील साहित्य से निपटने की दिशा में क्या प्रयास किये गए?  

  • अक्तूबर, 2009 में संशोधन:
    • IT अधिनियम की धारा 67, इसके संशोधनों के साथ, बाल अश्लील साहित्य सहित ऑनलाइन अपराधों को संबोधित करने के लिये एक व्यापक ढाँचे का प्रतिनिधित्व करती है।
    • अक्तूबर, 2009 में संशोधन ने स्पष्ट रूप से डिजिटल अपराधों की विकसित प्रकृति को दर्शाते हुए, बाल अश्लील साहित्य की मांग करना या डाउनलोड करना अपराध घोषित कर दिया।
  • अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी:
    • इसके अतिरिक्त, अमेरिकन नेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड एक्सप्लॉइटेड चिल्ड्रेन जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ समन्वय, बाल यौन शोषण सामग्री से निपटने के वैश्विक प्रयास को रेखांकित करता है।

बाल अश्लील साहित्य से संबंधित विधायी विसंगतियाँ क्या हैं?

  • गंभीरता को समझने में विफलता:
    • विधि में प्रयुक्त शब्दावली लोक धारणा और कानूनी व्याख्या को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
    • शब्द "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" अपराध की गंभीरता को समझने में विफल रहता है और इसका तात्पर्य सहमति से है, जो बालकों से संबंधित मामलों में अस्तित्वहीन है।
    • इसलिये, "बाल यौन शोषण विषय-वस्तु (CSAM)" के उपयोग की वकालत अपराध की गंभीरता के अनुरूप है और निवारक उपायों की आवश्यकता पर ज़ोर देती है।
  • POCSO के साथ IT अधिनियम की असंगति:
    • इसके अलावा, POCSO और IT अधिनियम 2000 के बीच विसंगतियों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
    • CSAM के कब्ज़े को एक विशिष्ट अपराध के रूप में शामिल करने के लिये POCSO अधिनियम में संशोधन करने से विधायी प्रावधान सुसंगत होंगे और बाल संरक्षण प्रयासों को मज़बूती मिलेगी।

निष्कर्ष:

निष्कर्षतः, मद्रास उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय ऑनलाइन बाल शोषण से निपटने के लिये एक व्यापक और सुसंगत कानूनी ढाँचे की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता को रेखांकित करता है। विधायी प्रावधानों को संरेखित करके, शब्दावली को बढ़ाकर और जवाबदेही को बढ़ावा देकर, हितधारक सामूहिक रूप से डिजिटल युग में बालकों के अधिकारों और सुरक्षा को बनाए रख सकते हैं। यह ज़रूरी है कि राज्य सरकार हानिकारक मिसाल कायम करने से रोकने के लिये निर्णय के विरुद्ध अपील करे और बाल कल्याण एवं न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करे।