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आपराधिक कानून

अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला

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 18-Aug-2025

स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस 

परिचय  

वी.वी.आई.पी. हेलीकॉप्टर घोटाला हाल ही में पुनः न्यायिक विमर्श में उभर कर सामने आया है, जब क्रिश्चियन जेम्स मिशेल ने दीर्घकालिक निरोध के आधार पर रिहाई हेतु प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया। दिल्ली की एक न्यायालय द्वारा मिशेल के आवेदन को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-क (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 479) के अंतर्गत अस्वीकार किया जाना, विचाराधीन कैदियों के अधिकारों तथा न्याय प्रदाय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मध्य संतुलन से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को रेखांकित करता है। यह मामला भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में विद्यमान चुनौतियों को उजागर करता है, जहाँ तीन-चौथाई कैदी अभी भी विचाराधीन हैं।  

अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले के मामले की पृष्ठभूमि और न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

पृष्ठभूमि: 

  • 2010 में, अगस्ता वेस्टलैंड इंटरनेशनल लिमिटेड ने VVIP परिवहन के लिये भारतीय वायु सेना को 12 AW-101 हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति के लिये 3,726.96 करोड़ रुपए की संविदा पर हस्ताक्षर किये 
  • यह सौदा इटली अन्वेषण के बाद जांच के दायरे में आया, जिसमें पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल एस.पी. त्यागी और उनके सहयोगियों से जुड़ी कथित रिश्वतखोरी का खुलासा हुआ था।  
  • क्रिश्चियन जेम्स मिशेल, जिसे एक प्रमुख मध्यस्थ के रूप में चिन्हित किया गया है, दिसंबर 2018 में दुबई से प्रत्यर्पण के पश्चात् से दिल्ली की तिहाड़ जेल में निरुद्ध है। 
  • उसकी विधिक टीम ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-क के अंतर्गत उसकी रिहाई का आग्रह किया, यह दलील देते हुए कि उसने भ्रष्टाचार के आरोपों संबंधी CBI मामले में निर्धारित अधिकतम सात वर्षों की कारावास अवधि पहले ही भुगत ली है। 
  • यद्यपि, अभियोजन पक्ष ने इस तर्क का सफलतापूर्वक प्रतिवाद करते हुए कहा कि मिशेल पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 467 (मूल्यवान प्रतिभूतियों की कूटरचना) के अधीन भी आरोप हैं, जिसमें अधिकतम आजीवन कारावास के दण्ड का उपबंध है। 

न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ: 

  • विशेष न्यायाधीश संजय जिंदल ने मिशेल की याचिका को स्पष्ट रूप से खारिज करते हुए कहा: 
    • "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 467 के अधीन आरोपों पर विचार करते हुए, जिसमें आजीवन कारावास का उपबंध है, यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त कथित अपराधों के लिये विहित अधिकतम दण्ड की अवधि पहले ही काट चुका है।" 
  • न्यायालय ने भारत- संयुक्त अरब अमीरात प्रत्यर्पण संधि के अनुच्छेद 17 पर आधारित मिशेल की दलील को भी खारिज कर दिया, जिसके बारे में उसके अधिवक्ता ने दावा किया था कि अभियोजन केवल उन्हीं अपराधों तक सीमित होना चाहिये जिनके लिये मूल रूप से प्रत्यर्पण की मांग की गई थी।  
  • वरिष्ठ अधिवक्ता डी.पी. सिंह के नेतृत्व में अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि मिशेल केवल आरोप विरचित होने के पश्चात् ही अनुतोष मांग सकता है और कहा कि कूटरचना के आरोपों के कारण वह स्वत: रिहाई के लिये अयोग्य है। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 479 क्या है? 

 बारे में: 

  • नव अधिनियमित भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) ने औपनिवेशिक कालीन दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) का स्थान ले लिया है, तथा इसमें धारा 479 सम्मिलित की गई है, जो पूर्ववर्ती धारा 436-क में निहित सिद्धांतों का आधुनिकीकरण एवं विस्तार करती है 
  • यह उपबंध विचाराधीन कैदियों के अधिकारों की रक्षा में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति का प्रतिनिधित्व करता है। 

धारा 479 के प्रमुख उपबंध: 

  • अनिवार्य रिहाई मानदंड:यह धारा यह उपबंधित करती है कि यदि कोई विचाराधीन अभियुक्त अपने आरोपित अपराध के लिये विनिर्दिष्ट अधिकतम कारावास की अवधि का आधा भाग निरोध में व्यतीत कर चुका है, तो उसकी रिहाई जमानत पर अनिवार्य होगी; बशर्ते कि उक्त अपराध मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास से दण्डनीय न हो।  
  • पहली बार अपराध करने वालों के लिये विशेष संरक्षण:एक प्रगतिशील उपबंध के रूप में, जिन अभियुक्तों का आपराधिक इतिहास पूर्व में नहीं है, वे केवल अधिकतम दण्डावधि के एक-तिहाई भाग का कारावास भोगने के पश्चात् बंधपत्र पर रिहाई के पात्र होंगे, जिससे उनके पुनर्वास की संभावना को मान्यता प्रदान की गई है। 
  • निरोध पर पूर्ण सीमा:यह धारा एक पूर्ण सीमा निर्धारित करती है - किसी भी विचाराधीन कैदी को उसके कथित अपराध के लिये विहित अधिकतम दण्ड अवधि से अधिक निरोध में नहीं रखा जा सकता, जिससे विचारण में विलंब के होते हुए भी लंबे समय तक निरोध में रखना विधिविरुद्ध हो जाता है। 
  • बहु-मामला अपवाद:उपधारा (2) एक महत्त्वपूर्ण अपवाद प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार ऐसे व्यक्ति जो एकाधिक अपराधों या मामलों में अन्वेषण अथवा विचारण का सामना कर रहे हों, उन्हें जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा। यह उपबंध पुनरावृत्ति अपराधियों अथवा जटिल आपराधिक नेटवर्क से संबंधित व्यक्तियों के संबंध में लागू होता है। 
  • संस्थागत सुरक्षा उपाय:उपधारा (3) जेल अधीक्षकों पर सकारात्मक दायित्त्व डालती है कि वे विहित निरोध अवधि पूरी होने पर जमानत पर विचार के लिये स्वतः ही न्यायलयों में आवेदन करें, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि प्रशासनिक निष्क्रियता के कारण उपबंध अप्रभावी न हो। 
  • अभियुक्त द्वारा किये गए विलंब का अपवर्जन:स्पष्टीकरण यह स्पष्ट करता है कि अभियुक्त द्वारा स्वयं उत्पन्न की गई विलंबकारी परिस्थितियों में बिताई गई निरुद्धावधि को जमानत की गणना से अपवर्जित किया जाएगा, जिससे इस उपबंध का दुरुपयोग न हो सके। 

इस प्रकार धारा 479 अपने पूर्ववर्ती की तुलना में अधिक व्यापक ढाँचे का प्रतिनिधित्व करती है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोक सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करती है, तथा भारतीय न्यायालयों में दशकों से विचाराधीन निरोध की चुनौतियों से सीखे गए सबक को भी इसमें सम्मिलित करती है।  

निष्कर्ष 

मिशेल का मामला विचाराधीन कैदियों के लिये सांविधिक संरक्षण और गंभीर आपराधिक मामलों में बहु-आरोप अभियोजन की वास्तविकताओं के बीच जटिल अंतर्संबंध का उदाहरण है। यद्यपि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 479 विचाराधीन कैदियों के अधिकारों को महत्त्वपूर्ण रूप से मज़बूत करती है, किंतु आजीवन कारावास के आरोपों से जुड़े मामले स्वतः रिहाई के प्रावधानों से बाहर रहते हैं, जिससे न्यायालयों को कथित अपराधों की गंभीरता के विरुद्ध व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता होती है। धारा 436-क से धारा 479 तक का परिवर्तन, गंभीर आरोपों का सामना कर रहे लोगों द्वारा संभावित दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा उपायों को बनाए रखते हुए, आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।