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सांविधानिक विधि

रोहिंग्या शरणार्थी की स्थिति

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 07-Aug-2025

परिचय 

भारत अपनी सीमाओं के भीतर रहने वाले रोहिंग्या लोगों की स्थिति को लेकर एक जटिल विधिक चुनौती का सामना कर रहा है।उच्चतम न्यायालय यह निर्धारित करने जा रहा है कि क्या इन व्यक्तियों को ‘शरणार्थी’ के रूप में वर्गीकृत किया जाए, जिन्हें संरक्षण का अधिकार प्राप्त हो, अथवा ‘अवैध प्रवेशकर्त्ता’ के रूप में, जो निर्वासन के अधीन हों। यह निर्णय ऐसे समय में होने जा रहा है जब भारत में कोई व्यापक राष्ट्रीय शरणार्थी विधि विद्यमान नहीं है, जिसके कारण विस्थापित जनसंख्या के अधिकारों एवं उपलब्ध संरक्षण के संबंध में अनिश्चितता बनी हुई है। इस निर्णय का इस बात पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा कि भारत उत्पीड़न से भाग रहे कमजोर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है। 

जफर उल्लाह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले में न्यायालय में क्या हुआ और न्यायाधीशों ने क्या कहा 

  • उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में उन तात्कालिक चिंताओं पर विचार किया, जब याचिकाकर्त्ताओं के अधिवक्ताओं ने यह आरोप लगाया कि रोहिंग्या शरणार्थियों, जिनमें महिलाएँ एवं बच्चे सम्मिलित थे और जिनके पास संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) द्वारा प्रदत्त पहचान पत्र थे, को, वाद की सुनवाई की तिथि निर्धारित होते हुए भी, गिरफ़्तार कर निर्वासित कर दिया गया। वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्वेस ने इस परिस्थिति पर “आश्चर्य” व्यक्त करते हुए इसे “चिंताजनक” एवं “न्यायालय की पूर्ण अवहेलना” बताया। 
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने 31 जुलाई, 2024 को कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न अभिलिखित किये: 
    • क्या रोहिंग्या को 'शरणार्थी' घोषित किया जाना चाहिये या वे 'अवैध प्रवेशार्थी' हैं। 
    • यदि वे शरणार्थी हैं, तो उन्हें क्या सुरक्षा, विशेषाधिकार या अधिकार दिये जाने चाहिये? 
    • यदि वे शरणार्थी नहीं हैं, तो क्या सरकारें विधि के अनुसार उन्हें निर्वासित करने के लिये बाध्य हैं। 
  • न्यायमूर्ति कांत ने अंतिम निर्णय की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा, "हम मामले की अंतिम सुनवाई करेंगे... यदि उन्हें यहाँ रहने का अधिकार है, तो उसे स्वीकार किया जाना चाहिये, और यदि उन्हें यहाँ रहने का अधिकार नहीं है, तो उन्हें प्रक्रिया का पालन करना होगा और विधि के अनुसार निर्वासित किया जाएगा।" 
  • न्यायालय ने अपने 8 अप्रैल, 2021 के आदेश का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 14 और 21 के अधीन अधिकार नागरिकता की परवाह किये बिना सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध हैं, "निर्वासित न किये जाने का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(ङ) के अधीन प्रत्याभूत भारत के क्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने या बसने के अधिकार का सहायक है।" 

विधि के अधीन शरणार्थी के रूप में कौन पात्र है? 

  • संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, शरणार्थी वे व्यक्ति हैं जिन्हें अपने मूल देश से भागने के लिये विवश किया गया है और जो वहाँ लौट नहीं सकते, क्योंकि उन्हें “नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता अथवा राजनीतिक विचारधारा” के आधार पर उत्पीड़न का यथोचित भय है।  
  • शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (1951) राज्यों के लिये शरणार्थियों की सुरक्षा और उन्हें न्यूनतम देखभाल प्रदान करने का दायित्त्व स्थापित करता है। इस अभिसमय पर 149 संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों ने हस्ताक्षर और अनुसमर्थन किया है, किंतु उल्लेखनीय रूप से, भारत उनमें सम्मिलित नहीं है। 
  • भारत के विधिक परिप्रेक्ष्य में शरणार्थियों को एक जटिल स्थिति का सामना करना पड़ता है: 
    • सांविधानिक संरक्षण: अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) गैर-नागरिकों सहित सभी व्यक्तियों पर लागू होता है। 
    • विधिक अंतर: शरणार्थियों को अन्य विदेशी नागरिकों से अलग करने के लिये कोई राष्ट्रीय शरणार्थी विधि विद्यमान नहीं है। 
    • व्यावहारिक उपचार: शरणार्थी समूहों को एक समान विधिक मानकों के बजाय राजनीतिक विचारों के आधार पर अलग-अलग उपचार प्राप्त होता है। 

विविध उपचार के उदाहरणों में सम्मिलित हैं: 

  • तिब्बती शरणार्थी: 70,000 से अधिक तिब्बतियों को भारत सरकार ने निर्वासन में सरकार बनाने तथा बसने की अनुमति दी, साथ ही सरकारी सहायता भी प्रदान की।  
  • श्रीलंकाई शरणार्थी: लगभग 100,000 लोग तमिलनाडु के शिविरों में रह रहे हैं। 
  • रोहिंग्या और अफगान शरणार्थी: केवल अस्थायी निवास परमिट दिये जाते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) प्रमाणपत्रों के आधार पर निर्भर हैं।  

क्या रोहिंग्या वास्तव में 'शरणार्थी' हैं या 'अवैध आप्रवासी'? 

  • बारे में: 
    • रोहिंग्याओं का मामला विशेष रूप से जटिल है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा "दुनिया में सबसे अधिक सताए गए अल्पसंख्यक" के रूप में वर्णित, वे म्यांमार के रखाइन राज्य से संबंधित हैं, किंतु म्यांमार के संविधान द्वारा उन्हें मान्यता नहीं दी गई है, जिससे वे राज्यविहीन हो गए हैं। 
  • शरणार्थी का दर्जा पाने के लिये तर्क: 
    • वे म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा और सैन्य दमन से बचकर भाग रहे हैं। 
    • लगभग 1.4 मिलियन रोहिंग्याओं को उनकी मातृभूमि से खदेड़ दिया गया है। 
    • वे धर्म और जातीयता के आधार पर उत्पीड़न का सामना करने वाले शरणार्थियों की संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा को पूरा करते हैं। 
    • कई लोगों के पास संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) शरणार्थी प्रमाण पत्र हैं। 
  • विधिक चुनौतियाँ: 
    • नागरिकता अधिनियम (1955) के अधीन उन्हें "अवैध आप्रवासी" के रूप में वर्गीकृत किया गया है क्योंकि वे वैध दस्तावेज़ों के बिना प्रवेश कर गए थे। 
    • आव्रजन एवं विदेशी अधिनियम (2025) उन्हें आर्थिक प्रवासियों के समान "विदेशी" मानता है। 
    • नागरिकता संशोधन अधिनियम (2019) मुसलमानों (रोहिंग्या सहित) को अवैध अप्रवासी वर्गीकरण के विरुद्ध संरक्षण से बाहर रखता है। 
    • म्यांमार ने कथित तौर पर उन्हें राज्यविहीन मानते हुए उन्हें वापस स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। 
  • वर्तमान विधिक स्थिति: 
    • अवैध प्रवेश के लिये कारावास (5 वर्ष तक) या जुर्माना (5 लाख रुपए तक) हो सकता है। 
    • अवैध अप्रवासी वर्गीकरण के कारण भारतीय नागरिकता के लिये आवेदन नहीं किया जा सकता। 
    • संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) मान्यता के आधार पर अस्थायी निवास परमिट पर निर्भर रहें। 
    • सुरक्षा संबंधी चिंताओं के होते हुए भी संभावित निर्वासन का सामना करना पड़ सकता है। 
  • उच्चतम न्यायालय को स्पष्ट सांविधिक मार्गदर्शन के बिना इस विधिक भूलभुलैया से निपटना होगा, तथा मुख्य रूप से सांविधानिक सिद्धांतों और गैर-वापसी (यह सिद्धांत शरणार्थियों को उन क्षेत्रों में वापस भेजने पर रोक लगाता है, जहाँ उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है) जैसी अंतर्राष्ट्रीय मानवीय विधि अवधारणाओं पर निर्भर रहना होगा। 

निष्कर्ष 

उच्चतम न्यायालय का आगामी निर्णय भारत में शरणार्थियों की सुरक्षा के लिये एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करेगा। राष्ट्रीय शरणार्थी विधि के बिना, न्यायालय को अनुच्छेद 21 के अधीन मानवीय दायित्त्वों और विद्यमान विधियों के अधीन आव्रजन नियंत्रण के बीच संतुलन बनाना होगा। यह मामला व्यापक शरणार्थी विधि की तत्काल आवश्यकता को उजागर करता है जो आर्थिक प्रवासियों और उत्पीड़न से भाग रहे प्रवासियों के बीच अंतर करता है। न्यायालय जो भी निर्णय लेगा, उसका न केवल भारत में 30,000 से अधिक रोहिंग्याओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, अपितु यह भी तय करेगा कि भारत तेजी से अस्थिर होते वैश्विक परिवेश में भविष्य में शरणार्थी आबादी के साथ कैसा व्यवहार करेगा।