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नवीनतम निर्णय

अगस्त 2023

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 06-Oct-2023

Rahul Gandhi v. Purnesh Ishwarbhai Modi & Anr.

राहुल गांधी बनाम पूर्णेश ईश्वरभाई मोदी और एएनआर।

निर्णय/आदेश की तिथि – 04.08.2023

पीठ के सदस्यों की संख्या - 3 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – जस्टिस बीआर गवई, पीएस नरसिम्हा और संजय कुमार

संक्षेप में मामला:

  • कॉन्ग्रेस नेता और पूर्व सांसद राहुल गांधी वर्ष 2019 में कर्नाटक के कोलार में एक राजनीतिक रैली में की गई अपनी टिप्पणी 'सभी चोरों के मोदी उपनाम क्यों होते हैं' पर, भारतीय जनता पार्टी (BJP) के विधायक और गुजरात के पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 499 और धारा 500 के तहत मुकदमा किया था। ।
  • मार्च, 2023 में गुजरात के सूरत (ट्रायल कोर्ट) ज़िले की एक न्यायालय ने उन्हें दोषी ठहराते हुए दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई। ट्रायल कोर्ट के जज ने अपने आदेश में अधिकतम दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई है।
  • इसके बाद मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय ने उनकी सजा को निलंबित कर दिया और उन्हें जमानत दे दी।
    • हालाँकि, दोषसिद्धि को समाप्त नहीं किया था, इसलिये केरल के वायनाड निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले पूर्व सांसद को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 के साथ पढ़े गए भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 102 (1) (e) के संदर्भ में लोकसभा सदस्य के रूप में अयोग्य घोषित किया गया था।
    • लोकसभा से स्वयं को दोषसिद्धि और अयोग्य ठहराए जाने पर, उन्होंने अपनी दोषसिद्धि को चुनौती देते हुए सूरत के सत्र न्यायालय में अपील दायर की।
    • आपराधिक मानहानि के मामले में उनकी दोषसिद्धि पर रोक लगाने के उनके आवेदन को अनुमति नहीं दी गई, हालाँकि न्यायालय ने उनकी अपील का निपटारा होने तक उन्हें जमानत दे दी थी।
  • सत्र न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध, श्री राहुल गांधी ने गुजरात उच्च न्यायालय (HC) में एक आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति हेमंत प्रच्छक ने न केवल उन्हें अंतरिम अनुतोष देने से इनकार कर दिया, बल्कि उनकी याचिका भी खारिज़ कर दी।
  • आखिरकार, अपने सभी उपाय खत्म करने के बाद उन्होंने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय (SC) का रुख किया। उन्होंने अपनी दोषसिद्धि पर रोक लगाने की प्रार्थना की।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय के जस्टिस बीआर गवई, पीएस नरसिम्हा और संजय कुमार की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने आपराधिक मानहानि मामले में कॉन्ग्रेस नेता राहुल गांधी की उपर्युक्त टिप्पणी पर उनकी सजा पर रोक लगा दी है, लेकिन न्यायालय ने कहा कि राहुल गांधी का कथन "अच्छा" नहीं था तथा सार्वजनिक जीवन में एक व्यक्ति को सार्वजनिक भाषण देते समय अधिक सावधान रहना चाहिये।
  • राहुल गांधी की दोषसिद्धि पर रोक के कारण संसद सदस्य के रूप में उनकी अयोग्यता अब अस्थायी रूप से रुकी हुई है (अब बहाल)।

प्रासंगिक प्रावधान:

भारतीय दंड संहिता, 1860

  • धारा 499- मानहानि- जो कोई, बोले गए या पढ़ने के आशय से कहे गए शब्दों से, या संकेतों से या दृश्य प्रस्तुतियों द्वारा, नुकसान पहुँचाने के लक्ष्य से किसी व्यक्ति के संबंध में कोई लांछन लगाता है या प्रकाशित करता है, या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखता है कि इस तरह के लांछन से नुकसान होगा, ऐसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा को उस व्यक्ति द्वारा बदनाम करना माना जाता है।

पहला अपवाद- सत्य का आरोपण जिसे जनता की भलाई के लिये लगाया या प्रकाशित किया जाना आवश्यक है - किसी भी व्यक्ति के संबंध में जो भी सत्य है उसे लांछित करना मानहानि नहीं है, यदि यह जनता की भलाई के लिये है कि आरोपण लगाया या प्रकाशित किया जाना चाहिये। यह जनता की भलाई के लिये है या नहीं, यह तथ्य का प्रश्न है।

दूसरा अपवाद- लोक सेवकों का सार्वजनिक आचरण - अपने सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन में लोक सेवक के आचरण के संबंध में, या उसके चरित्र का सम्मान करते हुए, सद्भावना से कोई भी राय व्यक्त करना मानहानि नहीं है, जहाँ तक कि उसका चरित्र उस आचरण में प्रकट होता है और इससे आगे नहीं।

तीसरा अपवाद- किसी भी सार्वजनिक स्थान पर हस्तक्षेप करने वाले किसी भी व्यक्ति का आचरण - किसी भी सार्वजनिक स्थान पर हस्तक्षेप करने के संबंध में किसी भी व्यक्ति के आचरण का सम्मान करते हुए और उसके चरित्र का सम्मान करते हुए, सद्भावना से कोई भी राय व्यक्त करना मानहानि नहीं है, जहाँ तक कि उसका चरित्र उस आचरण में प्रकट होता है, और इससे आगे नहीं।

चौथा अपवाद- न्यायालयों की कार्यवाहियों की रिपोर्ट का प्रकाशन - न्यायालय की कार्यवाही, या ऐसी किसी कार्यवाही के परिणाम की वस्तुतः सच्ची रिपोर्ट प्रकाशित करना मानहानि नहीं है।

पाँचवा अपवाद- न्यायालय में निर्णीत मामले के गुण-दोष या गवाहों और अन्य संबंधित लोगों का आचरण - किसी भी मामले, नागरिक या आपराधिक के गुण-दोष के संबंध में किसी भी राय को सद्भावना से व्यक्त करना मानहानि नहीं है, जिसका निर्णय न्यायालय द्वारा किया गया है। न्याय, या ऐसे किसी भी मामले में एक पक्ष, गवाह या अभिकर्त्ता के रूप में किसी भी व्यक्ति के आचरण का सम्मान करना, या ऐसे व्यक्ति के चरित्र का सम्मान करना, जहाँ तक उसका चरित्र उस आचरण में प्रकट होता है, और इससे आगे नहीं।

छठा अपवाद- सार्वजनिक प्रदर्शन के गुण - किसी भी प्रदर्शन के गुणों के संबंध में, जिसे उसके लेखक ने जनता के निर्णय के लिये प्रस्तुत किया है, या लेखक के चरित्र का सम्मान करते हुए, जहाँ तक ​​उसका चरित्र ऐसे प्रदर्शन में प्रकट होता है, सद्भावना से कोई राय व्यक्त करना मानहानि नहीं है, और इससे आगे नहीं।

सातवाँ अपवाद- दूसरे पर वैध अधिकार रखने वाले व्यक्ति द्वारा सद्भावनापूर्वक की गई निंदा - यह उस व्यक्ति के लिये मानहानि नहीं है जिसके पास दूसरे पर कोई अधिकार है, जो या तो कानून द्वारा प्रदत्त है या उस दूसरे के साथ किये गए वैध अनुबंध से उत्पन्न हुआ है, ऐसे वैध प्राधिकारी से संबंधित मामलों में किसी दूसरे के आचरण पर सद्भावनापूर्वक कोई निंदा करना मानहानि नहीं है।

आठवाँ अपवाद- सद्भाव से अधिकृत व्यक्ति पर आरोप लगाना - किसी भी व्यक्ति के खिलाफ आरोप की विषय-वस्तु के संबंध में उस व्यक्ति पर कानूनी अधिकार रखने वाले लोगों में से किसी के भी खिलाफ आरोप लगाना मानहानि नहीं है।

नौवाँ अपवाद- किसी व्यक्ति द्वारा अपने या दूसरे के हितों की रक्षा के लिये सद्भावपूर्वक लगाया गया लांछन - दूसरे के चरित्र पर लांछन लगाना मानहानि नहीं है, बशर्ते कि वह लांछन व्यक्ति के हितों की रक्षा के लिये, या किसी अन्य व्यक्ति का, या जनता की भलाई के लिये सद्भावपूर्वक लगाया गया हो।

दसवाँ अपवाद - उस व्यक्ति की भलाई के लिये अभिप्रेत सावधानी, जिसे संप्रेषित किया गया है या सार्वजनिक हित के लिये है - एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध सद्भावपूर्वक चेतावनी देना मानहानि नहीं है, बशर्ते कि ऐसी सावधानी उस व्यक्ति की भलाई के लिये अभिप्रेत हो, जिसे यह बताया गया है, या किसी ऐसे व्यक्ति का जिसमें उस व्यक्ति की रुचि है या जनता की भलाई के लिये सद्भावपूर्वक चेतावनी देना मानहानि नहीं है।

  • धारा 500 - मानहानि के लिये दंड- जो कोई किसी दूसरे की मानहानि करेगा, उसे साधारण कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक बढ़ सकती है, या जुर्माने से, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950

  • धारा 8(3) - किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया गया व्यक्ति, जिसे उप-धारा (1) या उप-धारा (2) में निर्दिष्ट किसी अपराध के अलावा कम-से-कम दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई हो, वह ऐसी दोषसिद्धि की तिथि से अयोग्य घोषित किया जाएगा, और उसकी रिहाई से बाद छह वर्ष की अतिरिक्त अवधि के लिये अयोग्य घोषित किया जाना जारी रहेगा।

भारत का संविधान, 1950

  • अनुच्छेद 102(1)(e) - सदस्यता के लिये अयोग्यताएँ - (1) एक व्यक्ति को संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुने जाने और होने के लिये अयोग्य ठहराया जाएगा -

(e) यदि वह संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा या उसके तहत अयोग्य घोषित किया गया है।

[मूल निर्णय ]


Ketan Kantilal Seth v. State of Gujarat

केतन कांतिलाल सेठ बनाम गुजरात राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि – 04.08.2023

न्यायपीठ में सदस्यों की संख्या - 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना - जस्टिस सूर्यकांत और जे.के माहेश्वरी

मामला संक्षेप में:

  • आरोपी केतन कांतिलाल सेठ ने उच्चतम न्यायालय में अंतरण याचिका दायर की है.
  • उच्चतम न्यायालय ने अंतरण याचिका में नोटिस जारी किया और आगे की कार्यवाही पर रोक भी लगा दी।
  • स्थानांतरण याचिका में मध्यक्षेप एक ओमप्रकाश भाऊरावजी कामडी द्वारा इस आधार पर किया गया था कि वह एक कृषक थे और आरोपियों द्वारा कथित तौर पर धोखाधड़ी करने वाले बैंकों में से एक नागपुर जिला केंद्रीय सहकारी बैंक लिमिटेड (इसके बाद इसे एनडीसीसीबी लिमिटेड कहा गया है) की वित्तीय सहायता पर निर्भर थे, जो आरोपियों द्वारा कथित तौर पर धोखाधड़ी करने वाले बैंकों में से एक है।
  • न्यायालय द्वारा पहले दिये गए स्थगन को इस बहाने संशोधित किया गया था कि कार्यवाही अंतिम बहस के चरण में है। इसलिये अदालत ने ट्रायल कोर्ट को दलीलों की सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया और फैसला सुनाने से रोक दिया।
  • अभियुक्त को अंतरण की अनुमति दी गई, जबकि हस्तक्षेपकर्त्ता के मध्यक्षेप आवेदन को खारिज़ कर दिया गया। तद्नुसार मामलों को प्रधान न्यायाधीश के न्यायालय, बॉम्बे सिटी सिविल और सत्र न्यायालय, मुंबई में स्थानांतरित कर दिया गया।
  • इसके बाद महाराष्ट्र राज्य ने इस आधार पर अंतरण आवेदन की अनुमति देने वाले आदेश में संशोधन/वापसी की मांग करते हुए एक आवेदन दर्ज़ किया कि अंतरण याचिका का विरोध करने के लिये अंतिम सुनवाई के दिन राज्य को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया था।

निर्णय:

  • न्यायालय ने स्वीकार किया कि 2013 के सुप्रीम कोर्ट नियमों के आदेश XL नियम 3 के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्ति सीमित है और इसका प्रयोग केवल संयमित रूप से किया जा सकता है। "न्यायालय द्वारा सुनाए गए निर्णय में कोई भी परिवर्तन या परिवर्धन केवल एक लिपिकीय या अंकगणितीय गलती या किसी आकस्मिक चूक या चूक से उत्पन्न त्रुटि को ठीक करने के लिए किया जा सकता है"।
  • न्यायालय ने आरोपी केतन कांतिलाल सेठ द्वारा दायर याचिका को स्वीकार कर लिया गया और लंबित मामलों को स्थानांतरित करने का निर्देश दिया।

प्रासंगिक प्रावधान:

वर्ष 2013 के उच्चतम न्यायालय  के नियम

आदेश XL नियम 3 - संविधान के अनुच्छेद 139A (1) के तहत स्थानांतरण के लिये आवेदन - (3)

आवेदन की अंतिम सुनवाई के लिए निर्धारित तिथि से कम से कम छह सप्ताह पहले उच्च न्यायालय के माध्यम से नोटिस भेजा जाएगा। पक्षकारों द्वारा हलफनामे सुनवाई के लिये नियत तिथि से दो सप्ताह पहले रजिस्ट्री में दाखिल किये जाएँगे और अटॉर्नी-जनरल द्वारा जवाब में हलफनामा आवेदन की सुनवाई के दिन से दो दिन पहले दाखिल किया जाएगा। हलफनामों की प्रतियाँ पक्षकारों और अटॉर्नी-जनरल को दी जाएँगी और हलफनामों को रजिस्ट्री में तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक उनमें सेवा की पुष्टि न हो।

[मूल निर्णय ]


 Kishore Balkrishna Nand v. State of Maharashtra

किशोर बालकृष्ण नंद बनाम महाराष्ट्र राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि: 02.08.2023

न्यायपीठ के सदस्यों की संख्या - 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना - जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा

मामला, संक्षेप में:

  • मौज़ूदा मामले में अपीलकर्त्ता (किशोर बालकृष्ण नंद) ने उपखंड मजिस्ट्रेट (SDM) को संबोधित करते हुए एक लिखित शिकायत दर्ज़ कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्त्ता ने कुछ संपत्ति पर अतिक्रमण करके एक दुकान लगाई है।
  • उक्त दुकान पर कई असामाजिक तत्त्वों और आवारागर्दों के आने-जाने से शिकायतकर्त्ता की दुकान पर आये दिन उपद्रव होते रहते थे।
  • अपीलकर्त्ता से शिकायत प्राप्त होने के पश्चात SDM ने एक नोटिस जारी किया।
  • SDM के समक्ष कार्यवाही लंबित होने के दौरान ही शिकायतकर्त्ता ने मानहानि के अपराध के लिये न्यायिक मजिस्ट्रेट, वरोरा, चंद्रपुर, महाराष्ट्र की न्यायालय में एक निजी शिकायत दर्ज़ की।
  • अपीलकर्त्ता द्वारा SDM को दायर अपनी लिखित शिकायत में दिये गए तर्कों के आधार पर, जिसका पहले उल्लेख किया गया था, मजिस्ट्रेट ने मानहानि के अपराध के लिये संज्ञान लिया।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट की न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया और प्रार्थना की कि आगे की प्रक्रिया जारी करने के आदेश को वापस ले लिया जाए, जिसे स्वीकार कर लिया गया।
  • इस तरह के आदेश से व्यथित होकर, शिकायतकर्त्ता ने एक पुनरीक्षण आवेदन दायर करके सत्र न्यायालय के समक्ष इसे चुनौती दी।
    • इस आवेदन को स्वीकार कर लिया गया और प्रक्रिया जारी करने के आदेश को वापस लेने का आदेश रद्द कर दिया गया।
  • उसके बाद, अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय का रुख किया और उसने अपनी अपील को आगे नहीं बढ़ाने का फैसला करते हुए इसे वापस ले लिया।
  • आठ वर्ष बाद, अपीलकर्त्ता ने प्रक्रिया जारी करने के प्रारंभिक आदेश पर उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती देने का निर्णय लिया, लेकिन विलंब के आधार पर इस अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया।
  • इसलिये अपीलकर्त्ता ने मौज़ूदा अपील प्रस्तुत की है।

 निर्णय:

उच्चतम न्यायालय ने उस व्यक्ति के खिलाफ मानहानि का मामला खारिज़ कर दिया, जिस पर उपखंड मजिस्ट्रेट को दी गई अपनी शिकायत में मानहानि का दावा करने का आरोप था।

प्रासंगिक प्रावधान:

भारतीय दंड संहिता, 1860

धारा 499 - मानहानि—जो कोई बोले गए या पढ़े जाने के लिये आयशित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगाता  या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति को क्षति पहुँचे या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता है या प्रकाशित करता है, ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति को क्षति पहुँचेगी, एतस्मिन्पश्चात् अपवादित दशाओं के सिवाय उसके बारे में कहा जाता है कि वह उस व्यक्ति की मानहानि करता है।

आठवाँ अपवाद - प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष सद्भावपूर्वक अभियोग लगाना— किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अभियोग ऐसे व्यक्तियों में से किसी व्यक्ति के समक्ष सद्भावपूर्वक लगाना, जो उस व्यक्ति के ऊपर अभियोग की विषय-वस्तु के संबंध में विधिपूर्ण प्राधिकार रखते हों, मानहानि नहीं है।

[मूल निर्णय ]


राणा कपूर बनाम प्रवर्तन निदेशालय एवं अन्य।

Rana Kapoor v. Directorate of Enforcement & Anr.

निर्णय/आदेश की तिथि: 04.08.2023

न्यायपीठ में सदस्यों की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायाधीश संजीव खन्ना और एस.वी.एन. भट्टी

मामला, संक्षेप में:

  • मार्च 2020 में, यस बैंक के संस्थापक राणा कपूर को धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के तहत धन शोधन/मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा शुरू में हिरासत में लिया गया था।
    • यह गिरफ्तारी, यस बैंक - दीवान हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड (DHFL) घोटाले और कई प्रमुख उधारकर्त्ताओं को ऋण वितरण से संबंधित विभिन्न संदिग्ध वित्तीय अनियमितताओं में उनकी संलिप्तता से जुड़ी थी।
  • यस बैंक ने कथित तौर पर दीवान हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड (DHFL) के अल्पकालिक डिबेंचर में 3,700 करोड़ रुपए का निवेश किया।
  • यस बैंक-DHFL घोटाले में होम लोन प्रदाताओं द्वारा 17 बैंकों को 34,000 करोड़ रुपए से अधिक की धोखाधड़ी की गई।
  • यस बैंक ने कथित तौर पर DHFL की एक सहायक कंपनी को 750 करोड़ रुपए का ऋण भी मंज़ूर किया है।
  • जाँच एजेंसी के अधिकारियों के अनुसार, यह आरोप लगाया गया है कि यस बैंक के सह-प्रवर्तक ने DHFL सहित कई कॉर्पोरेट संस्थाओं को 30,000 करोड़ रुपए से अधिक के ऋण स्वीकृत किये। इनमें से 20,000 करोड़ रुपए के ऋण बाद में गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) बन गए।
  • ED ने आरोप लगाया है कि इन ऋणों के बदले कपूर ने अपनी पत्नी और दो बेटियों के खातों में अवैध परितोषण प्राप्त किया।
  • इसके बाद, कपूर को अतिरिक्त ऋण की धोखाधड़ी मामले में आरोपों का सामना करना पड़ा, जिसमें महाराष्ट्र में पंजाब एवं महाराष्ट्र सहकारी (PMC) बैंक में लगभग 4,300 करोड़ रुपए की कथित धोखाधड़ी भी शामिल थी।
  • उन्होंने फरवरी, 2021 में बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपना पहला जमानत आवेदन दायर किया, जिसे न्यायालय द्वारा खारिज़ कर दिया गया और उसके बाद मई, 2023 में उनका दूसरा जमानत आवेदन खारिज़ कर दिया गया. जिस पर न्यायालय ने कहा, “आवेदक के खिलाफ आरोप यह है कि आवेदक सार्वजनिक धन की हेराफेरी में शामिल है। उन्होंने कथित तौर पर बड़ी रकम निकालने के लिये DHFL के मालिकों के साथ साजिश रची है। हालाँकि आवेदक तीन वर्ष से हिरासत में है, लेकिन सार्वजनिक धन की संलिप्तता से पता चलता है कि आरोप गंभीर है। साक्ष्यों से छेड़छाड़ की आशंका है। इसलिये इस आधार पर कि आवेदक 8 मार्च, 2020 से हिरासत में है, जमानत नहीं दी जा सकती।
  • इसलिये कपूर द्वारा बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी।

निर्णय:

भारत के उच्चतम न्यायालय ने धन शोधन मामले में राणा कपूर को जमानत देने से इनकार करते हुए कहा कि “सामान्यतः, मामलों की अवधि काफी लंबी होती है। लेकिन यह एक ऐसा मामला है, जिसने पूरी बैंकिंग प्रणाली को हिलाकर रख दिया है।”

प्रासंगिक प्रावधान:

धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA)

  • यह 1 जुलाई, 2005 को लागू हुआ।
  • यह अधिनियम धन शोधन और संबंधित वित्तीय अपराधों से निपटने के लिये बनाया गया है।
  • धन शोधन को आतंकवाद, मादक पदार्थों की तस्करी, कर चोरी, भ्रष्टाचार और संगठित अपराध सहित विभिन्न आपराधिक गतिविधियों से जोड़ा जा सकता है।
  • यह अधिनियम, अधिकारियों को धनशोधन या अपराध से होने वाली आय को ज़ब्त एवं अधिहृत करना या ऐसी अवैध वित्तीय गतिविधियों में शामिल व्यक्तियों एवं संस्थाओं के खिलाफ मुकदमा चलाने के मामलों की पहचान तथा जाँच करने का अधिकार देता है।
  • यह बैंकों, वित्तीय संस्थानों और मध्यस्थों द्वारा संदिग्ध वित्तीय संव्यवहारों की रिपोर्ट करने के लिये प्रक्रियाएँ भी स्थापित करता है।
  • इस अधिनियम के प्राथमिक उद्देश्य हैं:
    • धन शोधन गतिविधियों को रोकना और उनका सामना करना।
    • अपराध से होने वाली आय को अधिहृत और ज़ब्त करना
    • संदिग्ध संव्यवहारों की रिपोर्टिंग के लिये एक कानूनी ढाँचा स्थापित करना।
    • धन शोधन और संबंधित अपराधों से निपटने में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को सुविधाजनक बनाना।

 [मूल निर्णय]


A. Sreenivasa Reddy v. Rakesh Sharma

ए. श्रीनिवास रेड्डी बनाम राकेश शर्मा

की-वर्ड्स: भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC); दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC), भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988

निर्णय/आदेश की तिथि: 08.08.2023

न्यायपीठ की संरचना – जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, बी.आर. गवई

मामला, संक्षेप में:

  • अपीलकर्त्ता भारतीय स्टेट बैंक, ओवरसीज़ बैंक, हैदराबाद में सहायक महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत था।
  • आरोप है कि उन्होंने अन्य सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर मेसर्स स्वेन जेनेटेक लिमिटेड, सिकंदराबाद (अभियुक्त नंबर 1) के पक्ष में 22.50 करोड़ रुपए का एक कॉर्पोरेट ऋण स्वीकृत करके बैंक को धोखा देने की साजिश रची।
  • रिकॉर्ड में मौज़ूद सामग्रियों से ऐसा प्रतीत होता है कि उल्लिखित कंपनी ने नए उपकरणों की खरीद/विस्तार कार्यक्रम के कार्यान्वयन के उद्देश्य से ऋण के लिये आवेदन किया था।
  • यहाँ अपीलकर्त्ता के खिलाफ मामला यह है कि उसने सिद्धांत/संवितरण शर्तों के अनुपालन के बिना कॉर्पोरेट ऋण जारी करने की मंज़ूरी देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
  • यह भी आरोप लगाया है कि अपीलकर्त्ता ने आरोपी को गलत लाभ पहुँचाने के फर्जी आशय से जल्दबाजी में नकद ऋण जारी करने की मंज़ूरी दे दी।
  • केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने यहाँ अपीलकर्त्ता और अन्य सह-अभियुक्तों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 की क्रमशः धारा 120-B r/w 420, 468 एवं 471 तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) r/w धारा 13(1) के तहत दंडनीय अपराधों के लिये पहली सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ की।
  • CBI द्वारा जाँच के समापन पर वर्ष 2014 में मुख्य विशेष न्यायाधीश (CBI मामले), हैदराबाद के न्यायालय में अपीलकर्त्ता सहित सभी छह व्यक्तियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया था।
  • एक आदेश के द्वारा, मुख्य महाप्रबंधक (MCG-I), SBI ने पी.सी. अधिनियम, 1988 की धारा 19 के तहत अपीलकर्त्ता पर दंडनीय अपराधों के लिये मुकदमा चलाने की मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया। इसके बाद अगले आदेश से मंज़ूरी दे दी गई।
  • हैदराबाद के विशेष न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के खिलाफ उपरोक्त अपराध का संज्ञान लिया।
  • इस मामले में अपीलकर्त्ता ने रिट याचिका दायर करके तेलंगाना उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए मंज़ूरी आदेश की वैधानिकता और वैधता को चुनौती दी।
  • उच्च न्यायालय ने रिट याचिका को स्वीकार कर लिया और मंज़ूरी देने के आदेश को रद्द कर दिया। इससे असंतुष्ट होकर, CBI ने एक रिट अपील दायर की जो आगे भी विफल रही।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने CrPC की धारा 239 के तहत विशेष न्यायालय के समक्ष उन्मोचन आवेदन दायर किया, जिसे न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।
  • व्यथित महसूस करते हुए, अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष यह याचना की कि उसे IPC के तहत अपराधों के लिये बरी कर दिया जाना चाहिये क्योंकि CrPC की धारा 197 के तहत मंज़ूरी देने वाले प्राधिकारी द्वारा कोई मंज़ूरी नहीं दी गई है, जिसे खारिज़ कर दिया गया था।
  • इसलिये अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।

निर्णय:

उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 197 लोक सेवकों से जुड़े मामलों तक ही सीमित है, जिन्हें सरकार की मंज़ूरी के बिना उनके पद से बर्खास्त नहीं किया जा सकता है, इस धारा का संरक्षण राष्ट्रीयकृत बैंक में कार्य करने वाले व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है।

प्रासंगिक प्रावधान:

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC)

धारा 197 - न्यायाधीशों और लोक सेवकों पर अभियोजन —

(1) कोई व्यक्ति जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या लोक सेवक है/था, उसे सरकार द्वारा या उसकी अनुमति के अलावा पद से नहीं हटाया जा सकता है, जब तक कि उस पर किसी ऐसे अपराध का आरोप नहीं लगाया जाता है जो अपने आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन में उसके द्वारा कार्य करते समय या उस कार्य को करने के लिये कथित तौर पर किया गया है, कोई भी न्यायालय लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के तहत प्रदान की गई पूर्व मंज़ूरी के अलावा ऐसे अपराध का संज्ञान नहीं लेगा।- 

(a) ऐसे व्यक्ति के मामले में जो, जैसा भी मामला हो, केंद्र सरकार के संघ के मामलों के संबंध में नियोजित है या कथित अपराध के समय नियोजित था;

(b) ऐसे व्यक्ति के मामले में जो, जैसा भी मामला हो, किसी राज्य के मामलों के संबंध में नियोजित है या कथित अपराध के समय नियोजित था।

बशर्ते कि जहाँ कथित अपराध उस अवधि के दौरान खंड (b) में निर्दिष्ट किसी व्यक्ति द्वारा किया गया था, जबकि संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के तहत जारी की गई उद्घोषणा किसी राज्य में लागू थी, खंड (b) इस प्रकार लागू होगा, यदि उसके अंतर्गत अभिव्यक्ति "राज्य सरकार" के स्थान पर "केंद्र सरकार" द्वारा प्रतिस्थापित की गई हो। व्याख्या - शंकाओं को दूर करने के लिये यह घोषित किया जाता है कि धारा 166A, धारा 166B, धारा 354, धारा 354A, धारा 354B, धारा 354C, धारा 354D, धारा 370, धारा 375, धारा 376A, धारा 376AB, धारा 376C, धारा 376D, धारा 376DA, धारा 376DB या भारतीय दंड संहिता की धारा 509 (1860 का 45) के तहत किये गए कथित किसी अपराध के आरोपी लोक सेवक के मामले में किसी मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं होगी।

(2) कोई भी न्यायालय केंद्र सरकार की पूर्व मंज़ूरी के अलावा, संघ के किसी भी सदस्य द्वारा अपने आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन के दौरान किये गए कथित अपराध का संज्ञान नहीं लेगा।

(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निर्देश दे सकती है, कि उप-धारा (2) के प्रावधान सार्वजनिक आदेश के अनुरक्षण के लिये आरोपित बलों के सदस्यों के ऐसे वर्ग या श्रेणी पर लागू होंगे, जैसा कि उसमें निर्दिष्ट किया जा सकता है, चाहे वे कहीं भी सेवारत हों और इसके बाद उस उप-धारा के प्रावधान इस प्रकार लागू होंगे जैसे कि उसमें होने वाली अभिव्यक्ति "केंद्र सरकार" के द्वारा "राज्य सरकार" को प्रतिस्थापित की गई हो।

उप-धारा (3A) में किसी भी बात के बावज़ूद, कोई भी न्यायालय किसी राज्य में अनुच्छेद 356 के खंड (1) के तहत जारी उद्घोषणा के दौरान लोक व्यवस्था बनाए रखने के क्रम में किसी भी सैन्य बल के सदस्य द्वारा कार्य निर्वहन की अवधि के दौरान, केंद्र सरकार की विगत मंज़ूरी को छोड़कर, कथित रूप से किये गए किसी भी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा।

(3B) इस संहिता या किसी अन्य कानून में किसी भी विपरीत बात के बावज़ूद, यह घोषित किया जाता है कि राज्य सरकार द्वारा दी गई कोई भी मंज़ूरी या ऐसी मंज़ूरी पर न्यायालय द्वारा लिया गया कोई संज्ञान, 20 अगस्त, 1991 से शुरू और उस तारीख से तुरंत पहले की तारीख, जिस पर दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1991 (1991 का 43) को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई, तो राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के तहत जारी उद्घोषणा के दौरान कियेगए कृत्य के संदर्भ में कार्यवाही हेतु केंद्र सरकार की मंज़ूरी के साथ न्यायालय उस पर संज्ञान लेने में सक्षम होगा।

(4) जैसा भी मामला हो, केंद्र सरकार या राज्य सरकार उस व्यक्ति का निर्धारण कर सकती है जिसके द्वारा, जिस तरीके से, और जिस अपराध के लिये ऐसे न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक पर मुकदमा चलाया जाना है, और वह न्यायालय निर्दिष्ट कर सकता है जिसके समक्ष मुकदमा चलाया जाना है।

 भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988

धारा 19 - अभियोजन के लिये पूर्व स्वीकृति आवश्यक-

(1)  लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 (2014 का 1) में अन्यथा प्रदान की गई पिछली मंज़ूरी को छोड़कर, कोई भी न्यायालय  किसी लोक सेवक द्वारा किये गए कथित धारा 7, 11, 13 और 15 के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान नहीं लेगा—

(a) किसी व्यक्ति के मामले में [जो नियोजित है, या जैसा भी मामला हो, कथित अपराध के होने के समय नियोजित था] संघ के मामलों के संबंध में और केंद्रीय सरकार द्वारा या उसकी मंज़ूरी के बिना, उसके पद से हटाया नहीं जा सकता;

(b) किसी व्यक्ति के मामले में [जो नियोजित है, या जैसा भी मामला हो, कथित अपराध के समय नियोजित था] किसी राज्य के मामलों के संबंध में और राज्य सरकार द्वारा या उसकी मंज़ूरी के बिना, उसके पद से हटाया नहीं जा सकता;

(c)  किसी अन्य व्यक्ति के मामले में, उसे उसके पद से हटाने के लिये सक्षम प्राधिकारी का:

 बशर्ते कि किसी पुलिस अधिकारी या किसी जाँच एजेंसी या अन्य कानून प्रवर्तन प्राधिकरण के अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा, ऐसी सरकार की पूर्व मंज़ूरी के लिये, जैसा भी मामला हो, उपयुक्त सरकार या सक्षम प्राधिकारी से कोई अनुरोध नहीं किया जा सकता है या इस उपधारा में निर्दिष्ट किसी भी अपराध का न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने का अधिकार नहीं होगा, जब तक कि-

(i)  ऐसे व्यक्ति ने कथित अपराधों के विषय में सक्षम न्यायालय  में शिकायत दर्ज़ की है जिसके लिये लोक सेवक पर मुकदमा चलाने की मांग की गई है; और

(ii) न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज़ नहीं किया है और शिकायतकर्त्ता को आगे की कार्यवाही के लिये लोक सेवक के खिलाफ अभियोजन की मंज़ूरी प्राप्त करने का निर्देश दिया है।

 बशर्ते कि किसी पुलिस अधिकारी या किसी जाँच एजेंसी या अन्य कानून प्रवर्तन प्राधिकरण के अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के अनुरोध के मामले में, उपयुक्त सरकार या सक्षम प्राधिकारी किसी लोक सेवक को सुने जाने का अवसर प्रदान किये बिना किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देगाः

बशर्ते कि उपयुक्त सरकार या कोई सक्षम प्राधिकारी, इस उपधारा के अधीन किसी लोक सेवक के अभियोजन के लिये अनुमोदन की अपेक्षा करने वाले प्रस्ताव की प्राप्ति के पश्चात्, ऐसे प्रस्ताव पर उसके प्राप्ति की तारीख से तीन महीने की अवधि के अंदर निर्णय देने का प्रयास करेगाः

 बशर्ते कि ऐसे मामले में जहाँ अभियोजन की मंज़ूरी देने के लिये कानूनी परामर्श की आवश्यकता हो, ऐसी अवधि को लिखित रूप में दर्ज़ किये जाने वाले कारणों से एक महीने की अतिरिक्त अवधि के लिये बढ़ाया जा सकता है:

बशर्ते कि केंद्र सरकार, किसी लोक सेवक के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंज़ूरी के लिये ऐसे दिशानिर्देश निर्धारित कर सकती है, जैसा वह आवश्यक समझे।

व्याख्या —  उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिये, अभिव्यक्ति "लोक सेवक" में ऐसा व्यक्ति शामिल है -

(a)  व्यक्ति अब उस पद पर नहीं है जिसके दौरान कथित अपराध किया गया था; या

(b)  जो अब उस पद पर नहीं है जिसके दौरान कथित अपराध किया गया था और वह उस पद से अलग पद पर है जिसके दौरान कथित अपराध हुआ था।

(2) जहाँ किसी भी कारण से कोई संदेह उत्पन्न होता है कि क्या उप-धारा (1) के तहत अपेक्षित पिछली मंज़ूरी केंद्र सरकार या राज्य सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा दी जानी चाहिये, ऐसी मंज़ूरी उस सरकार या प्राधिकारी द्वारा दी जाएगी जो उस समय लोक सेवक को उसके पद से हटाने के लिये सक्षम होगा जब अपराध किये जाने का आरोप लगाया गया था।

(3) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी -

(a) किसी विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित किसी भी निष्कर्ष, सजा या आदेश को उप-धारा (1) के तहत आवश्यक मंज़ूरी की अनुपस्थिति, या किसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के आधार पर अपील, पुष्टि या पुनरीक्षण में न्यायालय द्वारा उलट या परिवर्तित नहीं किया जाएगा, जब तक कि उस न्यायालय की राय में, वास्तव में न्याय की विफलता उत्पन्न न हुई हो;  

(b) कोई भी न्यायालय प्राधिकरण द्वारा दी गई मंज़ूरी में किसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के आधार पर इस अधिनियम के तहत कार्यवाही पर रोक नहीं लगाएगा, जब तक कि वह संतुष्ट न हो कि ऐसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के परिणामस्वरूप न्याय की विफलता हुई है;

(c) कोई भी न्यायालय किसी अन्य आधार पर इस अधिनियम के तहत कार्यवाही पर रोक नहीं लगाएगा और कोई भी न्यायालय किसी भी जाँच, परीक्षण, अपील या अन्य कार्यवाही में पारित किसी भी अंतरिम आदेश के संबंध में पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग नहीं करेगा।

(4)  उप-धारा (3) के तहत यह निर्धारित करने में कि क्या ऐसी मंज़ूरी की अनुपस्थिति या किसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के कारण न्याय में विफलता हुई है या इसके परिणामस्वरूप अदालत को इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि क्या आपत्ति कार्यवाही के किसी भी पूर्व चरण में उठाई जानी चाहिये थी या नहीं।

व्याख्या —इस अनुभाग के प्रयोजनों के लिये, -

(a)  त्रुटि में मंज़ूरी देने की प्राधिकारी की योग्यता शामिल है;

(b) अभियोजन के लिये आवश्यक मंज़ूरी में किसी भी आवश्यकता का संदर्भ शामिल है कि अभियोजन एक निर्दिष्ट प्राधिकारी के अनुरोध पर या एक निर्दिष्ट व्यक्ति की मंज़ूरी या समान प्रकृति की किसी भी आवश्यकता के साथ होगा।

[मूल निर्णय]


Government of Kerala & Anr. v. Joseph and Others

केरल सरकार और अन्य बनाम जोसेफ और अन्य

निर्णय/आदेश की तिथि – 09.08.2023

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति अभय.एस.ओका तथा न्यायमूर्ति संजय करोल

संक्षेप में मामला:

  • इस अपील में केरल उच्च न्यायालय द्वारा 5 अगस्त 2009 के विनिश्चय को चुनौती दी गई थी।
  • उच्च न्यायालय के विनिश्चय ने वर्ष 1995 में थोडुपुझा में जिला न्यायाधीश द्वारा प्रथम अपील में दिये गए पूर्व के विनिश्चय को उलट दिया।
  • उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विचाराधीन भूमि वास्तव में इस मामले में प्रत्यर्थी, जोसेफ की है, क्योंकि प्रतिकूल कब्ज़े के सिद्धांत के अनुसार, उन्होंने लंबे समय से इस भूमि को कानूनी रूप से दखलकृत कर रखा था।
  • राज्य ने तर्क दिया कि दो आधारों पर प्रतिकूल कब्ज़े का सवाल नहीं उठता -
    • पहला, यदि भूमि निर्विवाद रूप से सरकारी भूमि है और
    • दूसरा, प्रत्यर्थियों द्वारा संबंधित भूमि पर केवल 15 वर्षों की अवधि के लिये कब्ज़ा किया गया था जो कि 30 वर्षों की आवश्यक अवधि से कम है, जिसके उपरांत राज्य के खिलाफ प्रतिकूल कब्ज़े का दावा किया जा सकता है।
  • अपीलकर्त्ता (राज्य) ने प्रस्तुत किया कि केरल भूमि संरक्षण अधिनियम, 1957 की धारा 20 भूमि के अनधिकृत अधिभोग के संबंध में अधिनियम के तहत की गई किसी भी कार्रवाई के संबंध में सरकार के खिलाफ किसी भी मुकदमे अथवा अन्य कानूनी कार्यवाही पर रोक लगाती है।

अधिमत:

  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिकूल कब्ज़ा स्थापित करने के लिये सभी तीन श्रेण्य अपेक्षाओं का सह-अस्तित्व होना चाहिये -
    • nec vi, अर्थात निरंतर कब्ज़े की पर्याप्तता होनी चाहिये,
    • nec clam, अर्थात, कब्ज़ाकृत भूमि लोगों के संज्ञान में होनी चाहिये तथा
    • nec precario, अर्थात , शीर्षक तथा ज्ञान से प्रत्याख्यान करते हुए, प्रतिस्पर्धी के प्रतिकूल।

प्रासंगिक उपबंध -

केरल भूमि संरक्षण अधिनियम, 1957 की धारा 20 - इस अधिनियम के तहत कार्यवाही से व्यथित व्यक्तियों द्वारा मुकदमों से बचाव -

इस अधिनियम के तहत पारित किसी भी आदेश के संबंध में किसी भी सिविल न्यायालय में सरकार के खिलाफ कोई भी मुकदमा स्वीकार नहीं किया जाएगा। सिवाय इस आधार पर कि जिस भूमि के संबंध में ऐसा आदेश पारित किया गया है वह भूमि सरकारी संपदा के अंतर्गत नहीं आती है, चाहे वह भूमि पोरम्बोक हो अथवा नहीं:

बशर्ते कि सिविल न्यायालय ऐसे किसी भी मुकदमे का संज्ञान तब तक नहीं लेंगे जब तक कि इसे वाद हेतु उद्भूत होने की तिथि से एक वर्ष के भीतर स्थापित नहीं किया जाता है।

[मूल निर्णय]


 Shaji v. State of Kerala

शाजी बनाम केरल राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि- 07.08.2023

न्यायपीठ के सदस्यों की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना - जस्टिस ए.एस बोपन्ना और एम.एम सुंदरेश

मामला संक्षेप में:

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता ने उस दिन मृतक को जगाया और उससे सिगरेट लाइटर खरीदने की मांग की।
  • मृतक कोई और नहीं बल्कि अपीलकर्त्ता का नाबालिग बेटा था।
  • वहाँ एक विवाद हुआ, जिसके बाद अपीलकर्त्ता ने मृतक पर हमला कर दिया।
    • मृतक की मृत्यु चोट लगने के कारण हो गई।
  • अपीलकर्त्ता की पत्नी और एक अन्य नाबालिग बेटा भी अभियोजन पक्ष के गवाह थे।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि उसने मृतक को अस्पताल ले जाकर बचाने का प्रयास किया
  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में विफल रहा कि यह मामला भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 302 के तहत हत्या का था और ना की आईपीसी की धारा 304 भाग I के तहत गैर इरादतन हत्या का ।

 निर्णय :

  • न्यायालय के अनुसार यह मामला आईपीसी की धारा 304 भाग I के तहत दंडनीय अपराध के अंतर्गत आएगा, न कि आईपीसी की धारा 302 के तहत।
    • यह सामान्य बात है कि हत्या के आरोपी के मुकदमे को आगे बढ़ाने से पहले सत्र न्यायालय को यह कार्य सौंपा गया है कि वह स्पष्ट करे कि गैर इरादतन हत्या का मामला बनता है या नहीं।
    • रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री स्पष्ट रूप से इस तथ्य को स्थापित करती है कि यह गैर इरादतन हत्या का मामला है, और इसलिये यह आईपीसी की धारा 304 भाग I के तहत दंडनीय अपराध के अंतर्गत आएगा।

प्रासंगिक प्रावधान -

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 304 - गैर इरादतन हत्या के लिये दंड -

  • जो कोई भी गैर इरादतन हत्या करता है, उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिये कारावास, जिसे दस साल तक बढ़ाया जा सकता है, से दंडित किया जाएगा और वह ज़ुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा, यदि उसने वह कार्य जिसके कारण मृत्यु हुई है,उसे मृत्यु कारित करने के इरादे से, या ऐसी शारीरिक चोट कारित करने के इरादे से जिससे मृत्यु कारित होने की संभावना हो किया है
  • या किसी अवधि के लिये कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या ज़ुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है, यदि कार्य इस ज्ञान के साथ किया जाता है कि इससे मृत्यु होने की संभावना है, लेकिन मृत्यु कारित करने के किसी इरादे के बिना किया गया है, या ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाना जिससे मृत्यु होने की संभावना हो।

[मूल निर्णय]


 Kumar Soni v. State of Andhra Pradesh

मनोज कुमार सोनी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि - 11.08.2023

न्यायपीठ के सदस्य - 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ  की संरचना - जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और दीपांकर दत्ता

संक्षेप में मामला:

  • अभियुक्त मनोज और कुल्लू की ओर से दो अपील दायर की गईं, जिस पर उच्चतम न्यायालय ने एकल फैसला सुनाया।
  • मनोज को दोषी ठहराया गया क्योंकि चोरी के आभूषण कथित तौर पर उसे बेचे गए थे और यह जानते हुए भी कि सह-अभियुक्तों ने उसे चोरी का सामान बेचा था, उसने फिर भी बेईमानी से उसे प्राप्त करना और अपने पास रखना चुना।
  • शिकायतकर्त्ता के पूर्व ड्राइवर कल्लू के खिलाफ विशिष्ट आरोप अन्य सह-अभियुक्त व्यक्तियों के साथ साज़िश में शामिल होने से संबंधित हैं।
    • उसके खिलाफ आरोप यह था कि उसने उनके साथ जानकारी साझा की, जिसमें खुलासा किया कि शिकायतकर्त्ता के पास पर्याप्त मात्रा में पैसा और मूल्यवान आभूषण थे और अन्य जानकारी साझा की।
  • कल्लू की सज़ा उसके स्वयं के खुलासे के साथ-साथ एक आरोपी द्वारा पैसे और हथियारों के संबंध में किये गए खुलासे पर आधारित थी।
  • दोषसिद्धि उनके स्वयं के प्रकटीकरण बयानों द्वारा साक्ष्य की खोज की पुष्टि पर निर्भर थी।

निर्णय:

  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि प्रकटीकरण बयान किसी मामले को सुलझाने में योगदान देने वाले कारक के रूप में महत्त्व रखते हैं, न्यायालय की राय में, वे अपने आप में पर्याप्त प्रभावशाली साक्ष्य नहीं हैं और उचित संदेह से परे आरोपों को सामने लाने के लिये और कुछ भी नहीं है।
  • न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और अपीलकर्त्ताओं को बरी कर दिया।

प्रासंगिक प्रावधान -

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 - अभियुक्त से प्राप्त जानकारी को कितना साबित किया जा सकता है -

बशर्ते कि, जब कोई तथ्य किसी पुलिस अधिकारी की हिरासत में किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप खोजा गया हो, तो ऐसी बहुत सी जानकारी, चाहे वह संस्वीकृति के बराबर हो या नहीं, के रूप में स्पष्ट रूप से संबंधित है इस प्रकार खोजे गए तथ्य को सिद्ध किया जा सकता है।

[मूल निर्णय]


Conditioning and Refrigeration Company v. Union of India

लार्सन एयर कंडीशनिंग एंड रेफ्रिजरेशन कंपनी बनाम भारत संघ

निर्णय/आदेश की तिथि – 11.08.2023

न्यायपीठ में सदस्य संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना - जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और दीपांकर दत्ता

मामला संक्षेप में:

  • पक्षकारों के बीच विवाद एक परियोजना से संबंधित राज्य द्वारा निविदा दिये जाने के परिणामस्वरूप किये गए अनुबंध से उत्पन्न हुआ। कार्य के दौरान कुछ विवाद उत्पन्न हो गये।
  • प्रतिवादी (राज्य) ने विवाद को मध्यस्थता के लिये भेजा, जहाँ अधिकरण (tribunal) ने पहले चार उत्तरदाताओं को पंचाट पर 18% वाद्कालीन (pendente-lite) और भविष्य में चक्रवृद्धि ब्याज का भुगतान करने का निर्देश दिया।
  • प्रतिवादी ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनयम, 1996 (A एंड C अधिनियम) की धारा 34 के तहत फैसले को चुनौती दी।
  • ज़िला न्यायालय ने इस आधार पर चुनौती को खारिज़ कर दिया कि वह पंचाट पर अपील में नहीं बैठ सकता।
  • व्यथित होकर, प्रतिवादी ने वर्ष 2003 में उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने राज्य की अपील पर विचार किया और 18% के चक्रवृद्धि ब्याज को घटाकर 9% साधारण ब्याज प्रति वर्ष कर दिया।
  • इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।

अधिमत:

  • उच्च न्यायालय से माध्यस्थम् पंचाट को संशोधित करने में गलती हुई क्योंकि A एंड C अधिनियम के अनुच्छेद 34 के तहत उसके पास इस तरह के संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है।

प्रासंगिक प्रावधान -

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 - माध्यस्थम् पंचाट को रद्द करने के लिये आवेदन

(1) किसी माध्यस्थम् पंचाट के खिलाफ न्यायालय का सहारा केवल उप-धारा (2) और उप-धारा (3) तहत लिया जाता है, उक्त धाराओं के अनुसार ऐसे पंचाट को रद्द करने के लिये एक आवेदन किया जा सकता है।

(2) किसी माध्यस्थम् पंचाट को न्यायालय द्वारा केवल तभी रद्द किया जा सकता है यदि-

(a) आवेदन करने वाला पक्षकार मध्यस्थ न्यायाधिकरण के रिकॉर्ड के आधार पर स्थापित करता है कि -

(i) एक पक्षकार किसी अक्षमता में था, या

(ii) मध्यस्थता समझौता उस कानून के तहत मान्य नहीं है जिसके अधीन पक्षकारों ने इसे किया है या उस पर किसी भी संकेत को विफल करने में, कुछ समय के लिये लागू कानून के तहत; या

(iii) आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ की नियुक्ति या मध्यस्थ कार्यवाही की उचित सूचना नहीं दी गई थी या अन्यथा वह अपना मामला प्रस्तुत करने में असमर्थ था; या

(iv) माध्यस्थम् पंचाट ऐसे विवाद से निपटता है जिस पर विचार नहीं किया गया है या जो मध्यस्थता में प्रस्तुत करने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है, या इसमें मध्यस्थता में प्रस्तुत करने के दायरे से बाहर के मामले पर निर्णय शामिल हैं:

बशर्ते कि, यदि मध्यस्थता में प्रस्तुत मामलों पर निर्णयों को उन मामलों से अलग किया जा सकता है जो इस तरह प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, तो माध्यस्थम् पंचाट का केवल वह भाग जिसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों पर निर्णय शामिल हैं, को अलग रखा जा सकता है; या 

(v) मध्यस्थ न्यायाधिकरण या मध्यस्थ प्रक्रिया की संरचना पक्षकारों के समझौते के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा समझौता इस भाग के प्रावधान के साथ विरोध में न हो, इस तरह के समझौते में विफल होने पर पक्षकार अपमानित नहीं हो सकते या अतीत के अनुरूप नहीं हो सकते; या 

(b) न्यायालय ने पाया कि-

(i) विवाद की विषय वस्तु फिलहाल लागू कानून के तहत मध्यस्थता द्वारा निपटाने में सक्षम नहीं है, या

(ii) माध्यस्थम् पंचाट भारत की सार्वजनिक नीति के विपरीत है।

व्याख्या 1.- किसी भी संदेह से बचने के लिये यह स्पष्ट किया जाता है कि कोई पंचाट भारत की सार्वजनिक नीति के विपरीत है, केवल तभी,

(i) पंचाट का निर्माण धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित या प्रभावित था या धारा 75 या धारा 81 का उल्लंघन था; या

(ii) यह भारतीय कानून की मौलिक नीति का उल्लंघन है; या

(iii) यह नैतिकता या न्याय की बुनियादी धारणाओं के विपरीत है।

व्याख्या 2.- संदेह से बचने के लिये यह स्पष्ट किया जाता है कि क्या यह भारतीय कानून की मौलिक नीति का उल्लंघन है, विवाद के गुण-दोष के आधार पर समीक्षा की आवश्यकता नहीं होगी?

(2A) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के अलावा अन्य मध्यस्थताओं से उत्पन्न एक माध्यस्थम् पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय को पता चलता है कि पंचाट में दर्शाए गए पेटेंट अवैधता से पंचाट दूषित हो गया है:

बशर्ते कि किसी पंचाट को केवल कानून के गलत प्रयोग के आधार पर या साक्ष्य की पुन: सराहना के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।

(3) अलग करने के लिये कोई आवेदन उस तिथि से तीन माह बीत जाने के बाद नहीं किया जा सकता है, जिस दिन उस आवेदन करने वाले पक्षकार को माध्यस्थम् पंचाट  प्राप्त हुआ था या यदि धारा 33 के तहत अनुरोध किया गया था, तो उस तिथि से जब वह अनुरोध का निपटारा मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा कर दिया गया था:

बशर्ते कि यदि न्यायालय संतुष्ट है कि आवेदक को तीन माह की उक्त अवधि के भीतर आवेदन करने से रोकने के पर्याप्त कारण थे तो वह तीस दिनों की अतिरिक्त अवधि के भीतर आवेदन पर विचार कर सकता है, लेकिन उसके बाद नहीं।

(4) उप-धारा (1) के तहत एक आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय, जहाँ यह उचित हो और किसी पक्ष द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, मध्यस्थता देने के लिये कार्यवाही को उसके द्वारा निर्धारित समय की अवधि के लिये स्थगित कर सकता है। न्यायाधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही को पुनः शुरू करने या ऐसी अन्य कार्रवाई करने का अवसर मिलेगा जो मध्यस्थ न्यायाधिकरण की राय में माध्यस्थम् पंचाट को रद्द करने के लिये कारण को समाप्त कर देगा।

(5) इस धारा के तहत आवेदन एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा और ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त आवश्यकता के अनुपालन का समर्थन करने वाला एक हलफनामा संलग्न किया जाएगा।

(6) इस धारा के तहत आवेदन का निपटान शीघ्रता से किया जाएगा और किसी भी घटना में उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर, उप-धारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्ष को दिया जाएगा।

[मूल निर्णय]


Devesh Sharma v. Union of India

देवेश शर्मा बनाम भारत संघ

निर्णय/आदेश की तिथि- 11.08.2023

न्यायपीठ में सदस्य संख्या - 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना - जस्टिस अनिरुद्ध बोस और सुधांशु धूलिया

संक्षेप में मामला:

  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE) की ओर से 28 जून 2018 को एक अधिसूचना जारी की गई थी।
  • इस अधिसूचना ने B.Ed. डिग्री धारक को प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों (कक्षा I से V) के पद पर नियुक्ति के लिये पात्र किया था।
  • उपर्युक्त अधिसूचना के बावज़ूद, जब माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान राज्य ने 11 जनवरी 2021 को राजस्थान शिक्षक पात्रता परीक्षा (RTET लेवल -1) के लिये एक विज्ञापन जारी किया, तो इसमें Ed. डिग्री धारक पात्र के उम्मीदवारों को सूची से बहार कर दिया।
  • राजस्थान सरकार की इस कार्रवाई को राजस्थान उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
  • याचिकाकर्त्ता के पास B.Ed. डिग्री है, और 28 जून 2018 की अधिसूचना के अनुसार, वह कई अन्य समान उम्मीदवारों की तरह पात्र थे।
    • परिणामस्वरूप, उसने अन्य बातों के साथ, राजस्थान HC के समक्ष अपनी याचिका दायर की, जिसमें प्रार्थना की गई कि 11 जनवरी 2021 के विज्ञापन को अमान्य घोषित कर दिया जाए, क्योंकि यह NCTE द्वारा जारी 28 जून 2018 की अधिसूचना का उल्लंघन था।
  • इसी शिकायत पर कई अन्य याचिकाएँ दायर की गईं।
  • राजस्थान HC ने B.Ed उम्मीदवारों को प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों (स्तर-1) के पदों के लिये अनर्हित ठहराए जाने वाली 28 जून 2018 की अधिसूचना को अमान्य घोषित कर दिया।
  • इसलिये, उच्च न्यायालय के निर्णय को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले पर भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21A के प्रभाव को देखा।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 21A भी 'गुणवत्तापूर्ण शिक्षा' को शामिल करता है, इसलिये एक अच्छा शिक्षक किसी विद्यालय में 'गुणवत्तापूर्ण' शिक्षा का पहला आश्वासन है।
  • न्यायालय ने कहा कि B.Ed. स्नातकों को माध्यमिक और उच्च शिक्षा में प्रशिक्षण मिलता है जबकि D.El.Ed. स्नातकों को प्रारंभिक शिक्षा में प्रशिक्षण मिलता है।
  • इसलिये, निहितार्थ से B.Ed. को योग्यता के रूप में को शामिल करना प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की 'गुणवत्ता' को कम करना होगा।

प्रासंगिक प्रावधान -

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 21A - शिक्षा का अधिकार -

राज्य छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को इस तरह से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा जैसा राज्य कानून द्वारा निर्धारित कर सकता है।

[Original Judgment]


Janak Nagargoje v. The State of Maharashtra & Ors.

सिंधु जनक नागरगोजे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

निर्णय/आदेश की तिथि – 08.08.2023

न्यायपीठ की संख्या 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति बेला.एम.त्रिवेदी तथा न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता

संक्षेप में मामला:

  • अपीलकर्त्ता के भाई शिवाजी बांगर को 2 अप्रैल 2020 को अभियुक्तों द्वारा गंभीर रूप से पीटा गया तथा क्रूरतापूर्वक हमला किया गया, एवं 3 अप्रैल 2020 को क्षतियों के कारण उसकी मृत्यु हो गई
  • 5 अप्रैल 2020 को, अपीलकर्त्ता प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ करवाने के लिये संबंधित पुलिस स्टेशन गया था, हालाँकि इसे दर्ज़ नहीं किया गया था
  • इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने संबंधित प्रत्यर्थियों को अपनी शिकायतें सौंपी, किंतु शिकायत दर्ज़ करने के लिये कोई कार्रवाई नहीं की गई
  • अपीलकर्त्ता ने रिट याचिका के माध्यम से बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया, किंतु उच्च न्यायालय द्वारा उसकी याचिका खारिज़ कर दी गई
  • इससे व्यथित होकर उसने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की

अधिमत:

अपील की मंज़ूरी देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यदि सूचना संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, तो CrPC की धारा 154 के तहत FIR दर्ज़ करना अनिवार्य है

न्यायालय ने कानून को दोहराया तथा इस प्रकार संक्षेप में बताया:

  1. यदि सूचना से किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है तो CrPC की धारा 154 के तहत FIR दर्ज़ करना अनिवार्य है और ऐसी स्थिति में कोई प्रारंभिक जाँच अनुज्ञेय नहीं है।
  2. यदि प्राप्त जानकारी संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं करती है, किंतु जाँच की आवश्यकता है, तो प्रारंभिक जाँच केवल यह सुनिश्चित करने के लिये की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है अथवा नहीं
  3. यदि पूछताछ में संज्ञेय अपराध होने का खुलासा होता है, तो FIR दर्ज़ की जानी चाहिये। वे मामले जिनमें प्रारंभिक जाँच शुरू की जाती है तथा शिकायत की समाप्ति की जाती है, ऐसे समापन की प्रविष्टि की प्रति प्रथम इत्तिला देने वाले को तत्क्षण अथवा एक सप्ताह के भीतर प्रदान की जानी चाहिये। इसमें संक्षिप्त रूप से शिकायत की समाप्ति करने तथा आगे न बढ़ाने के कारणों को प्रकट करना होगा।
  4. संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर पुलिस अधिकारी अपराध दर्ज़ करने के अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकता। प्राप्त जानकारी से संज्ञेय अपराध का पता चलने पर भी जो अधिकारी FIR दर्ज़ करने से इंकार करते हैं उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिये।
  5. प्रारंभिक जाँच का उद्देश्य प्राप्त जानकारी की सत्यता अथवा अन्यथा को सत्यापित करना नहीं है, बल्कि केवल यह सुनिश्चित करना है कि क्या जानकारी किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है।
  6. किस प्रकार की और किन मामलों में प्रारंभिक जाँच की जानी है, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
  7. अभियुक्तों एवं परिवादियों के अधिकारों को सुनिश्चित और संरक्षित कर प्रारंभिक जाँच को समयबद्ध किया जाना चाहिये तथा किसी भी मामले में यह समय अवधि 7 दिन से अधिक नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार के विलंब का तथ्य तथा इसके कारणों का उल्लेख साधारण दैनिकी प्रविष्टि में किया जाना चाहिये।
  8. साधारण डायरी/स्टेशन डायरी/दैनिक डायरी एक पुलिस थाने में प्राप्त सभी सूचनाओं का अभिलेखा है, इसलिये हम निर्देश देते हैं कि संज्ञेय अपराधों से संबंधित सभी जानकारी जैसे FIR दर्ज़ करने के परिणामस्वरूप प्राप्त जानकारी अथवा जाँच के कारण प्राप्त जानकारी, अनिवार्य रूप से तथा सावधानीपूर्वक उपर्युक्त डायरियों में लिखी जानी चाहिये। उक्त डायरी में प्रारंभिक जाँच करने के विनिश्चय का भी उल्लेख किया जाना चाहिये।

प्रासंगिक उपबंध:

CrPC की धारा 154 - संज्ञेय मामलों में सूचना

(1) किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित प्रत्येक जानकारी यदि किसी पुलिस थाना के प्रभारी अधिकारी को मौखिक रूप से दी गई है तो उसके द्वारा अथवा उसके निर्देशन में लिखित रूप में दी जाएगी, एवं इत्तिला करने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी; तथा ऐसी प्रत्येक जानकारी, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो अथवा पूर्वोक्त रूप से लिखित रूप में दी गई हो, उसे देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा, तथा इसका सार उस अधिकारी द्वारा एक पुस्तक में ऐसे प्रारूप में दर्ज़ किया जाएगा जैसा राज्य सरकार इस संबंध में निर्धारित कर सकती है।

(2) उप-धारा (1) के तहत दर्ज़ की गई जानकारी की एक प्रति इत्तिला करने वाले को तत्क्षण निःशुल्क दी जाएगी।

(3) उपधारा (1) में निर्दिष्ट जानकारी को रिकॉर्ड करने के लिये पुलिस थाना के प्रभारी अधिकारी की ओर से इंकार करने से व्यथित कोई भी व्यक्ति ऐसी जानकारी का सार लिखित रूप में तथा डाक द्वारा, पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है। संबंधित पुलिस, यदि संतुष्ट है कि ऐसी जानकारी संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करती है, तो स्वयं मामले की जाँच करेगी अथवा इस संहिता द्वारा प्रदान किये गए तरीके से अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी को जाँच करने का निर्देश देगी, तथा ऐसे अधिकारी के पास उस अपराध के संबंध में पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की सभी शक्तियां होंगी।

[मूल निर्णय]


 Madhusudhana Rao v. State of Andhra Pradesh & Ors.

यद्दनपुडी मधुसूदन राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य

निर्णय/आदेश की तिथि– 09.08.2023

न्यायपीठ की संख्या– 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना– जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जे.बी. पारदीवाला

मामला, संक्षेप में:

अभियुक्त और उसकी पत्नी की शादी 8 दिसंबर 2002 को हुई थी।

पत्नी की मृत्यु के बाद, उसके पिता, जो उस समय पुलिस उप-निरीक्षक के रूप में कार्यरत थे, ने उसके पति के खिलाफ आत्महत्या के लिये उकसाने का आरोप लगाते हुए एक शिकायत दर्ज़ की थी।

अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 417, 498 (ए), 306, 406 और 201 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया है।

अभियुक्त ने कार्यवाही को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, लेकिन बाद में इसे खारिज़ कर दिया गया।

इसके बाद अभियुक्त ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने अपील मंज़ूर करते हुए अपीलकर्त्ता के खिलाफ कार्यवाही को खारिज़ कर दिया।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष दिया कि IPC की धारा 306 के घटकों को समझने के लिये आत्महत्या का समर्थन करने हेतु साक्ष्य होना अनिवार्य है

प्रासंगिक प्रावधान:

 IPC की धारा 417- छल के लिये दंड

जो कोई छल करेगा, दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक हो सकेगी, या ज़ुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।

IPC की धारा 498A - किसी स्‍त्री के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके प्रति क्रूरता करना

जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति के संबंधी होते हुए, ऐसी स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक होगी, दंडित किया जाएगा तथा ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।

IPC की धारा 306- आत्महत्या का दुष्प्रेरण

यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करे, तो जो कोई ऐसी आत्महत्या का दुष्प्रेरण करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।

IPC की धारा 406- आपराधिक न्यासभंग के लिये दंड

जो कोई आपराधिक न्यासभंग करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।

IPC की धारा 201- अपराध के साक्ष्य का विलोपन, या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के लिये मिथ्या इत्तला देना-

जो कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किये जाने के किसी साक्ष्य का विलोप, इस आशय से कारित करेगा की अपराधी को वैध दंड से प्रतिच्छादित करे या उस आशय से उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी इत्तला देगा, जिसके मिथ्या होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;

यदि अपराध मृत्यु से दंडनीय हो- यदि वह अपराध जिसके किये जाने का उसे ज्ञान या विश्वास है, मृत्यु से दंडनीय हो, तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि साथ वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा;

यदि आजीवन कारावास से दंडनीय हो- और यदि वह अपराध (आजीवन कारावास) से, या ऐसे कारावास से, जो दस वर्ष तक का हो सकेगा, दंडनीय हो, तो वह दोनों में से किसी भांति के, कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा;

यदि दस वर्ष से कम के कारावास से दंडनीय हो- और यदि वह अपराध ऐसे कारावास से उतनी अवधि के लिये दंडनीय हो, जो दस वर्ष तक की न हो, तो वह उस अपराध के लिये उपबंधित भांति के कारावास से उतनी अवधि के लिये, जो उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई तक हो सकेगी, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।

[मूल निर्णय]


Amrish Rajnikant Kilachand v. Secretary  

अमरीश रजनीकांत किलाचंद बनाम जनरल सेक्रेटरी SCI

निर्णय/आदेश की तिथि – 11.08.2023

न्यायपीठ की संख्या– 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – सीजेआई डी.वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा

संक्षेप में मामला:

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता द्वारा न्यायालय में दायर याचिकाओं के पृष्ठों को सीमित करने के लिये उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका (PIL) दायर की गई थी|

निर्णय:

  • याचिका को खारिज़ करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता की चिंता प्रशंसनीय है, किंतु सभी के लिये एक ही दिशा लागू करना उचित नहीं होगा
  • न्यायालय ने आगे कहा कि याचिकाकर्त्ता मामलों के शीघ्र निपटान के लिये किसी भी ठोस सुझाव पर उच्चतम न्यायालय के सेक्रेटरी जनरल से संपर्क करने के लिये स्वतंत्र है

प्रासंगिक प्रावधान:

जनहित याचिका (Public Interest Litigation-PIL)

  • जनहित याचिका एक कानूनी उपकरण है जो नागरिकों को सार्वजनिक हित के मामलों में न्याय पाने के लिये न्यायालयों से संपर्क करने की अनुमति देता है।
  • जनहित याचिका की अवधारणा के बीज भारत में सबसे पहले वर्ष 1976 में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर द्वारा बोए गए थे और जनहित याचिका आंदोलन की शुरुआत न्यायमूर्ति पी.एन.भगवती द्वारा एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1982) के मामले में की गई थी।
  • जनहित याचिका का पहला सूचित मामला हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) था।
  • कोई भी नागरिक सार्वजनिक मामलों पर याचिका दायर कर सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय में ,भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत।
    • उच्च न्यायालय में ,भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत।
    • मजिस्ट्रेट की अदालत में, दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 133 के तहत।

[मूल निर्णय]


H Vasanthi v. A. Santha (D)  LRs.

एच वसंती बनाम ए. संथा (मृत) LRs. के माध्यम से

निर्णय/आदेश की तिथि – 16.08.2023

न्यायपीठ में सदस्यों की संख्या - 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना - जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और एस.वी.एन.भाटी

संक्षेप में मामला:

  • इस मामले में, ट्रायल कोर्ट के समक्ष वादी ने यह घोषणा करने से राहत के लिये एक मुकदमा दायर किया कि प्रतिवादियों के साथ वादी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 (HSA) की संशोधित धारा 29A द्वारा सहदायिक है।
  • अतः वादी को मुकदमे की संपत्ति में एक तिहाई हिस्सेदारी का अधिकार है।
  • उसने प्रतिवादियों को वादी द्वारा दावा किये गए एक-तिहाई हिस्से को तीसरे पक्ष को निपटाने से रोकने के लिये निषेधाज्ञा की प्रार्थना की
  • वादी ने प्रारंभिक और अंतिम डिक्री के माध्यम से वादी अनुसूची में एक तिहाई हिस्से के विभाजन और अलग कब्ज़े के लिये भी प्रार्थना की
  • ट्रायल कोर्ट ने मुकदमा खारिज़ कर दिया
  • मुकदमे की बर्खास्तगी से पीड़ित वादी ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई

निर्णय:

  • अपील को खारिज़ करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वादी यह प्रदर्शित करने में विफल रहा कि वादी अनुसूची विभाजन के लिये उपलब्ध सहदायिकी बनी रहेगी
  • उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की, कि विभाजन समझौते या मौखिक समझ के तहत भी किया जा सकता है और कानून की आवश्यकता का अनुपालन करते हुए लिखित दस्तावेज़ के अलावा किसी अन्य तरीके से विभाजन करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

प्रासंगिक प्रावधान:

HSA की धारा 29A - सहदायिक संपत्ति में पुत्री को समान अधिकार

इस अधिनियम की धारा 6 में किसी बात के होते हुए भी-

(i) मिताक्षरा कानून द्वारा शासित एक संयुक्त हिंदू परिवार में, सहदायिक की पुत्री जन्म से, पुत्र की तरह ही अपने अधिकार में सहदायिक बन जाएगी और सहदायिक संपत्ति में उसका वही अधिकार होगा जो उसके पास तब होता जब वह पुत्र होती| जिसमें उत्तरजीविता का दावा करने का अधिकार पुत्र के समान ही दायित्वों और निर्योग्यताओं के अधीन होगा|

(ii) ऐसे संयुक्त हिंदू परिवार में विभाजन के समय सहदायिक संपत्ति को इस प्रकार विभाजित किया जाएगा कि पुत्री को वही हिस्सा आवंटित किया जा सके, जो पुत्र को आवंटित किया जा सकता है:

बशर्ते कि वह हिस्सा ऐसे पूर्व-मृत पुत्र या ऐसी पूर्व मृत पुत्री के जीवित बच्चे को आवंटित किया जाएगा जो पूर्व-मृत पुत्र या पूर्व-मृत पुत्री को विभाजन में मिलता यदि वह विभाजन के समय जीवित होता।

बशर्ते कि पूर्व-मृत पुत्र या पूर्व-मृत पुत्री के पूर्व-मृत बच्चे को आवंटित हिस्सा,जैसा भी मामला हो, पूर्व-मृत पुत्र या पूर्व-मृत पुत्री का बच्चा, यदि ऐसा बच्चा विभाजन के समय जीवित था, तो ऐसे पूर्व-मृत बच्चे के बच्चे को आवंटित किया जाएगा।

(iii) कोई भी संपत्ति जिस पर एक महिला हिंदू खंड (i) के प्रावधानों के आधार पर हकदार हो जाती है, उसे सहदायिक स्वामित्व की घटनाओं के साथ रखा जाएगा और इस अधिनियम या किसी अन्य कानून में निहित किसी भी बात के बावज़ूद समय के साथ, वसीयत या अन्य वसीयतनामा स्वभाव द्वारा उसके द्वारा निपटाए जाने में सक्षम संपत्ति के रूप में माना जाएगा।

(iv) खंड (ii) में कुछ भी उस पुत्री पर लागू नहीं होगा जिसकी शादी हिंदू उत्तराधिकार (आंध्र प्रदेश संशोधन) अधिनियम, 1986 के प्रारंभ होने से पहले या विभाजन से प्रभावित हुई थी।

[मूल निर्णय]


Bachao Andolan v. Union of India

बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत संघ

निर्णय/आदेश की तिथि – 18.08.2023

न्यायपीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

न्यायपीठ की संरचना – न्यायमूर्ति रवीन्द्र भट तथा न्यायमूर्ति अरविंद कुमार

संक्षेप में मामला:

  • बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका दायर की गई थी, जिसमें लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) के तहत पीड़ितों को प्रदान की गई सुरक्षा से संबंधित मुद्दे उठाए गए थे।
  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि POCSO अधिनियम, 2020 में परिकल्पित सहायक व्यक्ति की भूमिका, एक प्रगतिशील कदम होने के बावजूद भी अतुष्ट है, अथवा आंशिक अथवा तदर्थ तरीके से लागू की जाती है, जिसके कारण पीड़ितों और उनके परिवारों को सहायता प्रदान करने की इसकी क्षमता हो जाती है।

अधिमत:

  • उच्चतम न्यायालय द्वारा बच्चों की सहायता हेतु सहायक व्यक्तियों की नियुक्ति तथा उनकी योग्यता से संबंधित एक आदेश पारित किया गया। कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति पर दिशानिर्देश तैयार करने के निर्देश जारी किया गया।
  • न्यायालय द्वारा महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को निर्णयों तथा उसके बाध्यता के बारे में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) को सूचित करने का काम सौंपा गया।

प्रासंगिक उपबंध:

POCSO अधिनियम, 2020 की धारा 2(f) - सहायक व्यक्ति

सहायता व्यक्ति का अर्थ है बाल कल्याण समिति द्वारा नियम 4 के उप-नियम (7) के अनुसार जाँच तथा परीक्षण की प्रक्रिया के माध्यम से बच्चे को सहायता प्रदान करने के लिये नियत किया गया व्यक्ति, अथवा पूर्व-परीक्षण अथवा अधिनियम के तहत किसी अपराध के संबंध में परीक्षण अथवा परीक्षण प्रक्रिया में बच्चे की सहायता करने वाला कोई अन्य व्यक्ति।

[मूल निर्णय]