शायरा बानो बनाम भारत संघ एवं अन्य AIR 2017 SC 4609
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शायरा बानो बनाम भारत संघ एवं अन्य AIR 2017 SC 4609

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 02-May-2024

परिचय:

उच्चतम न्यायालय ने महत्त्वपूर्ण निर्णय सुनाया तथा कहा कि तीन तलाक या तलाक-ए-बिद्दत असंवैधानिक एवं स्पष्ट रूप से मनमानापूर्ण है। बहुमत ने माना कि तीन तलाक की प्रथा संविधान के अनुच्छेद 25 के अधीन अपवाद द्वारा संरक्षित नहीं है।

तथ्य:

  • याचिकाकर्त्ता (शायरा बानो) एवं याचिकाकर्त्ता के पति (रिज़वान अहमद) के मध्य शरीयत के अनुसार 11 अप्रैल 2001 को 'निकाह' (विवाह) हुआ था।
  • उनके दो बच्चे हैं, एक बेटा एवं एक बेटी।
  • 10 अक्टूबर 2015 को रिज़वान अहमद ने तलाक-ए-बिद्दत या तीन तलाक या तत्काल तलाक की प्रथा के माध्यम से अपनी पत्नी को तलाक दे दिया (दो साक्षियों की उपस्थिति में उसने कहा कि मैंने 'तलाक, तलाक, तलाक' दिया है)।
  • याचिकाकर्त्ता ने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए फरवरी 2016 में उच्चतम न्यायालय (SC) में एक रिट याचिका दायर की।
  • याचिकाकर्त्ता का तर्क यह था कि इस प्रकार का विवाह विच्छेद (तलाक) मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है तथा आगे यह तर्क दिया कि ये प्रथाएँ संविधान के अनुच्छेद 25(1), 26(b) एवं 29 के अधीन संरक्षित नहीं हैं।

शामिल मुद्दे:

  • क्या तीन-तलाक, संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 21 के अधीन प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है?
  • क्या तीन-तलाक की यह प्रथा, संविधान के अनुच्छेद 25(1), 26(b) एवं 29 के अधीन संरक्षित है?
  • क्या तीन-तलाक एक आवश्यक मज़हबी प्रथा है?
  • क्या तीन-तलाक की प्रथा, मुस्लिम पर्सनल (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के संदर्भ में अमान्य है?

टिप्पणी:

  • 22 अगस्त 2017 को उच्चतम न्यायालय ने अंतिम निर्णय सुनाया, यह 5 न्यायाधीशों की पीठ थी, जिसमें मुख्य न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर, न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन, न्यायमूर्ति यू.यू. ललित एवं न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ शामिल थे।
  • SC ने 3:2 के बहुमत से तीन-तलाक की प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया। जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस यू.यू.ललित एवं जस्टिस कुरियन जोसेफ ने बहुमत से निर्णय दिया।
  • बहुमत के अनुसार यह माना गया कि तीन तलाक संविधान के अनुच्छेद 25 में निर्धारित अपवाद द्वारा संरक्षित नहीं है तथा न्यायालय ने पाया कि उक्त प्रथा इस्लामी मज़हब का आवश्यक तत्त्व नहीं है।
  • उन्होंने कहा कि यह प्रथा मनमानापूर्ण है तथा शरीयत की बुनियादी प्रथाओं एवं कुरान के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है और इसलिये इसे मौलिक अधिकार के अधीन संरक्षित नहीं किया जा सकता है।
  • न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि "कुरान में जो बुरा है, वह शरीयत में अच्छा नहीं हो सकता है तथा जो धर्मशास्त्र में बुरा है वह विधि में भी बुरा है"।
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “तलाक का यह रूप इस अर्थ में स्पष्ट रूप से मनमानापूर्ण है जो एक मुस्लिम व्यक्ति द्वारा इसे बचाने के लिये सुलह के किसी भी प्रयास के बिना मार्शल टाई को मनमाने ढंग से तोड़ा जा सकता है। इसलिये, तलाक के इस रूप को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना जाना चाहिये। मुस्लिम पर्सनल (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937, जहाँ तक यह तीन तलाक को मान्यता देने एवं लागू करने का प्रयास करता है, संविधान के अनुच्छेद 13(1) में 'लागू विधियों की अभिव्यक्ति के अर्थ के भीतर है तथा इसे शून्य मानते हुए रद्द किया जाना चाहिये। इस हद तक कि यह तीन तलाक को मान्यता देता है एवं लागू करता है”।
  • उच्चतम न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि वह निर्णय में न्यायालय द्वारा लिये गए निर्णय पर विचार करे तथा मुसलमानों में तलाक की प्रथा को विनियमित करने के लिये विधि लागू करे।
  • मुख्य न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर एवं न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर की अल्पसंख्यक राय यह थी कि हालाँकि तीन तलाक अवांछित था, लेकिन न्यायालयों के पास इसे रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है तथा इस प्रथा को नियंत्रित करने के लिये विधि निर्माण कर्ण संसद का काम है।

निष्कर्ष:

  • यह निर्णय मुख्य रूप से महिलाओं के अधिकारों एवं विवाह के संरक्षण से संबंधित था।
  • किसी भी विधि के अधीन तत्काल प्रकृति के तलाक को "निर्णय का नियम" नहीं माना जा सकता है।
  • लैंगिक समानता एवं धार्मिक पहचान को बचाने के लिये SC का यह निर्णय एक सही कदम था।

नोट्स:

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 25: अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म का स्वतंत्र व्यवसाय, अभ्यास एवं प्रचार-

सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य एवं इस भाग के अन्य प्रावधानों के अधीन, सभी व्यक्ति समान रूप से अंतरात्मा की स्वतंत्रता एवं धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने तथा प्रचार करने के अधिकार के अधिकारी हैं।

इस अनुच्छेद में कुछ भी मौजूदा विधि के संचालन को प्रभावित नहीं करेगा या राज्य को कोई विधि निर्माण करने से नहीं रोकेगा-

किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित करना, जो धार्मिक अभ्यास से जुड़ा हो सकता है,

सामाजिक कल्याण और सुधार प्रदान करना या सार्वजनिक चरित्र के हिंदू धार्मिक संस्थानों को हिंदुओं के सभी वर्गों एवं उपवर्गों के लिये खोलना।

स्पष्टीकरण I—कृपाण धारण करना एवं उसके साथ यातायात करना सिख धर्म के अनुपालन में सम्मिलित माना जाएगा।

स्पष्टीकरण II—खंड (2) के उप-खंड (b) में, हिंदुओं के संदर्भ को सिख, जैन या बौद्ध धर्म को मानने वाले व्यक्तियों के संदर्भ के रूप में समझा जाएगा तथा हिंदू धार्मिक संस्थानों के संदर्भ को तद्नुसार माना जाएगा।