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सिविल कानून

सीमा शुल्क से छूट प्राप्त सामान की सूची

 15-Apr-2025

ट्रांसएशिया बायो-मेडिकल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ

"आयातित माल, भले ही मूल सीमा शुल्क से छूट प्राप्त हो, फिर भी संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत अतिरिक्त शुल्क के अधीन हो सकता है तथा वे तब तक इस अधीन रहेंगे जब तक कि उन्हें उन संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत निहित शक्तियों के प्रयोग में सक्षम प्राधिकारी द्वारा ऐसे अतिरिक्त शुल्क से विशेष रूप से छूट नहीं दी जाती है।"

मुख्य न्यायाधीश के.आर. श्रीराम एवं न्यायमूर्ति मोहम्मद शफीक

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मुख्य न्यायाधीश के.आर. श्रीराम एवं न्यायमूर्ति मोहम्मद शफीक की पीठ ने कहा कि मूल सीमा शुल्क से छूट स्वचालित रूप से अतिरिक्त शुल्कों पर लागू नहीं होती है, जब तक कि संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत विशेष रूप से छूट न दी गई हो।

ट्रांसएशिया बायो-मेडिकल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • ट्रांसएशिया बायो-मेडिकल्स लिमिटेड, जिसका प्रतिनिधित्व अशोक सुथार (महाप्रबंधक-कर एवं विधि) कर रहे हैं, ने मानक सहायक उपकरणों के साथ हेमेटो विश्लेषक की एक खेप आयात की तथा बिल ऑफ एंट्री दाखिल की।
  • सीमा शुल्क उपायुक्त (समूह-5B) ने बिल ऑफ एंट्री का मूल्यांकन किया तथा अधिसूचना संख्या 19/2005-सीमाशुल्क दिनांक 01.03.2005 के अनुसार 4% की दर से अतिरिक्त शुल्क की मांग की।
  • अतिरिक्त शुल्क की मांग इस आधार पर की गई कि अधिसूचना संख्या 19/2005-सीमाशुल्क के अनुसार, छूट अधिसूचना संख्या 24/2005-सीमाशुल्क के अंतर्गत आने वाले माल पर 4% की दर से अतिरिक्त शुल्क देना होगा।
  • आयातित माल सीमा शुल्क टैरिफ शीर्षक 9027 80 के अंतर्गत आता है, जो कि सीमा शुल्क छूट अधिसूचना संख्या 24/2005-सीमा शुल्क में सूचीबद्ध है, तथा इस उत्पाद के लिये टैरिफ दर को सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम, 1975 के अंतर्गत "मुक्त" नामित किया गया था। 

  • अधिसूचना संख्या 19/2005 सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम, 1975 की धारा 3 की उप-धारा (5) के अंतर्गत जारी की गई थी, जबकि अधिसूचना संख्या 24/2005 सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 25 की उप-धारा (1) के अंतर्गत जारी की गई थी। 
  • याचिकाकर्त्ता ने अधिसूचना संख्या 24/2005-सीमा शुल्क की वैधता को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि जब सीमा शुल्क टैरिफ आयातित वस्तुओं को शुल्क से "मुक्त" नामित करता है, तो सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत छूट की कोई आवश्यकता नहीं है।
  • याचिकाकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि यदि अधिसूचना संख्या 24/2005 अमान्य है, तो अधिसूचना संख्या 19/2005 में उस अधिसूचना का संदर्भ भी अप्रभावी होगा, जिसका अर्थ है कि आयातित माल 4% अतिरिक्त शुल्क के लिये उत्तरदायी नहीं होगा। 
  • याचिकाकर्त्ता ने भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट याचिकाएँ दायर कीं, जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि अधिसूचना संख्या 24/2005-सीमा शुल्क सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 25 के प्रावधानों के विपरीत है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने प्रविष्टि बिल संख्या 896356 दिनांक 21.10.2005 एवं 940189 दिनांक 05.01.2006 में किये गए आकलन को रद्द करने के लिये उत्प्रेषण रिट की भी मांग की, जिसमें अधिसूचना संख्या 19/2005-सीमा शुल्क के अंतर्गत 4% अतिरिक्त शुल्क लगाया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • मद्रास उच्च न्यायालय ने पाया कि सीमा शुल्क अधिनियम और सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र हैं, तथा एक शुल्क दूसरे के बिना भी लगाया जा सकता है, जैसा कि कोलगेट पामोलिव (इंडिया) लिमिटेड बनाम सीमा शुल्क आयुक्त, पटना में दिये गए निर्णय से प्रमाणित होता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम की धारा 3(1) अतिरिक्त शुल्क लगाने का प्रावधान करती है, जो सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 12 और सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम की धारा 2 के अंतर्गत लगाए जाने वाले सीमा शुल्क के अतिरिक्त है। 
  • न्यायालय ने माना कि भले ही सीमा शुल्क अधिनियम के अंतर्गत लगाए जाने वाले शुल्क को "मुक्त" कहा गया हो, फिर भी सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम के अंतर्गत अतिरिक्त शुल्क लगाया जा सकता है, क्योंकि अतिरिक्त शुल्क के लिये शुल्क लगाने वाली धारा सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम की धारा 3 है, न कि सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 12। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि अधिसूचना में आयातित वस्तुओं पर 4% सीमा शुल्क लगाने की बात नहीं कही गई है (जिस स्थिति में 4% "मुफ्त" का अर्थ "शून्य" होता) बल्कि इसमें कहा गया है कि पहचान की गई वस्तुओं को आयात किये जाने पर उन पर 4% मूल्यानुसार की दर से अतिरिक्त शुल्क लगाया जाएगा।
  • न्यायालय ने कहा कि आयातित माल, भले ही मूल सीमा शुल्क से छूट प्राप्त हो, फिर भी संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत अतिरिक्त शुल्क लगाने के अधीन हो सकता है, जब तक कि उन अधिनियमों के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग करने वाले सक्षम प्राधिकारी द्वारा विशेष रूप से छूट न दी जाए। 
  • न्यायालय ने सेंचुरी फ्लोर मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ मामले का संदर्भ देते हुए कहा कि सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत सरकार के पास शुल्क से सशर्त या पूर्ण रूप से छूट देने का अधिकार है, जिससे आयात या तो देयता से मुक्त हो जाता है या उचित समझी जाने वाली शर्तों के अधीन हो जाता है।

किन विधिक प्रावधानों का उल्लेख किया गया है?

  • सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 12:
    • धारा 12 शुल्क योग्य वस्तुओं से संबंधित है। 
    • धारा 12(1) में कहा गया है कि इस अधिनियम या किसी अन्य विधि में अन्यथा प्रावधान के अतिरिक्त, भारत में आयातित या भारत से निर्यातित वस्तुओं पर सीमा शुल्क टैरिफ अधिनियम, 1975 (1975 का 51) या किसी अन्य विधि के अंतर्गत निर्दिष्ट दरों पर सीमा शुल्क लगाया जाएगा। 
    • धारा 12(2) में प्रावधान है कि उप-धारा (1) के प्रावधान सरकार से संबंधित सभी वस्तुओं के संबंध में उसी तरह लागू होंगे जैसे वे सरकार से संबंधित नहीं वस्तुओं के संबंध में लागू होते हैं।
  • सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 25:
    • यह धारा केन्द्र सरकार को यह अधिकार देती है कि वह जनहित में आवश्यक होने पर वस्तुओं को सीमा शुल्क से छूट दे सकती है।

वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 के अंतर्गत पूर्व आवेदन

 15-Apr-2025

हरिराम एवं अन्य बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण 

" यह कहना उचित है कि रिट याचिका को माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 के अधीन अधिकारिता तय करने के लिये "पूर्व आवेदन" के रूप में नहीं माना जा सकता है क्योंकि रिट याचिका की प्रकृति प्रशासनिक कार्रवाई या विधिक निर्णय को चुनौती देना है, न कि माध्यस्थम् कार्यवाही शुरू करना।" 

न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी 

स्रोत:दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरीकी पीठ यह अभिमत व्यक्त किया कि दायर की  गई रिट याचिका को माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 42 के अधीन पूर्व में दायर आवेदन के रूप में नहीं माना जा सकता है। 

  • दिल्लीउच्च न्यायालय नेहरिराम एवं अन्य बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

हरिराम एवं अन्य बनाम भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • याचिकाकर्त्ताओं नेमाध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C Act) की धारा 34 के अधीनएक याचिका दायर की, जिसमें जिला कलेक्टर, डिवीजन मेरठ, जिला बागपत, उत्तर प्रदेश द्वारा पारित 16 अक्टूबर 2020 के एक पंचाट को चुनौती दी गई । 
  • केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम की धारा 3 (1) के अधीन उत्तर प्रदेश के बागपत मंडल से बागपत जिले तक भूमि अधिग्रहण के लिये 28 जुलाई 2006 कोअधिसूचना जारी की थी। 
  • भूमि के कुछ भागों  काअधिग्रहण अनिवार्य रूप से किया गया , जबकि अन्य भागों पर 8 फरवरी 2007 की अधिसूचना के माध्यम से अधिग्रहण के बिना ही कब्जा ले लिया गया । 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने प्रारंभ में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर कर अपनी अधिग्रहित भूमि के लिये प्रतिकर की मांग की 
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने 27 नवंबर 2018 कोरिट याचिका का निपटारा करते हुएसक्षम प्राधिकारी को छह मास के भीतर याचिकाकर्त्ताओं को प्रतिकर वितरित करने का निदेश दिया। 
  • याचिकाकर्त्ताओं को जिला कलेक्टर, बागपत, उत्तर प्रेदश द्वारा पारित 27 मई 2019 के आदेश के माध्यम से 2006 के बाजार मूल्य के अनुसार मूल भूमि का प्रतिकर प्राप्त हुआ। 
  • प्रतिकर की राशि से असंतुष्ट होकर याचिकाकर्त्ताओं ने राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम की धारा 3(5) और 3 (7) के अधीनजिला कलेक्टर- मेरठ मंडल के समक्ष वाद दायर कर वर्धित प्रतिकर की मांग की। 
  • 16 अक्टूबर 2020 के विवादित निर्णय के माध्यम से वादखारिज कर दिया गया । 
  • प्रतिवादियों ने माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 के अधीन याचिका पर विचार करने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय की अधिकारिता के संबंध में प्रारंभिक आपत्ति उठाई। 
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उसे प्रादेशिक अधिकारिता का अभाव है, तथा यह याचिका उस सक्षम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिये जिसकी अधिकारिता में बागपत क्षेत्र आता है।  

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने यह परिभाषित किया कि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, के संदर्भ में "न्यायालय (Court)" से अभिप्रेत वह प्रधान सिविल न्यायालय है, जिसे यह अधिकार प्राप्त होता यदि माध्यस्थम् विषयवस्तु पर कोई वाद दायर किया गया होता 
  • न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि माध्यस्थम् से संबंधित प्रादेशिक अधिकारिता उस न्यायालय को प्राप्त होती है जिसकी अधिकारिता में वाद की विषयवस्तु स्थित हो, साथ ही जिस क्षेत्र में माध्यस्थम् कार्यवाही आयोजित की गई हो, उन न्यायालयों को भी यह अधिकारिता प्राप्त होती है।  
  • न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि यदि माध्यस्थम् की सीट को नामित किया गया है, तो वह नामांकन अनन्य अधिकारिता उपबंध के समकक्ष माना जाएगा, जैसा कि BALCO बनाम कैसर एल्युमिनियम टेक्निकल सर्विसेज इंक एवं अन्य वादों में पूर्ववर्ती दृष्टांतों द्वारा स्थापित किया गया है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिकारिता निर्धारित करने के उद्देश्य से रिट याचिका को माध्यस्थम् अधिनियम कीधारा 42 के अधीन "पूर्ववर्ती आवेदन" के रूप में नहीं समझा जा सकता। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 42 केवल अधिनियम के भाग I के अंतर्गत किये गए आवेदनों पर ही लागू होती है, यदि वे अधिनियम में परिभाषित न्यायालय में किये जाते है 
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि माध्यस्थम् की विषय-वस्तु कोवाद की विषय-वस्तु के समतुल्य नहीं माना जाना चाहिये, क्योंकि पूर्व माध्यस्थम् अधिनियम के भाग-I के अंतर्गत कार्यवाही से संबंधित है। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 2(1)( ) का उद्देश्य माध्यस्थम् कार्यवाही पर पर्यवेक्षी नियंत्रण रखने वाले न्यायालयों की पहचान करना है, जो माध्यस्थम् की सीट के न्यायालय को संदर्भित करता है।   
  • न्यायालय ने पाया कि विधायिका ने साशय से दो न्यायालयों को अधिकारिता प्रदान की है: वह न्यायालय जहाँ वाद-हेतुक उत्पन्न हुआ और वह न्यायालय जहाँ माध्यस्थम् होती है। 
  • न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि चूंकि बागपत माध्यस्थम् के लिये स्वीकृत स्थान है, विचाराधीन भूमि दिल्ली के बाहर स्थित है, तथा विवादित निर्णय बागपत, उत्तर प्रदेश में पारित किया गया था, इसलिये इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के पास प्रादेशिक अधिकारिता नहीं है।  
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सक्षम न्यायालय, जिसकी अधिकारिता में बागपत आता है, को माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन याचिका पर विचार करने का अधिकार है। 

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 42 क्या है? 

बारे में: 

  • यह धारा एक ऐसी स्थिति की परिकल्पना करती है, जहाँ यदि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम के भाग I के अधीन किसी न्यायालय में पहले ही आवेदन किया जा चुका है, तो उसी न्यायालय को उस करार और माध्यस्थम् कार्यवाही से उत्पन्न होने वालेसभी बाद के आवेदनों से निपटने का अधिकार दिया जाताहै और अन्य न्यायालयों को ऐसे आवेदनों पर विचार करने से रोक दिया जाता है।  
  • धारा 42 का उद्देश्य माध्यस्थम् से संबंधित सभी कार्यवाहियों पर पर्यवेक्षी अधिकारिता को विशेष रूप से एक ही न्यायालय को सौंपकर न्यायालयों की अधिकारिता मेंटकराव से बचना है। 

घटक: 

  • माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 42 एक गैर-बाधित खण्ड ("इस भाग में अन्यत्र या वर्तमान में लागू किसी अन्य विधि में निहित किसी भी बात के होते हुए भी") से प्रारंभ होती है, जो इसे प्रभावी रूप से अध्यारोही बनाती है और इसे किसी भी अन्य विरोधाभासी प्रावधानों पर प्राथमिकता देती है। 
  • यह प्रावधान उस न्यायालय मेंअनन्य अधिकारिता संबंधी क्षमता स्थापित करता है, जहाँ माध्यस्थम् करार के संबंध में अधिनियम के भाग 1 के अंतर्गत पहला आवेदन दायर किया गया है।  
  • प्रथम दृष्टया ऐसा न्यायालय उसी माध्यस्थम् करार और उससे संबंधित कार्यवाहियों से उत्पन्न होने वाले सभी अनुवर्ती आवेदनों पर अनन्य अधिकारिता बनाए रखेगा। 
  • यह प्रावधान अन्य सभी न्यायालयों की अधिकारिता को पूरी तरह से समाप्त कर देता है, जब एक बार इस धारा के अनुसार अधिकारिता का समुचित रूप से उपयोग कर लिया जाता है। 
  • धारा 42 के आवेदन के लिये, प्रारंभिक आवेदन को "इस भाग के अधीन" (अधिनियम के भाग I) के रूप में योग्य होना चाहिये और इसे अधिनियम की धारा 2(1)(ङ) के अधीन परिभाषित "न्यायालय" के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये 

वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 (3) और परिसीमा अधिनियम की धारा 5

 15-Apr-2025

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम जगरूप सिंह एवं अन्य 

माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34(3) के अधीन विहित अवधि से अधिक विलंब को क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 लागू नहीं होती।” 

न्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ 

स्रोत:हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंन्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ नेकहा है कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन धारा 34 याचिकाओं पर लागू नहीं होती है, और विहित अवधि से अधिक विलंब को क्षमा नहीं किया जा सकता है। 

  • हिमाचलप्रदेश उच्च न्यायालय नेभारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम जगरूप सिंह एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया। 

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम जगरूप सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के विरुद्ध एक मध्यस्थ पंचाट पारित किया गया, जिसकी तिथि 3 जनवरी, 2022 थी, और उक्त निर्णय की प्रमाणित प्रति प्राधिकरण को 20 अगस्त, 2022 को प्राप्त हुई ।  
  • तत्पश्चात प्राधिकरण ने उक्त निर्णय को चुनौती देने हेतु माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत याचिका प्रस्तुत की। 
  • यह याचिका 19 जनवरी, 2023 को दाखिल की गई, जो कि धारा 34(3) में विहित अधिकतम 120 दिनों (3 माह + 30 दिन) की अवधि से लगभग 33 दिन विलंबित थी। 
  • जिला न्यायाधीश द्वारा दिनांक 13 जून, 2024 को उक्त याचिका यह कहकर निरस्त कर दी गई कि याचिका विहित परिसीमा काल के बाहर दायर की गई थी।  
  • इसके उपरांत, प्राधिकरण ने माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 37 के अंतर्गत हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 
  • उक्त अपील स्वयं 258 दिनों के विलंब से दायर की गई, जिसके लिये प्राधिकरण द्वारा विलंब शमन हेतु एक पृथक् आवेदन प्रस्तुत किया गया 
  • विवाद का विषय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण तथा जगरूप सिंह एवं अन्य के मध्य उत्पन्न विवादों से संबंधित था, यद्यपि मामले के सारांश में अंतर्निहित विवाद का विशिष्ट विवरण नहीं दिया गया था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 (A&C) की धारा 34 (3) के अधीन, माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन तीन मास के भीतर किया जाना चाहिये, जिसे पर्याप्त कारण दिखाने पर केवल तीस दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, और "इसके पश्चात् नहीं।" 
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5, जो सामान्यतः न्यायालयों को विहित परिसीमा काल से परे विलंब को क्षमा करने की अनुमति देती है, माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 के अधीन दायर याचिकाओं पर लागू नहीं होती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 34 के प्रावधान में "परंतु इसके पश्चात् नहीं" वाक्यांश से यह स्पष्ट होता है कि अतिरिक्त तीस दिनों से अधिक विस्तार नहीं दिया जा सकता है, जैसा कि माई प्रिफर्ड ट्रांसफॉर्मेशन एंड हॉस्पिटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स फरीदाबाद इम्प्लीमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय सहित पूर्ववर्ती मामलों में स्थापित किया गया है। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि जिला न्यायाधीश ने मूल याचिका को सही ढंग से खारिज कर दिया, क्योंकि यह अधिकतम स्वीकार्य अवधि 120 दिनों से लगभग 33 दिन पश्चात् दायर की गई थी। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि अपीलकर्त्ता माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 37 के अधीन अपील दायर करने में 258 दिनों के विलंब को उचित ठहराने में भी असफल रहा है। 
  • मध्यस्थता निर्णय को चुनौती देने के लिये सांविधिक परिसीमा काल और माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन अपराधों से निपटने के विशिष्ट प्रावधानों के संबंध में इन टिप्पणियों के आधार पर, न्यायालय ने विलंब को क्षमा करने के आवेदन और अपील दोनों को खारिज कर दिया। 

संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं? 

बारे में : 

  • माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 की धारा 34 - यह उपबंध माध्यस्थम् पंचाटों को अपास्त करने के आवेदनों से संबंधित है। 
  • माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34(3) - यह विशिष्ट उपधारा मध्यस्थता पंचाट को चुनौती देने के लिये परिसीमा काल स्थापित करती है, तथा यह निर्धारित करती है कि इसे तीन मास के भीतर दायर किया जाना चाहिये, जिसे पर्याप्त कारण दिखाने पर केवल 30 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, तथा "इसके पश्चात् नहीं।" 
  • माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 37 - यह धारा कुछ आदेशों के विरुद्ध अपील का उपबंध करती है, जिसके अधीन अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में अपनी अपील दायर की थी। 
  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 - यह उपबंध सामान्यत: न्यायालयों को विहित परिसीमा काल से परे विलंब को क्षमा करने की अनुमति देता है, यदि पर्याप्त कारण दर्शित किये जाते हैं। न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन धारा 34 याचिकाओं पर लागू नहीं होता है। 

माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 की धारा 34 

  • धारा 34(1) स्थापित करती है कि मध्यस्थता पंचाट के विरुद्ध एकमात्र उपाय उपधारा (2) और (3) में उल्लिखित प्रक्रियाओं के अधीन इसे अपास्त करने के लिये आवेदन करना है। 
  • धारा 34(3) माध्यस्थम् पंचाट की प्राप्ति की तारीख से इसे अपास्त करने के लिये आवेदन दायर करने हेतु तीन मास की कठोर परिसीमा विहित करती है। 
  • धारा 34(3) का उपबंध न्यायालय को ऐसे आवेदनों पर तीस दिन की अतिरिक्त अवधि के लिये विचार करने की अनुमति देता है (परंतु उसके पश्चात् नहीं) यदि वह संतुष्ट हो कि आवेदक को प्रारंभिक तीन मास की अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारण से रोका गया था। 
  • धारा 37(1)(ग) में स्पष्ट रूप से उपबंध है कि "धारा 34 के अधीन माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने या अपास्त करने से इंकार करने" के आदेश के विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकेगी। 
  • धारा 37(3) धारा 37 के अधीन अपील में पारित आदेश के विरुद्ध द्वितीय अपील पर रोक लगाती है, यद्यपि यह उच्चतम न्यायालय में अपील करने के अधिकार को सुरक्षित रखती है। 
  • धारा 34(3) के उपबंध में वाक्यांश "परंतु उसके पश्चात् नहीं" 30 दिनों की विस्तारित अवधि से परे आवेदनों पर विचार करने की न्यायालय की शक्ति पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है, जो इस मामले में महत्त्वपूर्ण विधिक बिंदु था। 
  • इन प्रावधानों का संयुक्त प्रभाव माध्यस्थम् पंचाटों को चुनौती देने के लिये एक कठोर परिसीमा व्यवस्था स्थापित करता है, जिसमें न्यायालयों को 120 दिनों (3 महीने और 30 दिन) की अधिकतम अवधि से अधिक विलंब को क्षमा करने का कोई विवेकाधिकार नहीं है। 

परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 

  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 न्यायालयों को विहित परिसीमा काल समाप्त होने के पश्चात् अपील या आवेदन स्वीकार करने की सामान्य शक्ति प्रदान करती है। 
  • इस उपबंध को लागू करने के लिये, अपीलकर्त्ता या आवेदक को न्यायालय का यह समाधान करना होगा कि विहित काल के भीतर दावा दायर न करने के लिये उनके पास "पर्याप्त कारण" थे। 
  • यह उपबंध स्पष्ट रूप से सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के अधीन आवेदनों को अपने दायरे से बाहर रखता है। 
  • धारा 5 का स्पष्टीकरण स्पष्ट करता है कि परिसीमा काल विहित करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय के कारण भुलावे में पड़ना, "पर्याप्त कारण" माना जा सकता है। 
  • यह धारा न्यायालयों को न्याय के हित में सांविधिक परिसीमा काल से परे विलंब को क्षमा करने की विवेकाधीन शक्ति प्रदान करती है। 
  • यद्यपि, जैसा कि इस मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है, परिसीमा अधिनियम की धारा 5, धारा 34(3) में विशिष्ट भाषा "किंतु उसके पश्चात् नहीं" के कारण माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 के अधीन आवेदनों पर लागू नहीं होती है।