होम / करेंट अफेयर्स
आपराधिक कानून
आपराधिक कार्यवाही में पूर्व न्याय का प्रावधान
« »22-Apr-2025
एस.सी. गर्ग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य "इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पक्षों के बीच NI अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत कार्यवाही में अधिकारिता वाले आपराधिक न्यायालय द्वारा दर्ज किया गया निष्कर्ष उसी मुद्दे से संबंधित किसी भी बाद की कार्यवाही में दोनों पक्षों के लिये बाध्यकारी होगा।" न्यायमूर्ति पंकज मित्तल एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पंकज मित्तल एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि पूर्व न्याय आपराधिक कार्यवाही पर भी लागू होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने एस.सी. गर्ग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
एस.सी. गर्ग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एस.सी. गर्ग (अपीलकर्त्ता) रुचिरा पेपर्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक थे, जो क्राफ्ट पेपर्स बनाने वाली कंपनी थी।
- कंपनी का आईडी पैकेजिंग के साथ व्यापारिक संव्यवहार था, जो आर.एन. त्यागी (प्रतिवादी संख्या 2) की भागीदारी वाली कंपनी थी।
- दिसंबर 1997 एवं जनवरी 1998 के बीच, त्यागी ने रुचिरा पेपर्स लिमिटेड को 11 चेक जारी किये, जो अपर्याप्त धन के कारण आरंभ में बाउंस हो गए थे।
- त्यागी के निर्देश पर दोनों पक्ष बाद में चेक फिर से प्रस्तुत करने के लिये सहमत हुए। 11 चेकों द्वारा शामिल किये गए दायित्वों के अतिरिक्त अन्य देनदारियों के लिये, त्यागी ने गर्ग की कंपनी को 3 डिमांड ड्राफ्ट जारी किये।
- जब 8 जून 1998 को 11 चेक फिर से प्रस्तुत किये गए, तो केवल 4 ही क्लियर हुए, जबकि शेष 7 चेक बाउंस हो गए।
- गर्ग की कंपनी ने 7 बाउंस हुए चेकों के संबंध में आईडी पैकेजिंग और त्यागी के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन शिकायत दर्ज कराई।
- 25 अक्टूबर 2002 को मजिस्ट्रेट ने त्यागी को दोषी करार दिया तथा उनके इस तर्क को खारिज कर दिया कि कर्ज का भुगतान पहले ही डिमांड ड्राफ्ट के माध्यम से किया जा चुका है।
- त्यागी को न्यायालय के स्थगन तक कारावास की सजा सुनाई गई तथा 3,20,385/- रुपए (सात अनादरित चेकों की कुल राशि) का जुर्माना भरने का आदेश दिया गया।
- अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 17 मार्च 2005 को त्यागी की सजा के विरुद्ध अपील खारिज कर दी।
- त्यागी की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका लंबित रहने के दौरान, उच्च न्यायालय ने 10 अक्टूबर 2012 को एक समझौते के आधार पर पक्षों के बीच कई कार्यवाहियों का निपटान कर दिया।
- समझौते में त्यागी द्वारा सभी दावों की पूरी संतुष्टि के लिये गर्ग की कंपनी को 3,20,385/- रुपए का भुगतान करना शामिल था।
- चल रही कार्यवाही के दौरान त्यागी ने गर्ग के विरुद्ध FIR दर्ज करने की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि डिमांड ड्राफ्ट के द्वारा भुगतान के बावजूद, गर्ग ने छल से चेक पुनः प्रस्तुत किये तथा उनमें से 4 के लिये भुगतान प्राप्त किया।
- गर्ग के विरुद्ध FIR (सं. 549/1998) दर्ज की गई, लेकिन उनकी कंपनी के विरुद्ध नहीं, और आरोप पत्र दायर किया गया।
- मजिस्ट्रेट ने 19 जून, 2002 को गर्ग सहित आरोपी व्यक्तियों को तलब किया। गर्ग ने आरोप पत्र और समन आदेश को रद्द करने के लिये याचिका दायर की, जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि पक्षकारों के बीच NI अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत कार्यवाही में अधिकारिता प्राप्त आपराधिक न्यायालय द्वारा दर्ज किये गए निष्कर्ष, उसी मुद्दे से संबंधित किसी भी बाद की कार्यवाही में दोनों पक्षों के लिये बाध्यकारी होंगे।
- न्यायालय ने आपराधिक मामलों में पूर्व न्याय की प्रयोज्यता संबंधी विधि पर चर्चा की।
- न्यायालय ने माना कि दो निर्णय जहाँ आपराधिक कार्यवाही में पूर्व न्याय लागू नहीं किया गया था, उनमें दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अंतर्गत याचिका शामिल थी।
- देवेंद्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2009) के मामले में पहली याचिका FIR को रद्द करने के लिये थी तथा दूसरी याचिका मजिस्ट्रेट द्वारा मामले का संज्ञान लेने के बाद प्रस्तुत की गई थी।
- मुस्कान एंटरप्राइजेज एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य (2024) के मामले में पहली याचिका को वापस ले लिया गया था, जबकि दूसरी याचिका को बिना किसी स्वतंत्रता के पहले वापस लेने के कारण सुनवाई योग्य नहीं माना गया था।
- इस प्रकार न्यायालय ने माना कि त्यागी उन आरोपों के आधार पर अभियोजन नहीं चला सकते जो पिछली कार्यवाही में उनके बचाव के लिये थे जिसमें वे आरोपी थे। इस प्रकार, वर्तमान आपराधिक कार्यवाही केवल इसी आधार पर रद्द किये जाने योग्य है।
- न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 के अंतर्गत कार्यवाही को रद्द कर दिया।
आपराधिक कार्यवाहियों में पूर्व न्याय की प्रयोज्यता से संबंधित विधान क्या है?
- आपराधिक मामलों में पूर्व न्याय के सिद्धांत की प्रयोज्यता के प्रश्न पर इस न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में विचार किया गया है।
- प्रीतम सिंह बनाम पंजाब राज्य (1956) के मामले में न्यायालय ने संबासिवम बनाम लोक अभियोजक, संघीय मलय (1950) के मामले का उदाहरण दिया तथा निम्नलिखित निर्धारित किया:
- पूर्व न्याय का सिद्धांत आपराधिक एवं सिविल कार्यवाही दोनों पर लागू होता है।
- इस मामले में आरोपी प्रीतम सिंह शामिल है, जिस पर पहले हथियार रखने के आरोप में आर्म्स एक्ट के अधीन मुकदमा चलाया गया था और उसे दोषमुक्त कर दिया गया था।
- बाद में एक हत्या के मुकदमे में अभियोजन पक्ष ने उसी हथियार की बरामदगी को उसके विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर प्रयोग करने की कोशिश की।
- हत्या के मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने पिछले दोषमुक्त करने के निर्णय को खारिज कर दिया तथा कहा कि पहले के निर्णय में दी गई राय भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत बाध्यकारी एवं अप्रासंगिक नहीं थी।
- अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने स्वतंत्र रूप से साक्ष्यों का मूल्यांकन किया तथा निष्कर्ष निकाला कि प्रीतम सिंह के विरुद्ध हथियार बरामदगी सिद्ध हुई।
- उच्च न्यायालय ने इस दृष्टिकोण से असहमति जताई तथा सांबशिवम बनाम सरकारी अभियोजक (1950) से लॉर्ड मैकडरमोट की टिप्पणियों का उदाहरण दिया।
- लॉर्ड मैकडरमोट की उद्धृत राय में कहा गया है कि दोषमुक्त करने का निर्णय न केवल उसी अपराध के लिये फिर से मुकदमा चलाने पर रोक लगाता है, बल्कि "पक्षों के बीच सभी बाद की कार्यवाही में बाध्यकारी एवं निर्णायक होता है।"
- उच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि "रेस जुडीकाटा प्रो वेरिटेट एकिपिटुर" (निर्णय लिया गया मामला सत्य के रूप में स्वीकार किया जाता है) का सिद्धांत आपराधिक कार्यवाही के साथ-साथ सिविल कार्यवाही पर भी लागू होता है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, एक बार जब प्रीतम सिंह को गोला-बारूद रखने के आरोप से दोषमुक्त कर दिया गया, तो अभियोजन पक्ष उस निर्णय को स्वीकार करने के लिये बाध्य था तथा दूसरे मुकदमे में इसे चुनौती नहीं दे सकता था।
- भगत राम बनाम राजस्थान राज्य (1972) में न्यायालय ने संबाशिवम बनाम लोक अभियोजक, संघीय मलय (1950) मामले में प्रतिपादित दृष्टिकोण को अनुमोदित किया।