करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

सांविधानिक विधि

पेंशन कठिन परिश्रम से अर्जित संपत्ति है

 17-Apr-2025

विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से राजकुमार गोनेकर (मृत) बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

"किसी व्यक्ति को विधिक अधिकार के बिना इस पेंशन से वंचित नहीं किया जा सकता है, जो संविधान के अनुच्छेद 300-A में निहित संवैधानिक जनादेश है। यह इस प्रकार है कि अपीलकर्त्ता राज्य सरकार द्वारा बिना किसी सांविधिक प्रावधान के और प्रशासनिक निर्देश के अंतर्गत पेंशन या ग्रेच्युटी या यहाँ तक ​​कि छुट्टी नकदीकरण का एक भाग छीनने का प्रयास स्वीकार नहीं किया जा सकता है।"

न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु

स्रोत: छत्तीसगढ़  उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु की एकल पीठ ने कहा कि पेंशन अनुच्छेद 300-A के अंतर्गत एक संवैधानिक अधिकार एवं संपत्ति है तथा इसे सांविधिक प्राधिकार एवं विधि की उचित प्रक्रिया के बिना रोका या कम नहीं किया जा सकता।

  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से राजकुमार गोनेकर (मृत) बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में यह निर्णय दिया।

विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से राजकुमार गोनेकर (मृत) बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राजकुमार गोनेकर को 1990 में सहायक निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया था तथा बाद में वर्ष 2000 में उन्हें उप निदेशक के पद पर पदोन्नत किया गया था। 
  • बाद में उन्हें ग्रेडेशन सूची में कुछ सुधारों के कारण सहायक निदेशक के पद पर पदावनत कर दिया गया था। 
  • न्यायालय के आदेश के बाद, उन्हें उप निदेशक के पद पर बहाल कर दिया गया तथा 31 जनवरी 2018 को सेवानिवृत्ति की आयु तक उस पद पर सेवा करना जारी रखा। 
  • अपनी सेवा के दौरान, उनके विरुद्ध दुर्विनियोग के आरोप लगाए गए थे, जिस पर उन्होंने किसी भी गलत कार्य से इनकार करते हुए प्रत्युत्तर प्रस्तुत किया तथा दावा किया कि उन्होंने विधि के अनुसार कार्य किया है। 
  • 2016-17 में, सार्वजनिक धन के कथित दुर्विनियोग के संबंध में उन्हें नोटिस जारी किये गए थे।

  • सेवानिवृत्ति के बाद 13 दिसंबर 2018 को उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी कर जवाब मांगा गया, जो उन्होंने 25 जनवरी 2019 को दिया, जिसमें उन्होंने फिर से सभी आरोपों से मना कर दिया। 
  • 15 फरवरी 2021 को छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1976 के नियम 9 के अंतर्गत गोनेकर की पेंशन से 9.23 लाख रुपये की वसूली की अनुमति देने का आदेश पारित किया गया। 
  • गोनेकर ने इस वसूली के आदेश को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि यह विधि की उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना अवैध एवं मनमाने तरीके से पारित किया गया था। 
  • याचिका के लंबित रहने के दौरान 20 जून 2024 को राजकुमार गोनेकर का निधन हो गया, जिसके बाद उनके विधिक उत्तराधिकारियों को मामले में पक्षकार बनाया गया। 
  • राज्य के अधिकारियों ने तर्क दिया कि उचित प्रक्रिया का पालन किया गया था, क्योंकि कथित दुर्विनियोग के संबंध में नोटिस गोनेकर की सेवानिवृत्ति से पहले जारी किये गए थे, तथा उनका प्रत्युत्तर मिलने के बाद ही कार्यवाही की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि पेंशन एवं ग्रेच्युटी कोई उपहार नहीं है, बल्कि कर्मचारियों को लंबी, निरंतर, निष्ठावान एवं बेदाग सेवा के माध्यम से मिलने वाला कठिन परिश्रम वाला लाभ है, जो भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 300-A के अंतर्गत संरक्षित "संपत्ति" अधिकार है। 
  • न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 300-A में निहित संवैधानिक संरक्षण के अंतर्गत किसी व्यक्ति को विधिक प्रक्रिया के बिना पेंशन से वंचित नहीं किया जा सकता है। 
  • छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1976 के नियम 9 की जाँच करने पर न्यायालय ने निर्धारित किया कि सरकार को हुई आर्थिक क्षति के लिये पेंशन से वसूली केवल तभी स्वीकार्य है, जब कर्मचारी विभागीय या न्यायिक कार्यवाही में दोषी पाया जाता है।
  • न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में, कारण बताओ नोटिस एवं याचिकाकर्त्ता के प्रत्युत्तर के अतिरिक्त, ऐसा कोई साक्ष्य मौजूद नहीं था जिससे यह सिद्ध हो सके कि न्यायिक या अनुशासनात्मक कार्यवाही में याचिकाकर्त्ता को किसी अपराध का दोषी पाया गया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार व्यक्तिगत अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक निर्णयों में भी, प्रभावित पक्ष को सुनवाई का उचित अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने माना कि सांविधिक प्रावधान के बिना और प्रशासनिक निर्देश के द्वारा पेंशन या ग्रेच्युटी का भाग रोकने का राज्य का प्रयास असंवैधानिक था और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि नियम 9 के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग करने वाला वसूली आदेश उचित कार्यवाही के माध्यम से दोष के निर्णायक निष्कर्ष के अभाव के कारण विधि में टिकने योग्य नहीं था।

COI का अनुच्छेद 300-A क्या है?

  • अनुच्छेद 300-A में यह प्रावधान है कि "किसी भी व्यक्ति को विधिक अधिकार के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा," जो संपत्ति के मनमाने तरीके से वंचित किये जाने के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण स्थापित करता है।
  • 1978 से पहले, संपत्ति के अधिकार को COI के अनुच्छेद 19(1)(f) के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया था, जो नागरिकों को संपत्ति अर्जित करने, रखने एवं व्ययन का अधिकार प्रदान करता था।
  • 1978 के 44वें संविधान संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 19(1)(f) एवं अनुच्छेद 31 को निरसित कर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से हटा दिया तथा इसे अनुच्छेद 300-A के अंतर्गत एक संवैधानिक अधिकार के रूप में पुनः स्थापित किया।
  • एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि मौलिक अधिकार के रूप में वर्गीकृत नहीं होने के बावजूद, किसी व्यक्ति को संपत्ति से वंचित करने वाले किसी भी विधि को अभी भी अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 के अनुसार न्यायसंगत, निष्पक्ष एवं उचित होने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिये। 
  • बी.के. रविचंद्र बनाम भारत संघ (2020) में न्यायालय ने अनुच्छेद 300-A और अनुच्छेद 21 एवं 265 के वाक्यांशों के बीच समानता पर बल दिया, तथा पुष्टि की कि अनुच्छेद 300-A में निहित गारंटी को कमजोर नहीं किया जा सकता है। 
  • अनुच्छेद 300-A द्वारा प्रदान की गई संवैधानिक सुरक्षा के लिये राज्य को किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से वंचित करते समय उचित प्रक्रिया एवं उचित विधिक प्राधिकार का पालन करने की आवश्यकता होती है। 
  • मौलिक अधिकार की स्थिति से डाउनग्रेड होने के बावजूद, उच्चतम न्यायालय ने लगातार माना है कि सांपत्तिक अधिकार एक संवैधानिक अधिकार और मानव अधिकार दोनों का गठन करता है, जो सशक्त संरक्षण का अधिकारी है।

सिविल कानून

प्राथमिक अनुतोष समय द्वारा वर्जित

 17-Apr-2025

निखिला दिव्यांग मेहता और अन्य बनाम हितेश पी संघवी और अन्य। 

"एक बार जब मुख्य अनुतोष के संबंध में वाद-पत्र या वाद समय द्वारा वर्जित हो जाता है तो दावा किया गया अन्य अनुषंगी अनुतोष भी समाप्त हो जाता है " 

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टीकी पीठ नेनिर्णय दिया कि यदि किसी वाद में प्राथमिक अनुतोष समय द्वारा वर्जित हो चुका है तो अनुषंगी अनुतोष भी समय द्वारा वर्जित हो जाता है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने निखिला दिव्यांग मेहता और अन्य बनाम हितेश पी संघवी और अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया।  

निखिला दिव्यांग मेहता और अन्य बनाम हितेश पी संघवी और अन्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • हितेश पी. संघवी (वादी) ने अहमदाबाद की सिटी सिविल न्यायालय में दीवानी वाद संख्या 1758/2017 दायर किया, जिसमें चार प्रतिवादियों को पक्षकार बनाया गया, जिनमें उसके स्वर्गीय पिता की तीन बेटियाँ और एक पोता सम्मिलित हैं 
  • वादी ने दिनांक 4 फरवरी 2014 की वसीयत तथा 20 सितंबर 2014 के कोडिसिल (Codicil), जो उसके स्वर्गीय पिता प्रमोद केसुरदास संघवी द्वारा निष्पादित किये गए थे, को शून्य और अमान्य घोषित करने की मांग की।  
  • प्रमोद केसुरदास संघवी की मृत्यु 21 अक्टूबर 2014 को हो गई और नवंबर 2014 के पहले सप्ताह में प्रतिवादियों ने वादी को वसीयत और कोडिसिल के अस्तित्व का खुलासा किया। 
  • वादी ने 21 नवंबर 2017 को वाद दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि वाद-हेतुक तीन तारीखों पर उत्पन्न हुआ: 4 फरवरी 2014 (वसीयत पंजीकरण), 20 सितंबर 2014 (कोडिसिल पंजीकरण), और 21 अक्टूबर 2014 (उनके पिता की मृत्यु)। 
  • प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 7 नियम 11 के अधीन आवेदन दायर करवादपत्र को नामंजूर करने कीमांग की, और तर्क दिया कि वाद परिसीमा द्वारा वर्जित है, क्योंकि यह वादी द्वारा वसीयत और कोडिसिल के बारे में जानकारी प्राप्त करने के तीन वर्ष से अधिक समय पश्चात् दायर किया गया था। 
  • अहमदाबाद के सिटी सिविल न्यायालयने आवेदन स्वीकार कर लिया और वाद्पत्र को नामंजूर कर दिया, तथा कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 58 के अनुसार, वाद नवंबर 2014 के पहले सप्ताह से तीन वर्ष के भीतर दायर किया जाना चाहिये था। 
  • उच्च न्यायालय ने 8 फरवरी 2024 के निर्णय द्वारा उक्त आदेश को पलटते हुए वाद को गुण-दोष के आधार पर निर्णय हेतु पुनः बहाल कर दिया, यह कहते हुए कि पक्षकारों को परिसीमा अवधि के प्रश्न पर साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जानी चाहिये तथा वाद पत्र में वसीयत और कोडिसिल को शून्य और अमान्य घोषित करने के अतिरिक्त अन्य अनुतोष की भी मांग की गई है। 
  • अपीलकर्त्ताओं ने वर्तमान अपील में उच्च न्यायालय के इस निर्णय को चुनौती दी है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि वाद पत्र से यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि प्राथमिक अनुतोषवसीयत और कोडिसिल को शून्यघोषित करने के लिये है तथास्थायी व्यादेश का अनुतोषपरिणामीहै तथाप्राथमिक अनुतोष पर निर्भर है। 
  • वादपत्र में दिये गए कथनों के अनुसार वादी ने स्वयं दावा किया है कि उसे वसीयत और कोडिसिल के बारे में जानकारीनवंबर 2014 केप्रथम सप्ताह में ही प्राप्त हुई थी। 
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि वर्तमान मामले के तथ्यों में परिसीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act) की धारा 58 लागू होगी, क्योंकि वर्तमान तथ्यों में घोषणा का अनुतोष परिसीमा अधिनियम की धारा 56 और 57 के अंतर्गत नहीं आता है।  
  • परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 58 में उपबंध है कि वाद दायर करने का अधिकार जब पहली बार उत्पन्न होता है, उस तिथि से तीन वर्ष की परिसीमा काल निर्धारित होती है। 
  • वर्तमान तथ्यों के अनुसार, यदि परिसीमा काल की संगणना वसीयत या कोडिसिल के ज्ञान की तिथि से की जाए तो भी यह नवंबर 2014 के प्रथम सप्ताह से चलेगी तथा नवंबर 2017 के प्रथम सप्ताह में समाप्त होगी। 
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले के तथ्यों को देखते हुए वाद स्पष्टतः परिसीमा द्वारा वर्जित है, जिसके लिये पक्षकारों द्वारा कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। 
  • वर्तमान मामले के तथ्यों में वादपत्र को पढ़ने से न्यायालय ने माना कि तथ्यों में दावा किये गए अन्य अनुतोष प्राथमिक अनुतोष अर्थात् घोषणा पर निर्भर हैं। 
  • इस प्रकार, न्यायालय ने अंततः यह माना कि एक बार जब प्राथमिक अनुतोष के संबंध में वाद वर्जित हो जाता है तो अन्य अनुषंगी अनुतोषों के संबंध में समाप्त हो जाता है। 
  • इस तर्क के संबंध में कि परिसीमा काल विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है तथापक्षकारों को साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दिये बिना इसका निर्णय नहीं किया जा सकता, न्यायालय ने कहा कि यह तर्क निराधार है। 
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान तथ्यों में परिसीमा का विवाद्यक विशुद्ध रूप से तथ्य का प्रश्न है तथा स्वीकार किये गए तथ्यों के मद्देनजर आरोप समाप्त हो गए हैं, तथा इस प्रकार के किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। 
  • इस प्रकार, न्यायालय ने उच्च न्यायालय केआदेश को अपास्त कर दियातथा विचारण न्यायालय द्वारा पारित आदेश को बहाल कर दिया। 

वादपात्र का नामंजूर किया जाना क्या है? 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र को नामंजूर करने के आधार दिये गए हैं। 
  • उपबंध के घटक इस प्रकार हैं: 
    • यदि किसी वादपत्र में वाद-हेतुक काकोई वैध कारण नहीं दर्शाया गया है तो न्यायालय को उसे नामंजूर कर देना चाहिये । 
    • यदि वादी द्वारा दावाकृत अनुतोष काकम मूल्यांकन किया जाता हैतथा वह न्यायालय द्वारा दिये गए समय के भीतर उसे सही करने में असफल रहता है तो वाद-पत्र नामंजूर कर दिया जाएगा। 
    • न्यायालय उस वाद को नामंजूर कर देगा यदि उसका मूल्यांकन उचित रूप से किया गया हो, किंतु वहअपर्याप्त स्टाम्प- पत्र पर दायर किया गया हो , तथा वादी दिये गए समय के भीतर उचित स्टाम्प पत्र उपलब्ध कराने में असफल रहता हो। 
    • यदि किसी वादपत्र से यह स्पष्ट हो कि वह वादविधि द्वारा वर्जितहै तो उसे नामंजूर कर दिया जाना चाहिये 
    • यदि वादपत्र को आवश्यकतानुसारदो प्रतियोंमें दायर नहीं किया गया तो न्यायालय उसे नामंजूर कर देगा । 
    • यदि वादी नियम 9के उपबंधों का पालन करने में असफल रहता है तो वादपत्र नामंजूर कर दिया जाएगा ।  
      • न्यायालय मूल्यांकन को सही करने या उचित स्टाम्प पत्र उपलब्ध कराने के लिये समय को तब तक नहीं बढ़ा सकता जब तक कि वह यह दर्शाने वाले कारण अभिलिखित न कर दे कि वादी को असाधारण परिस्थितियों के कारण रोका गया था। 
      • समय बढ़ाने से पूर्व, न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि समय बढ़ाने से इंकार करने से वादी के साथ घोर अन्याय होगा।