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सांविधानिक विधि
भारत के संविधान का अनुच्छेद 32
18-Apr-2025
सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य "मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपचारात्मक प्रावधान होने के कारण, अनुच्छेद 32 का उपयोग न्यायालय के स्वयं के निर्णय को चुनौती देने के साधन के रूप में लागू नहीं किया जा सकता है।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और उज्ज्वल भुइयां |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 को, जो मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु एक उपचारात्मक प्रावधान के रूप में कार्य करता है, न्यायालय के स्वयं के निर्णय को चुनौती देने के लिये प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है, ऐसा उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया।
- यह निर्णय सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) के वाद में व्यक्त किया गया।
सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- दिनांक 26.03.1974:
- हिमाचल प्रदेश राज्य वन विकास निगम लिमिटेड को कंपनी अधिनियम, 1956 के अधीन सम्मिलित किया गया था। हिमाचल प्रदेश राज्य निगम की 100% शेयर पूंजी का स्वामी है।
- याचिकाकर्त्ताओं की नियुक्तियाँ:
- याचिकाकर्त्ता 1 : 29.10.1975 को नियुक्त, 31.01.2013 को सेवानिवृत्त।
- याचिकाकर्त्ता 2 : 15.02.1988 को नियुक्त, 30.09.2016 को सेवानिवृत्त।
- याचिकाकर्त्ता 3 : 05.12.1981 को नियुक्त, 30.11.2014 को सेवानिवृत्त।
- दिनांक 29.10.1999:
- हिमाचल प्रदेश सरकार ने कॉर्पोरेट क्षेत्र कर्मचारी पेंशन योजना, 1999 को अधिसूचित किया, जो 01.04.1999 से प्रभावी है, तथा जिसके अंतर्गत राज्य सरकार के कर्मचारियों के समकक्ष पेंशन लाभ प्रदान किये गए।
- इस योजना का चयन करने वाले कर्मचारियों को भविष्य निधि (CPF) में नियोक्ता द्वारा किए गए अंशदान को त्यागना पड़ा।
- इस योजना में केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन एवं समानीकरण) नियमों का पालन किया गया।
- दिनांक 21.01.2003:
- 1999 की योजना की वित्तीय व्यवहार्यता का आकलन करने के लिये एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया।
- दिनांक 28.10.2003:
- समिति द्वारा एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि उक्त योजना वित्तीय रूप से अनुपालित (वित्तीय दृष्टि से अस्थिर) है, क्योंकि:
- ब्याज दरों में अनिश्चितता।
- सार्वजनिक क्षेत्र में नियुक्तियों में गिरावट।
- कोष निधि (Corpus Fund) की वहन क्षमता का अभाव, जिससे राज्य सरकार के कर्मचारियों के समकक्ष पेंशन भुगतान बनाए रखना संभव नहीं है।
- समिति द्वारा एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि उक्त योजना वित्तीय रूप से अनुपालित (वित्तीय दृष्टि से अस्थिर) है, क्योंकि:
- दिनांक 02.12.2004:
- सरकार द्वारा वर्ष 1999 की योजना को भविष्यलक्षी प्रभाव (Prospectively) से निरस्त कर दिया गया।
- उन कर्मचारियों को संरक्षण प्रदान किया गया, जो 01.04.1999 से 02.12.2004 की अवधि के मध्य सेवानिवृत्त हुए एवं जिन्होंने इस योजना का विकल्प चुना था।
- ऐसे कर्मचारी जो 02.12.2004 के पश्चात सेवानिवृत्त हुए, उन्हें उक्त योजना के अंतर्गत कोई लाभ प्रदान नहीं किया गया।
- 2004 के पश्चात्:
- निगम ने अपने उपनियमों में संशोधन किया और निरसन को लागू किया; यद्यपि याचिकाकर्त्ताओं ने योजना का विकल्प चुना था, लेकिन उन्हें पेंशन देने से मना कर दिया गया।
- 2009 – 2013:
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिकाओं का एक समूह दायर किया गया (मुख्य वाद: डी. नंदा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य )।
- दिनांक 19.12.2013:
उच्च न्यायालय ने याचिकाओं को स्वीकार किया, कट-ऑफ तिथि को अधिकातीत (Ultra Vires) घोषित किया, तथा निरसन की व्याख्या इस प्रकार की कि वह 02.12.2004 के पश्चात् सेवानिवृत्त कर्मचारियों को भी सम्मिलित करे। - दिनांक 28.09.2016:
- उच्च्ताम न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम राजेश चंद्र सूद वाद में उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और निरसन की कट-ऑफ तिथि और वैधता को बरकरार रखा ।
- दिनांक 20. 03.2018:
- उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने वर्तमान याचिका पर नोटिस जारी करते हुए राजेश चंद्र सूद निर्णय की सत्यता पर प्रश्न उठाते हुए इसे तीन न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया।
- वर्तमान याचिका दायर:
- तीनों याचिकाकर्त्ताओं ने अनुच्छेद 32 के अधीन एक रिट दायर की, जिसमें दावा किया गया कि राजेश चंदर सूद निर्णय 'Per Incuriam' (विधि को ध्यानपूर्वक अवलोकन के बिना) पारित किया गया था, तथा पूर्व-2004 सेवानिवृत्त कर्मचारियों के समान लाभ की मांग की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- पोषणीयता (Maintainability) और पूर्व-न्याय (Res Judicata) :
- अनुच्छेद 32 के अधीन दायर याचिका को पोषणीय नहीं माना गया ।
- उक्त विवाद का निपटारा पूर्व में ही उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘राजेश चंदर सूद’ वाद में निश्चायक रूप से किया जा चुका है।
- उच्चतम न्यायालय के निर्णयों की अंतिमता:
- अनुच्छेद 32 के अंतर्गत रिट याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को पुनः नहीं खोला जा सकता ।
- उचित विधिक उपचार ‘पुनर्विचार याचिका’ (Review Petition) के माध्यम से है, तथा आवश्यकता पड़ने पर उसके उपरांत ‘उपचारात्मक याचिका’ (Curative Petition) दायर की जा सकती है।
- इस तरह के रिट की अनुमति देने से न्यायिक अराजकता उत्पन्न होगी और मुकदमे की अंतिमता कमजोर होगी।
- प्रति इंकुरियम (Per Incuriam) तर्क नामंजूर किया गया:
- याचिकाकर्त्ताओं का यह दावा कि राजेश चंद्र सूद अपराध में संलिप्त थे , दृढ़ता से खारिज कर दिया गया।
- न्यायालय ने पाया कि किसी भी बाध्यकारी पूर्व निर्णय को नजरअंदाज नहीं किया गया था, निर्णय उचित तर्क पर आधारित था ।
- राज्य की नीति और वैध वर्गीकरण:
- न्यायालय ने यह माना कि राज्य को वित्तीय सामर्थ्य (Financial Feasibility) के आधार पर नीतियों में परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त है।
- दिनांक 02.12.2004 की कट-ऑफ तिथि उचित, न्यायसंगत और मनमानी नहीं पाई गई ।
- पेंशन योजना मौलिक अधिकार नहीं:
- 1999 की योजना एक कल्याणकारी उपाय के रूप में प्रारंभ की गई थी, न कि एक सांविधिक अधिकार के रूप में।
- याचिकाकर्त्ता सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के कर्मचारी हैं और राज्य सरकार के कर्मचारी नहीं हैं, इसलिये वे सेवा लाभों में समानता का दावा नहीं कर सकते ।
- याचिका खारिज करना और अंतिम टिप्पणी:
- रिट याचिका पूरी तरह से गलत पाई गई और उसे खारिज कर दिया गया ।
- याचिकाकर्ताओं के सेवानिवृत्त और बुजुर्ग होने के कारण उन पर कोई जुर्माना अधिरोपित नहीं किया गया ।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 32 क्या है?
अनुच्छेद 32 की प्रकृति और महत्त्व:
- बी.आर. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को "संविधान का हृदय और आत्मा" कहा है।
- यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये सीधे उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार देता है ।
- यह एक उपचारात्मक मौलिक अधिकार है, मूलभूत अधिकार नहीं - यह संविधान के भाग 3 के अधीन अन्य अधिकारों को लागू करने के लिये एक तंत्र प्रदान करता है।
- यह संविधान के मूल ढाँचे का भाग है और अनुच्छेद 359 के अधीन आपातस्थिति को छोड़कर इसे हटाया नहीं जा सकता है।
अनुच्छेद 32 का विधिक आधार और पाठ:
अनुच्छेद |
उपबंध |
अनुच्छेद 32(1) |
मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार प्रदान करता है। |
अनुच्छेद 32(2) |
यह विधेयक उच्चतम न्यायालय को निदेश, आदेश या रिट (बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा, उत्प्रेषण) जारी करने का अधिकार देता है। |
अनुच्छेद 32(3) |
संसद अन्य न्यायालयों को भी समान शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार दे सकती है। |
अनुच्छेद 32(4) |
इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रदत्त अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता, सिवाय संविधान में प्रदत्त उपबंधों के अनुसार (उदाहरणार्थ: आपातकाल की स्थिति में अनुच्छेद 359 के अधीन)। |
अनुच्छेद 32 के अधीन रिट:
रिट |
उद्देश्य |
बंदी प्रत्यक्षीकरण |
किसी निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना एवं निरोधन का औचित्य सिद्ध करना। |
परमादेश |
किसी लोक अधिकारी को कर्तव्य पालन हेतु निदेश देना। |
प्रतिषेध |
अवर न्यायालय को उसकी अधिकारिता से बाहर की कार्यवाही रोकने का आदेश देता है। |
उत्प्रेषण |
अवर न्यायालय द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया गया। |
अधिकार पृच्छा |
विधिक प्राधिकरण के अभाव में किसी व्यक्ति द्वारा लोक पद धारण किये जाने की वैधता को चुनौती देता है। |
अनुच्छेद 32 से संबंधित प्रमुख सिद्धांत और न्याय सिद्धांत
लोकस स्टैंडी (Locus Standi) और जनहित याचिका (Public Interest Litigation - PIL):
- प्रारंभ में केवल व्यथित व्यक्ति ही न्यायालय में जा सकता था।
- इस सिद्धांत का विकास जनहित याचिका (PIL) के रूप में हुआ, जिससे उन व्यक्तियों की ओर से भी याचिका दायर की जा सकती है जो स्वयं न्याय प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं।
- यह सिद्धांत निम्नलिखित वादों में मान्यता प्राप्त:
- ए.बी.एस.के संघ बनाम भारत संघ (1981)
- एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1982)
पूर्व-न्याय (Res Judicata):
- यह अंतिमता के सिद्धांत (Doctrine of Finality) को स्थापित करता है – एक बार जब किसी विषय का निर्णय अनुच्छेद 32 के अंतर्गत हो जाता है, तो उसे पुनः नहीं खोला जा सकता है ।
- अपवाद: बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) पर लागू नहीं होता है या यदि उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है , तो उच्चतम के समक्ष पुनः याचिका प्रस्तुत की जा सकती है।
विलंब का सिद्धांत (Rule of Laches):
- यदि याचिका में अत्यधिक विलंब हो, तो न्यायालय उसे खारिज कर सकता है।
- अनुच्छेद 32 के अंतर्गत कोई निश्चित परिसीमा काल नहीं है; न्यायालय प्रत्येक वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर निर्णय लेते हैं (जैसा कि त्रिलोकचंद मोतीचंद बनाम एच.बी. मुंशी, 1970 में प्रतिपादित किया गया)।
अनुच्छेद 32 बनाम अनुच्छेद 226
पहलू |
अनुच्छेद 32 |
अनुच्छेद 226 |
अधिकारिता |
उच्चतम न्यायालय |
उच्च न्यायालय |
विस्तार |
केवल मौलिक अधिकारों के लिये |
मौलिक अधिकारों एवं अन्य विधिक अधिकारों के लिये |
शक्ति का स्रोत |
मौलिक अधिकार स्वयं |
सांविधानिक शक्ति (मौलिक नहीं) |
पहुँच |
प्रवर्तन तक सीमित |
व्यापक; इसमें प्रशासनिक कार्यवाहियाँ सम्मिलित हैं |
पदानुक्रम |
उच्चतम न्यायालय के निर्णय उच्च न्यायालयों पर प्रबल होते हैं |
अनुच्छेद 32 के अधीनस्थ |
- न्यायिक दृष्टिकोण एवं महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ:
- रोमेश थापर वाद : उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि वह मौलिक अधिकारों का संरक्षक एवं प्रत्याभूतिकर्ता (Guarantor) है ।
- अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय को विवेकाधिकार प्राप्त है – उच्चतम न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह किसी पत्र को भी याचिका के रूप में स्वीकार कर सकता है, विशेषकर जब निर्धन या वंचित वर्ग के अधिकारों का हनन हुआ हो।
- अनुच्छेद 32 को प्रवर्तित करने हेतु कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है; न्यायालय आवश्यकता अनुसार विरोधात्मक प्रणाली (Adversarial System) के स्थान पर अन्वेषणात्मक दृष्टिकोण (Inquisitorial Approach) को भी अपनाने हेतु स्वतंत्र हैं।
- सीमाएँ और दुरुपयोग से संबंधित चिंताएँ:
- इसके लिये उपयोग नहीं किया जा सकता:
- संविदात्मक अधिकार , निजी विवाद , या अन्य विधियों के अंतर्गत आने वाले अधिकार ।
- आपातकाल (अनुच्छेद 359) के दौरान, अनुच्छेद 32 के अधीन अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने इसके दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की है तथा अनुच्छेद 32 के अधीन निरर्थक एवं अवांछनीय याचिकाओं को रोकने हेतु सतर्कता बरती है।
- इसके लिये उपयोग नहीं किया जा सकता:
वाणिज्यिक विधि
धारा 34 के अंतर्गत अपील दायर करने पर पंचाट पर कोई स्वतः रोक नहीं लगेगी
18-Apr-2025
अनुच्छेद 227 के अंतर्गत मामले “माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत अपील दायर करने पर निर्णय पर कोई स्वतः रोक नहीं लगती।” न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की पीठ ने कहा कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत अपील दायर करने पर निर्णय पर कोई स्वत: रोक नहीं लगती।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 227(2025) मामले के अंतर्गत में यह निर्णय दिया।
अनुच्छेद 227 (2025) के अंतर्गत मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता 1 जुलाई 2008 से एक औद्योगिक भूखंड (सी-156, सेक्टर 10, नोएडा, भूतल) का किरायेदार है, जिसका मासिक किराया 8,000 रुपये है।
- विनिर्माण उद्देश्यों के लिये 11 महीने के लिये किरायेदारी समझौता अपंजीकृत था, तथा समाप्ति के बाद भी जारी रहा।
- किराए के भुगतान को लेकर याचिकाकर्त्ता एवं प्रतिवादी संख्या 1 के बीच विवाद उत्पन्न हो गया, जिसके कारण प्रतिवादी संख्या 1 ने याचिकाकर्त्ता को बेदखल करने के लिये SCC केस संख्या 19/2011 दायर किया।
- याचिकाकर्त्ता ने किराया समझौते में मध्यस्थता खंड का उदाहरण देते हुए सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत शिकायत को खारिज करने के लिये एक आवेदन दायर किया।
- अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 19 सितंबर 2015 को प्रतिवादी संख्या 1 की शिकायत को खारिज कर दिया 1 ने फिर उसी अनुतोष के लिये मध्यस्थता याचिका दायर की, जिसे मध्यस्थ ने 19 जुलाई, 2017 के एक पंचाट के माध्यम से अनुमति दी।
- याचिकाकर्त्ता ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत आपत्ति दर्ज की, जिसे 30 जून, 2022 को खारिज कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत आपत्ति दर्ज की, जिसे 30 जून, 2022 को खारिज कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता की बाद की मध्यस्थता अपील (धारा 37) को उच्च न्यायालय ने 6 दिसंबर, 2022 को खारिज कर दिया तथा उच्चतम न्यायालय में उनकी विशेष अनुमति याचिका भी खारिज कर दी गई।
- धारा 34 की आपत्ति के लंबित रहने के दौरान प्रतिवादी संख्या 1 ने संपत्ति प्रतिवादी संख्या को विक्रय कर दिया। 2 दिनांक 5 मार्च, 2021 को पंजीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से।
- याचिकाकर्त्ता ने इस विक्रय विलेख को रद्द करने के लिये वाद संख्या 342/2021 दायर किया, जिसे 29 मई, 2023 को खारिज कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने इस अस्वीकृति को प्रथम अपील संख्या 1000/2023 के माध्यम से चुनौती दी, जिसे 10 अप्रैल, 2024 को स्वीकार किया गया।
- निष्पादन वाद संख्या 108/2021 में, डिक्री धारक ने 3 अप्रैल, 2024 को एक आवेदन दायर किया, जिसे न्यायालय ने 24 जून, 2024 को अनुमति दी, जिसमें याचिकाकर्त्ता को 8,58,795 रुपये का भुगतान करने का निदेश दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने अब 24 जून, 2024 से न्यायालय के आदेश को रद्द करने के लिये अनुच्छेद 227 के अंतर्गत यह याचिका दायर की है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि A & C अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत आवेदन दायर करने से मध्यस्थता पंचाट पर स्वतः रोक नहीं लगती, जैसा कि याचिकाकर्त्ता ने दावा किया था।
- मध्यस्थता पंचाट 19 जुलाई 2017 को पारित किया गया था, जिसमें याचिकाकर्त्ता को 30 दिनों के अंदर परिसर खाली करने का निदेश दिया गया था, लेकिन याचिकाकर्त्ता ने अप्रैल 2024 में ही कब्जा सौंपा।
- धारा 34 के अंतर्गत आवेदन याचिकाकर्त्ता ने 2017 में दायर किया था, जब मध्यस्थता अधिनियम में 2015 का संशोधन 23 अक्टूबर 2015 को प्रभावी हुआ था।
- भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एवं श्री विष्णु कंस्ट्रक्शन मामलों में उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि संशोधन अधिनियम इसके लागू होने के बाद प्रारंभ हुई न्यायालयी कार्यवाही पर भावी रूप से लागू होता है।
- न्यायालय ने निर्णय पर स्वतः रोक लगाने के विषय में याचिकाकर्त्ता की दलील को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि धारा 34 का आवेदन 2015 के संशोधन के लागू होने के काफी बाद 2017 में दायर किया गया था।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के स्मॉल स्केल इंडस्ट्रियल मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन पर निर्भरता को खारिज कर दिया, यह पाते हुए कि मामले के तथ्य वर्तमान मामले से पूरी तरह से अलग थे।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता ने यह सिद्ध नहीं किया है कि किसी भी सक्षम न्यायालय ने मध्यस्थता निर्णय पर रोक लगाई है।
- राजस्थान राज्य बनाम जे.के. सिंथेटिक्स लिमिटेड के आधार पर, न्यायालय ने निर्धारित किया कि प्रतिवादी संख्या 1 अंतःकालीन लाभ का अधिकारी है क्योंकि पंचाट का न तो अनुपालन किया गया और न ही किसी न्यायालय द्वारा उस पर रोक लगाई गई।
- उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया है कि कार्यवाही के खारिज होने के बाद पक्षों को उनकी मूल स्थिति में बहाल किया जाना चाहिये, जिसका अर्थ है कि स्थगन अवधि के दौरान अर्जित ब्याज या शुल्क देय बने रहेंगे।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अंतःकालीन लाभ के भुगतान का निदेश देने वाले विवादित आदेश में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
A & C अधिनियम के अंतर्गत रोक के संबंध में क्या प्रावधान हैं?
- A & C अधिनियम की धारा 36 (2) में प्रावधान है कि:
- धारा 34 के अंतर्गत मध्यस्थ निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन दाखिल करने से वह निर्णय स्वतः ही अप्रवर्तनीय नहीं हो जाता।
- धारा 34 के अंतर्गत आवेदन दाखिल करने के बावजूद भी निर्णय तब तक लागू रहता है जब तक कि उस पर विशेष रूप से रोक न लगाई जाए।
- मध्यस्थ निर्णय के संचालन पर रोक लगाने के लिये, विशेष रूप से रोक लगाने का अनुरोध करते हुए एक अलग आवेदन दाखिल किया जाना चाहिये।
- न्यायालय को उप-धारा (3) के अनुसार स्पष्ट रूप से रोक का आदेश देना चाहिये ताकि निर्णय अप्रवर्तनीय हो जाए।
- ऐसे विशिष्ट रोक आदेश के बिना, धारा 34 की कार्यवाही जारी रहने के बावजूद भी निर्णय वैध और लागू होता रहता है।
- A & C अधिनियम की धारा 36 (3) में प्रावधान है:
- न्यायालय उपधारा (2) के अंतर्गत आवेदन दाखिल करने पर मध्यस्थता पंचाट के संचालन पर रोक लगा सकता है।
- किसी भी रोक में न्यायालय द्वारा लिखित रूप में दर्ज किये गए कारण शामिल होने चाहिये।
- इस तरह की रोक लगाते समय न्यायालय के पास शर्तें लगाने का विवेकाधिकार है।
- धन के भुगतान से जुड़े मध्यस्थता पंचाटों के लिये, न्यायालय को सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धन संबंधी डिक्री पर रोक लगाने के प्रावधानों पर विचार करना चाहिये।
- यदि न्यायालय को प्रथम दृष्टया यह साक्ष्य मिलता है कि मध्यस्थता करार/संविदा या पंचाट का निर्माण कपट या भ्रष्टाचार से प्रेरित था, तो उसे बिना शर्त रोक लगानी चाहिये।
- स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है कि ये प्रावधान मध्यस्थता कार्यवाही से संबंधित सभी न्यायालयी मामलों पर लागू होते हैं, भले ही वे माध्यस्थम एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 से पहले या बाद में आरंभ हुए हों।