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सांविधानिक विधि

धन संबंधी अधिकारिता का निर्धारण

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 30-Apr-2025

ऋतु मिहिर पांचाल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य 

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अधीन संदाय किये गए प्रतिफल के मूल्य के आधार पर धन-संबंधी अधिकारिता तय करना सांविधानिक है, क्योंकि इसका उद्देश्य न्यायिक उपचारों की प्रभावी श्रेणीबद्ध संरचना सुनिश्चित करना है और यह उद्देश्य से युक्तिसंगत संबंध रखता है।” 

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिंह एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने यह निर्णय दिया कि उपभोक्ता आयोगों को धन-संबंधी अधिकारिता का आधार वस्तुओं अथवा सेवाओं के लिये संदाय किये गए प्रतिफल पर निर्धारित करना, सांविधानिक रूप से वैध है, मनमाना नहीं है और यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने ऋतु मिहिर पांचाल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

ऋतु मिहिर पांचाल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ताओं ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 34(1), 47(1)()(), और 58(1)()(झ) कीसांविधानिकता को चुनौती दी, जिनके तहत उपभोक्ता आयोगों की धन-संबंधी अधिकारिता का निर्धारण सेवाओं या वस्तुओं के मूल्य के संदाय के आधार पर किया गया है, न कि दावा किये गए प्रतिकर के आधार पर।  
  •  निरस्त उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अधीन, अधिकारिता का निर्धारण सेवाओं/वस्तुओं के मूल्य एवं प्रतिकर की राशि दोनों को सम्मिलित रूप से देख कर किया जाता था, जबकि 2019 अधिनियम ने इस आधार को केवल संदाय की गई धनराशि तक सीमित कर दिया। 
  • रिट याचिका में एक ऐसा मामला सम्मिलित था जिसमें याचिकाकर्त्ता के पति की मृत्यु फोर्ड एंडेवर कार में आग लगने के कारण हो गई थी, जो कि एक कथित निर्माण दोष (manufacturing defect) का परिणाम था, और याचिकाकर्त्ता ने ₹51.49 करोड़ का प्रतिकर मांगा था। 
  • 2019 अधिनियम के अधीन नए प्रावधानों के कारण, याचिकाकर्त्ता को जिला आयोग से संपर्क करना पड़ा क्योंकि कार का मूल्य (31.19 लाख रुपए) 1 करोड़ रुपए से कम था, जबकि 1986 के अधिनियम के अधीन, वह दावे किये गए प्रतिकर के आधार पर सीधे राष्ट्रीय आयोग से संपर्क कर सकती थी। 
  • सिविल अपील में भी ऐसा ही विवाद्यक था, जहाँ अपीलकर्त्ता के 14.94 करोड़ रुपए के बीमा प्रतिकर के दावे को राष्ट्रीय आयोग ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि बीमा पॉलिसी के लिये प्रतिफल 10 करोड़ रुपए से अधिक नहीं था। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि नए मानदंडों से एक विषम स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ एक जैसे प्रतिकर का दावा करने वाले उपभोक्ताओं को केवल संदाय की गई धनराशि के अंतर के आधार पर अलग-अलग स्तर के मंचों पर भेजा जाता है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 के अधीन समानता के अधिकार का उल्लंघन है 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि नए प्रावधान भेदभावपूर्ण, मनमाने हैं और उपभोक्ता संरक्षण हेतु न्यायिक प्रणाली के ढाँचे की भावना से कोई तार्किक या युक्तिसंगत संबंध नहीं रखता, तथा यह सांविधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध अपराध है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद के पास संविधान की सूची I की प्रविष्टि 95 के साथ सूची III की प्रविष्टि 11-क और 46 के अंतर्गत न्यायालयों और अधिकरणों की अधिकारिता और शक्तियों को निर्धारित करने की विधायी क्षमता है, जिसमें अधिकारिता की आर्थिक सीमाएं भी सम्मिलित हैं। 
  • न्यायालय ने कहा कि वस्तुओं या सेवाओं के लिये संदाय किये गए प्रतिफल के मूल्य के आधार पर दावों का वर्गीकरणन तो अवैध है और न ही भेदभावपूर्ण है, क्योंकि प्रतिफल किसी भी संविदा को बनाने का एक अभिन्न अंग हैऔर 2019 अधिनियम की धारा 2(7) के अधीन "उपभोक्ता" की परिभाषा के लिये आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि ऐसा वर्गीकरण न्यायिक उपचारों की अनुक्रमिक संरचना (hierarchical structure) के उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध है, क्योंकि क्षतिपूर्ति के लिये स्व-मूल्यांकित दावे की तुलना में प्रतिफल का मूल्य प्रतिकर से अधिक आसानी से संबंधित है।  
  • न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी उपभोक्ता को यह असीमित अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह मनमाने ढंग से असीमित प्रतिकर मांग कर अपनी सुविधा के अनुसार मंच का चयन कर सके। न्यायालयों को सदैव यह अधिकार प्राप्त होता है कि वे अतिमूल्यांकित दावों (overvalued claims) का पुनर्मूल्यांकन कर सकें। 
  • प्रावधानों की सांविधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए, न्यायालय ने केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण को निर्देश दिया कि वे विधि के प्रभावी संचालन के लिये आवश्यक उपायों का सर्वेक्षण, समीक्षा और सरकार को सलाह देने के लिये अपने सांविधिक कर्त्तव्यों का पालन करें। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि इन सांविधिक निकायों को अनुचित व्यवहारों से उपभोक्ताओं की रक्षा करने तथा उपभोक्ता अधिकारों के विरुद्ध किसी भी अपराध को रोकने के लिये प्रभावी और कुशलतापूर्वक कार्य करना चाहिये, तथा उनका कार्य न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होना चाहिये 

धन-संबंधी अधिकारिता क्या है? 

  • धन-संबंधी अधिकारिता से तात्पर्य न्यायालय के उस अधिकार से है, जिसके अधीन वह विवाद मेंसम्मिलित मौद्रिक मूल्य या राशिके आधार पर मामलों की सुनवाई और निर्धारण करता है , तथा यह सीमा निर्धारित करता है कि न्यायालय किस सीमा तक विशेष मौद्रिक मूल्य के वादों पर विचार कर सकता है। 
  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 15 के अधीन, प्रत्येकवादउस निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में संस्थित किया जाना चाहिये जो उस पर सुनवाई करने में सक्षम हो, अर्थात् मामला उस मौद्रिक मूल्य पर अधिकारिता रखने वाले निम्नतम न्यायालय में संस्थित किया जाना चाहिये 
  • वाद में वादी के मूल्यांकन से यह निर्धारित होता है कि किस न्यायालय को धन-संबंधी अधिकारिता प्राप्त है, यद्यपि न्यायालय यह जांच कर सकते हैं कि किसी वाद का मूल्यांकन जानबूझकर कम किया गया है या अधिक किया गया है, जिससे किसी विशेष फोरम का चयन किया जा सके। 
  • धन-संबंधी अधिकारिता प्रणाली एक पदानुक्रमित संरचना का निर्माण करती है, जहाँ उच्च स्तर के न्यायालयों पर उन वादों का भार नहीं पड़ता, जिन्हें अवर न्यायालयों द्वारा निपटाया जा सकता है, जिससे पक्षकारों और साक्षियों को सुविधा मिलती है और साथ ही न्याय का कुशल प्रशासन सुनिश्चित होता है। 

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के विधिक उपबंध क्या हैं? 

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 34(1) में उपबंध है कि जिला आयोग कोउन परिवादों पर विचार करने की अधिकारिता होगीजहाँ प्रतिफल के रूप में संदाय की गई वस्तुओं या सेवाओं का मूल्य एक करोड़ रुपए से अधिक नहीं है। 
  • 2019 अधिनियम की धारा 47(1)()(झ) स्थापित करती है कि राज्य आयोग के पास उन परिवादों पर विचार करने की अधिकारिता होगी जहाँ विचार के रूप में संदाय की गई वस्तुओं या सेवाओं का मूल्य एक करोड़ रुपए से अधिक है, किंतु दस करोड़ रुपए से अधिक नहीं है। 
  • 2019 अधिनियम की धारा 58(1)()(झ) राष्ट्रीय आयोग को उन परिवादों पर विचार करने की अधिकारिता प्रदान करती है जहाँ प्रतिफल के रूप में संदाय की गई वस्तुओं या सेवाओं का मूल्य दस करोड़ रुपए से अधिक है। 
  • निरस्त उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 11(1) के अधीन जिला फोरम को उन परिवादों के लिये अधिकारिता प्रदान की गई जहाँ वस्तुओं या सेवाओं का मूल्य और दावा किया गया प्रतिकरबीस लाख रुपए से अधिक नहीं था। 
  • 1986 अधिनियम की धारा 17()(झ) राज्य आयोग को उन परिवादों के लिये अधिकारिता प्रदान करती है जहाँ वस्तुओं या सेवाओं और दावा किये गए प्रतिकर का मूल्य बीस लाख रुपए से अधिक है, किंतु एक करोड़ रुपए से अधिक नहीं है। 
  • 1986 के अधिनियम की धारा 21()(झ) के अधीन राष्ट्रीय आयोग को उन परिवादों के लिये अधिकारिता प्रदान की गई है, जहाँ वस्तुओं या सेवाओं का मूल्य और दावा किया गया प्रतिकर एक करोड़ रुपए से अधिक हो। 
  • 2019 अधिनियम की धारा 2(7) में "उपभोक्ता" को ऐसे किसी भी व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो आस्थगित संदाय की प्रणाली के अधीन पूर्णतः संदाय किये गए या वचन किये गए, आंशिक रूप से संदाय किये गए या वचन किये गए प्रतिफल के बदले सामान खरीदता है या कोई सेवा किराए पर लेता है या उसका लाभ उठाता है, और इसमें ऐसे सामान या सेवाओं का उपयोगकर्त्ता भी सम्मिलित है। 
  • 2019 अधिनियम की धारा 3 और 10 क्रमशः केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना करती है, जिनका सांविधिक कर्त्तव्य उपभोक्ता हितों की रक्षा करना और उपभोक्ता संरक्षण व्यवस्था के प्रभावी कामकाज को सुनिश्चित करना है।