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सांविधानिक विधि
नार्को-विश्लेषण परीक्षण
« »11-Jun-2025
अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य "एक अभियुक्त स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजर सकता है, किंतु केवल विचारण के उपयुक्त चरण में - विशेष रूप से, जब वह अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के अधिकार का प्रयोग कर रहा हो।" न्यायमूर्ति संजय करोल और पी.बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति पी.बी. वराले की पीठ ने निर्णय दिया कि एक अभियुक्त स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजर सकता है, किंतु यह परीक्षण केवल न्यायिक विचारण की उपयुक्त अवस्था में ही कराया जा सकता है - विशेष रूप से उस चरण में जब अभियुक्त को अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान किया गया हो।
- न्यायालय ने आगे कहा कि यह कोई पूर्ण या प्रत्याभूत अधिकार नहीं है, क्योंकि यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है जिन पर विचारण न्यायालय को विचार करना चाहिये।
अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मामले की पृष्ठभूमि:
- 24 अगस्त 2022 को पुलिस थाने महुआ में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 341, 342, 323, 363, 364, 498 (क), 504, 506 और 34 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 545/2022 दर्ज की गई।
- अपीलकर्त्ता (पति) और उसके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया।
- परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि उसकी बहन का विवाह 11 दिसंबर 2020 को अपीलकर्त्ता से हुआ था।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में किये गए अभिकथन:
- अभियुक्त व्यक्ति बार-बार दहेज की मांग कर रहे थे।
- अभियुक्त व्यक्ति परिवादकर्त्ता की बहन की पिटाई कर रहे थे।
- 22 अगस्त 2022 को परिवादकर्त्ता को अपीलकर्त्ता का फोन आया जिसमें बताया गया कि उसकी बहन वैवाहिक घर से भाग गई है।
- तलाश के बावजूद बहन का पता नहीं चल सका और परिवादकर्त्ता को अभियुक्तों की ओर से धोखाधड़ी का संदेह हुआ।
- अपीलकर्त्ता का कथन:
- 21 अगस्त 2022 को अयोध्या जाते समय उनकी पत्नी शौच के लिये बाबबली चौक पर बस से उतर गईं, किंतु वापस नहीं लौटीं।
- अपीलकर्त्ता द्वारा दिनांक 28 अगस्त 2022 को जहांगीरगंज थाना में परिवाद दर्ज कराया गया, जिसे सामान्य डायरी संख्या 038 के रूप में दर्ज किया गया।
- वर्तमान स्थिति:
- लापता व्यक्ति (पत्नी) का आज तक पता नहीं चल पाया है।
- अपीलकर्त्ता की माँ, पिता और भाइयों को पटना उच्च न्यायालय द्वारा जमानत दे दी गई है।
- अपीलकर्त्ता की नियमित जमानत की प्रार्थना को सेशन न्यायाधीश, वैशाली, हाजीपुर द्वारा जमानत याचिका संख्या 1141/2023 में खारिज कर दिया गया।
- यह अस्वीकृति प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में वर्णित आरोपों और सह-अभियुक्तों के संस्वीकृत किये गए कथनों पर आधारित थी, जिन्होंने कहा था कि उन्होंने लापता व्यक्ति को 21 और 22 अगस्त 2022 की मध्य रात्रि को सरयू नदी में फेंक दिया था।
- उच्च न्यायालय का विवादित आदेश:
- अपीलकर्त्ता ने नियमित जमानत के लिये पटना उच्च न्यायालय में दांडिक विविध याचिका संख्या 71293/2023 के अधीन आवेदन प्रस्तुत किया।
- उच्च न्यायालय ने महुआ की उप-विभागीय पुलिस अधिकारी की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि वह अन्वेषण के दौरान सभी अभियुक्तों और अन्य साक्षियों का नार्को-विश्लेषण परीक्षण कराएंगी।
- मामले की सुनवाई 12 जुलाई 2024 को निर्धारित की गई।
- उच्चतम न्यायालय में अपील:
- उच्च न्यायालय के 9 नवंबर 2023 के आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- वर्तमान अपील विशेष अनुमति याचिका (दाण्डिक) संख्या 5392/2024 से उत्पन्न हुई है।
- अनुमति प्रदान कर दी गई और मामला आपराधिक अपील में परिवर्तित कर दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने 22 अप्रैल 2025 के आदेश के अधीन वरिष्ठ अधिवक्ता श्री गौरव अग्रवाल को संबंधित विवाद्यकों पर न्यायालय की सहायता के लिये न्यायमित्र (Amicus Curiae) के रूप में नियुक्त किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय द्वारा विरचित विवाद्यक:
- क्या वर्तमान तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर उच्च न्यायालय इस तरह की दलील को स्वीकार कर सकता था?
- क्या स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण की रिपोर्ट, अभिलेख पर अन्य साक्ष्य के अभाव में दोषसिद्धि का एकमात्र आधार बन सकती है।
- क्या कोई अभियुक्त स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण की मांग कर सकता है, यह एक अविभाज्य अधिकार है।
सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) से प्रतिपादित विधिक सिद्धांत:
- भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20 और 21 अपरिवर्तनीय और पवित्र अधिकार हैं, जिनमें न्यायपालिका किसी प्रकार अपवाद नहीं बना सकती।
- नार्को-विश्लेषण और इसी तरह के परीक्षणों का अनैच्छिक प्रशासन संविधान के अनुच्छेद 20(3) (आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार) द्वारा दी गई सुरक्षा का उल्लंघन है।
- ऐसे अनैच्छिक परीक्षणों के परिणामों को विधि की दृष्टि में 'भौतिक साक्ष्य' नहीं माना जा सकता।
- सम्मति के अभाव में ऐसे परीक्षण करना 'मूलभूत उचित प्रक्रिया' का उल्लंघन है।
- जब ये परीक्षण बिना सम्मति के किये जाते हैं तो व्यक्ति की गोपनीयता की सीमाओं का भी उल्लंघन होता है।
- स्वैच्छिक परीक्षणों के लिये उचित सुरक्षा उपाय लागू होने चाहिये तथा परिणामों को सीधे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
- तत्पश्चात् दी गई जानकारी की सहायता से बाद में खोजे गए किसी तथ्य या सूचना को भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 27 के अधीन साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष:
उच्च न्यायालय द्वारा नार्को-विश्लेषण प्रस्तुतिकरण को स्वीकार किये जाने पर:
- किसी भी परिस्थिति में अनैच्छिक या बलपूर्वक नार्को-विश्लेषण परीक्षण विधि के अधीन स्वीकार्य नहीं है
- उच्च न्यायालय द्वारा नार्को-विश्लेषण परीक्षण कराने के अनुरोध को स्वीकार करना सेल्वी मामले में दिये गए निर्णय का सीधा उल्लंघन है।
- इस तरह की प्रस्तुति और उसकी स्वीकृति संविधान के अनुच्छेद 20(3) और 21 के अधीन प्राप्त सुरक्षा के दायरे में आती है।
- उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 439 के अधीन नियमित जमानत के लिये आवेदन पर निर्णय देते समय इस तरह के निवेदन को स्वीकार करने में त्रुटी की।
जमानत आवेदनों पर:
- जमानत देने के लिये आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को अभियुक्त के विरुद्ध आरोपों, अभिरक्षा की अवधि, साक्ष्य और अपराध की प्रकृति, साक्षियों को प्रभावित करने की संभावना और अन्य सुसंगत आधारों पर विचार करना होता है।
- इसमें किसी भी तरह की जांच में सम्मिलित होना या अनैच्छिक अन्वेषण तकनीकों के उपयोग को स्वीकार करना सम्मिलित नहीं है।
- उच्च न्यायालय ने जमानत मामले के निर्णय को लघु विचारण में परिवर्तित कर दिया, जो निंदनीय है।
नार्को-विश्लेषण की साक्ष्यात्मक मूल्यवत्ता के संदर्भ में:
- स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण की रिपोर्ट, पर्याप्त सुरक्षा उपायों के होते हुए भी, किसी अभियुक्त व्यक्ति की दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं बन सकती।
- साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 की सहायता से प्राप्त सूचना, सहायक साक्ष्य के अभाव में दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकती।
- किसी भी सहायक साक्ष्य के बिना प्रकटीकरण कथन दोषसिद्धि सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजरने के अधिकार पर:
- इस बात पर उच्च न्यायालयों के बीच मतभेद है कि क्या अभियुक्त द्वारा नार्को-विश्लेषण परीक्षण का अधिकार के रूप में दावा किया जा सकता है।
- अभियुक्त को उचित चरण पर (जब वह विचारण में साक्ष्य प्रस्तुत करने के अधिकार का प्रयोग कर रहा हो) स्वेच्छया से नार्को-विश्लेषण परीक्षण कराने का अधिकार है।
- यद्यपि, अभियुक्त को नार्को-विश्लेषण परीक्षण से गुजरने का कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं है।
- ऐसे आवेदन प्राप्त होने पर, संबंधित न्यायालय को मामले से संबंधित समग्र परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये, जैसे स्वतंत्र सम्मति, उचित सुरक्षा उपाय आदि।
स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण के लिये दिशा-निर्देश:
- अभियुक्त की सम्मति के बिना कोई भी परीक्षण नहीं किया जाना चाहिये।
- यदि अभियुक्त स्वेच्छया से आगे आता है, तो उसे वकील से संपर्क करने की सुविधा दी जानी चाहिये तथा उसे मामले के निहितार्थ समझाए जाने चाहिये।
- सम्मति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज की जानी चाहिये।
- मजिस्ट्रेट के समक्ष सुनवाई के दौरान व्यक्ति का प्रतिनिधित्व किसी वकील द्वारा किया जाना चाहिये।
- व्यक्ति को बताया जाना चाहिये कि यह कथन "संस्वीकृति" वाले कथन नहीं होंगे, अपितु पुलिस को दिये गए कथन जैसे होंगे।
- मजिस्ट्रेट निरुद्ध से संबंधित सभी कारकों पर विचार करेगा, जिसमें निरुद्ध की अवधि और पूछताछ की प्रकृति भी सम्मिलित है।
- वास्तविक रिकॉर्डिंग एक स्वतंत्र अभिकरण द्वारा तथा एक वकील की उपस्थिति में की जानी चाहिये।
- प्राप्त सूचना के तरीके का पूर्ण चिकित्सीय एवं तथ्यात्मक विवरण रिकार्ड में दर्ज किया जाना चाहिये।
अंतिम निर्णय:
- पटना उच्च न्यायालय द्वारा पारित दिनांक 9 नवंबर 2023 के आदेश को अपास्त किया जाता है।
- अपीलकर्त्ता की जमानत याचिका, यदि कोई हो, पर विधि के अनुसार निर्णय लिया जाएगा।
- अपील स्वीकार की जाती है।
नार्को परीक्षण क्या है?
परीक्षण के बारे में:
- नार्को विश्लेषण परीक्षण में, सोडियम पेंटोथल नामक दवा को अभियुक्त के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है, जो उन्हें सम्मोहन या बेहोशी की स्थिति में पहुँचा देता है, जिससे उनकी कल्पना शक्ति निष्क्रिय हो जाती है।
- इस सम्मोहन अवस्था में, अभियुक्त को मिथ्या बोलने में असमर्थ समझा जाता है तथा उससे सत्य जानकारी बताने की अपेक्षा की जाती है।
- भारत में, नार्को विश्लेषण परीक्षण का उपयोग मुख्य रूप से 2002 के गुजरात दंगा मामले और 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमले के मामले में किया गया था।
सोडियम पेन्टोथल के बारे में:
- सोडियम पेन्टोथल या सोडियम थायोपेंटल एक तेजी से काम करने वाला, कम अवधि का एनेस्थेटिक है, जिसका उपयोग सर्जरी के दौरान मरीजों को बेहोश करने के लिये बड़ी मात्रा में किया जाता है।
- यह बार्बिट्यूरेट वर्ग की दवा है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर अवसादक के रूप में कार्य करती है।
- क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह दवा व्यक्ति के मिथ्या बोलने के संकल्प को कमजोर कर देती है, इसलिये इसे कभी-कभी "सत्य सीरम" के रूप में संदर्भित किया जाता है और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खुफिया अधिकारियों द्वारा इसका प्रयोग किया गया था।
नार्को बनाम पॉलीग्राफ परीक्षण :
- नार्को परीक्षणों को पॉलीग्राफ परीक्षणों के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिये, क्योंकि यद्यपि इनका उद्देश्य सत्य जानने का एक ही तरीका है, किंतु ये भिन्न तरीके से काम करते हैं।
- पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा पर किया जाता है कि जब कोई व्यक्ति मिथ्या बोलता है तो उत्पन्न होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाएँ अन्यथा उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं से भिन्न होती हैं।
- शरीर में नशीली दवा इंजेक्ट करने के अतिरिक्त, पॉलीग्राफ परीक्षण में संदिग्ध व्यक्ति के शरीर में कार्डियो-कफ या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरण लगा दिये जाते हैं और संदिग्ध व्यक्ति से पूछताछ के दौरान रक्तचाप, नाड़ी की गति, श्वसन, पसीने की ग्रंथि की गतिविधि में परिवर्तन, रक्त प्रवाह आदि जैसी चरों को मापा जाता है।
नार्को परीक्षण के विधिक निहितार्थ क्या हैं?
- सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामला (2010):
- उच्चतम न्यायालय ने नार्को परीक्षणों की वैधता और ग्राह्यता पर निर्णय सुनाते हुए कहा कि नार्को या मिथ्या डिटेक्टर परीक्षणों का अनैच्छिक प्रशासन किसी व्यक्ति की "मानसिक गोपनीयता" में घुसपैठ है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नार्को परीक्षण संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अधीन आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्षी बनने के लिये विवश नहीं किया जाएगा।
- डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला (1997):
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पॉलीग्राफ और नार्कोस परीक्षण का अनैच्छिक प्रशासन, अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय तथा अपमानजनक उपचार होगा।
- उच्चतम न्यायालय की अन्य टिप्पणियाँ:
- नार्को परीक्षण साक्ष्य के रूप में विश्वसनीय या निश्चायक नहीं हैं, क्योंकि वे मान्यताओं और संभावनाओं पर आधारित होते हैं।
- साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अनुसार, स्वैच्छिक रूप से प्रशासित परीक्षण परिणामों की सहायता से बाद में खोजी गई कोई भी जानकारी या सामग्री स्वीकार की जा सकती है।
- उदाहरण के लिये: यदि कोई अभियुक्त नार्को परीक्षण के दौरान किसी भौतिक साक्ष्य (जैसे कि हत्या का हथियार) का स्थान बताता है और पुलिस को बाद में उस स्थान पर वह विशिष्ट साक्ष्य मिलता है, तो अभियुक्त के कथन को साक्ष्य नहीं माना जाएगा, किंतु भौतिक साक्ष्य मान्य होगा।
- इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इस तरह के परीक्षण से गुजरने वाला व्यक्ति केवल सत्य ही बताएगा। निहित स्वार्थों द्वारा परिणामों में हेरफेर और जालसाजी की संभावना बनी रहती है।
- नार्को परीक्षण केवल अभियुक्त की सम्मति से ही किया जा सकता है, और वह भी अभियुक्त को उसके अधिकारों और परिणामों के बारे में सूचित करने के पश्चात्।
- न्यायालय ने इस बात पर भी बल दिया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित 'अभियुक्त पर पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये दिशा-निर्देशों' का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये।