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सांविधानिक विधि

निवारक निरोध एवं जमानत रद्दीकरण

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 12-Jun-2025

धन्या एम. बनाम केरल राज्य 

"निवारक निरोध का प्रयोग केवल आपराधिक अभियोजन के विकल्प के रूप में या जमानत आदेशों को दरकिनार करने के लिये नहीं किया जा सकता है।" 

न्यायमूर्तिसंजय करोल और न्यायमूर्ति मनमोहन   

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने धन्या एम. बनाम केरल राज्यके मामले मेंलोक व्यवस्था' और 'विधि और व्यवस्था' के बीच अंतर स्पष्ट किया और स्पष्ट किया कि निवारक निरोध का प्रयोग केवल आपराधिक अभियोजन के विकल्प के रूप में या जमानत आदेशों को दरकिनार करने के लिये नहीं किया जा सकता है। 

धन्या एम. बनाम केरल राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

पृष्ठभूमि एवं प्रारंभिक परिस्थितियाँ: 

  • राजेश (निरोध में) 'रितिका फाइनेंस' नाम से एकपंजीकृत ऋण देने वाली कंपनी चला रहा था। 
  • वह धन उधार देने की गतिविधियों से संबंधित कई आपराधिक मामलों में सम्मिलित था। 
  • पलक्कड़ के जिला पुलिस प्रमुख नेउसे 'कुख्यात गुंडा'और समाज के लिये खतरा घोषित किया। 

निरुद्ध व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक मामले: 

  • अपराध संख्या 17/2020 : केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17 और केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर प्रतिबंध अधिनियम, 2012 की धारा 3, 9(1)(क) के अधीन कसाबा पुलिस स्टेशन में। 
  • अपराध संख्या 220/2022: केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17 के साथ धारा 3 के अधीन, और केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर निषेध अधिनियम, 2012 की धारा 9()() सहपठित धारा 3 के अंतर्गत टाउन साउथ पुलिस स्टेशन में पंजीकृत 
  • अपराध संख्या 221/2022: भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 294(), 506(झ) और केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17 सहपठित धारा 3 और केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर निषेध अधिनियम, 2012 की धारा 3 के सहपठित धारा 9()(ख) के अधीन।   
  • अपराध संख्या 401/2024 : भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 341, 323, 324, 326; केरल मनी लेंडर्स अधिनियम, 1958 की धारा 17; केरल अत्यधिक ब्याज वसूलने पर निषेध अधिनियम, 2012 की धारा 4, तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3(2), (फक), 3(1)(), 3(1)(ध) के अधीन।  

विधिक कार्यवाही की क्रमिक स्थिति: 

  • जिला मजिस्ट्रेट न्यायालय: 
    • दिनांक 29 मई 2024 को, पालक्काड जिला पुलिस अधीक्षक द्वारा संस्तुति संख्या 54/Camp/2024-P-KAA(P)A प्रस्तुत की गई 
    • 20 जून 2024 को, जिला मजिस्ट्रेट, पलक्कड़ ने केरल असामाजिक गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 2007 की धारा 3(1) के अधीन निरोध का आदेश जारी किया। 
    • इस आदेश के अनुसरण मेंनिरुद्ध व्यक्ति कोअभिरक्षा में ले लिया गया । 
  • उच्च न्यायालय: 
    • धन्या एम. (अपीलककर्त्ता/निरुद्ध व्यक्ति की पत्नी) ने एर्नाकुलम में केरल उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका WP(CRL) संख्या 874/2024 दायर की। 
    • उन्होंने अपने पति की अवैध हिरासत के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने की प्रार्थना की। 
    • 4 सितंबर 2024 को उच्च न्यायालयने चुनौती को खारिज कर दिया और निरोध के आदेश की पुष्टि की। 
  • उच्चतम न्यायालय: 
    • अपीलकर्ता ने विशेष अनुमति याचिका (क्रि.) संख्या 14740/2024 से उत्पन्न आपराधिक अपील संख्या 2897/2025 पेश की।  
    • उच्चतम न्यायालय ने अनुमति प्रदान की और मामले की सुनवाई की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

असाधारण शक्ति के रूप में निवारक निरोध पर: 

  • निवारक निरोध राज्य के हाथ में एक असाधारण शक्ति है जिसका प्रयोग संयम से किया जाना चाहिये 
  • यहआगे अपराध होने की आशंका मेंव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता है।  
  • प्रकृति के सामान्य क्रम में इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये 
  • इस शक्ति को भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 22(3)()के अधीन मान्यता प्राप्त है । 
  • यह अनुच्छेद 21 का अपवाद है और इसे केवल दुर्लभ मामलों में ही लागू किया जाना चाहिये 

सबूत के भार पर: 

  • निवारक निरोध की असाधारण प्रकृति को देखते हुए, यह साबित करने का दायित्त्व निरोधक प्राधिकारी पर है कि कार्रवाई विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुरूप है। 
  • निवारक निरोध की कार्रवाई को संविधान के अनुच्छेद 21 और सुसंगत विधियों के अनुरूप जांचा जाना चाहिये 

लोक व्यवस्था बनाम विधि और व्यवस्था में अंतर: 

  • जो व्यक्ति "लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिये हानिकारक" गतिविधियों में लिप्त होता है, वह अधिनियम के अंतर्गत आता है।  
  • लोक व्यवस्था और विधि-व्यवस्था की स्थिति के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर विद्यमान है। 
  • 'विधि और व्यवस्था' कादायरा व्यापकहै, जबकि लोक व्यवस्था' कादायरा संकीर्ण है। 
  • लोक व्यवस्था पूरे देश या निर्दिष्ट स्थान को लेकर समुदाय के जीवन की समान गति है। 
  • वास्तविक अंतर केवल कार्य की प्रकृति या गुणवत्ता में नहीं है, अपितु समाज पर उसकी पहुँच की डिग्री और सीमा में है। 
  • कुछ व्यक्तियों तक सीमित कृत्यों से सीधे तौर पर विधि और व्यवस्था की समस्या ही उत्पन्न होती है। 
  • जनता के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने वाले कृत्य लोक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। 

वर्तमान मामले का विश्लेषण: 

  • वर्तमान तथ्य एवं परिस्थितियाँलोक व्यवस्था की स्थिति की श्रेणी में नहीं आती हैं। 
  • निरोध आदेश में की गई टिप्पणियों में यह कारण नहीं बताया गया है कि किस प्रकार निरुद्ध व्यक्ति का कार्य राज्य की लोक व्यवस्था के विरुद्ध है। 
  • निरोध में लेने वाले प्राधिकारी द्वारा कोई कारण नहीं बताया गया कि कार्रवाई के लिये असाधारण शक्ति का प्रयोग क्यों आवश्यक है। 
  • प्राधिकारियों ने कहा कि निरुद्ध व्यक्ति जमानत शर्तों का उल्लंघन कर रहा है, किंतु राज्य द्वारा इस तरह के उल्लंघन का अभिकथन करते हुए कोई आवेदन दायर नहीं किया गया। 
  • जमानत की शर्तें भी ठीक से नहीं बताई गईं। 

जमानत रद्द करने के बजाय निवारक निरोध के उपयोग पर: 

  • राज्य को निरुद्ध व्यक्ति को निवारक निरोध के अधीन रखने के बजायउनकी जमानत रद्द करनेके लिये कदम उठाना चाहिये 
  • जब साधारण आपराधिक विधि पर्याप्त साधन उपलब्ध कराती है तोअसाधारण विधि के प्रावधानोंका सहारा नहीं लिया जाना चाहिये 
  • परिस्थितियाँऐसी नहीं थीं किसामान्य आपराधिक प्रक्रिया को दरकिनार कर असाधारण उपाय अपनाए जाएं। 
  • निरोध का आदेशबरकरार नहीं रखा जा सकताक्योंकि परिस्थितियाँ जमानत रद्द करने का आधार हो सकती हैं किंतु निवारक निरोध का नहीं 

निवारक निरोध क्या है? 

सांविधानिक और विधिक ढाँचा: 

  • निवारक निरोध एक कठोर उपाय है जिसके अधीन किसी ऐसे व्यक्ति को, जिस परविचारण न चलाया गया हो और जिसे दोषसिद्ध न ठहराया गया हो, एक निश्चित अवधि के लिये निरोध में रखा जा सकता है। 
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(3)(ख) द्वारा चरम तंत्र को मंजूरी दी गई है। 
  • अनुच्छेद 22 निवारक निरोध के निवारण के समय पालन किये जाने वाले कड़े मानदंडों का उपबंध करता है। 
  • अनुच्छेद 22 में संसद द्वारा निवारक निरोध से संबंधित शर्तें और तौर-तरीके निर्धारित करने हेतु विधि बनाने की बात कही गई है। 
  • निवारक निरोध में व्यक्ति को बिना विचारण चलाए या दोषसिद्ध किये लंबे समय तक निरोध में रखकर उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है। 

सिद्धांत और सुरक्षा उपाय: 

  • सांविधानिक और सांविधिक मानदंडों का उचित अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये निर्धारित सुरक्षा उपायों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये 
  • निवारक निरोध की शक्तिअनुच्छेद 21 का अपवाद हैऔर इसे इसी रूप में लागू किया जाना चाहिये 
  • इसे केवल दुर्लभ मामलों में और मुख्य नियम के अपवाद के रूप में ही लागू किया जाना चाहिये 
  • निवारक निरोध की विधि एक कठोर विधि है और इसका कठोरता से निर्वचन किया जाना चाहिये 
  • इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिये कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को तब तक संकट न हो जब तक कि मामला सुसंगत विधि के दायरे में न आता हो। 

सबूत का भार और मानक: 

  • निरोध में लेने वाले प्राधिकारीपर यह साबित करने का भार हैकि कार्यवाही विधि द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अनुरूप है। 
  • निवारक निरोध की कार्यवाही को संविधान के अनुच्छेद 21 और संबंधित विधि के साथ जांचना होगा। 
  • उपलब्ध सामग्री को ऐसे निरूद्धीकरण को अधिकृत करने वाले विधिक उपबंधों की आवश्यकताओं को पूरा करना होगा। 

प्रयोग पर प्रतिबंध: 

  • इसका प्रयोग केवल आपराधिक अभियोजन में सम्मिलित अभियुक्तों के पर कतरने के लिये नहीं किया जाना चाहिये 
  • निवारक निरोध का आशय यह नहीं है कि उस व्यक्ति को निरुद्ध रखा जाए, जबकि सामान्य दण्ड विधि के अंतर्गत उसे जमानत पर रिहा होने से रोका जाना संभव न हो। 
  • जब किसी व्यक्ति को सक्षम आपराधिक न्यायालय द्वारा जमानत पर रिहा किया जाता है, तो निवारक निरोध आदेशों की वैधता की जांच करते समय बहुत सावधानी बरती जानी चाहिये 
  • विशेषकर तब जब निवारक निरोध उसी आरोप पर आधारित हो जिस पर आपराधिक न्यायालय द्वारा विचारण किया जाना हो।