होम / गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम
आपराधिक कानून
मीरा संतोष पाल और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2017)
«19-Dec-2025
परिचय
यह ऐतिहासिक निर्णय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रजनन स्वायत्तता के सांविधानिक अधिकार को संबोधित करता है तथा यह स्थापित करता है कि महिला का शारीरिक अखंडता एवं जीवन के संरक्षण का अधिकार उस स्थिति में गर्भसमापन के अधिकार को भी सम्मिलित करता है, जब भ्रूण जीवनक्षम (non-viable) न हो और गर्भ को जारी रखना उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता हो, भले ही ऐसा गर्भसमापन गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 के अंतर्गत विहित सांविधिक गर्भावधि सीमाओं से परे ही क्यों न हो।
तथ्य
- 22 वर्षीय मीरा संतोष पाल ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर अपनी गर्भावस्था को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने की अनुमति मांगी।
- उसके गर्भस्थ शिशु में एनेनसेफली नामक एक गंभीर जन्मजात विकार का पता चला, जिसमें खोपड़ी की हड्डियां अविकसित होती हैं। यह विकार लाइलाज और लगभग सदैव के लिये घातक होता है, जिसके कारण शिशु की मृत्यु जन्म के दौरान या जन्म के तुरंत बाद हो जाती है। इस स्थिति से माता का जीवन भी खतरे में पड़ गया था।
- 12 जनवरी, 2017 तक, याचिकाकर्त्ता अपनी गर्भावस्था के 24वें सप्ताह में थी, जो विशेष अनुमति के बिना गर्भपात के लिये गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम के अधीन सांविधिक सीमा से अधिक थी।
- उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थियों को नोटिस जारी किया और मुंबई के KEM अस्पताल के सात सदस्यीय मेडिकल बोर्ड द्वारा परीक्षा का निदेश दिया, जिसमें चिकित्सा शिक्षा, मनोचिकित्सा, चिकित्सा, एनेस्थीसिया, प्रसूति एवं स्त्री रोग और रेडियोलॉजी के विशेषज्ञ सम्मिलित थे।
- मेडिकल बोर्ड ने 12 जनवरी, 2017 को व्यापक मूल्यांकन किया, जिसमें सामान्य चिकित्सा, रेडियोलॉजिकल, मनोरोग और एनेस्थेटिक आकलन के साथ-साथ दो प्रसूति विशेषज्ञों द्वारा प्रसूति संबंधी मूल्यांकन और अल्ट्रासोनोग्राफी सम्मिलित थी।
- बोर्ड की जांच से पुष्टि हुई कि 24 सप्ताह की गर्भावस्था में एक जीवित भ्रूण था जो एनेनसेफली, हल्के पॉलीहाइड्रामनिओस और हाइपोटेलोरिज्म से पीड़ित था। भ्रूण में खोपड़ी नहीं थी और वह गर्भाशय के बाहर जीवित नहीं रह सकता था।
- मनोचिकित्सीय मूल्यांकन से पता चला कि याचिकाकर्त्ता होश में थी, औसत बुद्धि और अच्छी समझ रखती थी, अपने भ्रूण की असामान्यता और भ्रूण मृत्यु के उच्च जोखिम को समझती थी, और निर्णय लेने में उसे अपने पति का समर्थन प्राप्त था।
- मेडिकल बोर्ड ने निष्कर्ष निकाला कि भ्रूण की स्थिति गर्भाशय के बाहर जीवन के अनुकूल नहीं थी, और गर्भावस्था जारी रखने से याचिकाकर्त्ता के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर खतरा होगा, जबकि संस्थागत सहायता के साथ गर्भपात का जोखिम स्वीकार्य सीमा के अंदर रहा।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या याचिकाकर्त्ता को अनुच्छेद 21 के अधीन गर्भावस्था को सांविधिक गर्भकालीन सीमा से परे समाप्त करने का सांविधानिक अधिकार है, जब भ्रूण में जीवन के लिये असंगत घातक असामान्यता का निदान किया जाता है और गर्भावस्था जारी रखना उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता है?
- क्या शारीरिक अखंडता और प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार किसी महिला को गर्भावस्था को समाप्त करने का सूचित विकल्प चुनने की अनुमति देता है, जब चिकित्सकीय साक्ष्य यह स्थापित करते हैं कि भ्रूण गर्भाशय के बाहर जीवित नहीं रह सकता है?
- क्या परिस्थितियाँ गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 की धारा 3(2)(i) के अंतर्गत आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, जो गर्भ के समापन की अनुमति तब देती है जब गर्भावस्था जारी रखने से गर्भवती महिला के जीवन को खतरा हो या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट पहुँचती हो?
न्यायालय की टिप्पणियां
प्रजनन संबंधी अधिकार मौलिक अधिकारों के रूप में:
- न्यायालय ने सुचिता श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (2009) के मामले में स्थापित पूर्व निर्णय का हवाला दिया, जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि प्रजनन संबंधी निर्णय लेने का महिला का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक आयाम है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि प्रजनन संबंधी विकल्पों में संतानोत्पत्ति का अधिकार और संतानोत्पत्ति से परहेज करने का अधिकार दोनों सम्मिलित हैं।
- निजता, गरिमा और शारीरिक अखंडता का अधिकार:
- न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि प्रजनन अधिकारों में एक महिला के निजता, गरिमा और शारीरिक अखंडता के अधिकार का सम्मान करना सम्मिलित है।
- इन अधिकारों का अर्थ यह है कि प्रजनन संबंधी विकल्पों के प्रयोग पर कोई निर्बंधन नहीं होना चाहिये, जिसमें गर्भावस्था को जारी रखने या समाप्त करने के बारे में निर्णय लेना भी सम्मिलित है।
जीवन और आत्मरक्षा का अधिकार:
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के संभावित खतरे से अपने जीवन की रक्षा करने के अधिकार पर ध्यान केंद्रित किया, यह देखते हुए कि चूँकि भ्रूण खोपड़ी के बिना गर्भाशय के बाहर जीवित नहीं रह सकता है, इसलिये गर्भावस्था को पूर्ण अवधि तक जारी रखने का कोई चिकित्सा या विधिक औचित्य नहीं है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि याचिकाकर्त्ता ने अपनी स्थिति की चिकित्सीय वास्तविकताओं को समझने के बाद सोच-समझकर निर्णय लिया था।
गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम के प्रावधानों का अनुप्रयोग:
- यद्यपि यह स्वीकार करते हुए कि गर्भावस्था 24वें सप्ताह में पहुँच चुकी थी, न्यायालय ने माना कि मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट से स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकलता है कि गर्भावस्था को जारी रखने से गर्भवती महिला के जीवन को खतरा है और उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट लगने की संभावना है, जो गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 की धारा 3(2)(i) की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
निष्कर्ष
यह निर्णय प्रजनन अधिकारों के सांविधानिक संरक्षण को सुदृढ़ करता है और यह स्थापित करता है कि जब गर्भावस्था में अविकसित भ्रूण शामिल हो और महिला के स्वास्थ्य के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न हो, तो महिला के जीवन और स्वास्थ्य का संरक्षण सर्वोपरि है, साथ ही प्रजनन संबंधी विकल्पों में सूचित सहमति और निर्णय लेने की स्वायत्तता के मौलिक महत्त्व को भी मान्यता देता है।