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सिविल कानून
लंबित वाद के सिद्धांत का समावेश
« »18-Dec-2025
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दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य "लंबित वाद का सिद्धांत उन धन-वसूली वादों पर भी लागू होता है जहाँ ऋण बंधक द्वारा सुरक्षित होता है, तथा यह वाद की लंबित रहने के दौरान संपत्ति के अंतरण पर प्रतिबंध लगाता है, चाहे कार्यवाही विवादित हो या एकपक्षीय।" न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने यह निर्णय दिया कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 52 के अधीन वाद के लंबित का सिद्धांत बंधक रखी गई संपत्ति से जुड़े धन वसूली वादों पर भी लागू होता है, और अंतरण पर रोक इस बात से अप्रभावित रहता है कि कार्यवाही विवादित है या एकपक्षीय है।
दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 1970 में, दुली चंद ने ट्रैक्टर ऋण के लिये न्यू बैंक ऑफ इंडिया के पक्ष में संपत्ति बंधक रखी थी।
- संदाय में व्यतिक्रम होने पर, बैंक ने बंधक द्वारा समर्थित बकाया राशि की वसूली के लिये वाद दायर किया।
- बैंक ने 1984 में धन वसूली के लिये एकपक्षीय आदेश प्राप्त किया।
- वाद के लंबित रहने के दौरान और डिक्री के बाद, दो क्रेताओं (प्रत्यर्थी 1 और 2) ने 1985 में निर्णीतऋणियों में से एक से बंधक रखी गई भूमि के कुछ हिस्से खरीदे।
- निष्पादन कार्यवाही में, गिरवी रखी गई पूरी संपत्ति की 1988 में नीलामी की गई थी।
- अपीलकर्त्ताओं, जो एक निर्णीतऋणी के पुत्र हैं, को ₹35,000 की उच्चतम बोली लगाने वाला घोषित किया गया था, और विक्रय की पुष्टि अगस्त 1988 में की गई थी।
- जून 1989 में अपीलकर्त्ताओं को कब्जा सौंप दिया गया था।
- जुलाई 1989 में, प्रत्यर्थियों ने अनियमितताओं और कपट का आरोप लगाते हुए, नीलामी विक्रय को शून्य घोषित करने की मांग करते हुए एक पृथक् सिविल वाद दायर किया।
- विचारण न्यायालय, अपीलीय न्यायालय और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्थियों के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए उन्हें स्वामी घोषित किया और संयुक्त कब्जा प्रदान किया।
- तत्पश्चात् प्रतिवादी-अपीलकर्त्ताओं ने इन समवर्ती निष्कर्षों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का रुख किया।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि बंधक रखी गई संपत्ति "प्रत्यक्ष और विशिष्ट रूप से प्रश्न के दायरे में" आ जाती है, जैसे ही कोई बैंक बंधक द्वारा समर्थित बकाया राशि की वसूली के लिये वाद दायर करता है।
- वाद के लंबित रहने के दौरान, या डिक्री के पूर्ण रूप से संतुष्ट होने तक, ऐसी संपत्ति का कोई भी अंतरण लंबित वाद के सिद्धांत के अंतर्गत आएगा।
- न्यायालय ने इस तर्क को नामंजूर कर दिया कि धारा 52 लागू नहीं होगी क्योंकि मूल डिक्री केवल एक साधारण धन संबंधी डिक्री थी, यह स्पष्ट करते हुए कि डिक्री की प्रकृति निर्णायक नहीं है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 52 में "कोई भी वाद" और "कोई भी अधिकार" जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो सिद्धांत के दायरे को व्यापक बनाने के विधायिका के आशय को दर्शाता है।
- न्यायालय ने कहा कि एकपक्षीय कार्यवाही को अपवर्जित करने से एक पक्षकार जानबूझकर न्यायालय से दूर रह सकेगा, लंबित कार्यवाही के दौरान संपत्ति का अंतरण कर सकेगा और न्यायनिर्णय को विफल कर सकेगा।
- न्यायालय ने दोहराया कि किसी वाद की "लंबितता" वाद प्रस्तुत करने की तिथि से प्रारंभ होता है और तब तक जारी रहती है जब तक कि डिक्री पूरी तरह से तुष्ट नहीं हो जाती या परिसीमा के कारण अप्रवर्तनीय नहीं हो जाती।
- इसलिये यह सिद्धांत न केवल विचारण के दौरान अपितु निष्पादन की कार्यवाही के दौरान भी लागू होता है।
- न्यायालय ने यह माना कि वाद के लंबित रहने के दौरान अन्तरिति को नोटिस मिलने के बावजूद मुकदमे के परिणाम से बाध्य होना पड़ता है।
- वसूली वाद के लंबित रहने के दौरान बंधक रखी संपत्ति का क्रेता उस अधिकार से अधिक कोई अधिकार प्राप्त नहीं करता है जो बंधककर्त्ता के पास अंतरण के समय था।
- चूँकि अपीलकर्त्ताओं के पक्ष में नीलामी विक्रय की पुष्टि हो गई थी, इसलिये संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 के अनुसार प्रत्यर्थी नीलामी विक्रय से बाध्य थे।
- न्यायालय ने निचले न्यायालय के एकसमान निर्णयों को अपास्त कर दिया और अपील को स्वीकार कर लिया।
लंबित वाद (Lis Pendens) का सिद्धांत क्या है?
बारे में:
- Lis pendens एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है "लंबित मुकदमा"।
- यह एक विधिक सूक्ति "pendente lite nihil innoveture" पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि मुकदमे की लंबितता के दौरान कुछ भी नया पेश नहीं किया जाना चाहिये।
- भारत में लंबित वाद का सिद्धांत संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TOPA) की धारा 52 के अंतर्गत निहित है।
- यह धरा किसी वाद या कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान संपत्ति के अंतरण के प्रभाव से संबंधित है।
- यह साम्य और लोक नीति पर आधारित है।
संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 का विधिक ढाँचा:
संपत्ति संबंधित वाद के लंबित रहते हुए संपत्ति का अंतरण —
- भारत की सीमाओं के अंदर प्राधिकारवान् या केंद्रीय सरकार द्वारा ऐसे सीमाओं के परे स्थापित किसी न्यायालय में ऐसे वाद या कार्यवाही के लंबित रहते हुए जो दुस्संधिपूर्ण न हो और जिसमें स्थावर संपत्ति का कोई अधिकार प्रत्यक्षत: और विनिर्दिष्टतः प्रश्नगत हो, वह संपत्ति उस वाद या कार्यवाही के किसी भी पक्षकार द्वारा उस न्यायालय के प्राधिकार के अधीन और ऐसे निर्बंधनों के साथ, जैसे वह अधिरोपित करे, अंतरित या व्ययनित की जाने के सिवाय ऐसे अंतरित या अन्यथा व्ययनित नहीं की जा सकती कि उससे किसी अन्य पक्षकार के किसी डिक्री या आदेश के अधीन, जो उसमें दिया जाय, अधिकारों पर प्रभाव पड़े।
- किसी वाद या कार्यवाही का लंबन इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस तारीख से प्रारंभ हुआ समझा जाएगा जिस तारीख को सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में वह वादपत्र प्रस्तुत किया गया या वह कार्यवाही संस्थित की गयी और तब तक चलता हुआ समझा जाएगा जब तब उस वाद या कार्यवाही का निपटारा अंतिम डिक्री या आदेश द्वारा न हो गया हो और ऐसी डिक्री या आदेश की पूरी तुष्टि या उन्मोचन अभिप्राप्त न कर लिया गया हो या तत्समय प्रवृत्त विधि द्वारा उसके निष्पादन के लिये विहित किसी अवधि के अवसान के कारण वह अनभिप्राप्य न हो गया हो।
लंबित वाद के आवश्यक तत्त्व:
- वाद या कार्यवाही लंबित होनी चाहिये।
- वाद दुस्संधिपूर्ण नहीं होना चाहिये।
- स्थावर संपत्ति से संबंधित अधिकारों के लिये तर्क प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- स्थावर संपत्ति के अधिकार पर प्रत्यक्ष और विशिष्ट रूप से प्रश्नचिह्न लगा होना चाहिये।
लंबित वाद का उद्देश्य:
- लंबित वाद के सिद्धांत के पीछे अंतर्निहित सिद्धांत यह है कि विधिक कार्यवाही में सम्मिलित पक्षकारों के अधिकारों की रक्षा की जाए और पक्षकारों को वाद के लंबित रहने के दौरान विवाद के विषय को इस तरह से अंतरित करने से रोका जाए जिससे मुकदमे के अंतिम परिणाम को विफल कर सकता है।
- यह सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि किसी वाद के लंबित रहने के दौरान संपत्ति में हित प्राप्त करने वाला पर-पक्षकार उस वाद के परिणाम से बाध्य होना चाहिये।
लंबित वाद के अधीन शून्य अंतरण की अवधारणा:
- जब किसी न्यायालय में कोई वाद या कार्यवाही लंबित हो और स्थावर संपत्ति उस वाद या कार्यवाही का विषय हो, तो उस वाद या कार्यवाही के किसी भी पक्षकार द्वारा उस संपत्ति का कोई भी अंतरण उस वाद या कार्यवाही के परिणामस्वरूप प्राप्त डिक्री या आदेश के अधीन संपत्ति में हित प्राप्त करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध शून्य होगा।
- इस धारा में निर्दिष्ट अंतरण, वाद या कार्यवाही के संस्थित की तारीख से पश्चात्वर्ती अंतरिती के विरुद्ध शून्य है।
- इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति किसी वाद के लंबित रहने के दौरान स्थावर संपत्ति का अंतरण करता है, और उस वाद में न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप किसी अन्य व्यक्ति को संपत्ति में कोई अधिकार प्राप्त होता है, तो वाद के लंबित रहने के दौरान किया गया अंतरण शून्य माना जाएगा।
लंबित वाद के अपवाद:
- यह धारा किसी ऐसे वाद या कार्यवाही में दिये गए निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रवर्तन को प्रभावित नहीं करती है जिसमें ऐसे अंतरण को चुनौती नहीं दी गई हो ।
- यह सिद्धांत उन वाद पर लागू नहीं होता जहाँ संपत्ति की पहचान न हो सके।
- यह सिद्धांत दुस्संधिपूर्ण से संबंधित वादों पर लागू नहीं होता है।