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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन परिवाद

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 16-Jun-2025

परिचय 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023, भारत के आपराधिक प्रक्रियात्मक विधि में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती है, जिसने पूर्ववर्ती दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 का स्थान लिया है। इसके विभिन्न उपबंधों में, परिवाद के मामलों को नियंत्रित करने वाली प्रक्रियाओं में उल्लेखनीय संशोधन हुए हैं, विशेष रूप से धारा 223-226 में, जो मजिस्ट्रेट के समक्ष आपराधिक परिवादों की शुरुआत और प्रसंस्करण के लिये अधिक संरचित और व्यापक ढाँचा स्थापित करते हैं। 

धारा 223: परिवादकर्त्ता की परीक्षा 

  • उपधारा (1): सामान्य प्रक्रिया 
    • परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान लेने वाले मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों की शपथपूर्वक परीक्षा करनी चाहिये 
    • परीक्षा का सारांश लेखबद्ध करते हुए अभिलिखित किया जाना चाहिये तथा उस पर परिवादकर्त्ता, साक्षियों और मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षर किये जाने चाहिये 
    • अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना कोई संज्ञान नहीं लिया जा सकता। 
    • यदि परिवाद सरकारी कर्मचारी या न्यायालय द्वारा किया जाता है तो मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों से पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है। 
    • यदि मामला धारा 212 के अंतर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को अंतरित कर दिया जाता है तो भी परीक्षा की आवश्यकता नहीं होती। 
    • यदि परीक्षा के पश्चात् मामला अंतरित कर दिया जाता है, तो नए मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों से फिर से परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती। 
  • धारा 223(2) - लोक सेवकों के लिये विशेष उपबंध: 
    • कोई मजिस्ट्रेट किसी लोक सेवक के विरुद्ध उसके शासकीय कृत्यों के निर्वहन के दौरान कारित किया जाना अभिकथित किये गए किसी के लिये परिवाद पर संज्ञान नहीं ले सकता। 
    • लोक सेवक को उस परिस्थिति के बारे में प्राख्यान करने का अवसर दिया जाना चाहिये जिसके कारण अभिकथित घटना घटित हुई 
    • घटना का संज्ञान लेने से पूर्व लोक सेवक के वरिष्ठ अधिकारी से घटना के संबंध में तथ्यात्मक रिपोर्ट प्राप्त की जानी चाहिये 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के बीच तुलना: 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223  

परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट, परिवादी की और यदि कोई साक्षी उपस्थित है तो उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध किया जाएगा और परिवादी और साक्षियों द्वारा तथा मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षरित किया जाएगा: 

परंतु जब परिवाद लिख कर किया जाता है तब मजिस्ट्रेट के लिये परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करना आवश्यक न होगा- 

(क) यदि परिवाद अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने वाले या कार्य करने का तात्पर्य रखने वाले लोक सेवक द्वारा या न्यायालय द्वारा किया गया है, अथवा 

(ख) यदि मजिस्ट्रेट जांच या विचारण के लिये मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले कर देता है: 

परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात् मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद वाले मजिस्ट्रेट के लिये उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक न होगा। 

(1) जब अधिकारिता रखने वालामजिस्ट्रेट, परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान करेगा तब परिवादी की और यदि कोई साक्षी उपस्थित है तो उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध किया जाएगा और परिवादी और साक्षियों द्वारा तथा मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षरित किया जाएगा: 

परंतु किसी अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना नहीं किया जाएगा: (नया जोड़ा गया) 

परंतु यह और कि जब परिवाद लिख कर किया जाता है तब मजिस्ट्रेट के लिये परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करना आवश्यक न होगा- 

(क) यदि परिवाद अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने वाले या कार्य करने का तात्पर्य रखने वाले लोक सेवक द्वारा या न्यायालय द्वारा किया गया है; या 

(ख) यदि मजिस्ट्रेट जांच या विचारण के लिये मामले को धारा 212 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले कर देता है: 

परंतु यह भी कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात् मामले को धारा 212 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद वाले मजिस्ट्रेट के लिये उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक न होगा 

(2) कोई मजिस्ट्रेट किसी लोक सेवक के विरूद्ध उसके शासकीय कृत्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान कारित किया जाना अभिकथित किये गए किसी अपराध के लिये परिवाद पर संज्ञान नहीं लेगा, यदि- 

(क) ऐसे लोक सेवक को उस परिस्थिति के बारे में प्राख्यान करने का अवसर नहीं दिया जाता है, जिसके कारण अभिकथित घटना घटित हुई; और 

(ख) ऐसे लोक सेवक के वरिष्ठ अधिकारी से घटना के तथ्यों और परिस्थितियों के अंतर्विष्ट करने वाली रिपोर्ट प्राप्त नहीं होती है। 

 धारा 224 - अक्षम मजिस्ट्रेट के लिये प्रक्रिया 

  • यदि परिवाद ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष की जाती है जिसके पास अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार नहीं है, तो विशिष्ट प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिये 
  • लिखित परिवादों के लिये, मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता को परिवाद वापस करना होगा जिससे वह उचित न्यायालय में प्रस्तुत की जा सके, साथ ही उचित न्यायालय का उल्लेख भी करना होगा। 
  • मौखिक परिवादों के लिये, मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता को उचित न्यायालय में जाने का निदेश देना चाहिये, जिसके पास मामले की अधिकारिता हो। 
  • यह उपबंध यह सुनिश्चित करता है कि परिवाद, परिवादकर्त्ता के लिये अनावश्यक विलंब या प्रक्रियात्मक जटिलता उत्पन्न किये बिना, उचित न्यायिक प्राधिकारी तक पहुँचे 
  • यह उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 201 के समान है। 

धारा 225 - आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करना  

  • धारा 225(1) - मुल्तवी करना और अन्वेषण: 
    • मजिस्ट्रेट अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही मुल्तवी कर सकता है तथा अन्वेषण कर सकता है या यह निर्धारित करने के लिये जांच का निदेश दे सकता है कि कार्यवाही के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान हैं या नहीं। 
    • यदि अभियुक्त मजिस्ट्रेट की अधिकारिता से बाहर रहता है तो उसे आदेशिका का जारी किया जाना मुल्तवी करना होगा 
    • मजिस्ट्रेट या तो स्वयं मामले की जांच कर सकते हैं या किसी पुलिस अधिकारी या अन्य उपयुक्त व्यक्ति को अन्वेषण करने का निदेश दे सकते हैं। 
    • यदि अपराध का विचारण विशेष रूप से सेशन न्यायालय द्वारा किया जा सकता है तो कोई जांच निदेशित नहीं की जा सकती। 
    • जब तक परिवादकर्त्ता और साक्षियों की धारा 223 के अनुसार शपथ के अधीन परीक्षा नहीं की जाती, तब तक अन्वेषण का निदेश नहीं दिया जा सकता, सिवाय तब, जब परिवाद न्यायालय द्वारा किया गया हो। 
  • धारा 225(2) - जांच प्रक्रिया: 
    • जांच के दौरान मजिस्ट्रेट स्वयं के विवेकानुसार साक्षियों से शपथ पर साक्ष्य ले सकता है। 
    • यदि अपराध का विचारण विशेष रूप से सेशन न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, तो मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता से सभी साक्षियों को पेश करने तथा शपथ पर उनसे पूछताछ करने की मांग करनी चाहिये 
  • धारा 225(3) - पुलिस से भिन्न अन्वेषकों की शक्तियां: 
    • जब कोई पुलिस अधिकारी से भिन्न व्यक्ति इस धारा के अधीन अन्वेषण करता है, तो उसे बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने की शक्ति को छोड़कर पुलिस थाना प्रभारी की सभी शक्तियां प्राप्त होती हैं। 
    • यह उपबंध पुलिस कर्मियों से भिन्न व्यक्तियों के लिये की गिरफ्तारी शक्तियों पर उचित परिसीमाएँ बनाए रखते हुए प्रभावी अन्वेषण सुनिश्चित करता है। 
    • यह उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के समान है। 
  • धारा 226 - परिवाद का खारिज किया जाना  
    • मजिस्ट्रेट को निर्णय लेने से पूर्व परिवादकर्त्ता और साक्षियों के शपथ-बद्ध कथनों सहित सभी उपलब्ध साक्ष्यों पर विचार करना चाहिये 
    • मजिस्ट्रेट को धारा 225 के अंतर्गत की गई किसी भी जांच या अन्वेषण के परिणामों पर भी विचार करना होगा। 
    • यदि मजिस्ट्रेट की राय है कि कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं, तो वह परिवाद खारिज कर देना 
    • मजिस्ट्रेट को ऐसे प्रत्येक मामले में परिवाद खारिज करने के अपने कारणों को संक्षेप में अभिलिखित करना आवश्यक है। 
    • यह उपबंध सुनिश्चित करता है कि तर्कपूर्ण आदेशों के माध्यम से न्यायिक जवाबदेही बनाए रखते हुए तुच्छ या निराधार परिवादों को छांट दिया जाए। 

महत्त्वपूर्ण न्यायिक निर्णय  

  • कुशल कुमार अग्रवाल बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2025): 
    • उच्चतम न्यायालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम (Prevention of Money Laundering Act - PMLA), 2002 के अधीन परिवादों का संज्ञान लेने की प्रक्रिया को स्पष्ट किया। 
    • विशेष रूप से, यह निर्णय धन शोधन निवारण अधिनियम की धारा 44(1)(ख) से संबंधित है, जो धन शोधन अपराधों का संज्ञान लेने की प्रक्रिया से संबंधित है। 
    • न्यायालय ने कहा कि किसी विशेष न्यायालय को धन शोधन निवारण अधिनियम परिवाद का संज्ञान लेने से पहले भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223(1) के उपबंध के अधीन प्रदत्त प्रक्रियात्मक सुरक्षा का अनुपालन करना होगा। 
    • इस उपबंध के अनुसार, विशेष न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने से पहले अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिये 
    • इससे प्रक्रियागत निष्पक्षता सुनिश्चित होती है तथा धन शोधन मामलों में अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा होती है। 
  • अशोक और फ़ैयाज़ अहमद (2025): 
    • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 223 के प्रथम उपबंध के अनुसार संज्ञान लेने से पूर्व अभियुक्त को सुनने की आवश्यकता, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act)की धारा 138 के अधीन परिवादों परलागू नहीं होती है । 
    • न्यायालय ने तर्क दिया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम एकविशेष अधिनियमहै, और इसके उपबंध ऐसे मामलों में प्राथमिकता रखते हैं। 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 5औरपरक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 143का हवाला देते हुए , न्यायालय ने निर्णय दिया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन संक्षिप्त प्रक्रिया धारा 138 के अधीन मामलों को नियंत्रित करती है। 
    • इसलिये, मजिस्ट्रेटों कोचेक प्राप्तकर्त्ता या धारक द्वारा दायर किये गए परिवादों का संज्ञान लेने से पहले अभियुक्त को सुनवाई का अवसर प्रदान करने कीआवश्यकता नहीं है। 
    • इस निर्वचन का उद्देश्यचेक अनादरण के मामलों के लिये परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन निर्धारितत्वरित सुनवाई तंत्र को बनाए रखना है। 
  • मोहम्मद अफ़ज़ल बेघ बनाम नूर हुसैन (2025): 
    • जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 142 की व्याख्या एक सर्वोपरी खण्ड के रूप में की, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता/भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन सामान्य प्रक्रियाओं को दरकिनार कर देता है। 
    • यद्यपि, धारा 142 केवल पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संज्ञान करने को वर्जित  करती है, परिवादों पर नहीं। यह अनिवार्य करता है कि वाद-हेतुक के एक मास के भीतर चेक पाने वाले द्वारा लिखित परिवाद दर्ज किया जाना चाहिये 
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 142 मजिस्ट्रेट को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन पूर्व-संज्ञान नोटिस जारी करने से नहीं रोकती है। 
    • न्यायमूर्ति वानी ने कहा कि इस तरह का पूर्व-संज्ञान नोटिस जारी करना अवैध नहीं है, क्योंकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 न्यायोन्मुख है और परक्राम्य लिखत अधिनियम ढाँचे का पूरक है। 
    • न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223, दण्ड प्रक्रिया संहिता की निरस्त धारा 200 के विपरीत, प्रारंभिक संज्ञान के दौरान अभियुक्त के किसी भी वैध प्रतिरक्षा का आकलन करने के लिये पूर्व-संज्ञान नोटिस जारी करने की अनुमति देती है। 
    • यह प्रक्रियात्मक कदम मजिस्ट्रेट को परिवाद का संज्ञान लेने से पहले ही अधिक सूचित निर्णय लेने में सहायता करता है। 
    • यद्यपि, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 का अनुपालन न करना, जैसे कि पूर्व-संज्ञान नोटिस जारी न करना या परिवादकर्त्ता/साक्षी से शपथ पर पूछताछ न करना, कार्यवाही को अमान्य नहीं करता है। 
  • सुबी एंटनी बनाम आर.1 (2025): 
    • यह निर्णय केरल उच्च न्यायालय द्वारा सुनाया गया। 
    • न्यायालय ने टिप्पणी की कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 200, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 (1) के समतुल्य है।  
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 में एक नया उपबंध जोड़ा गया है, जो यह उपबंध करता है कि अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा। 
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन, अभियुक्त को उस स्तर पर भी कोई अधिकार नहीं है, जहाँ मजिस्ट्रेट यह निर्णय लेता है कि अभियुक्त को आदेशिका जारी की जाए या नहीं। 
    • इसके अतिरिक्त, यह अवलोकन किया गया कि धारा 223(1) के उपबंध के होते हुए भी, संज्ञान लेने से पूर्व अभियुक्त को सुनवाई का अवसर प्रदान करना अनिवार्य है, धारा 226 संज्ञान लेने के चरण में अभियुक्त की आपत्ति को परिवाद को खारिज करने के लिये सुसंगत कारक के रूप में नहीं मानती है। 
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि मजिस्ट्रेट को पहले परिवादकर्त्ता और साक्षियों की शपथ पर परीक्षा करनी चाहिये और उसके पश्चात्, यदि मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेना चाहता है, तो अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिये 

निष्कर्ष 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 223 से 226 मजिस्ट्रेट के समक्ष आपराधिक परिवादों से निपटने के लिये एक आधुनिक और संरचित ढाँचा प्रदान करती है, जिससे प्रक्रियात्मक सुरक्षा और स्पष्टता बढ़ती है। संज्ञान से पूर्व अभियुक्त की सुनवाई की नई शुरू की गई आवश्यकता आपराधिक कार्यवाही में अधिक निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करती है।