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आपराधिक कानून
धारा 216 CrPC के अंतर्गत आरोप हटाए नहीं जा सकते
21-Apr-2025
राजस्व खुफिया निदेशालय एवं अन्य बनाम राज कुमार अरोड़ा एवं अन्य "यह दोहराया जाता है कि CrPC की धारा 216 की भाषा केवल आरोपों को परिवर्द्धित और उपांतरित करने के लिये प्रावधानित करती है, न कि किसी आरोप को हटाने या आरोपमुक्त करने के लिये।" न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि CrPC की धारा 216 के अंतर्गत आरोपों को हटाया नहीं जा सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने राजस्व खुफिया निदेशालय बनाम राज कुमार अरोड़ा (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
राजस्व खुफिया निदेशालय बनाम राज कुमार अरोड़ा (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 27 सितंबर, 2003 को राजस्व खुफिया विभाग के मुख्यालय (DRI(HQ)) को नई दिल्ली में एक कार्यालय में ब्यूप्रेनॉर्फिन युक्त अवैध काँच की शीशियों के विषय में सूचना प्राप्त हुई।
- DRI अधिकारियों ने दिल्ली कार्यालय परिसर एवं हरियाणा के जींद में मेसर्स विन ड्रग्स लिमिटेड में एक साथ तलाशी ली।
- दिल्ली में तलाशी के दौरान, अधिकारियों को परिसर में राज कुमार अरोड़ा (प्रतिवादी संख्या 1) मिला और 25 कार्टन बरामद हुए, जिनमें ब्यूप्रेनॉर्फिन हाइड्रोक्लोराइड के 40,000 बिना लेबल वाले और 1 लेबल वाले काँच के शीशे थे।
- हरियाणा स्थित फैसिलिटी में, अधिकारियों ने अतिरिक्त 23,400 ब्यूप्रेनॉर्फिन इंजेक्शन एवं 100 ग्राम ब्यूप्रेनॉर्फिन पाउडर जब्त किया।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने एक अभिकथन दिया जिसमें उसने स्वयं, मोहम्मद शबर खान (प्रतिवादी संख्या 2), देवांग बिपिन पारेख (प्रतिवादी संख्या 3) और विन ड्रग्स लिमिटेड के नरेश मित्तल के साथ ब्यूप्रेनॉरफिन के अवैध निर्माण, भंडारण एवं वितरण में शामिल होने के नेटवर्क का प्रकटन किया।
- बाद में तीनों प्रतिवादियों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन पर नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (NDPS अधिनियम) की धारा 22 एवं 29 के अंतर्गत आरोप लगाए गए।
- विशेष न्यायालय ने 8 फरवरी, 2005 को प्रतिवादियों के विरुद्ध आरोप तय किये, जिसमें उनकी संलिप्तता के प्रथम दृष्टया साक्ष्य पाए गए।
- उच्च न्यायालय ने सभी प्रतिवादियों को जमानत दे दी, जिससे यह प्रश्न उठा कि क्या ब्यूप्रेनॉरफिन हाइड्रोक्लोराइड NDPS अधिनियम के अंतर्गत आता है या इसे ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 (D & C एक्ट) के अंतर्गत विनियमित किया जाना चाहिये।
- प्रतिवादियों ने आरोप में संशोधन/परिवर्द्धन के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 216 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया, जिसे विशेष न्यायाधीश ने स्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि मामले को NDPS अधिनियम के बजाय D & C अधिनियम के अंतर्गत विचारित किया जाना चाहिये।
- इस आदेश के विरुद्ध अपीलकर्त्ता की पुनरीक्षण याचिका को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, जिसमें उत्तरांचल राज्य बनाम राजेश कुमार गुप्ता में उच्चतम न्यायालय के तर्क का पालन किया गया था कि यदि कोई दवा NDPS नियमों की अनुसूची I में सूचीबद्ध नहीं है, तो NDPS अधिनियम की धारा 8 लागू नहीं होगी।
- उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि इस मामले को NDPS मामले के बजाय D & C अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण किया जाना चाहिये।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने CrPC की धारा 216 के अंतर्गत आरोपों में परिवर्द्धन की विधि पर चर्चा की।
- न्यायालय ने पाया कि प्रावधान के अनुसार न्यायालय को किसी भी आरोप को “जोड़ने” या “परिवर्द्धित करने” का अधिकार है। प्रावधान में स्पष्ट रूप से वह चरण नहीं बताया गया है जिसके बाद धारा 216 CrPC के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है। हालाँकि तर्क यह है कि इसका प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है जब CrPC की धारा 228 के अंतर्गत आरोप तय हो जाए।
- यदि कोई आरोप तय नहीं किया जाता है तो उसे जोड़ने या परिवर्द्धित करने की कोई स्थिति नहीं बनती है। स्वाभाविक परिणाम के रूप में यदि किसी अभियुक्त को पहले ही धारा 227 CrPC के अंतर्गत आरोपमुक्त कर दिया गया है, तो धारा 216 CrPC के अंतर्गत कोई भी आवेदन या कार्यवाही स्वीकार्य नहीं होगी।
- न्यायालय ने आगे कहा कि पी. रामनाथ अय्यर ने अपने लॉ लेक्सिकन (6वें संस्करण) में "परिवर्द्धन" को "परिवर्तित करना; संशोधित करना; कुछ सीमा तक उपांतरित करना" के रूप में परिभाषित किया है।
- परिवर्द्धन के एक मामले को स्पष्ट करने के लिये न्यायालय ने कहा:
- मान लीजिए कि किसी अभियुक्त पर प्रारंभ में IPC धारा 323 के अंतर्गत साधारण चोट के लिये आरोप लगाया जाता है। अगर ट्रायल कोर्ट की राय है कि मामला वास्तव में गंभीर चोट का है, तो वह धारा 325 IPC के अंतर्गत अपराध के लिये अभियुक्त के आरोप को परिवर्द्धित कर सकता है। यह एक परिवर्द्धन होगा क्योंकि व्यापक विषय वस्तु वही रहती है। इसके अतिरिक्त, संशोधन का अर्थ यह होगा कि विषय में किये गए संशोधन से उसमें सुधार होता है, जो कि परिवर्द्धन के मामले में आवश्यक नहीं है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संशोधन में परिवर्द्धन शामिल हो सकता है, लेकिन परिवर्द्धन हमेशा संशोधन नहीं करता।
- न्यायालय ने देखा कि CrPC की धारा 216 न्यायालय को एक आरोप को परिवर्द्धित करने और दो आरोप में शमनीय करने की शक्ति प्रदान करती है।
- हालाँकि, प्रावधान का अर्थ यह नहीं है कि न्यायालय आरोप को हटा सकता है। इस संबंध में न्यायालय ने के. रवि बनाम तमिलनाडु राज्य एवं अन्य (2024) के तात्कालीन निर्णय का उदाहरण दिया जिसमें उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित कहा:
- धारा 216, न्यायालय द्वारा आरोप तय किये जाने के बाद अभियुक्त को आरोपमुक्ति के लिये नया आवेदन दायर करने का कोई अधिकार नहीं देती है।
- न्यायालय ने माना कि कोई अभियुक्त धारा 216 के आवेदन के माध्यम से आरोप में संशोधन/परिवर्द्धन की आड़ में आरोपमुक्ति की मांग नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला कि CrPC की धारा 227 के अंतर्गत आरोपमुक्ति के लिये आवेदन खारिज होने के बाद अभियुक्तों द्वारा CrPC की धारा 216 के अंतर्गत आवेदन दायर करना एक नियमित आचरण बन गया है।
- इसके अतिरिक्त, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने देव नारायण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023) के मामले में भी माना कि आरोप में परिवर्द्धन और आरोप को हटाना अलग-अलग क्षेत्र होते हैं तथा इन दोनों को आपस में नहीं मिलाया जा सकता है।
- वर्तमान मामले के तथ्यों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ब्यूप्रेनॉर्फिन हाइड्रोक्लोराइड का व्यवसाय NDPS अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत अपराध है, भले ही यह NDPS नियमों की अनुसूची I में शामिल न हो।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि संजीव बनाम देशपांडे (2014) में निर्णय पूर्वव्यापी रूप से लागू होना चाहिये, जिससे अभियुक्त व्यक्तियों पर D & C अधिनियम के बजाय NDPS प्रावधानों के अंतर्गत विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारण किया जा सके।
CrPC की धारा 216 के अंतर्गत आरोपों का परिवर्द्धन क्या है?
- CrPC की धारा 216 में आरोपों में परिवर्द्धन का प्रावधान है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 239 के अंतर्गत इसका प्रावधान है।
- CrPC की धारा 216 में निम्नलिखित प्रावधान हैं:
- कोई भी न्यायालय निर्णय देने से पहले किसी भी समय आरोपों में परिवर्द्धन या उपांतरण कर सकता है।
- हर परिवर्द्धन या उपांतरण को आरोपी को पढ़कर सुनाया जाना चाहिये तथा समझाया जाना चाहिये।
- अगर न्यायालय को लगता है कि परिवर्द्धन या उपांतरण से आरोपी के बचाव या अभियोजक के मामले को हानि नहीं होगी, तो अभियोजन उसी तरह जारी रह सकता है जैसे कि बदला हुआ आरोप मूल आरोप था।
- अगर न्यायालय को लगता है कि परिवर्द्धन या उपांतरण से किसी भी पक्ष को हानि हो सकती है, तो वह या तो नए अभियोजन के वाद का आदेश दे सकता है या वर्त्तमान अभियोजन के वाद को आवश्यक अवधि के लिये स्थगित कर सकती है।
- अगर परिवर्द्धित आरोप के लिये अभियोजन के लिये पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है, तो मामला तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक कि ऐसी स्वीकृति प्राप्त न हो जाए, जब तक कि उन्हीं तथ्यों के आधार पर अभियोजन के लिये पहले से स्वीकृति न दी गई हो।
- CrPC की धारा 216 के अंतर्गत अधिकारिता संबंधित न्यायालय के पास है तथा कोई भी पक्ष अधिकार के तौर पर आवेदन दायर करके आरोप में इस तरह के उपांतरण या परिवर्द्धन की मांग नहीं कर सकता है।
- यह प्रावधान प्रत्येक मामले में आरोपी व्यक्ति (व्यक्तियों) के लिये निष्पक्ष एवं पूर्ण सुनवाई सुनिश्चित करने के हितकारी उद्देश्य से लागू किया गया है।
- अनंत प्रकाश सिन्हा बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2016) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने आरोपों में परिवर्द्धन के सिद्धांतों को इस प्रकार संक्षेप में प्रस्तुत किया:
- सबसे पहले, CrPC की धारा 216 के अंतर्गत शक्ति के प्रयोग के लिये परीक्षण यह है कि यह रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री पर आधारित होना चाहिये तथा इसलिये, यह शिकायत या FIR, या अन्य संबंधित दस्तावेजों या वाद के दौरान रिकॉर्ड पर लाए गए सामग्रियों के आधार पर हो सकता है। इसलिये ट्रायल कोर्ट द्वारा तय किया गया आरोप उसके सामने उपलब्ध सामग्रियों के अनुरूप होना चाहिये।
- दूसरा, इस शक्ति को इस तरह से सीमित नहीं किया जाना चाहिये कि जब तक साक्ष्य प्रस्तुत न किये जाएँ, पहले से तय किये गए आरोपों में परिवर्द्धन नहीं किया जा सकता। न्यायालय को तय किये गए आरोप को परिवर्द्धित करने या उसमें उपांतरण करने का अधिकार है, अगर उसे लगता है कि आरोप तय करने के आदेश में कोई दोष है या कुछ छूट गया है।
- तीसरा, न्यायालय के लिये यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि आरोप में किसी तरह का परिवर्द्धन या उसे जोड़ने से अभियुक्त को कोई हानि न हो। अभियुक्त को नए आरोप एवं उसके विरुद्ध मामले के विषय में सूचित और जागरूक किया जाना चाहिये ताकि वह अपनी ओर से प्रस्तुत किये जाने वाले बचाव को समझ सके।
वाणिज्यिक विधि
धारा 21 के अंतर्गत बिना नोटिस के ही मध्यस्थ अधिकरण द्वारा की जाने वाली कार्यवाही
21-Apr-2025
अदव्या प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स विशाल स्ट्रक्चरल्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य “धारा 21 के अंतर्गत नोटिस की गैर-तामील और अधिनियम की धारा 21 के अंतर्गत अपीलकर्त्ता के नोटिस में प्रतिवादी संख्या 2 एवं 3 के विरुद्ध उठाए गए विवादों की अनुपस्थिति स्वचालित रूप से मध्यस्थता कार्यवाही में पक्षकार के रूप में उनकी भागीदारी पर रोक नहीं लगाती है।” न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि यदि कोई पक्षकार मध्यस्थता करार से बंधा हुआ है तो धारा 21 के अंतर्गत नोटिस न दिये जाने से मध्यस्थता अधिकारिता समाप्त नहीं होती है।
- उच्चतम न्यायालय ने अदव्या प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स विशाल स्ट्रक्चरल्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
अदव्या प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स विशाल स्ट्रक्चरल्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता और प्रतिवादी संख्या 1 ने 01 जून 2012 को विशाल कैप्रिकॉर्न एनर्जी सर्विसेज LLP (प्रतिवादी संख्या 2) नामक एक सीमित देयता भागीदारी बनाने के लिये एक LLP करार किया।
- केवल अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी संख्या 1 ही LLP करार पर हस्ताक्षरकर्त्ता हैं।
- LLP करार के खंड 8 में श्री किशोर कृष्णमूर्ति (प्रतिवादी संख्या 3) को LLP के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में नामित किया गया है, जो व्यवसायिक प्रशासन और संविदा निष्पादन के लिये उत्तरदायी हैं।
- प्रतिवादी संख्या 3 प्रतिवादी संख्या 1 कंपनी का निदेशक भी है। LLP करार के खंड 40 में विवाद समाधान के लिये मध्यस्थता खंड शामिल है।
- LLP करार के खंड 40 में विवाद समाधान के लिये मध्यस्थता खंड शामिल है।
- ऑयल इंडिया लिमिटेड ने 31 दिसंबर 2012 को तेनुघाट, असम में एक परियोजना के लिये एक संघ (प्रतिवादी संख्या 1 सहित) को एक संविदा दिया।
- संघ ने 8 जनवरी 2013 को प्रतिवादी संख्या 1 को परियोजना का उप-संविदा दिया।
- अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी संख्या 1 ने प्रतिवादी संख्या 2 (LLP) के माध्यम से परियोजना को निष्पादित करने के लिये 29 जनवरी 2013 को एक पूरक करार और MoU में भागीदार बने।
- अपीलकर्त्ता ने परियोजना के क्रियान्वयन के लिये 1.1 करोड़ रुपये का निवेश किया। 2018 में विवाद तब उत्पन्न हुआ जब अपीलकर्त्ता ने परियोजना से संबंधित LLP के खातों का ऑडिट करने की मांग की।
- अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी संख्या 1 को 2019 में 7.31 करोड़ रुपये के भुगतान के लिये डिमांड नोटिस जारी किया।
- 17 नवंबर 2020 को, अपीलकर्त्ता ने खंड 40 के अंतर्गत मध्यस्थता का आह्वान किया, लेकिन केवल प्रतिवादी संख्या 1 के विरुद्ध।
- अपीलकर्त्ता ने मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (ACA) की धारा 11 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया, जिसमें केवल प्रतिवादी संख्या 1 को पक्षकार के रूप में नामित किया गया।
- मध्यस्थता प्रारंभ होने के बाद, अपीलकर्त्ता ने अपने दावे के अभिकथन में प्रतिवादी संख्या 2 एवं 3 को पक्षकार बनाने का प्रयास किया।
- मुद्दा यह है कि क्या वर्तमान मामले के तथ्यों में उपरोक्त के अनुसार पक्षकार बनाया जा सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- धारा 21- धारा 11 आवेदन में नोटिस एवं संयोजन अनिवार्य नहीं:
- धारा 21 के नोटिस की तामील और धारा 11 के आवेदन में पक्षकार होना, किसी व्यक्ति/संस्था को मध्यस्थता कार्यवाही में पक्षकार बनाने के लिये पूर्वापेक्षाएँ नहीं हैं।
- धारा 21 नोटिस का उद्देश्य:
- मध्यस्थता की आरंभ तिथि तय करना (धारा 43 के अंतर्गत सीमा के लिये प्रासंगिक)।
- प्रतिवादी को दावों की सूचना देना, उन्हें स्वीकार करने/विवाद करने की अनुमति देना।
- मध्यस्थों की नियुक्ति में सहायता करना या आपत्तियाँ उठाना।
- नियुक्ति प्रक्रिया विफल होने पर धारा 11 के अंतर्गत न्यायालय हस्तक्षेप आरंभ करना।
- धारा 21 के अंतर्गत नोटिस का प्राथमिक कार्य प्रक्रियात्मक है - समय-संबंधित तंत्र को सक्रिय करना, न कि अधिकारिता का निर्धारण करना।
- न्यायालय ने आगे कहा कि किसी पक्ष को धारा 21 का नोटिस न दिये जाने से मध्यस्थता अधिकारिता समाप्त नहीं होती है, यदि पक्ष मध्यस्थता करार से अन्यथा बंधा हुआ है।
- ACA की धारा 16 के अंतर्गत जाँच के संबंध में:
- धारा 16 के अंतर्गत, मध्यस्थ अधिकरण को यह तय करने का अधिकार है कि क्या उसके पास अधिकारिता है, जिसमें शामिल होने और पक्षकार की स्थिति के मुद्दे भी शामिल हैं।
- अधिकरण को यह जाँच करनी चाहिये कि जिस व्यक्ति/इकाई को शामिल किया जाना है, वह मध्यस्थता करार का पक्ष है या आचरण से उससे बंधा हुआ है।
- यदि कोई व्यक्ति मध्यस्थता करार का पक्षकार पाया जाता है, चाहे वह स्पष्ट रूप से हो या उसके आचरण से, तो अधिकरण के पास उस पर अधिकारिता है।
- अंत में न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- धारा 21 नोटिस अनिवार्य है लेकिन अधिकारिता नहीं:
- जबकि धारा 21 का नोटिस मध्यस्थता प्रारंभ करने और परिसीमा उद्देश्यों के लिये आवश्यक है, कुछ पक्षों को जारी न किये जाने से उन्हें अभियोजित करने के लिये मध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- धारा 11 का दायरा सीमित है:
- धारा 11 के अंतर्गत न्यायालय की भूमिका केवल मध्यस्थों की नियुक्ति करना और प्रथम दृष्टया जाँच करना है। इसका निर्णय मध्यस्थ अधिकरण को इस तथ्य पर बाध्य नहीं करता कि किसे पक्षकार बनाया जा सकता है।
- अधिकरण की अधिकारिता मध्यस्थता करार पर निर्भर करता है:
- धारा 16 के अंतर्गत मुख्य जाँच यह है कि क्या वह व्यक्ति ACA की धारा 7 के अनुसार, स्पष्ट रूप से या आचरण से, मध्यस्थता करार का पक्षकार है।
- प्रतिवादी 2 एवं 3 मध्यस्थता करार से बंधे हैं:
- गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता होने के बावजूद, LLP करार के अंतर्गत उनका आचरण दर्शाता है कि वे इसके पक्षकार हैं तथा उन्हें मध्यस्थता कार्यवाही में वैध रूप से शामिल किया जा सकता है।
- धारा 21 नोटिस अनिवार्य है लेकिन अधिकारिता नहीं:
ACA की धारा 21 के अंतर्गत नोटिस क्या है?
- ACA की धारा 21 में मध्यस्थता कार्यवाही प्रारंभ करने का प्रावधान है।
- धारा 21 में प्रावधान है:
- मध्यस्थता कार्यवाही उस दिन से प्रारंभ होती है जिस दिन प्रतिवादी को मध्यस्थता के लिये अनुरोध प्राप्त होता है।
- आरंभ अनुरोध में उल्लिखित विशिष्ट विवाद से संबंधित होता है।
- यह नियम तब तक लागू होता है जब तक कि पक्ष अपने मध्यस्थता करार में अन्यथा सहमत न हों।