करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

BNSS की धारा 348

 23-Apr-2025

Abc प्रिस्क्रिप्शन ऑफ प्रॉसिक्युट्रिक्स इन द क्लोज्ड एनवलप बनाम अनिल कुमार

“BNSS की धारा 348- साक्षियों को वापस बुलाने या दोबारा जाँच करने के लिये न्यायालय के अधिकार का प्रयोग अत्यंत सावधानी एवं उचित कारणों के साथ किया जाना चाहिये।”

न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 348 के अधीन किसी साक्षी को बुलाने, वापस बुलाने या फिर से पूछताछ करने की शक्ति का प्रयोग सावधानीपूर्वक एवं न्याय के उद्देश्यों को सुनिश्चित करने के लिये केवल सशक्त, वैध कारणों के लिये किया जाना चाहिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने Abc प्रिस्क्रिप्शन ऑफ प्रॉसिक्यूट्रिक्स इन द क्लोज्ड एनवेलप बनाम अनिल कुमार (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

Abc प्रिस्क्रिप्शन ऑफ प्रॉसिक्यूट्रिक्स इन द क्लोज्ड एनवेलप बनाम अनिल कुमार (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • प्रतिवादी संख्या 1, अनिल कुमार, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (FTC), सक्ती जिला जांजगीर-चांपा के समक्ष लंबित विशेष सत्र मामला संख्या 67/2021 में आरोपी है। 
  • आरोपी पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 454 (कारावास से दण्डनीय अपराध करने के लिये घर में घुसना या घर में सेंध लगाना), 354 (महिला की शील भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करना), 506 (आपराधिक धमकी) एवं 323 के साथ-साथ POCSO अधिनियम की धारा 8 (यौन उत्पीड़न के लिये सजा) के अधीन आरोप लगाए गए हैं। 
  • अभियोक्ता से 30 मार्च 2022 को न्यायालय में पूछताछ की गई तथा कार्यवाही के दौरान आरोपी द्वारा व्यापक रूप से प्रतिपरीक्षा की गई। 
  • 19 फरवरी 2025 को, अपनी प्रारंभिक गवाही के लगभग तीन वर्ष बाद, अभियोक्ता ने धारा 348 BNSS के अंतर्गत पुनः प्रतिपरीक्षा की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया।
  • अपने आवेदन में अभियोक्ता ने दावा किया कि उसकी पिछली गवाही उसके माता-पिता के दबाव में दी गई थी, जब वह गर्भवती हो गई थी, जिसके बाद उसके माता-पिता ने उसे अपने घर से निकाल दिया था। 
  • अभियोक्ता ने आगे दावा किया कि वह बाद में आरोपी के घर गई और एक बच्चे को जन्म दिया, तथा घटना के समय उसकी उम्र लगभग 18 वर्ष थी, यही कारण है कि उसने इस बिंदु पर पुनः प्रतिपरीक्षा  की मांग की। 
  • अभियोक्ता ने सहायक साक्ष्य के रूप में एक जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया, जिसे उसके मूल अभिकथन के लगभग ढाई वर्ष बाद 27 सितंबर 2024 को अधिकारियों के पास पंजीकृत किया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि अभियोक्ता की 2022 में पूर्ण रूपेण जाँच की गई तथा पुनः प्रतिपरीक्षा  की गई, विस्तृत प्रतिपरीक्षा की गई, जहाँ उसने माता-पिता के बिना किसी दबाव का संकेत दिये सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। 
  • न्यायालय ने पाया कि अभियोक्ता द्वारा दायर आवेदन ने कार्यवाही में पीडब्लू-2 के रूप में दिये गए उसके पहले के साक्ष्य का खंडन किया। 
  • न्यायालय ने पाया कि घटना के समय 18 वर्ष की होने के अपने दावे का समर्थन करने के लिये अभियोक्ता द्वारा प्रस्तुत जन्म प्रमाण पत्र 27.09.2024 को पंजीकृत किया गया था, जो उसकी मूल गवाही के लगभग ढाई वर्ष बाद था।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि अभियोक्ता ने पुनः प्रतिपरीक्षा के लिये आवेदन दाखिल करने में विलंब के लिये कोई कारण नहीं बताया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि BNSS की धारा 348 (पूर्व में CrPC की धारा 311) को न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये केवल सशक्त एवं वैध कारणों से ही लागू किया जा सकता है तथा इसका प्रयोग बहुत सावधानी एवं सतर्कता के साथ किया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पूरे परिदृश्य से संकेत मिलता है कि अभियोक्ता को "बचाव पक्ष द्वारा जीत लिया है" तथा BNSS की धारा 348 का लाभ पक्षकारों को उनके मामले में कमियों को पूरा करने के लिये नहीं दिया जा सकता है।

BNSS की धारा 348 क्या है?

परिचय:

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 348 न्यायालयों को संहिता के अंतर्गत जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी व्यक्ति को साक्षी के रूप में बुलाने का विवेकाधीन अधिकार प्रदान करती है। 
  • यह प्रावधान न्यायालयों को उपस्थित किसी भी व्यक्ति की जाँच करने का अधिकार देता है, भले ही उसे साक्षी के रूप में न बुलाया गया हो, इस प्रकार औपचारिक साक्षी की सूचियों से परे न्यायालय के साक्ष्य की सीमा का विस्तार होता है। 
  • इसके अंतर्गत न्यायालयों को मामले के उचित निर्णय के लिये आवश्यक समझे जाने पर पहले से जाँचे गए किसी भी साक्षी को वापस बुलाने और फिर से जाँच करने का अधिकार है।
  • धारा 348 का पहला भाग विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, जबकि दूसरा भाग न्यायालयों पर एक अनिवार्य दायित्व ("सम्मन करेगा") लागू करता है कि वे उन साक्षियों को वापस बुलाएँ तथा उनसे पुनः पूछताछ करें, जिनके साक्ष्य मामले के न्यायोचित निर्णय के लिये आवश्यक प्रतीत होते हैं। 
  • यह प्रावधान न्याय की विफलता को रोकने के सर्वोपरि उद्देश्य को पूरा करता है, जो अन्यथा अपर्याप्त साक्ष्य या गवाही में चूक के कारण हो सकता है। 
  • इस खंड की न्यायिक निर्वचन यह स्थापित करती है कि ऐसी शक्ति का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से, सावधानी एवं सतर्कता के साथ, केवल सशक्त एवं वैध कारणों के लिये किया जाना चाहिये, न कि मनमाने ढंग से या अनुचित तरीके से। 
  • न्यायालयों को इस शक्ति के प्रयोग को साक्षियों को होने वाली संभावित कठिनाई, कार्यवाही में अनुचित विलंब एवं वाद में किसी भी पक्ष को अनुचित लाभ से बचाने की आवश्यकता के साथ संतुलित करना चाहिये।

निर्णयज विधियाँ:

  • रतन लाल बनाम प्रहलाद जाट (2017) - उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 311 (अब BNSS की धारा 348) न्यायालयों को साक्षियों को बुलाने, जाँच करने या वापस बुलाने की अनुमति देकर सत्यता का पता लगाने और न्यायपूर्ण निर्णय देने में सक्षम बनाती है, लेकिन इस शक्ति का प्रयोग केवल सशक्त एवं वैध कारणों के लिये सावधानी एवं विवेक के साथ किया जाना चाहिये। 
  • विजय कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2011) - उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 311 के अंतर्गत विवेकाधीन शक्ति का उपयोग केवल न्याय के उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है तथा इसका प्रयोग न्यायिक रूप से किया जाना चाहिये, मनमाने ढंग से नहीं। 
  • जाहिरा हबीबुल्लाह शेख (5) एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2006) - उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 311 रिकॉर्ड पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में किसी भी पक्ष द्वारा की गई चूक के कारण न्याय की विफलता को रोकने के लिये प्रावधानित है।
  • राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) बनाम शिव कुमार यादव एवं अन्य (2016) - उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि साक्षियों को वापस बुलाना कोई सामान्य बात नहीं है तथा इसे ठोस कारणों से उचित ठहराया जाना चाहिये, न कि केवल यह दावा करना चाहिये कि यह "निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये है।" 
  • उमर मोहम्मद एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (2007) - उच्चतम न्यायालय ने साक्षियों को वापस बुलाने के लिये आवेदन दाखिल करने में विलंब को स्पष्ट करने के महत्त्व को रेखांकित किया। 
  • मंघी उर्फ नरेंद्र बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2005) - मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि एक बार अभियोजन पक्ष के साक्षी के रूप में जाँचे जाने के बाद साक्षी को केवल इसलिये वापस नहीं बुलाया जा सकता क्योंकि उन्होंने अपने पहले के अभिकथन के विपरीत शपथपत्र दायर किया था।

आपराधिक कानून

डॉक्टर द्वारा कारित उपेक्षा के लिये प्रतिनिधिक दायित्व

 23-Apr-2025

प्रबंध निदेशक, कामिनेनी हॉस्पिटल बनाम पेड्डी नारायण स्वामी एवं अन्य

"NCDRC के निर्णय को यथावत रखा गया है, हालाँकि अपीलकर्त्ता - हॉस्पिटल की देयता के संबंध में क्षतिपूर्ति की राशि ब्याज सहित 10 लाख रुपये होगी।"

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि हॉस्पिटल को डॉक्टर की चिकित्सकीय उपेक्षा के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है, जिसके कारण मरीज की मृत्यु हुई।

  • उच्चतम न्यायालय ने प्रबंध निदेशक, कामिनेनी हॉस्पिटल्स बनाम पेड्डी नारायण स्वामी एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

प्रबंध निदेशक, कामिनेनी हॉस्पिटल्स बनाम पेड्डी नारायण स्वामी एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला कामिनेनी हॉस्पिटल द्वारा चिकित्सकीय उपेक्षा क्षतिपूर्ति से संबंधित आदेशों को चुनौती देने वाली अपील से संबंधित है।
  • राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) ने हॉस्पिटल पर 15 लाख रुपये और डॉ. जे.वी.एस. विद्यासागर पर 5 लाख रुपये (कुल 20 लाख रुपये) की देयता अध्यारोपित की।
  • यह मामला प्रतिवादी संख्या 1 (पेड्डी नारायण स्वामी) के 27 वर्षीय बेटे की मृत्यु से संबंधित है।
  • मृतक अपनी मृत्यु के समय एक साबुन फैक्ट्री में कार्य करने वाला बी.टेक स्नातक था।
  • हॉस्पिटल ने अपील दायर करते हुए दावा किया कि इसमें कोई चिकित्सीय उपेक्षा नहीं हुई है, तथा तर्क दिया कि उन्होंने मानक देखभाल प्रक्रियाओं का पालन किया था तथा मरीज के परिचारकों से आवश्यक अनुमति प्राप्त की थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कामिनेनी हॉस्पिटल और डॉ. जे.वी.एस. विद्यासागर दोनों के विरुद्ध चिकित्सकीय उपेक्षा के निष्कर्ष की पुष्टि की। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि चिकित्सकीय उपेक्षा का संकेत देने वाले "पर्याप्त साक्ष्य" और रिकॉर्ड मौजूद थे, जो APSCDRC एवं NCDRC दोनों द्वारा प्राप्त निष्कर्षों को मान्य करते हैं। 
  • न्यायालय ने हॉस्पिटल के इस तर्क को खारिज कर दिया कि उन्होंने मानक देखभाल प्रक्रियाओं का पालन किया था और आवश्यक अनुमति प्राप्त की थी। 
  • न्यायालय ने अपने डॉक्टरों एवं कर्मचारियों द्वारा कारित उपेक्षा के लिये हॉस्पिटल की प्रतिरूपी देयता को यथावत बनाए रखा। 
  • क्षतिपूर्ति की मात्रा के संबंध में, न्यायालय ने मृतक की आयु (27), शिक्षा (बी.टेक), रोजगार (साबुन फैक्ट्री) और भविष्य की कमाई की क्षमता पर विचार किया।
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि डॉ. विद्यासागर द्वारा भुगतान किये जाने वाले 5 लाख रुपए का NCDRC का मूल्यांकन उचित था। 
  • न्यायालय ने हॉस्पिटल की देयता को 15 लाख रुपए से संशोधित कर 10 लाख रुपए और अर्जित ब्याज कर दिया। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि संशोधित क्षतिपूर्ति की राशि "न्याय के हित में कार्य करेगी" और हॉस्पिटल की देयता के लिये पर्याप्त होगी। 
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि जमा की गई राशि अर्जित ब्याज के साथ न्यायालय रजिस्ट्रार को आवेदन करने पर शिकायतकर्त्ता को वितरित की जाए। 
  • अपील का निपटान इन शर्तों के साथ किया गया, जिसमें उपेक्षा का निष्कर्ष यथावत रखा गया, लेकिन क्षतिपूर्ति की राशि को समायोजित किया गया।

चिकित्सकीय उपेक्षा क्या है?

  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 106 के अधीन चिकित्सकीय उपेक्षा प्रावधानित है। 
  • कोई भी व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, किसी भी उपेक्षा या उपेक्षा से ऐसा कार्य करना जो आपराधिक मानववध की श्रेणी में नहीं आता है, उसे पाँच वर्ष तक के कारावास की सजा दी जाएगी और जुर्माना भी देना होगा। 
  • यदि किसी पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा चिकित्सा प्रक्रिया करते समय मृत्यु का कारण बनने वाला ऐसा उपेक्षा या उपेक्षा वाला कार्य किया जाता है, तो व्यवसायी को दो वर्ष तक के कारावास की सजा दी जाएगी और जुर्माना भी देना होगा।
  • इस प्रावधान के प्रयोजनों के लिये, "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" का अर्थ है एक चिकित्सा व्यवसायी जिसके पास राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के अंतर्गत मान्यता प्राप्त कोई भी चिकित्सा योग्यता है। 
  • "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" की परिभाषा उन चिकित्सकों तक विस्तृत है जिनके नाम राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के अंतर्गत राष्ट्रीय चिकित्सा रजिस्टर या राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज किये गए हैं। 
  • उपेक्षा से मृत्यु का कारण बनने के लिये सामान्य प्रावधान की तुलना में चिकित्सा व्यवसायियों को कम अधिकतम कारावास अवधि (पाँच वर्ष के बजाय दो वर्ष) का सामना करना पड़ता है।

चिकित्सकीय उपेक्षा पर क्या विधान हैं?

  • जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2006):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने उपेक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया कि उपेक्षा तब कारित होती है जब प्रतिवादी उस व्यक्ति के प्रति सामान्य देखभाल या कौशल का उपयोग करने में विफल रहता है जिसके प्रति उसका कर्त्तव्य है, जिसके परिणामस्वरूप वादी को अपने शरीर या संपत्ति के रूप में नुकसान उठाना पड़ता है। 
    • न्यायालय ने आगे चिकित्सकीय उपेक्षा एवं आपराधिक उपेक्षा के बीच अंतर बताया।
  • बोलम बनाम फ्रायर्न हॉस्पिटल प्रबंधन समिति (2005):
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि उपेक्षा तब कारित होती है जब चिकित्सक द्वारा अपेक्षित मानकों का पालन नहीं किया जाता है, तथापि यदि उचित सावधानी बरती गई हो तो उपेक्षा नहीं मानी जा सकती।
  • कुसुम शर्मा बनाम बत्रा हॉस्पिटल एंड मेडिकल रिसर्च (2010):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उपेक्षापूर्ण कृत्य होने का अर्थ है ऐसा कुछ करना या न करने का प्रयास करना जो एक विवेकशील व्यक्ति करेगा या नहीं करेगा।

सिविल कानून

राज्य वक्फ बोर्ड के सदस्य

 23-Apr-2025

मोहम्मद फिरोज अहमद खालिद बनाम मणिपुर राज्य एवं अन्य

“राज्य बार काउंसिल का कोई मुस्लिम सदस्य बार काउंसिल में अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वक्फ बोर्ड में नहीं रह सकता।”

न्यायमूर्ति एम.एम.सुंदरेश एवं न्यायमूर्ति राजेश बिंदल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति एम.एम.सुंदरेश एवं न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि राज्य वक्फ बोर्ड में राज्य बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्य के रूप में नियुक्त व्यक्ति, बार काउंसिल में अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वक्फ बोर्ड का सदस्य नहीं रह जाता है।

उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद फिरोज अहमद खालिद बनाम मणिपुर राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

मोहम्मद फिरोज अहमद खालिद बनाम मणिपुर राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 26 दिसंबर 2022 को मोहम्मद फिरोज अहमद खालिद नामक व्यक्ति को मणिपुर बार काउंसिल का सदस्य चुना गया। 
  • 8 फरवरी 2023 को मणिपुर सरकार ने मोहम्मद फिरोज अहमद खालिद को 7वीं वक्फ बोर्ड समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया, जो पिछले सदस्य की जगह लेंगे जो मणिपुर बार काउंसिल के सदस्य नहीं रहे थे। 
  • यह नियुक्ति वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 14(1)(b)(iii) एवं 14(3) के अंतर्गत की गई थी, जो राज्य बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्यों को वक्फ बोर्ड में नियुक्त करने की अनुमति देता है। 
  • पिछले सदस्य (प्रतिवादी संख्या 3) ने इंफाल में मणिपुर उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर करके इस नियुक्ति को चुनौती दी।
  • उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने 23 अगस्त, 2023 को रिट याचिका को खारिज कर दिया तथा निर्णय दिया कि चूँकि प्रतिवादी संख्या 3 बार काउंसिल का चुनाव हार गया है, इसलिये वह अब वक्फ बोर्ड के सदस्य के रूप में जारी नहीं रह सकता। 
  • हालाँकि, उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने 23 नवंबर 2023 को इस निर्णय को पलट दिया तथा कहा कि कोई व्यक्ति बार काउंसिल का सदस्य न रहने के बाद भी वक्फ बोर्ड का सदस्य बना रह सकता है। 
  • इस निर्णय के विरुद्ध भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील की गई, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान मामला सामने आया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 14 का मूल भाग वक्फ बोर्ड के सदस्यों के लिये दो शर्तें पूरी करना अनिवार्य बनाता है: वे मुस्लिम समुदाय से होने चाहिये तथा संसद, राज्य विधानसभा या बार काउंसिल के सदस्य के रूप में कोई पद धारण करना चाहिये। 
  • न्यायालय ने कहा कि किसी सांविधिक प्रावधान का स्पष्टीकरण स्पष्टीकरण का कार्य करता है तथा इसका निर्वचन इस तरह से नहीं की जा सकती जो प्रावधान के मूल भाग का उल्लंघन करती हो।
  • न्यायालय ने माना कि संसद एवं राज्य विधानसभा के सदस्यों को उनके प्राथमिक पद की समाप्ति के बाद वक्फ बोर्ड में बने रहने के संबंध में बार काउंसिल के सदस्यों से अलग तरीके से व्यवहार करने के लिये कोई समझदारीपूर्ण अंतर नहीं है। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब किसी व्यक्ति को उसके द्वारा धारण किये गए पद के अनुसार कोई अधिकार प्राप्त होता है, तो यह एक योग्यता बन जाती है, तथा एक बार ऐसी योग्यता समाप्त हो जाने पर, वह व्यक्ति अपने पहले के पद के आधार पर कोई अन्य पद धारण करने के लिये पात्र नहीं होगा। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि बार काउंसिल का कोई पूर्व सदस्य वक्फ बोर्ड की सदस्यता के लिये तभी पात्र होगा जब बार काउंसिल में कोई सेवारत मुस्लिम सदस्य न हो तथा कोई वरिष्ठ मुस्लिम अधिवक्ता उपलब्ध न हो।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अधिनियम की धारा 14(1)(b) के स्पष्टीकरण II को विवेकपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया जाना चाहिये, जिसका अर्थ है कि वक्फ बोर्ड में सेवारत बार काउंसिल के सदस्य का कार्यकाल बार काउंसिल में उनकी सदस्यता के साथ ही समाप्त हो जाता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि विधिक सूत्र "एक्सप्रेसियो यूनियस एस्ट एक्सक्लूसियो अल्टरियस" (एक चीज की अभिव्यक्ति का तात्पर्य दूसरी चीज के बहिष्कार से है) इस मामले पर लागू नहीं थी क्योंकि इससे विधायी मंशा के विपरीत निर्वचन होगी।

वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 14 क्या है?

  • धारा 14 बोर्ड की संरचना से संबंधित है। धारा 14(1) यह स्थापित करती है कि किसी राज्य या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिये वक्फ बोर्ड में एक अध्यक्ष एवं विभिन्न श्रेणियों से चुने गए विभिन्न सदस्य शामिल होंगे। 
  • धारा 14(1)(b) में निर्वाचक मंडल से एक या दो सदस्यों के चुनाव का प्रावधान है, जिसमें संसद के मुस्लिम सदस्य, राज्य विधानमंडल के मुस्लिम सदस्य, बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्य एवं एक लाख रुपये से अधिक वार्षिक आय वाले औकाफ के मुतवल्लियों को शामिल किया गया है। 
  • धारा 14(1)(b)(iii) विशेष रूप से संबंधित राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्यों को वक्फ बोर्ड के चुनाव के लिये पात्र के रूप में नामित करती है।
  • धारा 14(1)(b)(iii) विशेष रूप से संबंधित राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्यों को वक्फ बोर्ड के चुनाव के लिये पात्र के रूप में नामित करती है। 
  • धारा 14(1)(b)(iii) का प्रावधान राज्य सरकार को बार काउंसिल में कोई मुस्लिम सदस्य न होने की स्थिति में एक वरिष्ठ मुस्लिम अधिवक्ता को नामित करने का अधिकार देता है। 
  • धारा 14(1)(b) के स्पष्टीकरण II में स्पष्ट रूप से यह प्रावधानित किया गया है कि जब कोई मुस्लिम सदस्य संसद सदस्य या राज्य विधानसभा का सदस्य नहीं रह जाता है, तो उसे बोर्ड के सदस्य के रूप में अपना पद रिक्त कर दिया गया माना जाएगा।
  • धारा 14(2) में प्रावधान है कि चुनाव एकल संक्रमणीय मत के माध्यम से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से कराए जाएंगे। 
  • धारा 14(2) का पहला प्रावधान यह घोषित करता है कि जहाँ संसद, राज्य विधानमंडल या राज्य बार काउंसिल में केवल एक मुस्लिम सदस्य मौजूद है, उस सदस्य को बोर्ड के लिये निर्वाचित घोषित किया जाएगा। 
  • धारा 14(2) का दूसरा प्रावधान यह स्थापित करता है कि जहाँ किसी भी श्रेणी में कोई मुस्लिम सदस्य मौजूद नहीं है, वहाँ संसद, राज्य विधानमंडल के पूर्व मुस्लिम सदस्य या राज्य बार काउंसिल के पूर्व सदस्य निर्वाचक मंडल का गठन करेंगे।
  • धारा 14(3) राज्य सरकार को सदस्यों को मनोनीत करने का विवेकाधीन अधिकार प्रदान करती है, जब निर्वाचक मंडल का गठन करना उचित रूप से व्यावहारिक न हो। 
  • धारा 14(4) में यह अनिवार्य किया गया है कि निर्वाचित सदस्यों की संख्या मनोनीत सदस्यों से अधिक होगी, सिवाय उपधारा (3) के अंतर्गत दिये गए प्रावधान के। 
  • धारा 14(8) के अनुसार बोर्ड के गठन या पुनर्गठन के समय सदस्यों को अपने में से एक अध्यक्ष का चुनाव करना होगा। 
  • धारा 14(9) में यह प्रावधान है कि सदस्यों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना के माध्यम से की जाएगी।