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सांविधानिक विधि
भारत के उच्चतम न्यायालय का पुनर्गठन
« »29-Nov-2023
स्रोत– द हिंदू
परिचय:
भारत का उच्चतम न्यायालय, देश के कानूनी ढाँचे में एक सर्वोपरि संस्थान, तीन: मूल, अपीलीय और सलाहकार संविधानिक क्षेत्राधिकारों के भीतर संचालित होता है। संविधानिक न्यायालय और अपीलीय न्यायालय दोनों के रूप में कार्य करते हुए, यह भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के निर्देशन में विभिन्न आकार की पीठों में संयोजित होता है।
- न्यायिक स्थिरता और निरंतरता को बढ़ाने के लिये एक स्थायी संविधान पीठ के साथ-साथ अंतिम अपीलीय न्यायालय का प्रस्ताव करते हुए पुनर्गठन का आह्वान किया गया है। इस कदम का उद्देश्य न्यायालय के कार्यभार को सुव्यवस्थित करना और महत्त्वपूर्ण संविधानिक मुद्दों पर प्रभावी विचार-विमर्श सुनिश्चित करना है। न्यायालय ने स्वयं पुनर्गठन को पूरा करने के लिये एक राष्ट्रीय अपील न्यायालय स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की है।
उच्चतम न्यायालय की पीठें कैसे विकसित हुई हैं?
- औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में तीन अलग-अलग उच्चतम न्यायालय थे जो बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में स्थित थे।
- ये न्यायालय अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकारियों के रूप में कार्य करते थे।
- भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 ने एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को चिह्नित किया, जिसमें तीन उच्चतम न्यायालय के स्थान पर देश के विभिन्न क्षेत्रों के लिये उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई।
- उच्चतम न्यायालय, जैसा कि हम आज इसे पहचानते हैं, की स्थापना 28 जनवरी, 1950, भारत के आधिकारिक तौर पर एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के दो दिन बाद हुई थी।
- यह स्थापना संविधान के अनुच्छेद 124 के अनुरूप थी।
- उच्चतम न्यायालय दिल्ली में अस्तित्व में आया और इसका निर्माण संविधान के अनुच्छेद 130 द्वारा निर्धारित किया गया।
उच्चतम न्यायालय के पुनर्गठन पर विधि आयोग की सिफारिशें क्या हैं?
- उच्चतम न्यायालय का डिवीज़न/प्रभाग:
- वर्ष 1984 में न्यायमूर्ति के.के. मैथ्यू की अध्यक्षता में भारत के 10वें विधि आयोग की 95वीं रिपोर्ट में उच्चतम न्यायालय को दो प्रभागों: संविधानिक और कानूनी प्रभाग में विभाजित करने का प्रस्ताव दिया गया।
- संविधानिक प्रभाग विशेष रूप से संविधानिक कानून से संबंधित मुद्दों को संभालेगा, जो संविधानिक मामलों के लिये एक विशेष दृष्टिकोण का संकेत देगा, जबकि कानूनी प्रभाग संविधानिक मामलों के अलावा अन्य मामलों से निपटेगा।
- न्याय सुलभता और शुल्क में कमी:
- वर्ष 1988 में न्यायमूर्ति डी. ए. देसाई की अध्यक्षता में अपनी 11वें विधि आयोग की 125वीं रिपोर्ट में उच्चतम न्यायालय को विभाजित करने के विचार का समर्थन किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि इससे न्याय सुलभता बढ़ेगी।
- इसका तर्क यह था कि न्यायालय को डिवीज़नों में विभाजित करने से विशेष रूप से वादकारियों के लिये शुल्क कम करके, न्याय अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध हो सकेगा।
- इस प्रस्ताव का उद्देश्य विशिष्ट उच्च न्यायालयों से अपीलों की सघनता को संबोधित करना तथा न्याय को अधिक न्यायसंगत बनाना था।
- गैर-संविधानिक मुद्दों के लिये क्षेत्रीय पीठ:
- वर्ष 2009 में न्यायमूर्ति ए. आर. लक्ष्मणन की अध्यक्षता में अपनी 18वें विधि आयोग की 229वीं रिपोर्ट में दिल्ली, चेन्नई या हैदराबाद, कोलकाता और मुंबई में चार क्षेत्रीय पीठ बनाने की सिफारिश की गई थी।
- ये क्षेत्रीय पीठें विशेष रूप से गैर-संविधानिक मुद्दों के साथ-साथ प्रत्येक क्षेत्र से छह न्यायाधीश अपीलीय ज़िम्मेदारी संभालेंगी।
- इस विकेंद्रीकरण की कल्पना गैर-संविधानिक मुद्दों के भारी बैकलॉग को संबोधित करने के एक साधन के रूप में की गई थी, जिससे उच्चतम न्यायालय को लगातार संविधानिक मुद्दों और राष्ट्रीय महत्त्व के मामलों पर ध्यान केंद्रित करने में सहायता मिली।
राष्ट्रीय अपील न्यायालय क्या है?
- बिहार लीगल सपोर्ट सोसाइटी बनाम भारत के मुख्य न्यायाधीश (1986) मामले में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय अपील न्यायालय की स्थापना की वांछनीयता व्यक्त की।
- यह न्यायालय विशेष अनुमति याचिकाओं पर विचार करने के लिये सशक्त होगा, जिससे उच्चतम न्यायालय को मुख्य रूप से संविधानिक और सार्वजनिक कानून से संबंधित प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति मिलेगी।
- इस प्रस्ताव का उद्देश्य उच्चतम न्यायालय द्वारा सुने जाने वाले मामलों के प्रकार को सुव्यवस्थित करना था।
आगे की राह
- उच्चतम न्यायालय के बोझ को कम करने और उसके अंतिम निर्णयों में तेज़ी लाने के लिये विधि आयोगों की सिफारिशों के बाद एक स्थायी संविधानिक पीठ की स्थापना की जा सकती है।
- उच्चतम न्यायालय तक सुलभता के नागरिकों के अधिकार की सुरक्षा और संरक्षण करने के लिये वी. वसंतकुमार बनाम एच.सी. भाटिया (2016) मामले में उच्चतम न्यायालय का पुनर्गठन विचाराधीन है।