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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223

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 04-Aug-2025

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन कथन के अभिलेखन के पश्चात्, यदि मजिस्ट्रेट यह संतुष्टि प्राप्त करता है कि कार्यवाही प्रारंभ करने हेतु कोई पर्याप्त आधार उपलब्ध है, तो ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को नोटिस जारी किया जाएगा।” 

न्यायमूर्ति रजनीश कुमार 

स्रोत:इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति रजनीश कुमार निर्णय दिया है कि एक मजिस्ट्रेट परिवादकर्त्ता और साक्षियों के शपथ पत्र दर्ज किये बिना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 223 के अधीन नोटिस जारी नहीं कर सकता है और अनुचित तरीके से जारी किये गए नोटिस को रद्द कर दिया। 

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय नेराकेश कुमार चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, अपर मुख्य सचिव, गृह विभाग, लखनऊ एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया। 

राकेश कुमार चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अपर मुख्य सचिव गृह विभाग लखनऊ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • द्वितीय प्रत्यर्थी द्वारा राकेश कुमार चतुर्वेदी के विरुद्ध अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट-द्वितीय, लखनऊ के समक्ष परिवाद दर्ज कराया गया था 
  • परिवादकर्त्ता या साक्षियों के शपथपूर्वककथन दर्ज किये बिना, विद्वान मजिस्ट्रेट ने आवेदक (अभियुक्त) को 10 फरवरी 2025 को नोटिस जारी कर उसे न्यायालय में उपस्थित होने के लिये बुलाया। 
  • आवेदक को जारी किया गया नोटिस दोषपूर्ण और अधूरा था - इसे "रिक्त नोटिस"बताया गया था, जिसमें केवल आवेदक का नाम लिखा था, जबकि अन्य सुसंगत विवरण भरे नहीं गए थे। 
  • इस प्रक्रियागत अनियमितता से व्यथित होकर राकेश कुमार चतुर्वेदी ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528 के अधीन उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर कर उक्त नोटिस को रद्द करने की मांग की। 
  • आवेदक के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि नोटिस भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 का उल्लंघन करते हुए जारी किया गया था, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि किसी अपराध का संज्ञान लेने से पहले, मजिस्ट्रेट को पहले परिवादकर्त्ता या साक्षियों की शपथ के अधीन जांच करनी चाहिये और उनके कथन अभिलिखित करने चाहिये 
  • राज्य सरकार, अपर सरकारी अधिवक्ता के माध्यम से, प्रार्थना का विरोध करते हुए, विधिक स्थिति का खंडन नहीं कर सकी और अंततः इस बात पर सहमत हुई कि मामले को सांविधिक प्रक्रिया के उचित अनुपालन के लिये वापस विचारण न्यायालय में भेजा जा सकता है। 
  • उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य विवाद्यक यह था कि क्या मजिस्ट्रेटपरिवादकर्त्ता या साक्षियों के शपथ पत्र अभिलिखित किये बिनाभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन किसी अभियुक्त को नोटिस जारी कर सकता है, और क्या इस तरह के प्रक्रियात्मक उल्लंघन के लिये नोटिस को रद्द करना उचित है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 की धारा 223(1) की जांच की, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट, परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान लेते समय, परिवादकर्त्ता और उपस्थित साक्षियों, यदि कोई हों, से शपथ पर परीक्षा करेगाऔर ऐसी परीक्षा के सार को लिखित रूप में प्रस्तुत करेगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 223 के प्रथम उपबंध में यह उपबंधित है किअभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिनामजिस्ट्रेट द्वारा किसी अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 226 मजिस्ट्रेट को परिवाद को खारिज करने का अधिकार देती है, यदि परिवादकर्त्ता और साक्षियों के शपथ-पत्र पर दिये गए कथनों पर विचार करने के बाद उसे कार्यवाही के लिये पर्याप्त आधार नहीं मिलता है। 
  • न्यायालय ने अनुक्रमिक प्रक्रिया को स्पष्ट किया: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 210 के अधीन परिवाद दर्ज करने के बाद, मजिस्ट्रेट को सबसे पहले परिवादकर्त्ता और साक्षियों की शपथ पर परीक्षा करनी होगी, ऐसी परीक्षा को लिखित रूप में लेखबद्ध करना होगा, और मजिस्ट्रेट सहित सभी पक्षकारों से उस पर हस्ताक्षर करवाना होगा। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कथन अभिलिखित करने और आगे बढ़ने के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान हैं या नहीं, इस पर विचार करने के बाद ही मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने से पहले अभियुक्त को सुनवाई के लिये नोटिस जारी करना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि सुनवाई का अवसर महज औपचारिकता न हो। 
  • न्यायालय ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के बसनगौड़ा आर. पाटिल बनाम शिवानंद एस. पाटिल और केरल उच्च न्यायालय के सुबी एंटनी बनाम प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट मामले में दिये गए समन्वित पीठ के निर्णयों पर विश्वास किया, तथा इस बात की पुष्टि की कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन संज्ञान, शपथ पत्र पर कथन अभिलिखित करने के बाद होता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि परिवादकर्त्ता और साक्षियों के कथन अभिलिखित किये बिना ही आवेदक को नोटिस जारी कर दिये गए, जो कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन विहित प्रक्रिया का उल्लंघन था, और विशेष रूप से नोटिस की दोषपूर्ण प्रकृति पर ध्यान दिया, क्योंकि यह एक खाली नोटिस था जिसमें केवल आवेदक का नाम उल्लेखित था। 
  • न्यायालय ने आवेदन स्वीकार कर लिया, 10 फरवरी, 2025 के आदेश को रद्द कर दिया, तथाविचारण न्यायालय को विधि के अनुसार आगे बढ़ने से पहले परिवादकर्त्ता और साक्षियों के कथन अभिलिखित करने का निदेश दिया, तथा निष्कर्ष निकाला कि अभियुक्तों को परेशान करने से बचने के लिये उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 क्या है? 

  • मूल आवश्यकता: 
    • जब मजिस्ट्रेट के समक्ष कोई परिवाद दर्ज किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट को अपराध का संज्ञान लेने से पहले परिवादकर्त्ता और शपथ के अधीन उपस्थित साक्षियों की परीक्षा करनी चाहिये 
    • मजिस्ट्रेट को ऐसी परीक्षा का सार लिखित रूप में रखना चाहिये तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उस पर परिवादकर्त्ता, साक्षियों तथा स्वयं मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर हों। 
  • प्रमुख प्रक्रियात्मक सुरक्षा - पहला परंतुक: 
    • धारा 223(1) का पहला परंतु यह अधिदेश देता है कि अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिये बिना मजिस्ट्रेट द्वारा किसी अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा, जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत पूर्ववर्ती विधि से एक महत्त्वपूर्ण विचलन है। 
  • परीक्षा आवश्यकता के अपवाद - दूसरा परंतुक: 
    • धारा 223(1) का दूसरा परंतु यह है कि जब कोई परिवाद लिखित रूप में किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट को परिवादकर्त्ता और साक्षियों की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, यदि परिवाद आधिकारिक क्षमता में कार्यरत किसी लोक सेवक या न्यायालय द्वारा किया जाता है। 
    • इसी प्रकार, यदि मजिस्ट्रेट धारा 212 के अंतर्गत मामले को जांच या विचारण के लिये किसी अन्य मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित करता है तो परीक्षा की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • मामलों का स्थानांतरण - तीसरा परंतुक: 
    • धारा 223(1) का तीसरा परंतु यह स्पष्ट करता है कि यदि कोई मजिस्ट्रेट परिवादकर्त्ता और साक्षियों की परीक्षा करने के बाद धारा 212 के अधीन किसी मामले को दूसरे मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित करता है, तो प्राप्त करने वाले मजिस्ट्रेट को उनकी पुनः परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। 
  • लोक सेवकों के लिये विशेष संरक्षण - उपधारा (2): 
    • धारा 223 की उपधारा (2) (क) लोक सेवकों के लिये अतिरिक्त सुरक्षा उपाय प्रदान करती है, जिसके अधीन यह आवश्यक है कि शासकीय कृत्यों या कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान किये गए अपराधों के लिये लोक सेवक के विरुद्ध परिवाद का संज्ञान लेने से पहले, लोक सेवक को घटना के बारे में दावा करने का अवसर दिया जाना चाहिये 
    • धारा 223 की उपधारा (2)(ख) में यह उपबंध है कि संज्ञान लेने से पहले ऐसे लोक सेवक से वरिष्ठ अधिकारी से घटना के तथ्यों और परिस्थितियों से संबंधित रिपोर्ट प्राप्त की जानी चाहिये 

संदर्भित मामले 

  • प्रतीक अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2024): 
    • न्यायालय ने विधिक सिद्धांत स्थापित किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन परिवादकर्त्ताओं और साक्षियों के शपथ पत्र अभिलिखित किये बिना अभियुक्त व्यक्तियों को नोटिस जारी नहीं किया जा सकता। 
  • बसनगौड़ा आर. पाटिल बनाम शिवानंद एस. पाटिल (2024): 
    • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को स्पष्ट करते हुए कहा कि संज्ञान केवल शपथ पत्र दर्ज करने के बाद लिया जाता है, और परंतुक के अनुसार अभियुक्त को उसी समय सूचना जारी की जानी चाहिये 
    • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि सुनवाई का अवसर एक खाली औपचारिकता नहीं होनी चाहिये तथा इसमें परिवाद, शपथ पत्र और साक्षियों के कथन सम्मिलित होने चाहिये 
  • सुबी एंटनी पुत्र स्वर्गीय पी.डी. एंटनी बनाम प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट (2025):  
    • केरल उच्च न्यायालय के निर्णय में कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्वचन का अनुसरण किया गया तथा दोहराया गया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन, अभियुक्त को सुनवाई का अवसर तभी दिया जाना चाहिये जब मजिस्ट्रेट द्वारा परिवादकर्त्ता और साक्षियों से शपथपूर्वक परीक्षा की गई हो।