होम / एडिटोरियल
सांविधानिक विधि
योग्यता जाति से ऊपर
«28-Oct-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
क्या जाति यह तय कर सकती है कि मंदिर का पुजारी कौन बनेगा? केरल उच्च न्यायालय ने 22 अक्टूबर, 2025 को इसका स्पष्ट उत्तर "नहीं" में दिया और कहा कि मंदिरों में नियुक्तियाँ वंश या समुदाय के आधार पर नहीं, अपितु योग्यता और अर्हताओं के आधार पर होनी चाहिये। इस ऐतिहासिक निर्णय ने सदियों पुरानी परंपरा को चुनौती देते हुए कहा कि धार्मिक प्रथाओं को संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के अधीन संरक्षण प्राप्त है, किंतु विभेदपूर्ण नियुक्ति प्रक्रियाएँ समता (अनुच्छेद 14), विभेद का प्रतिषेध (अनुच्छेद 15) और अस्पृश्यता उन्मूलन (अनुच्छेद 17) के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
विवाद किस बात पर था?
- यह मामला तब उठा जब अखिल केरल थंथरी समाजम - पारंपरिक ब्राह्मण मंदिर पुजारियों का एक समाज - ने त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड (Travancore Devaswom Board (TDB)) के अधीन मंदिरों के लिये 2022 में केरल सरकार द्वारा पेश किये गए नए नियुक्ति नियमों को चुनौती दी।
- परंपरागत रूप से, इच्छुक पुजारी वरिष्ठ थांथरियों (मुख्य पुजारियों) से अनुष्ठान सीखते थे, जिनका प्रमाणन प्राथमिक योग्यता थी। इस व्यवस्था ने पुरोहिताई को प्रभावी रूप से विशिष्ट परिवारों और उच्च-जाति समुदायों तक ही सीमित रखा, जो पीढ़ियों से चली आ रही थी।
- त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड (TDP) के नए नियमों के अनुसार, उम्मीदवारों को राज्य-मान्यता प्राप्त 'थंथरा विद्यालयम' से प्रमाणन प्राप्त करना आवश्यक था—यह केरल देवस्वम भर्ती बोर्ड (KDRB) द्वारा अनुमोदित मंदिर अनुष्ठान सिखाने वाला एक संस्थान है। थंथरी समाजम ने तर्क दिया कि इससे उनके आध्यात्मिक अधिकार का हनन होता है और संविधान के अनुच्छेद 25 (अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 26 (धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता) के अधीन संरक्षित "आवश्यक धार्मिक प्रथाओं" में हस्तक्षेप होता है।
सरकार ने क्या तर्क दिया?
- राज्य सरकार ने सामाजिक सुधार और सांविधानिक नैतिकता के इर्द-गिर्द अपनी दलीलें पेश कीं। यद्यपि उसने स्वीकार किया कि पुजारी के कर्त्तव्य धार्मिक हैं, किंतु यह भी कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया अपने आप में एक पंथनिरपेक्ष, प्रशासनिक कार्य है जो राज्य के नियमन के अधीन है।
- सरकार का तर्क था कि नए नियम एक पारदर्शी, योग्यता-आधारित प्रणाली स्थापित करते हैं जो सभी योग्य व्यक्तियों के लिये, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, सुलभ है। अधिकारियों का तर्क था कि पिछली व्यवस्था "वंशानुगत पुरोहिती" और "जाति-आधारित विभेद" को बढ़ावा देती थी, जिससे एक "जाति-आधारित कुलीनतंत्र" का निर्माण होता था जो सांविधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता था।
- संस्थागत प्रमाणीकरण की आवश्यकता के द्वारा, 2022 के नियमों ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों सहित सभी समुदायों के लिये पुरोहिताई के अवसर खोल दिये।
न्यायालय ने यह निर्णय कैसे और क्यों दिया?
न्यायमूर्ति राजा विजयराघवन वी. और न्यायमूर्ति के.वी. जयकुमार की खंडपीठ ने याचिका को खारिज करते हुए कई प्रमुख विधिक सिद्धांत स्थापित किये:
- पंथनिरपेक्ष बनाम धार्मिक कार्य : न्यायालय ने धार्मिक कर्त्तव्यों (अनुष्ठान करना) और धर्मनिरपेक्ष कार्यों (भर्ती और नियुक्ति) के बीच अंतर करते हुए कहा कि राज्य धर्मनिरपेक्ष कार्यों को विनियमित कर सकता है।
- कोई सांप्रदायिक अधिकार नहीं : याचिकाकर्त्ता अपने मामलों को नियंत्रित करने के लिये एक पृथक् धार्मिक संप्रदाय के रूप में अर्हता प्राप्त करने में असफल रहे। एक धार्मिक संप्रदाय के लिये समान आस्था, संगठन और एक विशिष्ट नाम की आवश्यकता होती है। यहाँ, जोड़ने वाला कारक जाति थी, न कि अलग-अलग धार्मिक सिद्धांत।
- अनिवार्य प्रथा नहीं : न्यायालय ने इस दावे को खारिज कर दिया कि हिंदू धर्म के लिये केवल थांथरियों द्वारा प्रमाणन आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय के इस परीक्षण का उपयोग करते हुए—क्या कोई प्रथा इतनी मौलिक है कि उसके बिना धर्म परिवर्तित हो जाएगा—न्यायालय की पीठ ने पाया कि कर्मकांडों, मंत्रों और शास्त्रों में प्रवीणता आवश्यक आवश्यकता है, न कि प्रमाणनकर्त्ता की जाति।
- सांविधानिक सर्वोच्चता : सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने यह माना कि कोई भी प्रथा या परंपरा, चाहे कितनी भी प्राचीन क्यों न हो, संविधान के भाग 3 के अधीन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती—विशेषकर अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता), अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध), और अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन)। ऐसे रीति-रिवाज अनुच्छेद 13 के अधीन विधिक रूप से शून्य हैं, जो मौलिक अधिकारों से असंगत सभी विधियों को शून्य घोषित करता है।
यह निर्णय क्यों महत्त्वपूर्ण है?
- यह निर्णय भारत में धार्मिक कार्यों से जाति को पृथक् करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। यह मानते हुए कि पुरोहिती के लिये पात्रता "जाति या वंश नहीं, अपितु योग्यता" निर्धारित करती है, न्यायालय ने धार्मिक प्रशासन के पंथनिरपेक्ष पहलुओं में सुधार लाने में राज्य की भूमिका को पुष्ट किया।
- यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता और सांविधानिक अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करता है और यह स्थापित करता है कि धार्मिक प्रथाओं का संरक्षण तो किया जाता है, किंतु विभेदपूर्ण नियुक्ति प्रक्रियाओं का नहीं। यह धार्मिक संस्थानों में इसी तरह के सुधारों के लिये एक पूर्व निर्णय स्थापित करता है, जिसमें धार्मिक प्रतिष्ठानों से संबंधित प्रशासनिक कार्यों में वंशानुगत विशेषाधिकारों की बजाय योग्यता और समता को प्राथमिकता दी जाती है।
निष्कर्ष
केरल उच्च न्यायालय का निर्णय एक स्पष्ट रेखा खींचता है: परंपरा को संविधान के भाग 3 में निहित सांविधानिक अधिकारों पर वरीयता नहीं दी जा सकतीं। यह घोषित करके कि नियुक्ति प्रक्रियाएँ अनुच्छेद 14, 15 और 17 के अनुरूप होनी चाहिये—योग्यता-आधारित और जाति-निरपेक्ष चयन सुनिश्चित करते हुए—न्यायालय ने सभी पृष्ठभूमियों के योग्य व्यक्तियों के लिये मंदिर के द्वार खोल दिये हैं। यह निर्णय पूजा-अर्चना में हस्तक्षेप किये बिना धार्मिक प्रशासन का आधुनिकीकरण करता है, यह साबित करता है कि समता और भक्ति एक साथ रह सकते हैं—एक ऐसा सिद्धांत जो पूरे भारत में धार्मिक संस्थागत शासन को नया रूप दे सकता है।