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सिविल कानून
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263
«31-Oct-2025
| भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 के स्पष्टीकरण (क) से (ङ) प्रोबेट या प्रशासन पत्रों के अनुदान को प्रतिसंह्रत या बातिल करने के लिये न्यायोचित कारण' के संदर्भ में दृष्टांतदर्शक प्रकृति के हैं।" न्यायमूर्ति एम.एस. कार्णिक और एन.आर. बोरकर | 
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
सरवन कुमार झाबरमल चौधरी बनाम सचिन श्यामसुंदर बेगराजका (2025) के मामले में न्यायमूर्ति एम.एस. कार्णिक और एन.आर. बोरकर की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 के स्पष्टीकरण (क) से (ङ) दृष्टांतदर्शक हैं और प्रोबेट या प्रशासन पत्रों के अनुदान का प्रतिसंहरण करने या निरस्त करने के लिये "न्यायोचित कारण" निर्धारित करने में संपूर्ण नहीं हैं।
सरवन कुमार झाबरमल चौधरी बनाम सचिन श्यामसुंदर बेगराजका (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि:
- इक्वाडोर के निवासी राजेश चौधरी की 25 जुलाई 2020 को आत्महत्या (फाँसी से दम घुटने) से मृत्यु हो गई।
- 9 दिसंबर 2020 को प्रत्यर्थी ने वसीयती याचिका संख्या 109/2021 दायर की, जिसमें मृतक द्वारा कथित रूप से 3 मार्च 2022 को निष्पादित वसीयत की प्रोबेट की मांग की गई।
- याचिकाकर्त्ता (मृतक के पुत्र) ने 20 मई 2021 को सहायक शपथपत्र के साथ एक कैविएट दायर की।
- अधिवक्ता द्वारा कार्यालय संबंधी आपत्तियां दूर करने में असफल रहने के कारण कैविएट खारिज कर दी गई।
- 10 नवंबर 2023 को अतिरिक्त प्रोथोनोटरी और वरिष्ठ मास्टर ने प्रोबेट प्रदान किया।
याचिकाकर्त्ता की चुनौती:
- याचिकाकर्त्ता ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 के अधीन प्रोबेट अनुदान का प्रतिसंहरण करने के लिये एक विविध याचिका दायर की।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि मृतक की मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई।
- दो सत्यापनकर्त्ता साक्षियों के शपथपत्रों से पता चला कि वसीयतकर्त्ता ने वसीयत पर हस्ताक्षर इक्वाडोर में किये थे, जबकि साक्षियों ने भारत में हस्ताक्षर किये, जो कथित तौर पर उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 का उल्लंघन है, जिसके अधीन सत्यापनकर्त्ता साक्षियों को वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में हस्ताक्षर करना आवश्यक है।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि तकनीकी कारणों से कैविएट खारिज होने के कारण वैध आपत्तियाँ प्रस्तुत नहीं की जा सकीं।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
लागू किये गए प्रमुख सिद्धांत:
खण्डपीठ ने सांविधिक निर्वचन के सिद्धांतों पर विश्वास किया:
- स्पष्टीकरण खण्डों का कार्य: स्पष्टीकरण मुख्य प्रावधान को उसके दायरे को विस्तारित या सीमित किये बिना स्पष्ट करता है और इसे मुख्य धारा के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ा जाना चाहिये।
- "डीम्ड" का अर्थ: यह शब्द एक विधिक कल्पना का निर्माण करता है। स्पष्टीकरण (क) से (ङ) में वर्णित परिस्थितियों में, उचित कारण स्वतः ही अस्तित्व में माना जाता है, किंतु इससे अन्य परिस्थितियों में न्यायोचित कारण का अस्तित्व समाप्त नहीं होता।
- उद्देश्यपूर्ण निर्माण: जब भाषा अनेक निर्वचनों की अनुमति देती है, तो न्यायालयों को ऐसे निर्वचन अपनाने चाहिये जो विधायी उद्देश्य को आगे बढ़ाए और बेतुकेपन से बचाए।
- विधायी आशय: "न्यायोचित कारण है" से "जहाँ विद्यमान माना जाएगा" में जानबूझकर किया गया परिवर्तन, निर्दिष्ट परिस्थितियों के लिये एक काल्पनिक कल्पना का निर्माण करते हुए न्यायिक विवेक को व्यापक बनाने की विधायी आशय को दर्शाता है।
न्यायिक पूर्व निर्णयों की जांच:
- बाल गंगाधर तिलक बनाम सकवरबाई (1902) जैसे पूर्ववर्ती मामलों में पूर्ववर्ती अधिनियमों के प्रावधानों की व्याख्या भिन्न सांविधिक भाषा के अंतर्गत संपूर्ण के रूप में की गई थी।
- जॉर्ज एंथनी हैरिस (1933) और शरद शंकरराव माने (1997) ने स्पष्टीकरण को संपूर्ण माना, किंतु 1925 के अधिनियम में परिवर्तित शब्दावली पर विचार करने में असफल रहे।
- मद्रास, कलकत्ता और अन्य न्यायालयों ने माना था कि " न्यायोचित कारण" का विस्तार प्रगणित आधारों से परे है।
मुख्य निर्णय:
- स्पष्टीकरण दृष्टांतदर्शक हैं: धारा 263 के स्पष्टीकरण (क) से (ङ) दृष्टांतदर्शक हैं, न कि संपूर्ण, जो प्रोबेट का प्रतिसंहरण करने के लिये "न्यायोचित कारण" निर्धारित करते हैं।
- व्यापक न्यायिक विवेकाधिकार: स्पष्टीकरण (क) से (ङ) के अंतर्गत शामिल न की गई परिस्थितियाँ प्रतिसंहरण के लिये "न्यायोचित कारण" का गठन कर सकती हैं, जिसका अवधारण प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर न्यायालयों द्वारा किया जाएगा।
- पूर्ववर्ती निर्णयों को खारिज किया गया: जॉर्ज एंथनी हैरिस (1933) और शरद शंकरराव माने (1997) के निर्णय धारा 263 के संबंध में विधि की सही स्थिति निर्धारित नहीं करते हैं।
वर्तमान मामले पर आवेदन:
न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता की वैध चिंताओं पर ध्यान दिया:
- इक्वाडोर में आत्महत्या से मृतक की संदिग्ध मृत्यु।
- धारा 63 की आवश्यकता का संभावित उल्लंघन जिसमें साक्षियों को वसीयतकर्त्ता की उपस्थिति में हस्ताक्षर करना होता है (साक्षियों ने भारत में हस्ताक्षर किये जबकि वसीयतकर्त्ता ने इक्वाडोर में हस्ताक्षर किये)।
- तकनीकी कारणों से चेतावनी खारिज होने के कारण गंभीर आपत्तियों पर विचार नहीं किया जा सका।
- न्यायालय ने कहा कि ये परिस्थितियाँ "न्यायोचित कारण" हो सकती हैं, जिसके लिये न्यायिक जांच की आवश्यकता होती है, भले ही वे स्पष्टीकरण (क) से (ङ) के अंतर्गत न आती हों।
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 263 क्या है?
उपबंध:
- धारा 263 में उपबंध है कि प्रोबेट या प्रशासन पत्र का अनुदान "न्यायोचित कारण" के लिये प्रतिसंह्रत या बातिल किया जा सकता है।
धारा 263 का स्पष्टीकरण:
स्पष्टीकरण में कहा गया है कि "न्यायोचित कारण वहाँ विद्यमान माना जाएगा जहाँ":
- (क) अनुदान अभिप्राप्त करने की कार्यवाही मूलतः त्रुटीपूर्ण थी; या
- (ख) अनुदान असत्य सुझाव देकर या महत्त्वपूर्ण तथ्य छिपाकर कपटपूर्वक अभिप्राप्त किया गया था; या
- (ग) अनुदान को न्यायोचित ठहराने के लिये विधि में आवश्यक असत्य अभिकथन के माध्यम से अनुदान अभिप्राप्त किया गया था, भले ही वे अज्ञानता या अनजाने में किये गए हों; या
- (घ) अनुदान परिस्थितियों के कारण अनुपयोगी और अप्रवर्तनीय हो गया है; या
- (ङ) अनुदान प्राप्तकर्त्ता ने जानबूझकर सूची या लेखा प्रदर्शित नहीं किया, या असत्य सूची/लेखा पेश किया।
दृष्टांत:
इस धारा में आठ दृष्टांत सम्मिलित हैं, जो अधिकारिता की कमी, कूटकृत विल, बाद में वसीयत का पता चलना, तथा अनुदान प्राप्तकर्त्ता की विकृतचित्त जैसी स्थितियों को दर्शाते हैं।
विधायी इतिहास:
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1865 (धारा 234) और प्रोबेट एवं प्रशासन अधिनियम, 1881 (धारा 50): इसमें "न्यायोचित कारण है" वाक्यांश का प्रयोग किया गया है, जिसके बाद आधारों का उल्लेख किया गया है।
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (धारा 263): इसमें भाषा को परिवर्तित कर "न्यायोचित कारण वहाँ विद्यमान माना जाएगा, जहाँ" कर दिया गया, जो एक महत्त्वपूर्ण वाक्यांशगत परिवर्तन को दर्शाता है।