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आपराधिक कानून
उच्च न्यायालय उचित आधार के बिना दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन आदेशित अन्वेषण को रद्द नहीं कर सकता
«06-Nov-2025
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सादिक बी. हंचिनमनी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य "न्यायालयों को प्रथम दृष्टया मामला बनने पर अन्वेषण की अनुमति देनी चाहिये, न कि तकनीकी आधार पर उसे असफल करना चाहिये।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति पंकज मिथल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की 175 (3)) की धारा 156 (3) के अधीन एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) और एक मजिस्ट्रेट के निदेश को रद्द कर दिया गया था, और कहा कि उच्च न्यायालय ने अन्वेषण के निदेश देने वाले एक वैध आदेश में हस्तक्षेप करके गलती की थी।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 156(3) के अधीन मजिस्ट्रेट के विवेकाधिकार को केवल लिपिकीय अभिव्यक्ति या धारणा के कारण सीमित नहीं किया जा सकता है, और पूर्व-अन्वेषण के प्रक्रम में उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप समय से पहले और अनुचित था ।
सादिक बी. हंचिनमनी बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- परिवादकर्त्ता ने प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, बेलगावी के समक्ष एक निजी परिवाद दर्ज कराया, जिसमें अभिकथित किया गया कि अभियुक्तों ने एक ई-स्टांप पेपर में कूटरचना की और एक किराए के करार में हेराफेरी की, जिससे कुछ संपत्ति पर अवैध रूप से कब्जा किया जा सके।
- यह अभिकथित किया गया कि संबंधित सिविल कार्यवाही में उच्च न्यायालय द्वारा यथास्थिति बनाए रखने के आदेश के होते हुए भी , अभियुक्तों ने अधिकारियों को गुमराह करने और न्यायिक आदेशों का उल्लंघन करने के लिये न्यायालय में कूटरचित दस्तावेज़ दाखिल किया।
- इन आरोपों पर विचार करते हुए, मजिस्ट्रेट ने पुलिस को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन मामला दर्ज करके अन्वेषण करने का निदेश दिया। तदनुसार, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 419, 420, 468, 471 और 120ख के अधीन कूटरचना, छल और आपराधिक षड्यंत्र के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई ।
- अभियुक्त ने कर्नाटक उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने मजिस्ट्रेट के आदेश और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि मजिस्ट्रेट ने बिना सोचे-समझे "आगे के अन्वेषण" शब्द का प्रयोग किया था।
- इससे व्यथित होकर परिवादकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की , जिसमें तर्क दिया गया कि उच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट की अधिकारिता के अंतर्गत आने वाले आदेश को रद्द करके अपनी अधिकारिता का अतिक्रमण किया है।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 156(3) के अधीन मजिस्ट्रेट का आदेश पूरी तरह वैध था और उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप पूरी तरह अनुचित था ।
न्यायालय ने माना कि:
- मजिस्ट्रेट के आदेश में "आगे" शब्द का प्रयोग लिपिकीय त्रुटि थी, न कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(8) का संदर्भ, और इससे अन्वेषण के निदेश अमान्य नहीं हुए।
- मजिस्ट्रेट ने अन्वेषण का निदेश देने से पहले परिवाद और दस्तावेज़ों की जांच की थी, जिससे उचित विवेक का परिचय मिलता है।
- परिवाद में कूटरचना और नकली ई-स्टाम्प पेपर के उपयोग से संबंधित गंभीर संज्ञेय अपराधों का प्रकटीकरण किया गया है, जिसके लिये पुलिस जांच आवश्यक है।
- उच्च न्यायालय ने अन्वेषण-पूर्व प्रक्रम में आदेश को रद्द करके , स्थापित विधिक सिद्धांतों के विपरीत, आपराधिक प्रक्रिया को समय से पहले ही रोक दिया ।
न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि मजिस्ट्रेटों के पास धारा 156(3) के अधीन व्यापक शक्तियां हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि वास्तविक परिवादों की जांच की जाए और उच्च न्यायालयों को तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये, जब तक कि कार्यवाही में स्पष्ट रूप से विद्वेषपूर्ण या प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 में क्या अंतर है?
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दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 |
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 |
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(1) कोई पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी ऐसे संज्ञेय मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति उस थाने की सीमाओं के अंदर के स्थानीय क्षेत्र पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय को अध्याय 13 के उपबंधों के अधीन है।
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(1) कोई पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी ऐसे संज्ञेय मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति उस थाने की सीमाओं के अंदर के स्थानीय क्षेत्र पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय को अध्याय 14 के उपबंधों के अधीन है: परंतु संज्ञेय अपराध की प्रकृति और गंभीरता पर विचार करते हुए, पुलिस अधीक्षक, उप पुलिस अधीक्षक से मामले का अन्वेषण करने के लिये अपेक्षा कर सकेगा। |
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(2) ऐसे किसी मामले में पुलिस अधिकारी की किसी कार्यवाही को किसी भी प्रक्रम में इस आधार पर प्रश्नगत न किया जाएगा कि वह मामला ऐसा था जिसमें ऐसा अधिकारी इस धारा के अधीन अन्वेषण करने के लिये सशक्त न था। |
(2) ऐसे किसी मामले में पुलिस अधिकारी की किसी कार्यवाही को किसी भी प्रक्रम में इस आधार पर प्रश्नगत न किया जाएगा कि वह मामला ऐसा था जिसमें ऐसा अधिकारी इस धारा के अधीन अन्वेषण करने के लिये सशक्त न था। |
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(3) धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई मजिस्ट्रेट पूर्वोक्त प्रकार के अन्वेषण का आदेश कर सकता है।
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(3) धारा 210 के अधीन सशक्त कोई मजिस्ट्रेट, धारा 173 की उपधारा (4) के अधीन किये गए शपथ पत्र द्वारा समर्थित आवेदन पर विचार करने के पश्चात् और ऐसी जांच, जो वह आवश्यक समझे, किये जाने के पश्चात् तथा इस संबंध में किये गए निवेदन पर पूर्वोक्त प्रकार के ऐसे अन्वेषण का आदेश कर सकता है। |
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(4) धारा 210 के अधीन, सशक्त कोई मजिस्ट्रेट लोक सेवक के विरूद्ध परिवाद की प्राप्ति पर जो अपने शासकीय कर्त्तव्यों के दौरान उत्पन्न हुआ हो, निम्न के अध्यधीन- (क) उसके वरिष्ठ अधिकारी से घटना के तथ्यों और परिस्थितियों को अंतर्विष्ट करने वाली रिपोर्ट की प्राप्ति, और (ख) लोक सेवक द्वारा किये गए प्रख्यानों जो ऐसी स्थिति की बारे में है जिससे यह घटना अभिकथित हुई, पर विचार करने के पश्चात्, अन्वेषण का आदेश कर सकेगा। |
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 द्वारा प्रस्तुत सुरक्षा उपाय क्या हैं?
- विधि की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपायों के रूप में निम्नलिखित नए परिवर्तन किये गए हैं:
- सबसे पहले, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से इंकार करने पर पुलिस अधीक्षक को आवेदन करने की आवश्यकता को अनिवार्य बना दिया गया है, और धारा 175 (3) के अधीन आवेदन करने वाले आवेदक को धारा 175 (3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करते समय एक शपथपत्रों द्वारा समर्थित धारा 173 (4) के अधीन पुलिस अधीक्षक को किये गए आवेदन की एक प्रति प्रस्तुत करना आवश्यक है।
- दूसरे, मजिस्ट्रेट को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने का आदेश देने से पहले आवश्यक समझे जाने वाली जांच करने का अधिकार दिया गया है।
- तीसरा, मजिस्ट्रेट को धारा 175(3) के अधीन कोई भी निदेश जारी करने से पहले प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से इंकार करने के संबंध में पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी की तर्कों पर विचार करना आवश्यक है।
- यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 (3) वर्षों से न्यायिक निर्णयों द्वारा निर्धारित विधि का परिणाम है।
- प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) के मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करने से पहले आवेदक को धारा 154(1) और 154(3) के अधीन आवेदन करना होगा।
- न्यायालय ने आगे कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन किये गए आवेदन को आवेदक द्वारा शपथ पत्र द्वारा समर्थित किया जाना आवश्यक है ।
- न्यायालय द्वारा ऐसी आवश्यकता लागू करने का कारण यह बताया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन आवेदन नियमित रूप से किये जा रहे हैं और कई मामलों में केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करके अभियुक्तों को परेशान करने के उद्देश्य से आवेदन किये जा रहे हैं।