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आपराधिक कानून

वर्णित अभिकथन एवं वास्तविक अभिकथन

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 14-Aug-2024

जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ

“अधीनस्थ न्यायालयों का ध्यान PFI की गतिविधियों पर अधिक था और इसलिये अपीलकर्त्ता के मामले का उचित मूल्यांकन नहीं किया जा सका”।

न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि आरोप-पत्र में साक्षी का अभिकथन, मजिस्ट्रेट के समक्ष दिये गए अभिकथन से भिन्न था और जाँच एजेंसियों को किसी के विरुद्ध आरोप लगाते समय निष्पक्ष होना चाहिये।

जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 121, 121A और 122 तथा विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (UAPA) की धारा 13, 18, 18A और 20 के अधीन वाद चलाया गया था।
  • अपीलकर्त्ता को आरोप-पत्र में प्रतिवादी संख्या 2 के रूप में संदर्भित किया गया था।
  • आरोप-पत्र में कहा गया कि साक्षियों ने निम्नलिखित अभिकथन दिये :
    • अपीलकर्त्ता की पत्नी, अहमद पैलेस नामक इमारत की मालिक थी और अपीलकर्त्ता ने गुप्त रूप से दिखाया था कि उक्त इमारत की पहली मंज़िल पर स्थित परिसर, अतहर परवेज़- आरोपी नंबर 1 को किराये पर दिया गया था।
    • आरोप है कि इस परिसर का उपयोग पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) नामक संगठन की आपत्तिजनक गतिविधियों के संचालन के लिये किया जा रहा था।
    • चर्चा में कथित तौर पर PFI के विस्तार, इसके सदस्यों के प्रशिक्षण, मुस्लिम सशक्तीकरण और इस्लाम के विषय में अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों को निशाना बनाने की योजना शामिल थी।
    • सह-अभियुक्त द्वारा अपीलकर्त्ता के बेटे के खाते में 25,000 रुपए की धनराशि अंतरित की गई।
    • अपीलकर्त्ता को पुलिस की छापेमारी से ठीक पहले परिसर से कुछ सामान हटाते हुए पाया गया था।
  • अपीलकर्त्ता ने सह-आरोपी के साथ विशेष अदालत में ज़मानत के लिये आवेदन किया, जिसे अस्वीकार कर दिया गया।
  • जब अपीलकर्त्ता और सह-अभियुक्त द्वारा पटना उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई, तो उच्च न्यायालय ने अन्य सह-अभियुक्तों को ज़मानत दे दी, परंतु अपीलकर्त्ता की ज़मानत अस्वीकार कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरोप-पत्र में तथा मजिस्ट्रेट के समक्ष साक्षी द्वारा दिये गए अभिकथन एक-दूसरे से भिन्न हैं तथा उनमें अनेक विसंगतियाँ हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि साक्षी के अभिकथन में कथित अपराध में अपीलकर्त्ता की संलिप्तता नहीं थी।
  • यह भी नोट किया गया कि ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं था जिससे पता चले कि अपीलकर्त्ता ने आरोप-पत्र में उल्लिखित हमलों के लिये कोई निर्देश दिया था।
  • यह भी ध्यान दिया गया कि अपीलकर्त्ता पुत्र के बैंक खाते में अंतरित की गई राशि किराये का अग्रिम भुगतान थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि पुलिस छापे से पहले हटाए गए सामान का हमलों से कोई संबंध नहीं था, क्योंकि आरोप-पत्र में सामान की प्रकृति का उल्लेख नहीं किया गया था।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जो यह दर्शा सके कि कथित अपराध में अपीलकर्त्ता की संलिप्तता थी।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को ज़मानत दे दी।

अभिकथन क्या है?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 161 के अनुसार, कथित अपराध के पक्ष या विपक्ष में साक्ष्य एकत्र करने के लिये अभिकथन दर्ज किया जाता है।
  • पुलिस के समक्ष दिया गया अभिकथन निर्णायक साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है तथा उसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से पुष्ट किया जाना आवश्यक है।
  • CrPC की धारा 164 के अधीन साक्षियों के अभिकथन दर्ज करने का उद्देश्य यह है कि अभिकथन देने वाला व्यक्ति नैतिक दायित्वों के अंतर्गत आता है और उसके अभिकथन को परिवार्तित करने की संभावना कम हो जाती है।
  • न्यायालय के समक्ष साक्षी के साक्ष्य और CrPC की धारा 161 तथा 164 के अधीन दर्ज अभिकथन के बीच विरोधाभास का उद्देश्य मुख्य रूप से साक्षी की विश्वसनीयता को समाप्त करना है।
  • न्यायपालिका का यह कर्त्तव्य है कि वह मामले के प्रावधानों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अभिकथन के प्रत्येक पहलू की सूक्ष्मता से जाँच करे। 

निर्णयज विधियाँ:

  • NIA बनाम जहूर अहमद शाह वटाली, (2019): इस मामले में UAPA अधिनियम के तहत ज़मानत सीमाओं के आवेदन में न्यायालयों को किस दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये, इस पर विस्तृत दिशा-निर्देश दिये गए थे।
  • शोमा कांति सेन बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2024): यह माना गया कि UAPA की धारा 43D(5) के तहत आरोप की पुष्टि करने के लिये निर्धारित परीक्षण को पूरा किया जाना चाहिये।