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पारिवारिक कानून
ससुराल पक्ष द्वारा हिंदू विवाह को शून्य घोषित नहीं किया जा सकता
«22-Dec-2025
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‘एक्स’ और अन्य बनाम ‘वाई’ "विधायिका ने धारा 11 के अंतर्गत शून्य विवाह के आधारों से आयु संबंधी आवश्यकता को जानबूझकर अपवर्जित रखा है, तथा ऐसे शून्य घोषित किये जाने की घोषणा का दावा केवल विवाह के पक्षकार—अर्थात् पति या पत्नी—द्वारा ही किया जा सकता है, न कि ससुराल पक्ष द्वारा।" न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा और सत्य वीर सिंह |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा और सत्यवीर सिंह की पीठ ने ‘एक्स’ और अन्य बनाम ‘वाई’ (2025) में ससुराल पक्ष द्वारा दायर एक अपील को खारिज कर दिया, जिसमें कुटुंब न्यायालय के उस निर्णय को चुनौती दी गई थी जिसमें प्रत्यर्थी को उनके मृतक पुत्र, एक सेना सैनिक की विधिक रूप से विवाहित विधवा घोषित किया गया था।
- उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि हिंदू विवाह को ससुराल पक्ष द्वारा इस आधार पर शून्य घोषित नहीं किया जा सकता कि विवाह के समय वधू अवयस्क थी, विशेषत: तब जब यह बात देर से उठाई गई हो।
‘एक्स’ और अन्य बनाम ‘वाई’ (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
मामले के तथ्य:
- यह मामला एक युद्ध विधवा और उसके ससुराल पक्ष के बीच एक मृत सेना अधिकारी के आश्रितों को दिये जाने वाले लाभों के हक को लेकर चल रही निरंतर विधिक लड़ाई से उत्पन्न हुआ है ।
- सेना में सेवारत रहते हुए आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में गोली लगने से शहीद हुए सैनिक की मृत्यु 14 जनवरी 2008 को हुई थी।
- कथित पत्नी (प्रत्यर्थी) ने दावा किया कि उसका विवाह मृतक से 12 मई 2007 को हुआ था।
- ससुराल पक्ष (अपीलकर्त्ताओं) ने तर्क दिया कि उस तारीख को केवल सगाई हुई थी, और वास्तविक विवाह 24 अप्रैल 2008 को निर्धारित था।
- कथित पत्नी ने उत्तर प्रदेश की एक कुटुंब न्यायालय में विवाह की घोषणा के लिये आवेदन दायर किया।
कुटुंब न्यायालय की कार्यवाही:
- कुटुंब न्यायालय ने अभिवचनों, साक्ष्यों, साक्षियों की परीक्षा और दस्तावेज़ी प्रदर्शनों के साथ एक विस्तृत सुनवाई की
- कुटुंब न्यायालय ने यह घोषणा करते हुए निर्णय दिया कि प्रत्यर्थी मृतक की विधिक रूप से विवाहित पत्नी थी।
उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती:
- कुटुंब न्यायालय के 28 अप्रैल 2025 के निर्णय के विरुद्ध ससुराल पक्ष ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख किया।
- उन्होंने दावा किया कि विवाह के समय पत्नी अवयस्क थी और इसलिये हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन विवाह शून्य था।
- एक पहचान पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें दिखाया गया कि 12 मई 2007 को विवाह संपन्न होने के समय पत्नी की आयु 18 वर्ष से दो महीने कम थी (उसकी जन्मतिथि 20 जुलाई 1989 थी)।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
आयु संबंधी आवश्यकता पर विधायी आशय:
- न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा और न्यायमूर्ति सत्यवीर सिंह की पीठ ने कहा: "विधानमंडल ने जानबूझकर धारा 11 के उपबंध में धारा 5 के खण्ड (iii) को सम्मिलित नहीं किया। इसके अतिरिक्त, धारा 11 में उल्लिखित कार्यवाही का अधिकार केवल विवाह में पति या पत्नी को ही उपलब्ध है। अपीलकर्त्ता मृतक पति के माता-पिता हैं। धारा 12, जो शून्यकरणीय विवाहों का उपबंध करती है, धारा 5 के खण्ड (iii) का उल्लेख नहीं करती है, जिसके उल्लंघन के आधार पर यह तर्क दिया जा सकता है कि विवाह शून्यकरणीय है और इसे अकृतता के आदेश द्वारा रद्द किया जाना चाहिये।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विधायिका ने जानबूझकर विवाह को शून्य या शून्यकरणीय करने के आधारों से आयु की आवश्यकता को अपवर्जित किया है। यह जानबूझकर किया गया लोप विधायी नीति को दर्शाता है कि अवयस्क पक्षकारों के विवाह को शून्य घोषित किये जाने के जोखिम से मुक्त रखा जाना चाहिये।
विवाह को चुनौती देने का अधिकार:
- न्यायालय ने यह माना कि केवल विवाह के पक्षकार ही धारा 11 के अधीन विवाह को शून्य घोषित करने की मांग कर सकते हैं। अपीलकर्त्ता, मृतक पति के माता-पिता होने के नाते, इस आधार पर विवाह को चुनौती देने के लिये बाध्य नहीं थे।
- धारा 11 में विशेष रूप से यह उपबंध है कि याचिका "किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के विरुद्ध" प्रस्तुत की जा सकती है—अर्थात् केवल पति-पत्नी स्वयं।
कुटुंब न्यायालय के पास उचित अधिकारिता थी:
अपीलकर्त्ताओं ने कुटुंब न्यायालय की अधिकारिता को भी चुनौती दी थी, किंतु उच्च न्यायालय ने इसे बरकरार रखते हुए कहा:
- कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7 विशेष रूप से "किसी व्यक्ति के विवाह या वैवाहिक स्थिति की वैधता की घोषणा" के लिये अधिकारिता प्रदान करती है।
- यह मामला वैवाहिक स्थिति को लेकर विवाद से जुड़ा था—जो कुटुंब न्यायालय की अधिकारिता में आने वाला एक स्पष्ट पारिवारिक विवाद था।
- यह मामला उन परिस्थितियों से भिन्न था जहाँ गैर-पारिवारिक व्यक्तियों के मध्य मात्र संपत्ति संबंधी शुद्ध विवाद सम्मिलित होते हैं।
वैध विवाह का मज़बूत साक्ष्य:
न्यायालय को विवाह की वैधता का समर्थन करने वाले पर्याप्त साक्ष्य मिले:
- अपीलकर्त्ता की माता ने स्वयं 2009 में गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष अपने पहले आवेदन में स्वीकार किया था कि उनके पुत्र ने 12 मई 2007 को प्रत्यर्थी से विवाह किया था।
- विवाह का निमंत्रण पत्र जिस पर अपीलकर्त्ता पिता की लिखावट है।
- विवाह संस्कार के संपादन के संबंध में साक्षियों का सकारात्मक एवं विश्वसनीय परिसाक्ष्य।
- दस्तावेज़ी साक्ष्यों में अपीलकर्त्ता पिता द्वारा समारोह में सम्मिलित होने के लिये रेलवे की नौकरी से ली गई छुट्टी भी सम्मिलित है।
- मृतक ने विवाह करने के लिये छुट्टी के लिये आवेदन किया था और आवश्यक तस्वीरें प्रस्तुत की थीं।
हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन शून्य विवाहों पर विधिक उपबंध क्या हैं?
बारे में:
- हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 शून्य विवाहों के प्रावधान से संबंधित है
- धारा 11 में शून्य विवाहों को परिभाषित नहीं किया गया है, अपितु उन आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर किसी विवाह को शून्य घोषित किया जा सकता है।
- धारा 11: शून्य विवाह - इस अधिनियम के प्रारंभ के पश्चात् अनुष्ठित किया गया यदि कोई विवाह धारा 5 के खण्ड (i), (iv) और (v) में उल्लिखित शर्तों में से किसी एक का उल्लंघन करता है, तो वह अकृत और शून्य होगा और उसमें के किसी भी पक्षकार के द्वारा दूसरे पक्षकार के विरुद्ध पेश की गई याचिका पर अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा।
आधार:
- हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन कोई भी विवाह शून्य है यदि वह धारा 5 खण्ड (i), (iv) और (v ) के अधीन उल्लिखित शर्तों को पूरा नहीं करता है।
- धारा 5 के खण्ड (i) के अधीन विवाह के समय किसी भी पक्षकार का कोई पति या पत्नी जीवित नहीं है।
- धारा 5 के खण्ड (iv) के अधीन पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर नहीं आते हैं, जब तक कि उनमें से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा दोनों के बीच विवाह की अनुमति न दे।
- धारा 5 के खण्ड (v) के अधीन पक्षकार एक दूसरे के सपिंड नहीं हैं, जब तक कि उनमें से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा दोनों के बीच विवाह की अनुमति न दे।
विवाह को शून्य घोषित करने वाली शर्ते:
- विवाह के समय जीवित पति या पत्नी
- द्विविवाह शब्द का अर्थ है किसी अन्य व्यक्ति से विधिक रूप से विवाहित रहते हुए किसी एनी व्यक्ति से विवाह करना।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5(i) के अधीन, विवाह के समय किसी भी पक्षकार का कोई पति या पत्नी जीवित नहीं होना चाहिये।
- लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2000) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब कोई हिंदू पति या पत्नी किसी गुप्त उद्देश्य की पूर्ति के लिये पुनर्विवाह करने हेतु अपना धर्म परिवर्तित करता है, तो ऐसा विवाह शून्य घोषित किया जाएगा। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है।
- यमुनाबाई बनाम अनंत राव (1988) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि द्वितीय विवाह की पत्नी को पत्नी नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसी विवाह आरंभ से हे शून्य होता है, और वह दण्ड प्रक्रिया संहिता (1973) की धारा 125 के अधीन भरणपोषण का दावा नहीं कर सकती।
- द्विविवाह शब्द का अर्थ है किसी अन्य व्यक्ति से विधिक रूप से विवाहित रहते हुए किसी एनी व्यक्ति से विवाह करना।
- प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियाँ:
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 3(छ) के अनुसार, दो व्यक्तियों को प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर माना जाता है।
- एक-दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष है; या
- एक-दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष या वंशज की पत्नी या पति है; या
- एक-दूसरे के भाई की या पिता या माता के भाई की, या पितामह या मातामह या पितामही या मातामही के भाई की पत्नी है; या
- भाई और बहिन, चाचा और भतीजी, चाची या भतीजा या भाई और बहिन की या दो भाइयों या दो बहिनों की सन्तति हैं, तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे "प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों" के अंदर हैं।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5(iv) के अनुसार, प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्री के भीतर विवाह शून्य है।
- धारा 5(iv) में यह भी उल्लेख है कि यदि विवाह के प्रत्येक पक्षकार की रूढ़ि या प्रथा ऐसे विवाह की अनुमति देते हैं, तो ऐसे विवाह को वैध विवाह माना जाएगा।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 18(ख) के अधीन ऐसे विवाह के पक्षकारों को साधारण कारावास से दण्डित किया जाता है जो एक मास तक बढ़ाया जा सकता है या जुर्माना जो 1000 रुपए तक बढ़ाया जा सकता है या दोनों।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 3(छ) के अनुसार, दो व्यक्तियों को प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर माना जाता है।
- सपिंड:
- हिंदू धर्म के अनुसार, जब दो व्यक्ति एक ही परम्परागत अग्रपुरुष को पिंड अर्पित करते हैं, तो उसे सपिंड नातेदारी कहा जाता है। सपिंड नातेदारी वे संबंध होते हैं जो रक्त से जुड़े होते हैं।
- सपिंड नातेदारी में यदि कोई व्यक्ति विवाह करता है तो उनका विवाह शून्य माना जाता है।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 3(च) के अनुसार , सपिंडा का अर्थ निम्नलिखित है:
- किसी व्यक्ति के प्रति निर्देश से सुपिंड नातेदारी का विस्तार माता से ऊपर वाली परम्परा में तीसरी पीढ़ी तक (जिसके अंतर्गत तीसरी पीढ़ी भी है) और पिता के ऊपर वाली परम्परा में पाँचवीं पीढ़ी तक (जिनके अंतर्गत पाँचवीं पीढ़ी भी है) है, प्रत्येक अवस्था में परम्परा सम्पृक्त व्यक्ति से ऊपर गिनी जाएगी जिसे कि पहली पीढ़ी का गिना जाता है।
- यदि दो व्यक्तियों में से एक सपिण्ड की नातेदारी की सीमाओं के भीतर दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष है, या यदि उसका ऐसा एक ही परम्परागत अग्रपुरुष है, जो कि एक-दूसरे के प्रति सपिण्ड नातेदार की सीमाओं के भीतर है; तो ऐसे दो व्यक्तियों के बारे में कहा जाता है कि वे एक-दूसरे के सपिण्ड है।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5(v) के अनुसार, सपिंड के भीतर विवाह शून्य है।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा की धारा 18(ख) के अधीन ऐसे विवाह के लिये पक्षकारों को साधारण कारावास से दण्डित किया जा सकता है जो एक मास तक बढ़ाया जा सकता है या जुर्माना जो 1000 रुपए तक बढ़ाया जा सकता है या दोनों।
शून्य विवाह का प्रभाव:
- शून्य विवाह में पक्षकार पति-पत्नी की स्थिति में नहीं होते हैं।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 के अनुसार, शून्य विवाह से उत्पन्न संतानें धर्मज हैं ।
- एक शून्य विवाह में पारस्परिक अधिकार और दायित्त्व विद्यमान नहीं होते हैं।