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आपराधिक कानून

विधिक पेशेवरों को समन की तामील

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 26-Jun-2025

अश्विनकुमार गोविंदभाई प्रजापति बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य

"प्रथम दृष्टया यह तर्क उचित पाया गया कि किसी मामले में शामिल अधिवक्ताओं को समन करना क्लाइंट की गोपनीयता का उल्लंघन है और विधिक पेशे की स्वायत्तता को कमजोर करता है।"

न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं एन. कोटिस्वर सिंह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह ने प्रथम दृष्टया यह माना कि क्लाइंट से संबंधित सलाह के लिये जाँच एजेंसियों द्वारा अधिवक्ताओं को समन करना विधिक पेशे की स्वायत्तता को खतरा पहुँचाता है और न्याय को कमजोर करता है। पीठ ने अधिवक्ताओं के गोपनीयता के कर्त्तव्य पर बल दिया तथा दो प्रमुख प्रश्न किये: क्या क्लाइंटों को सलाह देने वाले अधिवक्ताओं को सीधे समन किया जा सकता है, तथा क्या असाधारण मामलों में ऐसे समन से पहले न्यायिक निगरानी की आवश्यकता होती है।

  • उच्चतम न्यायालय ने अश्विनकुमार गोविंदभाई प्रजापति बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

अश्विनकुमार गोविंदभाई प्रजापति बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता 1997 में पंजीकृत एक प्रैक्टिसिंग एडवोकेट है जो नियमित रूप से गुजरात भर की सभी न्यायालयों में पेश होता है तथा वस्त्रल एडवोकेट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। 24 जून 2024 को परमार कमलेशकुमार अमृतलाल और पंचाल प्रिंसकुमार भवानीशंकर के बीच लोन ट्रांजेक्शन को लेकर एक करार हुआ। 
  • इसके बाद 13 फरवरी 2025 को ओधव पुलिस स्टेशन, अहमदाबाद, गुजरात में FIR संख्या 11191037250276/2025 दर्ज की गई। FIR भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 296 (b) और 351 (3), गुजरात मनी-लेंडर्स अधिनियम, 2011 की धारा 40, 42 (a), 42 (d) और 42 (e), और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (v) और 3 (2) (va) के तहत दर्ज की गई थी।
  • पंचाल प्रिंसकुमार भवानीशंकर को उक्त FIR के सिलसिले में 25 फरवरी 2025 को गिरफ्तार किया गया था। 
  • पंचाल प्रिंसकुमार भवानीशंकर के बचाव पक्ष के अधिवक्ता के रूप में कार्य करने वाले याचिकाकर्त्ता ने अहमदाबाद के सत्र न्यायालय के समक्ष आपराधिक विविध आवेदन संख्या 1399/2025 के तहत नियमित जमानत याचिका दायर की। 
  • न्यायालय ने उचित विचार-विमर्श के बाद आरोपी को नियमित जमानत दे दी। 24 मार्च 2025 को, जब मामला इस प्रकार था, याचिकाकर्त्ता को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 179 के तहत एक नोटिस दिया गया था। 
  • यह नोटिस अहमदाबाद शहर के एससी/एसटी सेल-2 के सहायक पुलिस आयुक्त डी.आर. पटेल द्वारा जारी किया गया था, जिसमें याचिकाकर्त्ता को "मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों का सही विवरण जानने के लिये" तीन दिनों के अंदर पेश होने की आवश्यकता थी।
  • याचिकाकर्त्ता ने आर/स्पेशल क्रिमिनल एप्लीकेशन (क्वैशिंग) संख्या 5349/2025 दाखिल करके गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष इस नोटिस को चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने 11 अप्रैल 2025 को डी.आर. पटेल द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट की जाँच करने के बाद याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्त्ता ने समन का प्रत्युत्तर नहीं दिया था तथा उनके असहयोग के कारण आगे की जाँच रुकी हुई है। 
  • याचिकाकर्त्ता का मामला यह है कि वह न तो आरोपी था और न ही मामले में साक्षी था तथा वह केवल आरोपी के अधिवक्ता के रूप में अपनी पेशेवर भूमिका का निर्वहन कर रहा था। FIR शिकायतकर्त्ता एवं आरोपी के बीच विवाद से संबंधित है, तथा याचिकाकर्त्ता का आरोपी के विधिक अधिवक्ता के रूप में उसकी भूमिका से परे कोई संबंध नहीं है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने माना कि चूँकि समन BNSS की धारा 179 के तहत बतौर साक्षी दिया गया था तथा अधिकारियों के पास जाँच करने का अधिकार था, इसलिये याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ। इस आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने इस विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में अपील किया। 
  • न्यायालय ने माना कि विधिक पेशा न्याय प्रशासन की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। 
  • न्यायालय ने कहा कि जाँच एजेंसियों या पुलिस को किसी मामले में पक्षकारों को सलाह देने वाले बचाव पक्ष के अधिवक्ता या अधिवक्ताओं को सीधे बुलाने की अनुमति देना विधिक पेशे की स्वायत्तता को गंभीर रूप से कमजोर करेगा तथा न्याय प्रशासन की स्वतंत्रता के लिये सीधा खतरा उत्पन्न करेगा।
  • न्यायालय ने माना कि अधिवक्ताओं और क्लाइंटों के बीच कम्युनिकेशन भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 132 के तहत विशेषाधिकार प्राप्त है तथा धारा 179 या BNSS के किसी अन्य प्रावधान के तहत जाँच का विषय नहीं हो सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ता क्लाइंट की सूचना तथा दी गई सलाह की गोपनीयता बनाए रखने के लिये पेशेवर कर्त्तव्य से बंधे हैं। 
  • न्यायालय ने दो मूलभूत प्रश्न किये: क्या जाँच एजेंसियाँ ​​पक्षों को सलाह देने वाले अधिवक्ताओं को सीधे बुला सकती हैं, तथा क्या न्यायिक निगरानी असाधारण मामलों के लिये निर्धारित की जानी चाहिये जहाँ व्यक्ति की भूमिका विधिक प्रतिनिधित्व से परे है। 
  • न्यायालय ने कहा कि जो दांव पर लगा है वह न्याय प्रशासन की प्रभावकारिता और अधिवक्ताओं की कर्त्तव्यनिष्ठा एवं निडरता से अपने पेशेवर कर्त्तव्यों का निर्वहन करने की क्षमता है। न्यायालय ने कहा कि एक पेशेवर को जाँच एजेंसी के इशारे पर कार्य करने देना, जहाँ वह मामले में अधिवक्ता है, प्रथम दृष्टया अस्वीकार्य प्रतीत होता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि इस मामले पर व्यापक विचार की आवश्यकता है क्योंकि इसमें विधिक पेशे की स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता को प्रभावित करने वाले मूलभूत प्रश्न शामिल हैं। 
  • न्यायालय ने मामले के महत्त्व को देखते हुए इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों के समाधान के लिये अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और बार एसोसिएशन के अध्यक्षों से सहायता मांगी।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 132 क्या है?

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 अधिवक्ताओं को उनकी व्यावसायिक सेवा के दौरान उनके साथ किये गए संचार का प्रकटन करने से रोककर अटॉर्नी-क्लाइंट विशेषाधिकार के सिद्धांत को स्थापित करती है।
  • किसी भी अधिवक्ता को अपने क्लाइंट द्वारा या उसकी ओर से किये गए किसी भी संचार का प्रकटन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, जब तक कि क्लाइंट की स्पष्ट सहमति न हो।
  • यह प्रावधान किसी भी दस्तावेज की सामग्री या स्थिति को प्रकटीकरण से बचाता है, जिसके साथ अधिवक्ता व्यावसायिक सेवा के दौरान परिचित हो गया है।
  • अधिवक्ताओं को व्यावसायिक सेवा के दौरान अपने क्लाइंट को दी गई किसी भी सलाह का प्रकटन करने से प्रतिबंधित किया गया है।
  • यह धारा दो अपवाद प्रदान करती है, जहाँ संचार प्रकटीकरण से सुरक्षित नहीं है: किसी भी अवैध उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये किये गए संचार, तथा किसी अधिवक्ता द्वारा देखा गया कोई भी तथ्य जो दर्शाता है कि उसकी सेवा आरंभ होने के बाद से अपराध या छल किया गया है। 
  • अपवाद लागू होने के लिये अधिवक्ता का ध्यान विशेष रूप से ऐसे तथ्यों की ओर निर्देशित होने की आवश्यकता नहीं है। 
  • व्यावसायिक सेवा समाप्त होने के बाद भी गोपनीयता का दायित्व जारी रहता है। धारा 132 के प्रावधान दुभाषियों, क्लर्कों और अधिवक्ताओं के कर्मचारियों तक विस्तारित हैं, जो विधिक ढाँचे के भीतर क्लाइंट की गोपनीयता की व्यापक सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।