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आपराधिक कानून
क्रिकेट में मैच फिक्सिंग छल का गठन करती है
«27-Oct-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) ने एक आपराधिक अपील में उच्चतम न्यायालय में हस्तक्षेप याचिका दायर की है, जो इस बात पर एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित कर सकती है कि मैच फिक्सिंग भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 (जो अब भारतीय न्याय संहिता के अधीन जारी है) के अधीन छल का आपराधिक अपराध है या नहीं। यह विधिक विवाद एक महत्त्वपूर्ण विधायी कमी को उजागर करता है: भारत एक क्रिकेट महाशक्ति होने के बावजूद मैच फिक्सिंग को अपराध घोषित करने वाले विशिष्ट सांविधिक प्रावधानों का अभाव रखता है।
कर्नाटक प्रीमियर लीग मामले की पृष्ठभूमि और कार्यवाही क्या थी?
- विचाराधीन मामला, कर्नाटक राज्य एवं अन्य बनाम श्री अबरार काज़ी एवं अन्य, 2018 और 2019 सत्रों के दौरान कर्नाटक प्रीमियर लीग (KPL) में मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग के अभिकथनों से उत्पन्न हुआ था। बेंगलुरु पुलिस ने क्रिकेट खिलाड़ियों, एक कर्नाटक प्रीमियर लीग (KPL) टीम के मालिक, एक कर्नाटक राज्य क्रिकेट प्रशासक और एक सट्टेबाज सहित कई अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 (छल और बेईमानी से संपत्ति को परिदत्त करने के लिये उत्प्रेरित करना) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120ख (आपराधिक षड्यंत्र) के अधीन आरोपपत्र दायर किया।
- अभियुक्तों ने आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की मांग करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन एक याचिका दायर की। 10 जनवरी, 2022 को, उच्च न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर ली और आरोपों को रद्द कर दिया, जिसके बाद कर्नाटक राज्य ने इस आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की।
उच्च न्यायालय का निर्णय का कारण क्या था?
- कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन अपराध के आवश्यक तत्त्वों के कठोर निर्वचन पर आधारित था। इस उपबंध के अधीन "किसी भी संपत्ति को परिदत्त करने के लिये बेईमानी से उत्प्रेरित करने" का सबूत आवश्यक है।
- न्यायालय ने यह सिद्धांत लागू किया कि आपराधिक संविधियों की व्याख्या कठोरता से की जानी चाहिये तथा अभियोजन पक्ष को अपराध के प्रत्येक घटक तत्त्व को उचित संदेह से परे स्थापित करने का भार वहन करना चाहिये।
- अभियोजन पक्ष के मामले के सिद्धांत में यह तर्क दिया गया कि दर्शकों को यह विश्वास दिलाकर टिकट खरीदने के लिये उत्प्रेरित किया गया कि वे एक वास्तविक खेल प्रतियोगिता देखेंगे। उच्च न्यायालय ने इस तर्क को इस आधार पर खारिज कर दिया कि दर्शक स्वेच्छया से टिकट खरीदते हैं और उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अंतर्गत "उत्प्रेरित" नहीं कहा जा सकता।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि निष्पक्ष खेल देखने की व्यक्तिपरक अपेक्षा हो सकती है, किंतु यह बेईमानी से उत्प्रेरित करने की विधिक आवश्यकता को पूरा नहीं करता है।
- उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि मैच फिक्सिंग, यद्यपि गंभीर कदाचार और खेल नैतिकता का उल्लंघन है, किंतु यह आपराधिक विधि के बजाय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) की आचार संहिता के अधीन अनुशासनात्मक अधिकारिता के अंतर्गत आता है।
- न्यायालय ने विनियामक उल्लंघनों और आपराधिक अपराधों के बीच अंतर करते हुए निष्कर्ष निकाला कि आरोपित आचरण भारतीय दण्ड संहिता के अधीन आपराधिक दायित्त्व स्थापित करने के लिये आवश्यक तत्त्वों को पूरा नहीं करता है।
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) की विधिक तर्क क्या थे?
- अपने हस्तक्षेप आवेदन में, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) ने उच्च न्यायालय के निर्वचन को चुनौती देते हुए कई ठोस तर्क दिये हैं। बोर्ड का मुख्य तर्क यह है कि छल का अपराध इस आधार पर बनता है कि संदाय करने वाले दर्शकों और वाणिज्यिक प्रायोजकों को यह अभिव्यक्त या विवक्षित आश्वासन दिया गया है कि मैच पूरी ईमानदारी और बिना किसी हेराफेरी के आयोजित किये जाएँगे।
- भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) का तर्क है कि जब खिलाड़ी मैच फिक्सिंग में सम्मिलित होते हैं, तो वे प्रवंचना का एक ऐसा कृत्य करते हैं जो बेईमानी से जनता को टिकट की कीमत चुकाने और प्रायोजकों को टीमों, लीगों और प्रसारण अधिकारों में भारी रकम निवेश करने के लिये उत्प्रेरित करता है। इस निर्वचन के अनुसार, बेईमानी से उत्प्रेरित और संपत्ति को परिदत्त करने—दोनों ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के आवश्यक तत्त्व —स्पष्ट रूप से स्थापित हैं।
- भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) ने आगे कहा कि यद्यपि उसने प्रशासनिक रूप से इस तरह के कदाचार से निपटने के लिये अपनी भ्रष्टाचार- निरोधक संहिता लागू की है, फिर भी आपराधिक अभियोजन ऐसे आचरण को रोकने और खेल की अखंडता को बनाए रखने में एक अलग उद्देश्य पूरा करता है। बोर्ड का तर्क है कि मैच फिक्सिंग की गंभीरता और खेल की विश्वसनीयता पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए, केवल सिविल या प्रशासनिक उपचार अपर्याप्त हैं।
भारतीय विधि में विधायी शून्यता क्या थी?
- भारत में वर्तमान में कोई विशिष्ट सांविधिक प्रावधान नहीं है जो मैच फिक्सिंग या खेल के कपट को एक भिन्न अपराध के रूप में परिभाषित या आपराधिक बनाता हो। विधि प्रवर्तन अभिकरणों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 और 120ख जैसे सामान्य उपबंधों पर निर्भर रहना पड़ता है, किंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय इस दृष्टिकोण की विधिक कमज़ोरी को दर्शाता है।
- भारतीय विधि आयोग ने अपनी 276वीं रिपोर्ट (जुलाई 2018) में इस कमी को स्वीकार किया, जिसका शीर्षक था "विधिक ढाँचा: भारत में क्रिकेट सहित जुआ और खेल सट्टेबाजी।" आयोग ने सिफ़ारिश की कि मैच फिक्सिंग और खेल के कपट को "विशेष रूप से कठोर दण्ड के साथ आपराधिक अपराध घोषित किया जाना चाहिये।" यद्यपि, संसद ने अभी तक इन सिफ़ारिशों को लागू करने के लिये कोई विधि नहीं बनाई है, जिससे भारत के विधिक ढाँचे में एक बड़ा खालीपन बना हुआ है।
तुलनात्मक विधिशास्त्र: अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण क्या था?
- कई प्रमुख क्रिकेट न्यायालयों ने मैच फिक्सिंग से संबंधित आचरण को अपराध घोषित करने हेतु विशिष्ट विधायी प्रावधान अधिनियमित किये हैं।।
- यूनाइटेड किंगडम का जुआ अधिनियम 2005, किसी भी घटना के संबंध में वास्तविक या प्रयत्न किये गए प्रवंचना या हस्तक्षेप को अपराध घोषित करता है, जिस पर दांव लगाया जाता है, तथा मैच फिक्सिंग आचरण का व्यापक कवरेज प्रदान करता है।
- ऑस्ट्रेलिया ने खेल सट्टेबाजी के परिणामों को भ्रष्ट करने वाले आचरण के लिये राज्य-स्तरीय आपराधिक अपराध स्थापित किये हैं, जिन्हें सट्टेबाजी से संबंधित भ्रष्टाचार के प्रति प्रतिक्रियाओं का समन्वय करने वाली एक संघीय अभिकरण (Sport Integrity Australia) द्वारा समर्थन प्राप्त है।
- दक्षिण अफ्रीका का Prevention and Combating of Corrupt Activities Act, 2004 स्पष्ट रूप से खेल आयोजनों से संबंधित भ्रष्ट क्रियाकलापों के लिये अपराध निर्धारित करता है।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के भारत में खेल विधि पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। यदि न्यायालय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के निर्वचन को स्वीकार कर लेता है और उच्च न्यायालय के आदेश को पलट देता है, तो यह विधि प्रवर्तन अभिकरणों को विद्यमान आपराधिक प्रावधानों के अधीन मैच फिक्सिंग के विरुद्ध अभियोजन चलाने का अधिकार देगा, जिससे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 का प्रतिबंधात्मक निर्वचन प्रभावी रूप से कम हो जाएगा। इसके विपरीत, यदि न्यायालय उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखता है, तो यह विशिष्ट विधायन की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करेगा और संसद के निर्णय तक अभियोजन पक्ष के विकल्पों को सीमित कर सकता है।