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सांविधानिक विधि
वक्फ संशोधन अधिनियम पर उच्चतम न्यायालय का अंतरिम आदेश
« »18-Sep-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
15 सितंबर, 2025 को मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की एक संविधान पीठ ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की सांविधानिक वैधता को चुनौती देने वाली 65 याचिकाओं के उत्तर में एक महत्त्वपूर्ण अंतरिम आदेश दिया। यह आदेश प्रशासनिक निगरानी के साथ धार्मिक स्वायत्तता को संतुलित करने के लिये उच्चतम न्यायालय के सूक्ष्म दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है, जबकि शक्तियों के पृथक्करण और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 की प्रत्याभूति के बारे में मौलिक सांविधानिक चिंताओं को संबोधित करता है।
मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 15 सितंबर 2025 को, उच्चतम न्यायालय ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 पर एक महत्त्वपूर्ण अंतरिम आदेश दिया। यह अधिनियम अप्रैल 2025 में संसद द्वारा पारित किया गया था और भारत में वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन के तरीके में बड़े परिवर्तन लाया। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने नई विधि को चुनौती देने वाली 65 याचिकाओं पर सुनवाई की।
- याचिकाकर्त्ताओं में ए.आई.एम.आई.एम. सांसद असदुद्दीन ओवैसी, टी.एम.सी. सांसद महुआ मोइत्रा और राजद सांसद मनोज कुमार झा जैसे प्रमुख राजनीतिक नेताओं के साथ-साथ विभिन्न इस्लामी संगठन भी सम्मिलित थे। उन्होंने तर्क दिया कि नई विधि संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करती है, जो धार्मिक समुदायों को अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन स्वयं करने का अधिकार देती है।
न्यायालय ने क्या निर्णय दिया?
- उच्चतम न्यायालय ने पूरे अधिनियम पर रोक लगाने से इंकार कर दिया, परंतु कुछ विशिष्ट प्रावधानों पर अस्थायी रोक लगा दी। मुख्य न्यायाधीश गवई ने स्पष्ट किया कि "केवल दुर्लभतम मामलों में ही न्यायालय किसी विधायन पर रोक लगा सकता है" और कहा कि "पूरी संविधि के प्रावधानों पर रोक लगाने का कोई मामला नहीं बनाया गया।"
- न्यायालय ने कहा कि जब तक मामला अंतिम सुनवाई के लिये लंबित है, वह "सभी पक्षकारों के हितों की रक्षा करेगा तथा साम्य को संतुलित रखेगा"।
न्यायालय द्वारा किन प्रमुख प्रावधानों पर रोक लगाई हैं?
- जिला कलेक्टरों को दी गई शक्तियां
- न्यायालय ने अधिनियम की धारा 3 ग पर रोक लगा दी, जो जिला कलेक्टरों को यह तय करने का अधिकार देती थी कि कोई वक्फ संपत्ति सरकार की है या नहीं। सबसे बड़ी समस्या यह थी कि एक बार ऐसी जांच प्रारंभ हो जाने पर, अंतिम निर्णय आने से पहले ही संपत्ति का वक्फ दर्जा तुरंत समाप्त हो जाता था।
- मुख्य न्यायाधीश गवई ने स्पष्ट रूप से कहा कि "कलेक्टर को संपत्तियों के अधिकार निर्धारित करने की अनुमति देना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि कार्यपालिका को नागरिकों के अधिकार निर्धारित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।"
- न्यायालय ने निदेश दिया कि किसी भी जांच के दौरान वक्फ संपत्तियों की स्थिति बरकरार रहेगी, परंतु जब तक वक्फ अधिकरण द्वारा मामले का अंतिम निर्णय नहीं हो जाता, तब तक विवादित संपत्तियों पर कोई नया अधिकार नहीं बनाया जा सकता।
- पाँच वर्ष की प्रैक्टिस की आवश्यकता
- नए अधिनियम के अनुसार, किसी व्यक्ति को वक्फ बनाने से पहले कम से कम पाँच वर्ष तक इस्लाम का पालन करना अनिवार्य था। न्यायालय ने इस उपबंध पर तब तक रोक लगा दी जब तक राज्य सरकारें यह जांचने के लिये उचित नियम नहीं बना लेतीं कि कोई व्यक्ति पाँच वर्ष से इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं।
- मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि "ऐसी व्यवस्था के बिना, यह प्रावधान शक्ति के मनमाने प्रयोग को बढ़ावा देगा।" यद्यपि, न्यायालय ने यह भी कहा कि पाँच वर्ष की यह अनिवार्यता "स्वयं में मनमानी नहीं है क्योंकि यह दुरुपयोग रोकने के लिये आवश्यक थी।"
- न्यायालय ने माना कि लोग वक्फ विधियों का दुरुपयोग करने तथा ऋणदाताओं से बचने के लिये इस्लाम धर्म अपना सकते हैं।
- वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्य
- न्यायालय ने वक्फ निकायों में गैर-मुस्लिम प्रतिनिधित्व की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित कीं। उसने निदेश दिया कि केंद्रीय वक्फ परिषद (जिसमें 22 सदस्य हैं) में 4 से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं हो सकते। इसी प्रकार, राज्य वक्फ बोर्डों (जिनमें 11 सदस्य हैं) में 3 से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं हो सकते।
- दिलचस्प बात यह है कि न्यायालय ने राज्य वक्फ बोर्डों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में किसी गैर-मुस्लिम को नियुक्त करने के प्रावधान पर रोक नहीं लगाई, अपितु सुझाव दिया कि "जहाँ तक संभव हो, मुस्लिम समुदाय से ही मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति करने का प्रयास किया जाना चाहिये।"
न्यायालय ने किस पर रोक नहीं लगाई?
- " उपयोग द्वारा वक्फ (Waqf by Use)" का अंत
- न्यायालय ने "उपयोग द्वारा वक्फ" की पुरानी अवधारणा को हटाने की अनुमति दे दी। इस अवधारणा का अर्थ था कि यदि भूमि का उपयोग लंबे समय तक मुस्लिम धार्मिक उद्देश्यों के लिये किया जाता रहा है, तो उसे औपचारिक रजिस्ट्रीकरण के बिना भी वक्फ माना जा सकता है। सरकार का तर्क था कि इसका दुरुपयोग सरकारी भूमि हड़पने के लिये किया जा रहा है।
- विधिक दावों के लिये समय सीमा
- न्यायालय ने वक्फ संपत्तियों पर परिसीमा अधिनियम लागू करने में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। पहले, वक्फ बिना किसी समय सीमा के अतिक्रमण के विरुद्ध कभी भी वाद दायर कर सकते थे। अब उन्हें भी, अन्य सभी की तरह, एक विनिर्दिष्ट समयावधि के भीतर वाद दायर करना होगा।
- न्यायालय ने कहा कि इस विशेष छूट को हटाने से पहले से विद्यमान विभेद समाप्त हो जाएगा।
- रजिस्ट्रीकरण की आवश्यकता
- न्यायालय ने वक्फ रजिस्ट्रीकरण की आवश्यकता पर रोक नहीं लगाई, तथा कहा कि यह आवश्यकता 1995 से 2013 तक भी विद्यमान थी, इसलिये यह पूरी तरह से नई नहीं थी।
निष्कर्ष
यह अंतरिम आदेश दर्शाता है कि उच्चतम न्यायालय दोनों पक्षकारों के प्रति निष्पक्ष रहने का प्रयास कर रहा है। एक ओर, इसने मुस्लिम समुदाय के धार्मिक अधिकारों की रक्षा की है और उन नियमों पर रोक लगाई है जो उनके प्रति अन्यायपूर्ण हो सकते थे। दूसरी ओर, इसने सरकार को उन परिवर्तनों को जारी रखने की अनुमति दी है जिनका वास्तविक उद्देश्य वक्फ संपत्तियों के साथ कपट और दुरुपयोग को रोकना है।
इस मामले में अंतिम निर्णय बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। यह तय करेगा कि सरकार धार्मिक संपत्तियों पर कितना नियंत्रण रख सकती है और संविधान इस तरह के सरकारी हस्तक्षेप पर क्या सीमाएँ लगाता है। यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता और सरकारी विनियमन से जुड़े भविष्य के मामलों का मार्गदर्शन करेगा।