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मौत क्यों हो गुज़ारिश की मोहताज

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   15-Feb-2024 | वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा



मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती

मरते हैं आरजू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती

-मिर्ज़ा ग़ालिब

स्वर्ग प्राप्ति के लिए वह हिमालय की ओर पांडवों का अंतिम सफर था। कृष्ण के संसार छोड़ देने के बाद पांचों ने द्रोपदी के साथ यह निर्णय लिया कि वे अब स्वर्ग की ओर प्रस्थान करेंगे। यह भरपूर जीवन जी लेने के बाद का निर्णय था। चारों तरफ बर्फ की सफेदी चित्त को भी मानों नीरव शांति से भर रही थी। वे चलते रहे और चलते-चलते एक-एक कर समाधिस्थ होते रहे। कथा है कि केवल धर्मराज युधिष्ठिर ही अपनी देह के साथ स्वर्ग तक पहुंचे थे।

द्वापर से कलयुग की ओर आते हैं। बात 2015 की है। जयपुर के रिटायर्ड कर्मचारी इंद्रजीत ठक्कर ने तत्कालीन राज्यपाल के आगे गुहार लगाई कि उनकी पत्नी नीना देवी दो साल से बिस्तर पर हैं। वे बाथरूम में फिसल कर गिर पड़ी थीं। हड्डी टूटने के बाद डॉक्टरों ने उनकी कूल्हे की हड्डी का ऑपरेशन किया। इलाज के डाली गई रॉड के बाद शरीर में इन्फेक्शन हो गया और फिर ब्रेन स्ट्रोक। पत्नी कोमा में चली गईं। वे अपनी सारी जमा पूँजी लगा चुके लेकिन पत्नी को कोमा से बहार नहीं निकाल पा रहे थे। 30 हज़ार महीने की पेंशन में अब वे और इलाज नहीं करवा पा रहे, इसलिए उन्हें पत्नी के लिए दयामृत्यु चाहिए। यह बेबसी की गुहार थी, वर्ना कौन अपने पचास साल के दाम्पत्य से यूं अलग होना चाहता है?

इन दोनों ही परिस्थितियों का ताल्लुक इच्छामृत्यु ,दयामृत्यु या यूथेनेशिया से है। यूथेनेशिया ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ है अच्छी मृत्यु। एक ऐसा जटिल और भावनात्मक निर्णय जिसे लेकर दुनिया अब भी एकमत नहीं है और लगातार बहस जारी है। फिर भी दुनिया के कुछ मुल्कों में यह कानूनन मान्य है। कहीं-कहीं विशेष परिस्थितियों में इसकी छूट भी है। भारत में भी बेहद विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेशिया की अनुमति है। यूं तो हर मनुष्य के गरिमापूर्ण जीवन की परिकल्पना की गई है और आज़ाद भारत में यह हक़ उसे देश का संविधान भी प्रदान करता है। फिर ऐसा क्या है कि इंसान मृत्यु की कामना करने लगता है। वह अपने दुःख तकलीफ से मुक्त होना चाहता है। इसके लिए वह खुद ही मृत्यु का मार्ग चुन लेता है और अपनी देह समाप्त कर लेता है। इसे आत्महत्या या खुदकुशी कहा जाता है जो कि हमारे कानून के मुताबिक जुर्म है, अपराध है। भारतीय दंड विधान की धारा 309 के तहत यह आत्महत्या का अपराध है। इससे अलग जब कोई व्यक्ति अपनी वसीयत में यह लिख दे कि मेरी कष्टमई मृत्यु या असाध्य बीमारियों का जब कोई इलाज न बचे या मेरा जीवन लम्बे समय तक वेंटिलेटर पर निर्भर हो जाए तो मेरे परिजनों को यह हक़ होगा कि वे मुझे इच्छामृत्यु प्रदान कर दें। मृत्यु को लेकर यह दूसरा तरीका भी भारतीय कानून में मान्य नहीं है अन्यथा केवल कुछ विशेष हालातों में ज़रूर इच्छा मृत्यु की अनुमति दी गई है।

जीवन को शांति से त्यागने के लिए हमारे यहां संथारा या सल्लेखना का विकल्प मौजूद है। यह जैन समाज के कुछ तबकों में भरपूर जीवन जी लेने के बाद संसार से विदाई का मार्ग चुनने का अधिकार प्रदान करता है। दरअसल संथारा सांसारिक मोह को त्याग परमशक्ति में विलीन हो जाने का रास्ता है। इस व्यवस्था में अधिक उम्र वाले व्यक्ति मृत्यु के इंतज़ार में अन्न-जल त्याग देते हैं। गौर किया जाए तो शतायु यानी 100 साल के जीवन की ओर बढ़ते हुए दिमाग का इतना स्वस्थ होना कि वह अपना निर्णय ले सके, मायने रखता है। इसे पांडवों के अपनाए रास्ते से जोड़कर भी देखा जा सकता है जिसका ज़िक्र प्रारम्भ में किया गया। कई ऋषि मुनियों के समाधिस्थ हो जाने का विवरण भी ग्रंथों में है।

एक अन्य परिस्थिति भी रही, जब भारतीय कानून दयामृत्यु की याचना पर ठिठका। अरुणा शानबाग (1948-2015) मुंबई के केईएम (किंग एडवर्ड मेमोरियल) हॉस्पिटल में नर्स थीं। उनकी शादी वहीं के रेजिडेंट डॉक्टर संदीप से होने वाली थी लेकिन साल 1973 में उसी अस्पताल के वार्ड बॉय ने उसे अस्पताल के बेसमेंट में बने ऑपरेशन थिएटर में ज़्यादती का शिकार बनाया और उसके बाद उस पर जानलेवा हमला कर दिया। बलात्कार के बाद उसे कुत्ते को बांधने वाली चैन से पीटा गया था। यह हमला इस कदर घातक था कि वह कोमा में चली गई। नर्स प्रमिला जिसने अरुणा को इस हाल में देखा था, उनका कहना था कि उस समय अरुणा को थोड़ा होश था। उसके बाद वह कोमा में गई तो फिर नहीं लौटी। 43 साल तक वह इसी हालत में रही। कभी-कभार उसकी आंखों की पुतलियां हिलती थीं। जिससे उसकी शादी होने वाली थी वह चार सालों तक अरुणा से मिलने आता रहा, फिर उसने भी घर बसा लिया। अरुणा 43 बरसों तक सांस ले सकीं उसका श्रेय वहां की करुणामई नर्सों को जाता है। इस उम्मीद में कि वह कभी तो उठेगी, वे सेवा करती रहीं, पर वह नहीं उठी। इतने सालों में उसकी हड्डियां कमज़ोर पड़ चुकी थी,आँखों की रोशनी जा चुकी थी। बेहोशी के कारण वह एक तरह से ब्रेन डेड यानी मानसिक तौर पर मृत थी। सवाल यही कि ऐसे में जब जीवन मृतप्राय हो, दया मृत्यु क्यों नहीं मिलनी चाहिए? बेशक अस्पताल का स्टाफ अरुणा के लिए करुणा से भरा था इसलिए वह इतने साल काट सकी। इन हालातों को समझते हुए अरुणा की एक पत्रकार मित्र ने उसके लिए दय मृत्यु की याचना करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। उन्होंने उसके लिए दयामृत्यु की पैरवी की ।

अरुणा शानबाग बनाम भारत सरकार यह केस 2011 में लड़ा गया था। उसकी पत्रकार मित्र पिंकी वीरानी ने सुप्रीम कोर्ट में अरुणा की ओर से इच्छामृत्यु का आग्रह किया। उनका तर्क था कि अरुणा की हालत गरिमा के साथ जीवन जीने के उसके संविधान से मिले आर्टिकल 21 के अधिकार का उल्लंघन है। तत्कालीन न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने भारत में सक्रिय इच्छा मृत्यु (एक्टिव यूथनेशिआ) को गैरकानूनी करार देते हुए इस याचिका को ख़ारिज कर दिया था। इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय का आधार था कि अस्पताल का स्टाफ जो उसकी देखरेख कर रहा था, वह ऐसा नहीं चाहता था। सच कहा जाए तो यह एक अद्भुद मिसाल है, जहां स्टाफ ने अपनी साथी को कोमा में रहते हुए 42 साल तक देखभाल की। मई 2015 में निमोनिया की वजह से अरुणा की प्राकृतिक मृत्यु हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में भले ही ख़ारिज किया लेकिन पैसिव यूथनेशिआ को वैध करार दे दिया। अब अरुणा जैसे मामलों में खाना या लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाया जा सकता था। अनुच्छेद 226 के तहत पैसिव यूथनेशिआ की अनुमति मिल सकती है। ऐसा अदालतें 'पैरेंस पैट्रिया ' अधिकार के तहत करती हैं । यह लेटिन शब्द है जिसके मुताबिक उनके हक़ में निर्णय देना जिनकी लड़ाई लड़ने वाला अपना कोई नहीं है। तब अदालत अभिभावक की भूमिका में आ जाती है। एक समय साम्राज्य लेकिन अब संस्थाएं ,सरकार और न्यायालय उनके लिए इस भूमिका में होते हैं। बेशक एक्टिव यूथेनेशिया के लिए फिलहाल कानून में कोई जगह नहीं है । अपने होशो हवास में कोई मौत को गले नहीं लगा सकता। साथ ही गंभीर बीमारी के मरीज एक इंजेक्शन लेकर भी जीवन समाप्त नहीं कर सकते।

इस तरह से देश में पैसिव यूथेनेशिया 2011 से कानूनन वैध है जिसे भी विशेषज्ञों की टीम की राय के बाद ही अंजाम दिया जा सकता है। दुनिया के कई देश हैं जहाँ इसे कानून सम्मत माना गया है। बेल्जियम ,कनाडा ,कोलम्बिया,निदरलैण्ड,न्यूजीलैंड,लक्सेमबर्ग ,स्पेन, और ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल (कानून के लागू होने का इंतज़ार) इन सभी देशों में इच्छामृत्यु के लिए कानून हैं। चिली ऐसा देश है जिसने 2009 में इसे एक कानूनी संशोधन के बाद वैध करार देने की कोशिश लेकिन बात नहीं बनी। फिर साल 2015 इसी देश में एक किशोरी की गुहार पर फिर विचार किया गया वैलेंटिना की सिस्टिक फाइब्रोसिस नमक लाइलाज बीमार से पीड़ित थी । वैलेंटिना के दर्द और तकलीफ ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था। देश में खूब बहस हुई लेकिन अपनी तकलीफ के साथ इस चौदह साल की किशोरी ने अंतिम सांस ली। दक्षिण कोरिया में 2018 से पैसिव यूथनेशिआ वैध है और यहाँ तक आने के लिए देश को लम्बी बहस से गुजरना पड़ा। स्वास्थ्य परिवार कल्याण की वोटिंग के बाद यह कानून बन सका था । इससे पहले 1997 में यहां के एक डॉक्टर ने दिमागी तौर एक पर मृत मरीज़ के लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटा लिया था। ऐसा उसने रोगी की पत्नी के कहने पर किया था। ऐसा करने पर तब डॉक्टर को जेल हो गई थी लेकिन अब देश में कानून है। आधार यही रहा कि जीने की गरिमा के साथ सम्मानजक मौत का हकदार भी नागरिक है।

इच्छा मृत्यु के विपक्ष में दलीलें-

जीवन ईश्वर की देन है,इसलिए इसे वापस लेने का हक़ भी उसी को है।

-इस हक़ के मिलते ही आज का समाज इसका दुरुपयोग कर सकता है। खासकर बुजुर्गों को धन के लिए भी इसका शिकार बनाया जा सकता है।

-इस तरह के एक मामले में (ज्ञान बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब )में व्यवस्था दी गई थी कि अनुच्छेद 21 लोगों की सुरक्षा और व्यक्तिगत आज़ादी सुनिश्चित करता है। इसे ख़त्म करने का कोई प्रावधान संविधान में नहीं है।

-जब कोई व्यक्ति आर्थिक विवशता ,शारीरिक अपंगता और इस कारण पैदा हुए मानसिक दबाव में ज़िन्दगी ख़त्म करना चाहता है तो इसे सम्मानजनक मृत्यु नहीं कह सकते।

पक्ष में दलीलें-

-व्यक्ति के शरीर पर उसका अधिकार है। बीमारी के कारण व्यक्ति का दर्द सहनशक्ति की सीमा के परे जा चुका है ,तब दर्द से मुक्ति का अधिकार मिलना चाहिए।

-ऐसे व्यक्ति के अंग किसी दूसरे मरीज को जीवनदान दे सकते हैं।

-कुछ स्वयं सेवी संगठनों का मानना है कि इच्छा मृत्यु का हक़ मिलना ही चाहिए ताकि असाध्य रोग से जूझ रहे लोगों को सहज और कष्टहीन मृत्यु मिल सके।

-संविधान का अनुच्छेद 21 गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है तो गरिमापूर्ण मृत्यु का हक़ भी मिलना चाहिए।

-दया मृत्यु यानी मर्सी किलिंग की इजाजत ना मिलने के कारण लोग आत्महत्या का सहारा ले रहे हैं।

एक हिंदी फिल्म गुज़ारिश (2010) इसी तकलीफ पर बनी है। कहानी में जादूगर एथन एक बेहतरीन जादूगर है लेकिन उसके शरीर को लकवा मार जाता है। उसकी बेहद खूबसूरत और संवेदनशील बीवी है जो दिन-रात उसकी सेवा करती है। ऐथन यह सब देखता है लेकिन खुद की बेबसी और लाचारी को बर्दाश्त नहीं कर पाता और इच्छा मृत्यु चाहता है। वह अदालत में याचिका दाखिल करता है लेकिन कानून के अभाव में कानून उसकी कोई मदद नहीं कर पाता। वह जनता का समर्थन जुटाने की भी कोशिश करता है। अंत में उसका कोई बेहद अपना उसे इस पीड़ा से हमेशा के लिए आज़ाद कर देता है। कहा जा सकता है कि जीवन कभी-कभी ऐसे मोड़ पर आ जाता है जहां उसे छोड़ने की नौबत आ जाती है। वक्त और इलाज कोई मरहम नहीं रखते। तब क्या इच्छा मृत्यु का विकल्प होना चाहिए ?न्यूजीलैंड ऐसा देश हैं जहाँ दो साल पहले इच्छा मृत्यु को वैध किया गया। ऐसा करने वाले को 18 से ऊपर की उम्र का होना चाहिए। उसे वहां का नागरिक होना चाहिए। बीमारी ऐसी हो जिसमें छह महीने के भीतर उसकी मृत्यु तय हो और बीमारी गंभीर होने के साथ मरीज ऐसी अवस्था में हो जहां उसके ठीक होने की कोई स्थिति नहीं हो। इसके बाद उसे इंजेक्शन या फिर दवाइयां दी जाती हैं। विचार करना ज़रूरी है कि भारत जैसे देश में जहाँ अब भी आम आदमी तक बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं ही नहीं पहुंची हैं, वहां इन बातों पर विचार तो संभव है लेकिन विशेषज्ञों की देखरेख में इन सारे पहलुओं पर मरीज के सन्दर्भ में भी गंभीर विचार भी हो यह केवल विशेष मामलों में ही संभव है। शायद इसीलिए इच्छामृत्यु से जुड़े कानून विकसित देशों में ही बन सके हैं। हमारे यहाँ तो मौत की राह देखते हुए असंख्य जीवन हर रोज़ बिना इलाज के दम तोड़ रहे हैं। बहरहाल इस की इजाजत तो कभी नहीं हो सकती कि एक व्यक्ति अपने परिवार को खर्च और तकलीफ से बचाने के लिए मौत की नींद सो जाना चाहता हो और उसने अपनी वसीयत में भी इस बात को लिख दिया हो।



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