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संविधान का सफर

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   28-Nov-2023 | शालिनी वाजपेयी



क्या आपको याद है कि 26 नवंबर हम सबके लिये एक विशेष दिन होता है? अरे नहीं-नहीं….चॉकलेट डे नहीं है; रोज़ डे भी नहीं है; गांधी जयंती का हॉलीडे भी नहीं है। कैसे याद आएगा, इस दिन के बारे में तो घर-परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ भी कोई बातचीत नहीं होती। न ही सोशल मीडिया पर इस दिन को खास बनाने के लिये कोई रौनक नज़र आती है। खैर…दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर डालने की ज़रूरत नहीं है। हम आपको याद दिला देते हैं। इस दिन को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। जी हाँ.. हम उसी संविधान की बात कर रहे हैं जो आज से 74 साल पहले अनगिनत बलिदानों, त्याग व लंबी लड़ाई के बाद बनकर तैयार हुआ था। वही संविधान जो हमारे देश की संसद, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रपति, राज्य विधानमंडल, उद्योगपतियों तक सब को अपने अनुसार चलाता है।

वही संविधान जो आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, बच्चों, दिव्यांगों व गरीबों सहित देश के हर एक व्यक्ति को यह विश्वास दिलाता है कि उसे किसी भी ताकतवर व्यक्ति से डरने की ज़रूरत नहीं है। जो यह विश्वास दिलाता है कि अगर आप बेगुनाह हैं तो बड़े से बड़ा व्यक्ति, चाहे वह देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ही क्यों न हो, आपका बालबाँका भी नहीं कर सकता। एक यही विलक्षण दस्तावेज़ है जिसके भरोसे पर हम घरवालों के खिलाफ जाकर दूसरी जाति ही नहीं बल्कि दूसरे धर्म के लड़के या लड़की से शादी कर लेते हैं। इसी किताब की बदौलत यह संभव हो सका है कि आज बेटी कुआँरी हो या शादीशुदा, अपने पिता की संपत्ति पर अपना अधिकार जता सकती है; तलाक के बाद पति से अपने व अपने बच्चे के लिये गुज़ारा-भत्ता मांग सकती है; दहेज के लिये प्रताड़ित करने वाले ससुराल वालों को सबक सिखा सकती है। यही नहीं, ढोंग और पाखंड के जाल में फँसाकर बेटियों के साथ घृणित अपराध करने वाले आशाराम बापू व राम रहीम जैसे बाबाओं को सज़ा दिलवाने में भी हमारे संविधान की ही भूमिका रही है। हमें अपने संविधान के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिये कि उसने हम देशवासियों को खुली फिज़ाओं में उड़ने की आज़ादी दी।

लेकिन समस्या यह है कि हम किसी का दिल से धन्यवाद तभी कह पाएँगे जब यह अच्छे से जानेंगे कि उसने हमारे लिये किया क्या है? तो चलिये हम भी कुछ अपने संविधान के बारे में जान लें। जितना ज़्यादा हम अपने संविधान को जानेंगे, उतना ही ज़्यादा अपने अधिकारों के बारे में जागरूक होंगे और जितना हम अपने अधिकारों के बारे में जागरूक रहेंगे, ज़िंदगी जीना उतना ही आसान हो जाएगा।

भारतीय संविधान के बारे में हम और कुछ जानें इससे पहले हमें यह जान लेना चाहिये कि हमारे देश के संविधान को औपचारिक रूप से एक संविधान सभा ने बनाया था जिसकी पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई थी। जिसमें संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा (अस्थायी) अध्यक्ष थे, इसके बाद डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को स्थायी तौर पर अध्यक्ष चुना गया था। वैसे तो संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में संविधान बनाकर, 26 नवंबर, 1949 को राष्ट्र को सौंप दिया था, लेकिन 26 जनवरी, 1950 को इसे पूरे देश में लागू किया गया। तब से लेकर आज तक, बिना किसी रुकावट के हमारा संविधान लगातार काम कर रहा है।

संविधान सभा के बारे में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि संविधान सभा सिर्फ जन-प्रतिनिधियों अथवा योग्य वकीलों का जमावड़ा भर नहीं है बल्कि यह स्वयं में ‘राह पर चल पड़ा एक राष्ट्र है जो अपने अतीत के राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे के खोल से निकलकर अपने बनाएँ नए आवरण को पहनने की तैयारी कर रहा है।’

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसमें 1 लाख 46 हज़ार 385 शब्द हैं। इसकी मूल प्रति हिंदी और अंग्रेज़ी, दोनों ही भाषाओं में प्रेम बिहारी नारायण रायजादा द्वारा हाथ से लिखी गई हैं। उन्होंने बेहद खूबसूरत इटैलिक लिखावट में इसे लिखा है। वहीं, आचार्य नंदलाल बोस ने इसके हर पेज को चित्रों से सजाया है। इसके प्रस्तावना पेज को सजाने का काम राममनोहर सिन्हा ने किया है, जो नंदलाल बोस के ही शिष्य थे। आज भी संविधान की मूल प्रति भारतीय संसद की लाइब्रेरी में हीलियम से भरे केस में रखी है।

हालाँकि, जिस बात पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है वो यह है कि भारत का संविधान दुनिया का इकलौता ऐसा संविधान है जो एक दो नहीं, बल्कि 10 से ज़्यादा देशों से प्रेरित है। यानी हमारे संविधान निर्माताओं को जिन देशों के संविधान की जो बातें अच्छी लगीं उन्होंने उनको अपने संविधान में रख दिया। इसलिये कुछ लोग इसे ‘उधार का थैला’ भी कहते हैं। उन्होंने ब्रिटिश संविधान से सरकार का संसदीय स्वरूप, कानून निर्माण की विधि जैसे प्रावधान अपनाएँ हैं तो आयरलैंड से राज्य के नीति निर्देशक तत्वों, अमेरिका से मौलिक अधिकारों और फ्राँस से स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांत को अपनाया है। इसके अलावा, जर्मनी, कनाडा व अन्य देशों के संविधान से भी कुछ अवधारणाएँ ली गई हैं।

इन सबके बीच, मौलिक अधिकारों की चर्चा नहीं कि तो भारतीय संविधान की चर्चा अधूरी रह जाएगी। इसके तीसरे भाग में अनुच्छेद 12 से 35 में वर्णित मौलिक अधिकार इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि संविधान स्वयं यह सुनिश्चित करता है कि सरकार का कोई भी अंग उनका उल्लंघन न कर सके। मौलिक अधिकार भारत के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के दिये जाते है और यदि कोई हमारे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो हम सीधे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। नीचे दिये गए चित्र से हम संक्षेप में अपने मौलिक अधिकारों के बारे में जान सकते हैं-

क्या संविधान को निरस्त किया जा सकता है?

आपके मन में यह प्रश्न भी ज़रूर उठता होगा कि सबकी विचारधाराएँ अलग-अलग हैं, तो क्या वे व्यक्ति या शासक जो संविधान में लिखी गई बातों से सहमत नहीं हैं, क्या संविधान को निरस्त कर सकते हैं। तो इसका जवाब है ‘नहीं’। भारतीय संविधान ने शक्ति को एक समान धरातल पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं और निर्वाचन आयोग जैसे स्वतंत्र संवैधानिक निकायों में बाँट रखा है। जिसके चलते यदि कोई एक संस्था संविधान को नष्ट करने की कोशिश करती है तो अन्य दूसरी संस्थाएँ उसके अतिक्रमण को नियंत्रित कर लेंगी।

वहीं, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस समय हमारा संविधान बनाया गया उस समय देश की परिस्थितियाँ आज से भिन्न थीं, जिसके कारण यह स्वाभाविक है कि हमारे संविधान में बहुत सी बातें ऐसी लिखी हों जो आज के परिदृश्य के अनुकूल न हों। इसके अलावा संविधान में ढेरों बातों की व्याख्या बाकी थी। इस समस्या को भी हमारे संविधान निर्माताओं ने भाँप लिया था और इसी कारण उन्होंने यह प्रावधान किया कि समय की ज़रूरत को देखते हुए इसमें संशोधन और व्याख्याएँ की जा सकती हैं। अब तक हुए 100 से ज़्यादा संशोधन इस बात के प्रमाण हैं कि हमारा संविधान कानूनों की एक बंद और जड़ किताब न होकर एक जीवंत दस्तावेज़ है। वह अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। 

अब अगर संविधान संशोधन की बात चली है तो इसकी प्रक्रिया के साथ-साथ उन संशोधनों पर भी एक नज़र डालना ज़रूरी है जिनके कारण संविधान में बड़े पैमाने पर बदलाव हुए। 

42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1976

जिस समय 42वाँ संविधान संशोधन हुआ उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी और देश में आपातकाल लगा हुआ था। इस संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं अखंडता’ तीन नए शब्द तो जोड़े ही गए, साथ ही 10 मूल कर्त्तव्यों को भी शामिल किया गया। इतना ही नहीं, इसके तहत संवैधानिक संशोधन को न्यायिक प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया और नीति निर्देशक तत्त्वों को और व्यापक बना दिया गया। साथ ही यह भी कहा गया, राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह मानने के लिये बाध्य है। इनके अतिरिक्त, अन्य प्रावधान भी जोड़े गए। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस संशोधन के द्वारा संविधान के एक बड़े मौलिक हिस्से को नए सिरे से लिखा गया। जिसके चलते इसे ‘लघु संविधान’ भी कहा जाता है।

73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992

साल 1992 में संसद ने संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को पारित किया। संविधान का 73वाँ संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है। वहीं, संविधान का 74वाँ संशोधन शहरी स्थानीय शासन (नगरपालिका) से जुड़ा है। ये दोनों संशोधन सन् 1993 से लागू हुए। इन संशोधनों के ज़रिये स्थानीय समुदायों की गवर्नेंस और निर्णयन प्रक्रियाओं में भागीदारी बढ़ी। साथ ही शासन में जवाबदेही और पारदर्शिता आई।

अब हम भारतीय संविधान के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले कुछ मामलों के बारे में जानेंगे। इन मामलों के बारे में जानना इसलिये भी ज़रूरी है ताकि अतीत में जो गोलकनाथ परिवार, केशवानंद भारती और मिनर्वा मिल्स कंपनी के साथ हुआ, वो हमारे साथ हो तो हमें क्या करना है? इसके साथ ही, हम यह अंदाजा लगा पाएँगे कि वास्तव में भारतीय संविधान हमें कितनी ताकत देता है?

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1967 का मामला

हेनरी और विलियम गोलकनाथ दो भाई थे तथा उनके पास पंजाब के जालंधर में करीब 500 एकड़ ज़मीन थी। 1953 में पंजाब सरकार एक नियम लेकर आई जिसमें कहा गया कि एक व्यक्ति अधिकतम 30 एकड़ ज़मीन ही अपने पास रख सकता है, इसके अतिरिक्त जो भी ज़मीन है उसे छोड़ना होगा। गोलकनाथ परिवार को ये मंज़ूर नहीं था। फिर क्या..उन्होंने भगवान के सहारे सब कुछ छोड़ने की बजाय अपने संविधान का सहारा लिया और सरकार द्वारा लाए गए कानून ‘पंजाब सुरक्षा एवं भूमि कार्यकाल अधिनियम 1953’ की वैधता को चुनौती दी, क्योंकि एक यही था जो गोलकनाथ को इस समस्या से बाहर निकाल सकता था। गोलकनाथ ने संविधान में लिखे कुछ अनुच्छेदों का हवाला देते हुए यह तर्क दिया कि सरकार के इस नियम से हमारे मौलिक अधिकार का हनन किया जा रहा है। अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों के सभी तर्कों पर गंभीरता से विचार करके यह फैसला सुनाया कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 का मामला

गोलकनाथ की तरह ही एक मामला हमें केरल में देखने को मिला। दरअसल केरल के कासरगोड ज़िले में एक एडनीर नाम का एक हिंदू मठ था। जिसके मठाधीश केशवानंद भारती थे। इसी दौरान केरल सरकार ने दो भूमि सुधार कानून बनाएँ। इनकी मदद से सरकार मठ के प्रबंधन पर कई सारी पाबंदियाँ लगाने की कोशिश में थी। लेकिन केशवानंद ने सरकार की इन कोशिशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। उन्होंने कहा कि सरकार का बनाया कानून उनके संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 26 का हवाला दिया, जिसके मुताबिक भारत के हर नागरिक को धर्म-कर्म के लिये संस्था बनाने, उनका प्रबंधन करने और इस सिलसिले में चल-अचल संपत्ति जोड़ने का हक है।

काफी लंबे समय तक चले इस विवाद का समाधान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिससे हम सबको एक और सुरक्षा कवच मिल गया। इस निर्णय के द्वारा संसद को प्राप्त संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद संविधान के मूल ढाँचे में कोई बदलाव या हस्तक्षेप नहीं कर सकती। वह केवल निर्धारित सीमाओं के अंदर ही संविधान के किसी या सभी भागों में संशोधन कर सकती है।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ

मिनर्वा मिल्स कर्नाटक राज्य की एक टेक्सटाइल कंपनी थी। यह टेक्सटाइल कंपनी कपड़ों का व्यापार करती थी। कालांतर में इसे केंद्र सरकार ने सिक टेक्सटाइल्स अंडरटेकिंग एक्ट 1974 के तहत राष्ट्रीयकृत घोषित कर दिया, और जाँच रिपोर्ट आने के बाद कंपनी को अपने स्वामित्व में कर लिया। जिससे ये हुआ कि कल तक जो खुद की कंपनी के मालिक थे अब वह सरकार के नियंत्रण में आ गए। जिसके चलते कंपनी के मालिक ने सरकार के इस फैसले को चुनौती दी। उन्होंने संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों व नीति-निर्देशक तत्वों का हवाला देते हुए अपना पक्ष रखा। दोनों पक्षों के मंतव्यों को सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान की स्थापना मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन के आधार पर की गई है। संसद निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिये मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है, यदि यह संशोधन संविधान के मूल ढाँचे को आघात न पहुँचाता हो या उसे नष्ट नहीं करता हो।

इनके अलावा, हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए कुछ बड़े निर्णयों की बात करें तो धारा 377 का समाप्त होना जिससे समलैंगिक जोड़ों को साथ रहने की आज़ादी मिली। 128 वें संविधान संशोधन विधेयक को पारित करना जिसके तहत लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिये एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गईं। अनुच्छेद 370 को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करना आदि शामिल हैं।

सार रूप में हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान एक सफल संविधान है। इसमें फुटपाथ पर सोने वाले व्यक्ति से लेकर महल में रहने वाले राजा तक, हर किसी को बराबर अधिकार दिये गए हैं। बस ज़रूरत है तो अपने अधिकारों के बारे में जानने की, अपने संविधान द्वारा दी गई शक्ति को पहचानने की। संविधान ही है जिसकी बदौलत हम अपने साथ होने वाले किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठा सकते है और यही वह कारण है कि जिसकी वजह से इतनी जटिलता से बनाया गया संविधान न केवल अस्तित्व में है, बल्कि एक जीवंत सच्चाई भी है। जबकि दुनिया के अन्य अनेक संविधान कागज़ी पोथों में ही दबकर साबित हो गए हैं।



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