होम / करेंट अफेयर्स
पारिवारिक कानून
तलाकशुदा मुस्लिम महिला विवाह हिबा को पुनः प्राप्त कर सकती है
« »03-Dec-2025
|
रूसानारा बेगम बनाम एस.के. सलाहुद्दीन एवं अन्य (2025) "न्यायालयों को सामाजिक न्याय के आधार पर अपने तर्क प्रस्तुत करने चाहिये, समता, गरिमा और स्वायत्तता को सर्वोपरि रखना चाहिये, विशेष रूप से छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के अनुभवों पर विचार करना चाहिये।" न्यायमूर्ति संजय करोल और नोंगमेइकापाम कोटिस्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
रूसानारा बेगम बनाम एस.के. सलाहुद्दीन एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति नोंगमेइकापाम कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और तलाकशुदा मुस्लिम महिला को 7 लाख रुपए और 30 भोरी सोने के आभूषण लौटाने का निदेश दिया, जिसमें मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 के उद्देश्यपूर्ण व्याख्या पर बल दिया गया।
रूसानारा बेगम बनाम एस.के. सलाहुद्दीन एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता रुसानारा बेगम और प्रतिवादी एस.के. सलाहुद्दीन का विवाह 28 अगस्त 2005 को हुआ था।
- विवाह के कुछ समय बाद ही मतभेद उत्पन्न हो गए और अपीलकर्त्ता ने 7 मई 2009 को अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया।
- अपीलकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 498-क के अधीन कार्यवाही दायर की।
- यह विवाह 13 दिसंबर 2011 को विवाह विच्छेद के साथ समाप्त हो गया।
- अपीलकर्त्ता ने मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 के अधीन न्यायालय में आवेदन देकर मेहर की राशि, दहेज, सोने के आभूषण और घरेलू सामान सहित 17,67,980 रुपए वापस मांगे।
- मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने प्रारंभ में आवेदन स्वीकार कर लिया तथा 17.5 लाख रुपए के दावे के विरूद्ध 8.3 लाख रुपए प्रदान किये।
- मजिस्ट्रेट और सेशन न्यायालय के बीच पुनरीक्षण याचिकाओं और रिमांड के कई दौर के बाद, 2017 में अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपीलकर्त्ता को 7 लाख रुपए और 30 भोरी सोने के आभूषण देने का आदेश दिया।
- मुख्य साक्ष्य में दो क़बीलनामा (विवाह रजिस्टर प्रविष्टियाँ) - प्रदर्श 7 और प्रदर्श 8 सम्मिलित थे। प्रदर्श 8, मूल प्रविष्टि, में अभिलिखित किया गया था कि वधू के पिता ने दामाद को 7 लाख रुपए और 30 भोरी सोना दिया, जबकि प्रदर्श 7 में प्राप्तकर्त्ता को निर्दिष्ट किये बिना राशि अभिलिखित की गई थी।
- सेशन न्यायालय ने मजिस्ट्रेट के आदेश में कोई अनियमितता न पाते हुए प्रत्यर्थी की दाण्डिक पुनरीक्षण याचिका दिसंबर 2018 में खारिज कर दी ।
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए नवंबर 2022 में प्रत्यर्थी की याचिका को स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ न्यायालयों के आदेश को अपास्त कर दिया।
- उच्च न्यायालय का तर्क भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क की कार्यवाही में अपीलकर्त्ता के पिता के कथन पर आधारित था, जहाँ उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि उन्होंने प्रत्यर्थी (वर) को राशि और सोना दिया था।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के तर्क से असहमति जताते हुए कहा कि उच्च न्यायालय ने उद्देश्यपूर्ण व्याख्या के लक्ष्य को नजरअंदाज कर दिया है तथा मामले को पूरी तरह से सिविल विवाद के रूप में लिया है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने धारा 498क की कार्यवाही में पिता के कथन को अनुचित महत्त्व दिया, जबकि प्रत्यर्थी को उन कार्यवाहियों में दोषमुक्त कर दिया गया था, जिससे पता चलता है कि उस कथन का साक्ष्य मूल्य संदिग्ध था।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब विवाह रजिस्ट्रार ने न्यायालय के समक्ष मूल विवाह रजिस्टर प्रस्तुत किया तथा प्रविष्टियों के संबंध में विसंगति बताई, तो उसके कथन को पूरी तरह से स्वीकार किया जाना चाहिये था।
- न्यायालय ने कहा कि विवाह रजिस्टर में ओवरराइटिंग के संबंध में संदिग्ध आचरण के आरोप मात्र रजिस्ट्रार के परिसाक्ष्य को खारिज करने के लिये पर्याप्त नहीं थे।
- पीठ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत का संविधान समता को एक आकांक्षा के रूप में निर्धारित करता है, और न्यायालयों को इस लक्ष्य को प्राप्त करने में योगदान देने के लिये सामाजिक न्याय के निर्णयों पर अपने तर्क आधारित करने चाहिये।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि 1986 के अधिनियम का दायरा और उद्देश्य तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं की गरिमा और वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करना है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन महिलाओं के अधिकारों के अनुरूप है।
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की व्याख्या करते समय समता, गरिमा और स्वायत्तता को प्राथमिकता दी जानी चाहिये तथा महिलाओं के वास्तविक जीवन के अनुभवों को ध्यान में रखा जाना चाहिये, विशेषकर छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ निहित पितृसत्तात्मक भेदभाव अभी भी व्याप्त है।
- न्यायालय ने प्रत्यर्थी को निदेश दिया कि वह निर्धारित समय सीमा के भीतर अपीलकर्त्ता के बैंक खाते में सीधे ही राशि जमा कर दे, तथा संदाय न करने पर 9% प्रति वर्ष की दर से ब्याज भी देना होगा।
मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 क्या है?
बारे में:
- यह अधिनियम उन मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिये बनाया गया था जिन्हें उनके पतियों ने तलाक दे दिया है या जिन्होंने अपने पतियों से तलाक ले लिया है। यह इन अधिकारों की सुरक्षा से जुड़े या सुसंगत मामलों का प्रावधान करता है।
- यह अधिनियम अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) का प्रत्युत्तर था, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) एक पंथनिरपेक्ष उपबंध है जो सभी पर लागू होता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) के अधीन भरणपोषण का अधिकार पर्सनल लॉ के प्रावधानों द्वारा नकारा नहीं जाता है।
प्रावधान:
- तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पूर्व पति से उचित एवं न्यायसंगत भरणपोषण पाने की हकदार है, जिसका संदाय इद्दत अवधि के भीतर किया जाना चाहिये।
- इद्दत एक अवधि है, जो सामान्यत: तीन महीने की होती है, जिसे एक महिला को अपने पति की मृत्यु या विवाह विच्छेद के पश्चात् पुनर्विवाह करने से पहले पूरा करना होता है।
- इस अधिनियम में महर (दहेज) के संदाय और विवाह के समय महिला को दी गई संपत्ति की वापसी को भी सम्मिलित किया गया है।
- यह तलाकशुदा महिला और उसके पूर्व पति को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) के प्रावधानों के अंतर्गत आने का विकल्प चुनने की अनुमति देता है। बशर्ते वे आवेदन की पहली सुनवाई में इस आशय की संयुक्त या अलग घोषणा करें।
विकास:
- उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 2001 में डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ के मामले में अपने निर्णय में 1986 के अधिनियम की सांविधानिक वैधता को बरकरार रखा था और कहा था कि इसके प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन नहीं करते हैं।
- इसने मुस्लिम महिलाओं को इद्दत अवधि के बाद पुनर्विवाह करने तक भरणपोषण प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया ।
- शबाना बानो बनाम इमरान खान केस (2009): उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएँ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन, इद्दत अवधि के बाद भी, भरणपोषण की मांग कर सकती हैं, बशर्ते वे पुन:विवाह न करें। इसने इस सिद्धांत की पुष्टि की कि दण्ड प्रक्रिया संहिता का उपबंध धर्म की परवाह किये बिना लागू होता है।