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सांविधानिक विधि

आर्थिक नीति में अनुच्छेद 226 की अधिकारिता की सीमाएँ

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 09-Dec-2025

अकोला नगर निगम और अन्य. बनाम जिशान हुसैन अजहर हुसैन और अन्य 

"न्यायालय को आर्थिक नीति के मामलों में नगर निकायों के लिये अपने निर्णय को प्रतिस्थापित नहीं करना चाहियेजब तक कि स्पष्ट अवैधता या सांविधानिक उल्लंघन न हो।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

अकोला नगर निगम एवं अन्य बनाम जिशान हुसैन अजहर हुसैन एवं अन्य (2025) के मामलेमें न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ नेनगरपालिका कर नीति निर्णयों के पुनर्विचार में अनुच्छेद 226 की अधिकारिता की सीमाओं को स्पष्ट कियातथा कहा कि रिट न्यायालय आर्थिक मामलों में नगर निकायों के निर्णय के स्थान पर अपना निर्णय नहीं दे सकतेजब तक कि स्पष्ट अवैधता या सांविधानिक उल्लंघन न हो। 

अकोला नगर निगम एवं अन्य बनाम जिशान हुसैन अजहर हुसैन एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

प्रारंभिक रिट याचिका: 

  • अकोला नगर निगम के पार्षद जिशान हुसैन ने 2018 में संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन एक लोकहित वाद दायर कियाजिसमें वर्ष 2017-18 से 2021-22 के लिये संपत्ति कर संशोधन को चुनौती दी गई। 
  • याचिकाकर्त्ता ने रिट अधिकारिता का आह्वान करते हुए दावा किया कि कर संशोधन अवैध हैविधि के विपरीत हैतथा उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना किया गया है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने कर संशोधन को अवैध घोषित करने तथा निगम के प्रस्ताव को रद्द करने के लिये परमादेश याचिका की मांग की।  

निगम की स्थिति: 

  • अकोला नगर निगम ने 2001 के बाद से संपत्ति कर की दरों में संशोधन नहीं किया थाजब इसे नगर परिषद से नगर निगम में अपग्रेड किया गया था। 
  • संपत्ति कर मुख्य राजस्व स्रोत होने के कारणनिगम ने कर वसूली प्रणालियों को मजबूत करने के लिये 2015-16 से 2020-21 के लिये कर योग्य मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक समझा। 
  • वर्ष 2015-16 मेंनिगम ने तकनीकी सलाहकारों के माध्यम से अपनी अधिकारिता में लगभग 1,50,000 संपत्तियों का व्यापक डोर-टू-डोर सर्वेक्षण शुरू किया। 
  • निगम ने अप्रैल, 2017 को एक प्रस्ताव पारित किया (जिसे 19 अगस्त, 2017 को संशोधित किया गया) जिसमें पाँच वर्षों (2017-18 से 2021-22) के लिये संपत्ति कर अधिरोपित करने की पद्धति और तरीके का अवधारण किया गया। 

उच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 226 की शक्तियों का प्रयोग: 

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अक्टूबर, 2019 के अपने निर्णय के माध्यम से निगम के प्रस्ताव को रद्द करने के लिये अनुच्छेद 226 के अधीन अपनी रिट अधिकारिता का प्रयोग किया। 
  • उच्च न्यायालय ने कर संशोधन प्रक्रिया में प्रक्रियागत अनियमितताएँ पाईं और निगम के आर्थिक नीति निर्णय में हस्तक्षेप किया। 
  • निगम द्वारा दायर पुनर्विलोकन याचिका 24 जनवरी, 2020 को खारिज कर दी गई। 
  • उच्चतम न्यायालय ने 13 अक्टूबर, 2020 को उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दीजिससे निगम को संशोधित कर ढाँचा लागू करने की अनुमति मिल गई। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

संदिग्ध सुने जाने का अधिकार (Locus Standi) और जनहित याचिका का दुरुपयोग: 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता का सुने जाने का अधिकार संदिग्ध है क्योंकि उसने अकोला की जनता का प्रतिनिधित्व करने का दावा नहीं किया। स्वयं एक पार्षद होने के नातेयाचिका में लोकहित वाद की आड़ में व्यक्तिगत शिकायतें उठाई गई प्रतीत होती हैं। 

अनुच्छेद 226 की अधिकारिता का अनुचित प्रयोग: 

  • न्यायालय ने कहा कि निगम के आर्थिक नीति निर्णय में हस्तक्षेप करने के लिये अनुच्छेद 226 की शक्तियों का प्रयोग करना उच्च न्यायालय के लिये उचित नहीं था। 
  • असाधारण रिट अधिकारिता का उपयोग नीतिगत योग्यता या बुद्धिमत्ता के बारे में निरर्थक जांच करने के लिये नहीं किया जाना चाहिये 
  • उच्च न्यायालय ने निगम के स्थान पर अपनी राय देकर सुस्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन कियाजबकि कर संशोधन पूरी तरह से निगम की अधिकारिता में आता था। 

अनुच्छेद 226 की परिसीमाओं पर पूर्व निर्णय: 

  • न्यायालय नेश्री सीताराम शुगर कंपनी लिमिटेड बनाम भारत संघ (1990)का हवाला देते हुए इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 226 न्यायिक पुनर्विलोकन का आर्थिक नीति मामलों से कोई संबंध नहीं है। 
  • बाल्को एम्प्लॉइज यूनियन बनाम भारत संघ (2002)में निर्णय दिया गया कि लोकहित वाद के माध्यम से अनुच्छेद 226 के अधीन रिट अधिकारिता केवल सांविधानिक दायित्त्वों की अवहेलना के लिये उपलब्ध हैआर्थिक नीतियों पर प्रश्न उठाने के लिये नहीं। 
  • किर्लोस्कर फेरस इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025)ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 226 की शक्तियों को प्रक्रिया की वैधता का आकलन करना चाहियेन कि नीतिगत बुद्धिमत्ता का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिये 

पुनर्विलोकन का सीमित दायरा: 

  • प्रत्यर्थी के जवाबी शपथपत्र में स्वीकार किया गया कि लोकहित वाद में निगम के करों में संशोधन के अधिकार को चुनौती नहीं दी गई हैअपितु केवल अपनाई गई प्रक्रिया को चुनौती दी गई है। 
  • चूँकि मूल प्राधिकार को चुनौती नहीं दी गई थीइसलिये अनुच्छेद 226 की जांच को सांविधिक अनुपालन की परीक्षा तक सीमित रखा जाना चाहिये था। 
  • अनुच्छेद 226 की शक्तियों का प्रयोग मनमाने ढंग से तथ्यों की जांच हेतु तब तक नहीं किया जा सकताजब तक यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित न हो जाए कि अपनाई गई प्रक्रिया मनमानीया सांविधिक उपबंधों का उल्लंघन करने वाली है — और प्रस्तुत मामले में ऐसा कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं था 

उच्चतम न्यायालय के निदेश: 

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के अक्टूबर, 2019 के निर्णय और 24 जनवरी, 2020 के पुनर्विलोकन आदेश को विधि की दृष्टि से अस्थिर मानते हुए अपास्त कर दिया। 
  • अपील को लागत के संबंध में कोई आदेश दिये बिना स्वीकार कर लिया गया। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 226 क्या है? 

  • संविधान केभाग के अंतर्गतअनुच्छेद 226 निहित है जोउच्च न्यायालय को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है । 
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 226(1) मेंकहा गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन और अन्य उद्देश्यों के लिये किसी व्यक्ति या सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरणपरमादेशप्रतिषेधअधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण सहित आदेश या रिट जारी करने की शक्तियां होंगी। 
  • अनुच्छेद 226(2)में कहा गया है कि उच्च न्यायालय को किसी भी व्यक्तिसरकार या प्राधिकरण को रिट या आदेश जारी करने की शक्ति है - 
    • इसकी अधिकारिता में स्थित हो या 
    • यदि वादहेतुककी परिस्थितियाँपूर्णतः या भागत: उसके प्रादेशिक अधिकारिता के भीतर उत्पन्न होती हैं तो यह उसकी स्थानीय अधिकारिता के बाहर होगा। 
  • अनुच्छेद 226(3)में कहा गया है कि जब किसी पक्षकार के विरुद्ध उच्च न्यायालय द्वारा व्यादेशरोक या अन्य माध्यम से अंतरिम आदेश पारित किया जाता है तो वह पक्षकार ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है और ऐसे आवेदन का न्यायालय द्वारा दो सप्ताह की अवधि के भीतर निपटारा किया जाना चाहिये 
  • अनुच्छेद 226(4)कहता है कि इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति अनुच्छेद 32 के खण्ड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को दिये गए अधिकार को कम नहीं करना चाहिये 
  • यह अनुच्छेद सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकारी के विरुद्ध जारी किया जा सकता है। 
  • यह महज एक सांविधानिक अधिकार हैमौलिक अधिकार नहीं है और इसे आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता। 
  • अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों के मामले में अनिवार्य प्रकृति का है तथा जब इसे “किसी अन्य उद्देश्य” के लिए जारी किया जाता है तो यह विवेकाधीन प्रकृति का है। 
  • यह न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करता हैअपितु अन्य विधिक अधिकारों को भी लागू करता है