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सिविल कानून

चिकित्सीय उपेक्षा के मामलों में बीमाकर्त्ता आवश्यक पक्ष नहीं है

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 24-Oct-2025

"चिकित्सा उपेक्षा के मामलों में बीमा कंपनी न तो आवश्यक और न ही उचित पक्ष है। परिवादकर्त्ता dominus litis है और उसे बीमा कंपनी को पक्षकार बनाने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।" 

न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और चल्ला गुणरंजन 

स्रोत: आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और न्यायमूर्ति चल्ला गुणरंजन की पीठ ने डॉ. मुदुनुरी रवि किरण बनाम जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, गुंटूर और 4 अन्य के मामले में यह निर्णय दिया कि किसी अस्पताल के लिये वृत्तिक क्षतिपूर्ति पॉलिसी रखने वाली बीमा कंपनी, उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों के समक्ष चिकित्सा उपेक्षा के परिवादों में न तो आवश्यक और न ही उचित पक्षकार है 

डॉ. मुदुनुरी रवि किरण बनाम जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, गुंटूर और 4 अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

दायर किया गया परिवाद: 

  • चेकुरी लक्ष्मी नारायण (द्वितीय प्रत्यर्थी) ने जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, गुंटूर के समक्ष उपभोक्ता परिवाद संख्या 112/2023 दायर किया, जिसमें डॉ. मुदुनुरी रवि किरण (यशोदा हॉस्पिटल्स के मुख्य परिचालन अधिकारी) और दो प्रबंध निदेशकों के विरुद्ध चिकित्सीय उपेक्षा का आरोप लगाते हुए प्रतिकर का दावा किया गया। 

पक्षकार बनाने के लिये आवेदन: 

  • याचिकाकर्त्ता-डॉक्टर ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 1 नियम 10 के अधीन 2023 का M.A.No.487 दायर किया, जिसमें उपभोक्ता परिवाद में न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को चौथे विपक्षी पक्षकार के रूप में सम्मिलित करने की मांग की गई। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि अस्पताल व्यावसायिक क्षतिपूर्ति चिकित्सा स्थापना नीति के अंतर्गत कवर किया गया था, जिससे बीमा कंपनी एक उचित और आवश्यक पक्ष बन गई। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि बीमा कंपनी को पक्षकार न बनाने से मुकदमेबाजी की बहुलता हो जाएगी, क्योंकि डॉक्टर को बीमा कंपनी के विरुद्ध पृथक् वाद दायर करना होगा।  

जिला फोरम का आदेश: 

  • 07.03.2024 को जिला फोरम ने M.A.No.487/2023 को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि: 
  • परिवादकर्त्ता की बीमा कंपनी के साथ कोई संविदा नहीं थी 
  • परिवादकर्त्ता न तो बीमा कंपनी का उपभोक्ता था और न ही लाभार्थी। 
  • यदि डॉक्टर पर दायित्त्व तय किया गया था, तो वह वृत्तिक क्षतिपूर्ति पॉलिसी के अधीन बीमा कंपनी से अनुतोष पाने के लिये स्वतंत्र था।  

राष्ट्रीय आयोग में अपील: 

  • याचिकाकर्त्ता ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के समक्ष डायरी संख्या 5271/ NCDRC/2025-RP दायर की। 
  • 06.03.2025 को राष्ट्रीय आयोग ने संशोधन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह पोषणीय नहीं है। 

रिट याचिका: 

  • दिनांक 07.03.2024 और 06.03.2025 के दोनों आदेशों को चुनौती देते हुए, याचिकाकर्त्ता ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका संख्या 18839/2025 दायर की। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

Dominus Litis सिद्धांत: 

  • न्यायालय ने दोहराया कि वादी dominus litis (वाद का स्वामी) है तथा उसे अपना प्रतिद्वंद्वी चुनने का अधिकार है। 
  • वादी को किसी व्यक्ति को पक्षकार बनाने के लिये तब तक आबद्ध नहीं किया जा सकता जब तक कि वह आवश्यक या उचित पक्षकार न हो। न्यायालय नेसुधामयी पटनायक बनाम बिभु प्रसाद साहू (2022) मामले पर विश्वास किया। 

आवश्यक और उचित पक्षकार की परिभाषा: 

  • मुंबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाम रीजेंसी कन्वेंशन सेंटर (2010)का हवाला देते हुए, न्यायालय ने स्पष्ट किया: 
  • आवश्यक पक्षकार:वह व्यक्ति जिसकी अनुपस्थिति में कोई प्रभावी डिक्री पारित नहीं की जा सकती। यदि उसे पक्षकार नहीं बनाया जाता है, तो वाद खारिज किया जा सकता है। 
  • उचित पक्ष:वह व्यक्ति जिसकी उपस्थिति पूर्ण न्यायनिर्णयन को संभव बनाती है, यद्यपि डिक्री पारित करने के लिये यह आवश्यक नहीं है। 

वर्तमान मामले पर लागू: 

न्यायालय ने कहा कि बीमा कंपनी न तो आवश्यक है और न ही उचित है क्योंकि: 

  • बीमाकर्त्ता की उपस्थिति के बिना भी डॉक्टरों/अस्पताल के विरुद्ध प्रतिकर दिया जा सकता है। 
  • मुख्य विवाद्यकों (उपेक्षा, सेवा में कमी) का निर्णय केवल साक्ष्य के आधार पर किया जा सकता है। 
  • परिवादकर्त्ता की बीमा कंपनी के साथ कोई संविदा नहीं है। 
  • यदि दायित्त्व निश्चित है, तो बीमा कंपनी अपने पृथक् संविदा के अधीन डॉक्टर की प्रतिपूर्ति करती है। 
  • परिवादकर्त्ता का बीमा करार से कोई संबंध नहीं है। 

मोटर वाहन अधिनियम की नामंजूरी सादृश्य: 

  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि मोटर दुर्घटना दावों में बीमा कंपनियों को पक्षकार बनाया जाता है, इसलिये यही बात चिकित्सीय उपेक्षा के मामलों पर भी लागू होनी चाहिये।  

न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया, तथा चिकित्सीय उपेक्षा को मोटर दुर्घटना के मामलों से पृथक् कर दिया: 

मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के अंतर्गत: 

  • पर- व्यक्ति बीमासांविधिक रूप से अनिवार्यहै (धारा 146)। 
  • बीमा कंपनियों का दावों का निपटान करनासांविधिक कर्त्तव्यहै (धारा 149)। 
  • दावा अधिकरणों को बीमाकर्त्ताओं को नोटिस देना होगा (धारा 166)। 
  • बीमा कंपनियों के पास विशिष्टसांविधिक बचाव हैं। 
  • अधिकरण बीमाकर्त्ता/स्वामी/चालक द्वारा संदाय को निर्दिष्ट करता है (धारा 168)। 

मुख्य अंतर:मोटर वाहन अधिनियम एक व्यापक सांविधिक ढाँचा बनाता है जो बीमा कंपनियों को आवश्यक पक्षकार बनाता है। चिकित्सीय उपेक्षा के मामलों के लिये ऐसा कोई ढाँचा विद्यमान नहीं है। 

अंतिम आदेश: 

  • रिट याचिका कोआधारहीन बताकरखारिज कर दिया गया। 
  • लागत के संबंध में कोई आदेश नहीं दिया गया। 
  • सभी लंबित अंतरिम आवेदन बंद कर दिए गए। 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 1 नियम 10 क्या है? 

  • आदेश 1 नियम 10 अन्य बातों के साथ-साथ न्यायालय को कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में किसी पक्षकार को जोड़ने, प्रतिस्थापित करने या हटाने की अनुमति देने का अधिकार देता है। 
  • आदेश 1 नियम 10 (1) मेंउपबंध है कि जब वाद गलत वादी के नाम पर दायर किया जाता है। 
    • यह उपबंध न्यायालयों को उन स्थितियों को सुधारने की अनुमति देता है, जहाँ वादी के रूप में गलत व्यक्ति द्वारा वाद दायर किया गया हो या जहाँ इस बात को लेकर अनिश्चितता हो कि सही वादी ने वाद दायर किया है या नहीं। 
    • न्यायालय के पास विधिक कार्यवाही के किसी भी चरण में सुधार करने का विवेकाधीन अधिकार है, जिसका अर्थ है कि यह उपाय मामले की पूरी अवधि के दौरान उपलब्ध है। 
    • न्यायालय को इस शक्ति का प्रयोग करने के लिये यह आवश्यक है कि वह इस बात से संतुष्ट हो कि त्रुटि सद्भावनापूर्वक की गई वास्तविक त्रुटी के कारण हुई है, न कि किसी कपटपूर्ण या विद्वेषपूर्ण आशय से। 
    • न्यायालय को यह भी अवधारित करना होगा कि मामले के मूल में वास्तविक विवाद को सुलझाने के लिये सही वादी को प्रतिस्थापित करना या जोड़ना आवश्यक है। 
    • जब न्यायालय ऐसे परिवर्तन करने का निर्णय लेता है, तो वह या तो गलत वादी के स्थान पर सही वादी को नियुक्त कर सकता है, या फिर मामले में उचित समझे जाने पर अतिरिक्त वादी को जोड़ सकता है। 
    • न्यायालय को यह अधिकार है कि वह इन परिवर्तनों को करते समय जो भी नियम व शर्तें उचित व न्यायसंगत समझे, उन्हें लागू कर सकता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी पक्षकारों के साथ समान व्यवहार किया जाए। 
    • यह उपबंध प्रक्रियागत सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जिससे वादी के नाम में तकनीकी त्रुटियों के कारण मामलों को खारिज होने से रोका जा सके, जिससे विवादों के वास्तविक समाधान को बढ़ावा मिलता है। 
  • सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 1 नियम 10 का उपनियम (2)न्यायालय को वाद की कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में पक्षकारों को जोड़ने या हटाने का व्यापक विवेक प्रदान करता है। 
    • न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में, किसी पक्षकार के आवेदन पर या स्वयं की पहल पर, किसी पक्षकार को हटा सकता है या जोड़ सकता है। 
    • न्यायालय किसी भी पक्ष को हटा सकता है जो मामले में अनुचित तरीके से शामिल हुआ हो, चाहे वह वादी हो या प्रतिवादी। 
    • न्यायालय किसी भी ऐसे व्यक्ति को इसमें सम्मिलित कर सकता है जिसे पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाना चाहिये था, किंतु मूल वाद से हटा दिया गया था। 
    • न्यायालय उन पक्षकारों को भी इसमें सम्मिलित कर सकता है जिनकी उपस्थिति मामले के सभी विवाद्यकों के पूर्ण एवं प्रभावी निर्णय के लिये आवश्यक है। 
    • ऐसे सभी आदेश ऐसी शर्तों पर दिये जाते हैं जिन्हें न्यायालय सभी संबंधित पक्षकारों के लिये उचित और न्यायसंगत मानता है। 
    • यह शक्ति विवादों के व्यापक समाधान के लिये पक्षकारों का उचित गठन सुनिश्चित करती है। 
  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 10 के उपनियम (3) मेंसहमति आवश्यकताओं का उपबंध है: 
    • किसी भी ऐसे व्यक्ति को वादी के रूप में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है जो किसी वाद-मित्र (विधिक संरक्षक) को उस व्यक्ति की स्पष्ट सहमति के बिना अपनी ओर से वाद करने के लिये कहता हो। 
    • इसी प्रकार, किसी भी व्यक्ति को निर्योग्यता के अधीन वादी के वाद-मित्र के रूप में उनकी सहमति के बिना नहीं जोड़ा जा सकता है। 
  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 10 के उपनियम (4) प्रतिवादी के जुड़ने पर संशोधन का उपबंध करता है: 
    • जब मामले में कोई नया प्रतिवादी जोड़ा जाता है, तो वादपत्र (दावे के कथन) में इस परिवर्तन को दर्शाने के लिये संशोधन किया जाना चाहिये, जब तक कि न्यायालय अन्यथा निदेश न दे। 
    • समन और वादपत्र दोनों की संशोधित प्रतियाँ नए सम्मिलित प्रतिवादी को दी जानी चाहिये 
    • यदि न्यायालय उचित समझे तो वह यह भी आदेश दे सकता है कि संशोधित प्रतियाँ मूल प्रतिवादी को दी जाएं। 
  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 10 के उपनियम (5) मेंअतिरिक्त प्रतिवादियों के लिये परिसीमा काल का उपबंध है। 
    • किसी भी नए सम्मिलित किये गए प्रतिवादी के विरुद्ध विधिक कार्यवाही उस तिथि से ही शुरू मानी जाती है, जब उन पर समन तामील की जाती है।