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आपराधिक कानून
अन्वेषण कानूनों पर पुनर्विचार
« »24-Oct-2023
स्रोत: द हिंदू
परिचय-
राजेश और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘जाँच का सुसंगत और भरोसेमंद कोड’ की आवश्यकता को दोहराया है।
अन्वेषण हेतु समर्पित कानून आपराधिक गतिविधियों की निष्पक्ष और गहन जाँच सुनिश्चित करने के लिये स्पष्ट प्रक्रियाओं, दिशा अनुदेशों और सुरक्षा उपायों को स्थापित करने में सहायक है। उच्चतम न्यायालय ने कई उदाहरणों के माध्यम से अन्वेषण कानूनों में सुधार की आवश्यकता को दोहराया है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27
आवश्यक सुधार:
- IEA की धारा 27, जो 'किसी अपराध के आरोपी' और 'एक पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में' के रूप में वर्णित व्यक्ति से मिली जानकारी के आधार पर खोजे गए तथ्यों की स्वीकार्यता की शर्तों को रेखांकित करती है, की न्यायालय द्वारा कई बार आलोचना की गई है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि औपचारिक रूप से गिरफ्तार होने तक व्यक्ति को पुलिस हिरासत में नहीं माना जा सकता।
- ऐसा इसलिये था क्योंकि वह व्यक्ति सिर्फ एक संदिग्ध था और उसे औपचारिक रूप से गिरफ्तार किये जाने तक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में आरोपी के रूप में नामित नहीं किया गया था।
एतिहासिक मामले:
- मान सिंह (1959) मामले के संदर्भ में {In Re: Man Singh (1959)}:
- उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि 'अभिरक्षा' शब्द मूल रूप से हिरासत या कारावास (detention or confinement) को संदर्भित नहीं करता है।
- निर्णय में कहा गया कि इस धारा के प्रावधानों के अनुसार क्रियाओं और शब्दों के माध्यम से स्वेच्छा से स्वयं को अभिरक्षा में रखना भी हिरासत माना जाता है।
- इसके अतिरिक्त, यह स्थापित किया गया कि पुलिस द्वारा संदिग्धों की गतिविधियों पर अप्रत्यक्ष प्रभाव भी 'पुलिस अभिरक्षा' के रूप में योग्य है।
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम देवमन उपाध्याय (1960):
- IEA की धारा 27 पर चर्चा करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि IEA की धारा 27 में 'किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति' की अभिव्यक्ति केवल उन व्यक्तियों का वर्णन करती है, जिनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही में साक्ष्य की मांग की जाती है।
- यह आवश्यक नहीं है, कि उस व्यक्ति पर उस समय अपराध का आरोप लगाया गया हो, जब उसने तथ्य की खोज के लिये बयान दिया हो।
- मोहम्मद दस्तगिरी बनाम मद्रास राज्य (1960):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि किसी संदिग्ध के बयान से साक्ष्य मिलते हैं, तो कतिपय उसकी गिरफ्तारी आवश्यक है।
- एक बार जब साक्ष्य का निर्धारण संदिग्ध के बयान से हो जाता है, तो यह उसके खिलाफ पहला साक्ष्य बन जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप उसकी गिरफ्तारी होगी।
- अतः जब संदिग्ध IEA की धारा 27 के तहत बयान देते समय पुलिस अभिरक्षा में था, तो उसे औपचारिक रूप से गिरफ्तार नहीं किया गया था।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 100
धारा 100 (4) एवं 100 (5) का अनुपालन:
- यह धारा अन्य खोजों के साथ-साथ पुलिस द्वारा तलाशी और अभिग्रहण की प्रक्रिया के दौरान एक स्वतंत्र गवाह की उपस्थिति को व्यक्त करती है।
- CrPC की धारा 100 की उपधारा (4): इस अध्याय के तहत तलाशी लेने के पूर्व ऐसा अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जब तलाशी लेने ही वाला हो, तलाशी में हाजिर रहने और उसके साक्षी बनने के लिये उस मुहल्ले के, जिसमें तलाशी लिया जाने वाला स्थान है, दो या अधिक स्वतंत्र और प्रतिष्ठित निवासियों को या यदि उक्त मुहल्ले का ऐसा कोई निवासी नहीं मिलता है या उस तलाशी का साक्षी होने के लिये रजामंद नहीं है तो किसी अन्य मुहल्ले के ऐसे निवासियों को बुलाएगा और उनको या उनमें से किसी को ऐसा करने के लिये लिखित आदेश जारी कर सकेगा।
- CrPC की धारा 100 की उपधारा (5): तलाशी उनकी उपस्थिति में ली जाएगी और ऐसी तलाशी के अनुक्रम में अभिगृहीत सब चीजों की और जिन-जिन स्थानों में वे पाई गई हैं उनकी सूची ऐसे अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा तैयार की जाएगी और ऐसे साक्षियों द्वारा उस पर हस्ताक्षर किए जाएँगे, किंतु इस धारा के अधीन तलाशी के साक्षी बनने वाले किसी व्यक्ति से, तलाशी के साक्षी के रूप में न्यायालय में हाजिर होने की अपेक्षा उस दशा में ही की जाएगी जब वह न्यायालय द्वारा विशेष रूप से समन किया गया हो।
महत्त्वपूर्ण मामले:
- दिल्ली राज्य एनसीटी बनाम सुनील (2001):
- उच्चतम न्यायालय ने IEA की धारा 27 के प्रभावी अनुप्रयोग हेतु CrPC की धारा 100 के अनुपालन के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
- मुशीर खान @ बादशाह खान और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2010):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "यदि IEA की धारा 27 के तहत खोज विश्वसनीय है, तो इसका साक्ष्य मूल्य केवल CrPC की धारा 100(4) या धारा 100(5) के गैर-अनुपालन के कारण कम नहीं होता है"।
निष्कर्ष
अन्वेषण प्रक्रिया में तकनीकी खामियों के परिणामस्वरूप उचित संहिता की कमी होने से दोषी पक्षकारों को बरी कर दिया जाता है। अलग-अलग कानूनों में शर्तों की व्याख्याओं के बीच विरोधाभास आपराधिक न्याय प्रणाली की जड़ें हिला रहा है। यदि उच्चतम न्यायालय प्रत्येक मामले में अन्वेषण प्रक्रिया की पुष्टि नहीं करता है तो सबसे उपयुक्त प्रक्रिया को खारिज़ कर दिया जाएगा और अपरिवर्तित छोड़ दिया जाएगा।