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आपराधिक कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31

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 02-May-2025

अक्षय ठाकुर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य 

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अनुसार, जुर्माना केवलसंरक्षण आदेश” अथवाअंतरिम संरक्षण आदेश” के भंग पर ही लागू होता है, अन्य किसी आदेश के भंग पर नहीं।” 

न्यायमूर्ति राकेश कैंथला 

स्रोत:हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति राकेश कैंथला की पीठ ने निर्णय दिया है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (DV Act) की धारा 31 केवल संरक्षण आदेशों के भंग पर लागू होती है, भरण-पोषण, क्षतिपूर्ति या निवास आदेशों का अनुपालन न करने पर नहीं 

  • हिमाचलप्रदेश उच्च न्यायालय नेअक्षय ठाकुर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

अक्षय ठाकुर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • याचिकाकर्त्ता अक्षय ठाकुर नेघरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 31 के अधीन दण्डनीय कथित अपराध के लिये पुलिस स्टेशन मनाली, जिला कुल्लू में 7 जनवरी 2018 को दर्जप्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 9/2018 को रद्द करने की मांग करते हुए याचिका दायर की थी। 
  • परिवादकर्त्ता पूजा देवी नेप्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, मनाली के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) के अधीनएक आवेदन दायर किया था। 
  • अपने आवेदन में परिवादकर्त्ता ने दावा किया कि विचारण न्यायालय ने पहले 30 जून 2017 को याचिकाकर्त्ता को पृथक् आवास, ₹10,000 का क्षतिपूर्ति राशि और ₹4,000 प्रति माह का भरण-पोषण प्रदान करने का निर्देश दिया था।   
  • परिवादकर्त्ता ने आरोप लगाया कियाचिकाकर्त्ता ने उसके अनुरोध के बावजूद 12,000 रुपए की भरण-पोषण राशिऔर 10,000 रुपए की क्षतिपूर्ति राशि का संदाय करने में असफल रहा। 
  • विचारण न्यायालय ने 30 दिसंबर 2017 को एक आदेश पारित कर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन आवेदन को स्टेशन हाउस ऑफिसर, पुलिस स्टेशन मनाली को स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश के साथ भेज दिया। 
  • विचारण न्यायालय के निर्देशों के पश्चात् पुलिस नेयाचिकाकर्त्ता के विरुद्धघरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अधीन FIR दर्ज की। 
  • पुलिस ने अन्वेषण किया और घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 का उल्लंघन पाया, तथा तत्पश्चात विद्वान विचार न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र प्रस्तुत किया। 
  • याचिकाकर्त्ता ने 20 जनवरी 2014 को परिवादकर्त्ता से विवाह किया और इसके पश्चात् दोनों पक्षकारों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि परिवादकर्त्ता ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के अदीन मिथ्या मामला दर्ज कराया था, तथा विचारण न्यायालय नेधनीय और निवास आदेशों का पालन न करने के लिये FIR दर्ज करने का निर्देश देकर गलती की थी । 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्च न्यायालय ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 को विशेष रूप से "संरक्षण आदेश" या "अंतरिम संरक्षण आदेश" (जैसा कि धारा 2() को धारा 18 के साथ पढ़कर परिभाषित किया गया है) के भंग को ही दण्डनीय बनाती है 
  • न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि घरेलू हिंसा अधिनियम में विभिन्न प्रकार के अनुतोषों को धारा 18 से 22 के अंतर्गत पृथक्-पृथक् उपबंधों में स्पष्ट रूप से वर्गीकृत किया गया है, जिनमें संरक्षण आदेश, निवास आदेश, धनीय अनुतोष, अभिरक्षा आदेश, तथा क्षतिपूर्ति आदेश सम्मिलित हैं। 
  • शाब्दिक निर्वचन के सिद्धांत को लागू करते हुए, न्यायालय ने कहा कि जब किसी विधि के शब्द स्पष्ट और अस्पष्ट हों, तो परिणामों की परवाह किये बिना उनका सीधा अर्थ दिया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आपराधिक विधियों का निर्वचन कठरोता से किया जाना चाहिये, क्योंकि वे नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता से वंचित करते हैं, तथा कोई भी ऐसा कार्य जो आपराधिक विधि के दायरे में नहीं आता है, उसे निर्वचन के माध्यम से नहीं जोड़ा जा सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि यदि विधानमंडल का आशय धारा 31 को घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन सभी आदेशों पर लागू करने का था, तो उसे केवल "संरक्षण आदेश" और "अंतरिम संरक्षण आदेश" का उल्लेख करने के बजाय स्पष्ट रूप से ऐसा कहना चाहिये था। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धनीय आदेशों और निवास आदेशों का अनुपालन न करना घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अंतर्गत अपराध नहीं माना जा सकता, जो विशेष रूप से धारा 18 के अंतर्गत पारित संरक्षण आदेशों के भंग तक सीमित है।  
  • तदनुसार, न्यायालय ने पाया कि विद्वान मजिस्ट्रेट ने धनीय और निवास आदेशों के उल्लंघन के लिये FIR दर्ज करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन पुलिस को आवेदन संदर्भित करने में गलती की। 

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 क्या है? 

  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 31(1) प्रत्यर्थी द्वारासंरक्षण आदेश या अंतरिम सुरक्षा आदेश के भंग को एक विशिष्ट सांविधिक अपराध बनाती है। 
  • इस उपबंध में ऐसे आदेशों के उल्लंघन के लिये अधिकतम एक वर्ष तक के कारावास या बीस हजार रुपए तक के जुर्माने या दोनों का उपबंध है। 
  • धारा 31(2) यह निर्धारित करकेअधिकारिता संबंधी वरीयता स्थापित करती हैकि अपराध का विचारण, जहाँ तक ​​संभव हो, उसी मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा जिसने कथित रूप से भंग किये गए संरक्षण आदेश को जारी किया था। 
  • धारा 31(3) का उपबंध मजिस्ट्रेट को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498क या संहिता या दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 के अन्य सुसंगत उपबंधों के अधीन अतिरिक्त आरोप तय करने का अधिकार देता है, यदि तथ्यों से उन उपबंधों के अधीन अपराध किये जाने का पता चलता है। 
  • यह धारा आपराधिक दण्ड के माध्यम से संरक्षण आदेशों के प्रवर्तनके लिये एक तंत्र बनाती है, जिससे अधिनियम के अधीन स्थापित सुरक्षात्मक ढाँचे को मजबूती मिलती है। 
  • इस उपबंध का निर्वचन कठोरता से किया जाना चाहिये क्योंकि यह दण्डात्मक परिणाम उत्पन्न करता है, तथा इसका अनुप्रयोग विशेष रूप से अधिनियम के अधीन परिभाषित संरक्षण आदेशों या अंतरिम संरक्षण आदेशों के भंग तक सीमित है। 
  • धारा 31 की स्पष्ट भाषा, अधिनियम के विभिन्न उपबंधों के अंतर्गत पारित किये  जाने वाले अन्य आदेशों पर लागू नहीं होती, जैसे कि निवास आदेश, धनीय अनुतोष आदेश, या क्षतिपूर्ति आदेश। 
  • ऐसा प्रतीत होता है कि विधायी आशय अधिनियम के अधीन पारित विभिन्न प्रकार के आदेशों के बीच अंतर करने का है, तथा घरेलू हिंसा के कृत्यों को रोकने के उद्देश्य से पारित संरक्षण आदेशों के भंग पर ही विशिष्ट दण्डात्मक परिणाम लागू किये जाएंगे।