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पर्यावरणीय विधि

टाटा हाउसिंग डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड बनाम आलोक जग्गा और अन्य (2019)

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 10-Dec-2025

परिचय 

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो संरक्षित वन्यजीव अभयारण्यों के निकट और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील जलग्रहण क्षेत्रों के भीतर बड़े पैमाने पर निर्माण परियोजनाओं के लिये दी गई पर्यावरणीय स्वीकृतियों की वैधता को संबोधित करता है। 

  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने 2019 में यह निर्णय दिया थाजिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के उस निर्णय की पुष्टि की गई थी जिसमें एक ऊँची आवासीय परियोजना के लिये दी गई अनुमतियों को रद्द कर दिया गया था। 
  • यह मामला वन्यजीव अभयारण्यों के आसपास बफर जोनलोक न्यास सिद्धांत के अनुप्रयोग और पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों की रक्षा के लिये राज्य के सांविधानिक कर्त्तव्य के संबंध में महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करता है। 

तथ्य   

  • टाटा हाउसिंग डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड (Tata HDCL) ने पंजाब के मोहाली जिले के कंसल गाँव में 52.66 एकड़ क्षेत्र में फैले 4,63,144.54 वर्ग मीटर के निर्मित क्षेत्र और 92.65 मीटर की अधिकतम ऊँचाई वाले "कैमलॉट" नामक एक बहुमंजिला समूह आवास परियोजना विकसित करने का प्रस्ताव रखा है। 
  • कंपनी ने जुलाई 2013 को नगर पंचायतनया गाँव से भवन निर्माण की अनुमति और 17 सितंबर 2013 को राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (SEIAA), पंजाब से पर्यावरण मंजूरी प्राप्त की। 
  • 10.01.2011 की साइट निरीक्षण रिपोर्ट ने पुष्टि की कि परियोजना स्थलसर्वे ऑफ इंडिया के 21.09.2004 के मानचित्र के अनुसार सुखना झील के जलग्रहण क्षेत्र के अंतर्गत आता है। 
  • परियोजना की सीमा सुखना वन्यजीव अभ्यारण्य से उत्तर की ओर महज 123 मीटर और पूर्व की ओर 185 मीटर की दूरी पर स्थित थी। 
  • आलोक जग्गा और चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन सहित याचिकाकर्त्ताओं ने पंजाब नई राजधानी (परिधि) नियंत्रण अधिनियम, 1952 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के उल्लंघन के लिये इस परियोजना को चुनौती दी थी। 
  • यह आरोप लगाया गया था कि यह परियोजना 'पंजाब विधायक सोसाइटीद्वारा शुरू की गई थीजिसमें लगभग 95 विधायक संभावित लाभार्थी थेजो राज्य द्वारा शक्ति के अनुचित प्रयोग का संकेत देता है। 

सम्मिलित विवाद्यक 

  • क्या सुखना वन्यजीव अभ्यारण्य से परियोजना की निकटता और सुखना झील के जलग्रहण क्षेत्र के भीतर इसकी स्थिति को ध्यान में रखते हुएपंजाब के राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (SEIAA) द्वारा दी गई पर्यावरण मंजूरी और नगर पंचायत द्वारा दी गई भवन निर्माण अनुमति वैध थी? 
  • क्या पंजाब राज्य पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों की रक्षा करने के अपने सांविधानिक और सांविधिक कर्त्तव्य में असफल रहाविशेष रूप से पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (Eco-Sensitive Zone (ESZ)) की घोषणा के संबंध में 
  • क्या किसी संरक्षित वन्यजीव अभयारण्य से मात्र 123 मीटर की दूरी पर निर्माण क्रियाकलापविशेषकर ऊँची इमारतों का निर्माणअनुमेय है? 

न्यायालय की टिप्पणियां  

  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि 21.09.2004 की सर्वे ऑफ इंडिया की मानचित्र ही सुखना झील के जलग्रहण क्षेत्र के सीमांकन के लिये एकमात्र उपलब्ध और बाध्यकारी दस्तावेज़ थाऔर चूँकि परियोजना इस निर्दिष्ट क्षेत्र के अंतर्गत आती थीइसलिये स्थानीय अनुमतियाँ अमान्य थीं। 
  • न्यायालय ने कहा कि केंद्र सरकार की पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) अधिसूचना दिनांक 18.01.2017 (पर्यावरणसंरक्षणअधिनियम की धारा 3(2) और 3(3) के अधीन जारी) ने सुखना वन्यजीव अभयारण्य के आसपास एक पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र घोषित कियाजिसमें संरक्षित क्षेत्र की सीमा के 0.5 किमी (जोन-I) के भीतर नए वाणिज्यिक निर्माण को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया गया है। 
  • न्यायालय ने पाया कि पंजाब राज्य द्वारा बफर जोन को केवल 100 मीटर तक सीमित करने के प्रस्ताव को पर्यावरण और पर्यावरण मंत्रालय (MoEF) ने अस्वीकार कर दिया थाजिसने कम से कम किलोमीटर का प्रस्ताव मांगा थाजो पर्यावरण संरक्षण मानदंडों का पालन करने में राज्य की विफलता को दर्शाता है। 
  • न्यायालय ने माना कि राज्य द्वारा पर्याप्त बफर जोन स्थापित करने में विफलतासाथ ही 95 विधायकों का लाभार्थी के रूप में सम्मिलित होनायह दर्शाता है कि राज्य लोक न्यास सिद्धांत के अनुरूप कार्य नहीं कर रहा थाजो निजी या वाणिज्यिक लाभ के बजाय लोक हित के लिये महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों की सरकारी सुरक्षा को अनिवार्य बनाता है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 48 (राज्य के निति निदेशक तत्त्व) और अनुच्छेद 51(छ) (मौलिक कर्त्तव्य) पर्यावरण और वन्यजीवों की रक्षा और सुरक्षा के लिये एक सांविधानिक जनादेश लागू करते हैंऔर जब अधिकारी इन कर्त्तव्यों को पूरा करने में असफल रहते हैं तो न्यायालयों को हस्तक्षेप करना चाहिये 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि संपूर्ण मंजूरी प्रक्रिया सरकार और उसके अधिकारियों की ओर से "मनमानी से भरी हुई" है और इसे पूरी तरह से रद्द किया जाना चाहिये 

निष्कर्ष 

  • उच्चतम न्यायालय ने टाटा हाउसिंग डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड द्वारा दायर अपीलों को खारिज कर दिया और परियोजना के लिये दी गई सभी अनुमतियों को रद्द करने के उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा। 
  • इस निर्णय से यह स्थापित होता है कि वन्यजीव अभयारण्यों से प्रतिबंधित दूरी के भीतर निर्माण परियोजनाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती हैविशेषत: तब जब वे किसी संरक्षित क्षेत्र से मात्र 123 मीटर की दूरी पर और महत्त्वपूर्ण जलग्रहण क्षेत्रों के भीतर स्थित हों। 
  • यह ऐतिहासिक निर्णय पर्यावरण शासनसतत विकास और लोक न्यास सिद्धांत के कठोर अनुप्रयोग के सिद्धांतों को सुदृढ़ करता हैजिससे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को शहरी विकास के अतिक्रमण से बचाया जा सके। 
  • यह मामला एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करता है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा करने के अपने सांविधानिक दायित्त्व का त्याग नहीं कर सकता हैऔर ऐसा करने में कोई भी विफलता लोक प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिये न्यायिक हस्तक्षेप को उचित ठहराती है।