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पर्यावरणीय विधि
हिमाचल प्रदेश राज्य और अन्य बनाम योगेंद्र मोहन सेनगुप्ता और अन्य (2024)
«11-Dec-2025
परिचय
- यह निर्णय शहरी नियोजन में राज्य अधिकारियों द्वारा अर्ध-विधायी शक्तियों का प्रयोग करते समय राष्ट्रीय हरित अधिकरण की अधिकारिता की सीमाओं के महत्त्वपूर्ण प्रश्न का समाधान करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात की परीक्षा की कि क्या हिमाचल प्रदेश नगर एवं ग्रामीण नियोजन अधिनियम, 1977 के अधीन विकास योजनाओं की विषयवस्तु और उन्हें तैयार करने के तरीके के संबंध में विशिष्ट अनिवार्य निदेश जारी करके NGT ने अपनी अधिकारिता का उल्लंघन किया है।
तथ्य
- यह विवाद हिमाचल प्रदेश नगर एवं ग्रामीण नियोजन अधिनियम, 1977 के अंतर्गत शिमला नियोजन क्षेत्र विकास योजना से संबंधित राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के समक्ष चल रही कार्यवाही से उत्पन्न हुआ था।
- प्रतिवादी योगेंद्र मोहन सेनगुप्ता ने ग्रीन बेल्ट क्षेत्रों के संरक्षण की मांग करते हुए और किसी भी गैर-वन गतिविधि के लिये वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के अधीन पूर्व अनुमति की आवश्यकता के लिये राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के समक्ष मूल आवेदन संख्या 121/2014 दायर किया।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने स्वतः संज्ञान लेते हुए आवेदन के दायरे का विस्तार किया और 16 नवंबर 2017 को अपना पहला आदेश पारित किया, जिसमें कोर/वन/हरित क्षेत्रों में निर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया और पूरे शिमला योजना क्षेत्र में निर्माण को अधिकतम 2 मंजिलों और अटारी तक सीमित कर दिया गया।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने राज्य को अधिकरण द्वारा अनिवार्य विशिष्ट निर्देशों और सावधानियों को शामिल करते हुए तीन महीने के भीतर विकास योजना को अंतिम रूप देने का निदेश दिया।
- इसके बाद राज्य ने TCP अधिनियम की प्रक्रियाओं के अनुसार 8 फरवरी 2022 को एक मसौदा विकास योजना प्रकाशित की।
- प्रत्यर्थी ने मसौदा योजना को चुनौती देते हुए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के समक्ष दूसरा आवेदन (OA No. 297 of 2022) दायर किया।
- राज्य द्वारा राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के अंतरिम स्थगन को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में सिविल रिट याचिका संख्या 5960/2022 दायर करते हुए भी, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने 14 अक्टूबर 2022 को अपना दूसरा आदेश पारित किया, जिसमें कथित तौर पर अपने पहले के निर्देशों के साथ विरोधाभास होने के कारण मसौदा विकास योजना को अवैध घोषित कर दिया गया।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या TCP अधिनियम के अध्याय-4 (धारा 18-20) के अधीन विकास योजनाओं की तैयारी, अंतिम रूप देना और अनुमोदन करना राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के हस्तक्षेप से परे अर्ध-विधायी कार्यों का गठन करता है।
- क्या राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने विकास योजना के लिये विशिष्ट सामग्री (जैसे ऊँचाई प्रतिबंध और निर्माण प्रतिषेध) विहित करने वाले अनिवार्य निर्देश जारी करके अपनी अधिकारिता का उल्लंघन किया है?
- क्या राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने न्यायिक औचित्य के सिद्धांतों का उल्लंघन किया जब उसने कार्यवाही जारी रखी और अंतिम आदेश पारित किये जबकि उच्च न्यायालय पहले से ही उसी मामले पर विचार कर रहा था?
न्यायालय की टिप्पणियां
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि TCP अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 के अधीन विकास योजनाओं की तैयारी, अंतिम रूप देना और स्वीकृति विधायी या अर्ध-विधायी कार्य हैं जिनमें आचरण के सामान्य नियमों का निर्माण सम्मिलित है।
- वी.के. नासवा बनाम गृह सचिव, भारत संघ के मामले का हवाला देते हुए, न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की कि न्यायपालिका विधि नहीं बना सकती या विधायिका या उसके प्रतिनिधि को किसी विशेष तरीके से विधि बनाने का निदेश नहीं दे सकती।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने अपने पहले आदेश में अधिकतम भवन ऊँचाई जैसे विशिष्ट प्रावधानों को निर्धारित करने का प्रयास करके अधिकारिता की सीमाओं का उल्लंघन किया, जिससे प्रतिनिधि की विधायी शक्ति पर अनुचित प्रतिबंध लगाए गए।
- न्यायिक औचित्य के संबंध में, न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण को कार्यवाही जारी नहीं रखनी चाहिये थी और अंतिम आदेश पारित नहीं करने चाहिये थे, जबकि उच्च न्यायालय पहले से ही CWP No. 5960/2022 के माध्यम से उसी विवाद्यक पर विचार कर रहा था।
- न्यायालय ने कहा कि एक सांविधिक अधिकरण और एक सांविधानिक न्यायालय के परस्पर विरोधी आदेश असामान्य परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं, और सांविधानिक न्यायालयों के आदेश ही सर्वोपरि होने चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि TCP अधिनियम की धारा 18 के माध्यम से ही पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को अनिवार्य किया गया है, जिसमें बाढ़ नियंत्रण, भूस्खलन संरक्षण और पर्यावरण नियंत्रण के उपाय आवश्यक हैं।
- न्यायालय ने स्वीकार किया कि राज्य की अंतिम विकास योजना ने संवेदनशील क्षेत्रों में अनिवार्य मृदा जांच सहित कठोर सुरक्षा उपायों को सम्मिलित करके और हरित पट्टी (ग्रीन बेल्ट) क्षेत्रों में निर्माण को एक मंजिला और अटारी तक सीमित करके विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन प्रदर्शित किया है।
- न्यायालय ने सतत विकास के सिद्धांत को मान्यता देते हुए कहा कि राज्य की योजना ने विकासात्मक आवश्यकताओं और पर्यावरण संरक्षण के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है।
निष्कर्ष
- उच्चतम न्यायालय ने अपीलों को स्वीकार करते हुए कहा कि 16 नवंबर 2017 और 14 अक्टूबर 2022 के दोनों राष्ट्रीय हरित अधिकरण आदेश राज्य के अर्ध-विधायी क्षेत्र में अधिकारिता के उल्लंघन के कारण विधिक रूप से अस्थिर थे।
- न्यायालय ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण की शक्तियों पर स्पष्ट परिसीमाएँ निर्धारित कीं, विशेष रूप से उन सांविधिक नियोजन कार्यों के संबंध में जो प्रकृति में विधायी हैं।
- न्यायालय ने माना कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने उच्च न्यायालय में इसी विवाद्यक पर लंबित कार्यवाही के होते हुए भी मामले को आगे बढ़ाकर न्यायिक औचित्य के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण के सभी विवादित आदेशों को अपास्त कर दिया गया और हिमाचल प्रदेश राज्य को 20 जून 2023 को प्रकाशित अंतिम विकास योजना के कार्यान्वयन के साथ आगे बढ़ने की अनुमति दी गई।
- यह निर्णय पर्यावरण प्रशासन में न्यायिक अधिकरणों और विधायी/अर्ध-विधायी कार्यों के बीच शक्तियों के पृथक्करण पर महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करता है, इस बात पर बल देते हुए कि पर्यावरण संरक्षण राज्य के विभिन्न अंगों के अधिकार क्षेत्रों का सम्मान करते हुए सांविधानिक सीमाओं के भीतर प्राप्त किया जाना चाहिये।