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आपराधिक कानून
प्रेम राज बनाम पुनम्मा मेनन एवं अन्य (2024)
«08-Dec-2025
परिचय
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें कहा गया है कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही तब तक जारी नहीं रखी जा सकती, जब तक कि सक्षम सिविल न्यायालय ने पहले ही यह निर्णय न दे दिया हो कि संबंधित चेक केवल प्रतिभूति के उद्देश्य से जारी किया गया था।
तथ्य
- अपीलकर्त्ता (प्रेम राज) ने परिवादकर्त्ता (के.पी.बी. मेनन) से 2,00,000/- रुपए उधार लिये और प्रतिभूति के रूप में उक्त राशि के लिये 30 जून, 2002 को चेक जारी किया।
- चेक को 24 सितंबर 2002 के कवरिंग लेटर के साथ डाक द्वारा भेजा गया था, किंतु अपर्याप्त धनराशि और लेखीवाल द्वारा संदाय रोक दिये जाने' के कारण चेक अनादरण हो गया।
- 22 दिसंबर, 2002 के मांग नोटिस के बाद, अपीलकर्त्ता के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम (CC No. 51/2003) की धारा 138 के अधीन परिवाद दायर किया गया था।
- इसके साथ ही, अपीलकर्ता ने अपर जिला मुंसिफ, इरिन्जालाकुडा के समक्ष मूल वाद संख्या 1338/2002 दायर किया था, जिसमें चेक को प्रतिभूति चेक घोषित करने, इसकी वापसी के लिये अनिवार्य व्यादेश प्राप्त करने और प्रतिवादियों को इसे भुनाने से रोकने की मांग की गई थी।
- मुंसिफ न्यायालय ने 11 अप्रैल, 2003 को वाद का निर्णय पूर्णतः वादी (अभियुक्त) के पक्ष में सुनाया तथा चेक को प्रतिभूति चेक घोषित किया।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने अपील दायर की ((C.M.A. No. 6/2006) जिसे अपर अधीनस्थ न्यायाधीश ने 30 जनवरी, 2007 को खारिज कर दिया, तथा मुंसिफ न्यायालय के निष्कर्ष की पुष्टि की।
- अंतिम सिविल डिक्री के होते हुए भी, विचारण न्यायालय ने 14 अगस्त, 2007 को आपराधिक मामले में अपीलकर्त्ता को सिद्धदोष ठहराया और उसे एक वर्ष के साधारण कारावास और 2 लाख रुपए के प्रतिकर का दण्ड दिया।
- प्रथम अपीलीय न्यायालय और केरल उच्च न्यायालय दोनों ने 23 जनवरी, 2018 को दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
- इसलिये, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही प्रारंभ की जा सकती है और अभियुक्त को दोषी ठहराया जा सकता है, जब सक्षम सिविल न्यायालय द्वारा पहले ही डिक्री पारित हो चुकी हो, विशेष रूप से तब जब सिविल न्यायालय ने निश्चायक रूप से चेक को प्रतिभूति चेक घोषित कर दिया हो?
न्यायालय की टिप्पणियां
- न्यायालय ने एक ही विवाद्यक और संव्यवहार के लिये एक साथ अपनाई गई सिविल और आपराधिक कार्यवाही पर चिंता व्यक्त की।
- न्यायालय ने इस संदर्भ में विचारण न्यायालय के दृष्टिकोण को गलत पाया, जिसमें कहा गया था कि आपराधिक न्यायालय सिविल न्यायालय के अधीनस्थ नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि सिविल न्यायालय ने चेक को केवल प्रतिभूति के उद्देश्य से घोषित करके, परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि के लिये आवश्यक विधिक रूप से प्रवर्तनीय ऋण के निष्कर्ष को अनिवार्य रूप से रोक दिया।
- यह देखते हुए कि आपराधिक न्यायालय ने दण्ड और प्रतिकर दोनों अधिरोपित किये थे, सिद्धांत यह निर्धारित करता है कि आपराधिक अधिकारिता सिविल न्यायालय के निर्णय से बाध्य होगा।
- सिविल (साक्ष्य की प्रधानता) और आपराधिक (युक्तियुक्त संदेह से परे सबूत) न्यायालयों के बीच सबूत के विभिन्न मानकों के संबंध में इकबाल सिंह मारवाह बनाम मीनाक्षी मारवाह में संविधान पीठ के निर्णय को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने विशिष्ट बाध्यकारी सिद्धांत को लागू किया, जहाँ सिविल न्यायालय ने विवादित दस्तावेज़ के चरित्र को निश्चायक रूप से अवधारित किया है।
- अंततः, विधि में यह प्रावधान किया गया कि जब सिविल न्यायालय ने घोषित कर दिया है कि चेक केवल प्रतिभूति उद्देश्यों के लिये जारी किया गया है, तो परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन आपराधिक कार्यवाही विधि टिकने योग्य नहीं है।
- अपील स्वीकार कर ली गई और उच्च न्यायालय, अपर सेशन न्यायाधीश और प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दोषसिद्धि को बरकरार रखने के निर्णय को अपास्त कर दिया गया।
- न्यायालय ने निदेश दिया कि निचली न्यायालयों द्वारा लगाया गया हर्जाना (प्रतिकर) अपीलकर्त्ता को तुरंत लौटाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
न्यायालय ने इस मामले में यह निर्धारित किया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही तब तक जारी नहीं रखी जा सकती, जब तक कि सक्षम सिविल न्यायालय ने निश्चायक रूप से यह अवधारित नहीं कर लिया हो कि चेक केवल प्रतिभूति के रूप में जारी किया गया था, तथा यह स्थापित किया कि विवादित लिखत के चरित्र के संबंध में सिविल न्यायालय के निर्णय आपराधिक न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं।