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सिविल कानून
सचिन जायसवाल बनाम मेसर्स होटल अलका राजे एवं अन्य, (2025)
«06-Dec-2025
परिचय
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जो यह निर्धारित करता है कि भागीदार की पृथक् स्थावर संपत्ति, भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 14 के अंतर्गत फर्म की संपत्ति बन जाती है, जो भागीदार के फर्म में योगदान करने के आशय पर आधारित होता है।
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने 27 फरवरी, 2025 को यह निर्णय दिया।
तथ्य
- यह विवाद भैरो प्रसाद जायसवाल द्वारा 1965 में रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से खरीदी गई भूमि के एक भूखंड से संबंधित है।
- 1971 में, भैरो प्रसाद ने अपने भाई हनुमान प्रसाद जायसवाल के साथ मौखिक भागीदारी की, जिसे 11.10.1972 के भागीदारी विलेख के माध्यम से औपचारिक रूप दिया गया, जिससे मेसर्स होटल अलका राजे (प्रत्यर्थी संख्या 1) का निर्माण हुआ।
- दोनों भाइयों ने मिलकर कारबार चलाने के लिये इस भूमि पर एक होटल भवन का निर्माण किया।
- 1983 में, भैरो प्रसाद ने एक रजिस्ट्रीकृत त्यागपत्र निष्पादित किया, जिसके अधीन उन्होंने मेसर्स होटल अलका राजे के पक्ष में भूमि पर अपने अधिकार छोड़ दिये, तथा स्पष्ट रूप से कहा कि उनके विधिक उत्तराधिकारियों का संपत्ति पर कोई दावा नहीं होगा।
- पद परित्याग करने के पश्चात् भी, वे 2005 में अपनी मृत्यु तक भागीदार बने रहे।
- 2018 में, शेष भागीदारों और फर्म ने अपीलकर्त्ताओं (भैरो प्रसाद के उत्तराधिकारियों) के विरुद्ध स्वामित्व की घोषणा और स्थायी व्यादेश के लिये एक सिविल वाद दायर किया, जिन्होंने संपत्ति पर दावा करने का प्रयास किया था।
- विचारण न्यायालय ने फर्म के पक्ष में निर्णय दिया और उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि डिक्री को केवल मेसर्स होटल अलका राजे के पक्ष में पढ़ा जाना चाहिये।
- इसलिये, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या भागीदारी कारबार के लिये उपयोग में लाई गई भागीदार की पृथक् स्थावर संपत्ति, औपचारिक दस्तावेज़ीकरण की परवाह किये बिना, भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 14 के अंतर्गत स्वतः ही 'फर्म की संपत्ति' बन जाती है?
- क्या उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के इस तर्क पर निर्णय न देकर गलती की कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अधीन संपत्ति के अधिकारों को अंतरित करने के लिये त्याग विलेख अपर्याप्त है?
- क्या उच्च न्यायालय ने सही ढंग से स्पष्ट किया कि डिक्री को केवल भागीदारी फर्म (प्रत्यर्थी संख्या 1) के पक्ष में पढ़ा जाना चाहिये?
न्यायालय की टिप्पणियां
- न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय ने संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के बजाय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 14 को सही ढंग से लागू किया, जो भागीदारी संपत्ति मामलों को नियंत्रित करती है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 14 के अनुसार फर्म की संपत्ति में फर्म के स्टॉक में लाई गई या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये अर्जित सभी संपत्ति और अधिकार सम्मिलित हैं।
- न्यायालय ने पाया कि यह एक स्वीकृत तथ्य है कि भैरो प्रसाद ने फर्म को संपत्ति का योगदान दिया था, और भागीदारी बनाने के बाद संयुक्त रूप से होटल का निर्माण करने का उनका कार्य फर्म को अपनी पूँजी के रूप में भूमि और भवन का योगदान करने के उनके "आशय का स्पष्ट साक्ष्य" प्रदर्शित करता है।
- न्यायालय ने अद्दांकी नारायणप्पा बनाम भास्कर कृष्णप्पा के पूर्व निर्णय का सहारा लिया, जिसमें स्थापित किया गया कि एक बार जब पृथक् संपत्ति को संयुक्त उद्यम के लिये पूँजी के रूप में लाया जाता है, तो वह व्यक्ति की संपत्ति नहीं रह जाती है और भागीदारी की संपत्ति बन जाती है।
- न्यायालय ने मुख्य नियंत्रक राजस्व प्राधिकरण बनाम चिदंबरम मामले में मद्रास उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के निर्णय का हवाला देते हुए पुष्टि की कि औपचारिक दस्तावेज़ीकरण के बिना भी आशय के साक्ष्य के माध्यम से संपत्ति को भागीदारी स्टॉक में योगदान दिया जा सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि त्याग विलेख की वैधता पर पृथक् से विचार करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि जब भैरो प्रसाद ने इसमें योगदान दिया और व्यावसायिक निर्माण कार्य शुरू किया, तब संपत्ति पहले ही विधिक रूप से फर्म की संपत्ति में परिवर्तित हो चुकी थी।
- अंततः, विधि में यह प्रावधान किया गया कि भागीदार की पृथक् संपत्ति, औपचारिक अंतरण दस्तावेज़ की परवाह किये बिना, भागीदार के योगदान के आशय के आधार पर, धारा 14 के अंतर्गत स्वतः ही फर्म की संपत्ति बन जाती है।
निष्कर्ष
न्यायालय ने इस मामले में यह निर्धारित किया कि किसी भागीदार की पृथक् स्थावर संपत्ति भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 14 के अंतर्गत स्वतः ही फर्म की संपत्ति में परिवर्तित हो जाती है, जब भागीदार द्वारा उसे फर्म में अंशदान करने के आशय का स्पष्ट साक्ष्य हो, तथा ऐसे परिवर्तन के लिये औपचारिक अंतरण दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं होती है।