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सांविधानिक विधि
प्रमुख सांविधानिक संशोधन
«08-Dec-2025
परिचय
भारत का संविधान, 1950 (COI) एक जीवंत दस्तावेज़ है, जिसे उसके अधिनियमन के समय से लेकर अब तक विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों तथा उभरती चुनौतियों के अनुरूप अनेक बार संशोधित किया गया है। संविधान में संशोधन वे परिवर्धन या परिवर्तन हैं, जो अनुच्छेद 368 में विनिर्दिष्ट औपचारिक प्रक्रिया के माध्यम से किये जाते हैं। इन सांविधानिक संशोधनों ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ करने, सामाजिक न्याय की स्थापना करने, शक्ति के विकेंद्रीकरण को सुनिश्चित करने तथा प्रशासनिक ढाँचे को समकालीन आवश्यकताओं के अनुसार ढालने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रमुख सांविधानिक संशोधन क्या हैं?
- प्रमुख सांविधानिक संशोधन संविधान में महत्त्वपूर्ण संशोधन हैं, जिनके द्वारा इसके प्रावधानों में काफी परिवर्तन किया गया है, नए अधिकार या कर्त्तव्य जोड़े गए हैं, या शासन तंत्र का पुनर्गठन किया गया है।
- इन संशोधनों में भूमि सुधार और राज्यों के पुनर्गठन से लेकर मौलिक अधिकारों और स्थानीय शासन तक के महत्त्वपूर्ण विवाद्यकों को संबोधित किया गया है।
प्रथम संशोधन (1951)
- प्रथम सांविधानिक संशोधन अधिनियम, 1951 को भूमि सुधार संबंधी विधियों के कार्यान्वयन में उत्पन्न बाधाओं को दूर करने तथा कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में राज्य की शक्ति को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया।
- राज्य को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति हेतु विशेष उपबंध बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
- जमींदारी उन्मूलन तथा संपत्तियों के अधिग्रहण संबंधी विधियों को विधिक संरक्षण प्रदान किया गया।
- भूमि सुधार विधियों और अन्य संबंधित विधानों को न्यायिक पुनर्विलोकन से बचाने के लिये नौवीं अनुसूची लागू की गई।
- अनुच्छेद 31 के पश्चात् अनुच्छेद 31-क तथा अनुच्छेद 31-ख जोड़े गए, जिससे संपत्तियों के अधिग्रहण से संबंधित विधियों की वैधता को संरक्षित किया जा सके।
- भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिये तीन अतिरिक्त आधार लागू किये गए: लोक व्यवस्था, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, और किसी अपराध के लिये उकसाना, इन निर्बंधनों को न्यायिक जांच के अधीन बनाया गया क्योंकि इन्हें 'युक्तियुक्त' होना चाहिये।
- यह स्पष्ट किया गया कि राज्य व्यापार या राज्य द्वारा किसी व्यापार या कारबार का राष्ट्रीयकरण व्यापार या कारबार के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर अवैध नहीं माना जा सकता।
7वाँ संशोधन (1956)
- 7वाँ संशोधन एक ऐतिहासिक सुधार था जिसने भारतीय राज्यों को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया और प्रशासनिक ढाँचे को युक्तिसंगत बनाया।
- राज्य पुनर्गठन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लागू करने के लिये दूसरी और सातवीं अनुसूचियों में संशोधन किया गया।
- राज्यों का चार श्रेणियों - भाग A, B, C और D - में वर्गीकरण समाप्त कर दिया गया तथा राज्यों को भाषाई सिद्धांतों के आधार पर 14 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में पुनर्गठित किया गया।
- उच्च न्यायालयों की अधिकारिता का विस्तार कर इसमें केंद्र शासित प्रदेशों को भी सम्मिलित किया गया।
- दो या अधिक राज्यों की सेवा के लिये एक सामान्य उच्च न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- उच्च न्यायालयों में अतिरिक्त एवं कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये दिशानिर्देश पेश किये गए।
42वाँ संशोधन (1976)
- अक्सर "मिनी संविधान" कहा जाने वाला 42वाँ संशोधन सबसे व्यापक और विवादास्पद संशोधनों में से एक था, जिसने आपातकाल के दौरान व्यापक परिवर्तन किये।
- इसमें 59 खण्ड सम्मिलित थे और संविधान में अनेक परिवर्तन किये गए।
- उद्देशिका में तीन नए शब्द सम्मिलित किये गए: समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता।
- नए भाग 4-क (अनुच्छेद 51A) के अंतर्गत मौलिक कर्त्तव्यों को सम्मिलित किया गया।
- यह आदेश दिया गया कि राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करना होगा।
- सांविधानिक संशोधनों को न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर घोषित किया गया।
- यह निर्धारित किया गया कि राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को लागू करने के लिये अधिनियमित की गईं विधियों को कुछ मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के कारण अमान्य नहीं किया जा सकता।
- राज्य नीति के तीन अतिरिक्त निदेशक तत्त्व जोड़े गए।
- लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया।
- अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना में सहायता की।
- संविधान में भाग 14-A को सम्मिलित करके प्रशासनिक अधिकरणों और अन्य विशिष्ट अधिकरणों के निर्माण को सक्षम बनाया गया।
44वाँ संशोधन (1978)
- 44वाँ संशोधन 42वें संशोधन के कुछ विवादास्पद प्रावधानों को रद्द करने और सरकार के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन बहाल करने के लिये लागू किया गया था।
- लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का मूल कार्यकाल पुनः पाँच वर्ष कर दिया गया।
- संसद और राज्य विधानमंडलों में कोरम से संबंधित प्रावधानों को बहाल किया गया।
- संसदीय विशेषाधिकार संबंधी प्रावधानों से ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के संदर्भों को हटाया गया।
- संसद और राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही की सत्य रिपोर्ट समाचार पत्रों में प्रकाशित करने के लिये सांविधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।
- राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह को पुनर्विचार हेतु लौटाने का अधिकार प्रदान किया गया; तथापि पुनर्विचारित सलाह राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होगी।
- अध्यादेश जारी करने में राष्ट्रपति, राज्यपालों और प्रशासकों की संतुष्टि को अंतिम बनाने वाले प्रावधान को हटा दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कुछ न्यायिक अधिकारों को पुनर्स्थापित किया गया, जिन्हें 42वें संशोधन द्वारा सीमित कर दिया गया था।
- राष्ट्रीय आपातकाल से संबंधित प्रावधानों में 'आंतरिक अशांति' शब्द को 'सशस्त्र विद्रोह' से प्रतिस्थापित किया गया।
- राष्ट्रपति को केवल मंत्रिपरिषद की लिखित सिफारिश पर ही राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने की आवश्यकता होगी।
- राष्ट्रीय आपातकाल और राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिये प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय लागू किये गए।
- संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया, तथा इसे विधिक अधिकार बना दिया गया (अब अनुच्छेद 300क के अंतर्गत)।
- यह सुनिश्चित किया गया कि अनुच्छेद 20 एवं अनुच्छेद 21 (मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण एवं प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किये जा सकेंगे।
- उन प्रावधानों को हटा दिया गया जो न्यायालयों को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष से संबंधित निर्वाचन विवादों पर निर्णय लेने के अधिकार से वंचित करते थे।
52वाँ संशोधन (1985)
- 52वाँ संशोधन भारतीय राजनीति में व्याप्त राजनीतिक दलबदल की समस्या के समाधान के लिये लागू किया गया था।
- दल-बदल के आधार पर संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्यों को अयोग्य ठहराने का प्रावधान किया गया।
- दल-बदल के आधार पर अयोग्यता के संबंध में विस्तृत प्रावधान वाली एक नई 10वीं अनुसूची जोड़ी गई।
- इसका उद्देश्य विधायकों को पार्टी संबद्धता बदलने से हतोत्साहित करके सरकारों को स्थिरता प्रदान करना है।
61वाँ संशोधन (1988)
- 61वें संशोधन ने मतदान की आयु कम करके लोकतांत्रिक भागीदारी का विस्तार किया।
- लोकसभा और राज्य विधान सभा निर्वाचनों के लिये मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
- निर्वाचन प्रक्रिया में युवाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित की गई।
73वाँ और 74वाँ संशोधन (1992)
- इन दोनों संशोधनों ने स्थानीय शासन को सांविधानिक रूप दिया, जो विकेन्द्रीकरण और जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
73वाँ संशोधन अधिनियम:
- इस संशोधन के माध्यम से पंचायती राज संस्था को सांविधानिक स्वरूप दिया गया।
- भारत के संविधान में एक नया भाग-9 जोड़ा गया जिसमें अनुच्छेद 243 से 243ण तक के उपबंध सम्मिलित हैं।
- संविधान में एक नई 11वीं अनुसूची जोड़ी गई जिसमें पंचायतों के 29 कार्यात्मक विषय सम्मिलित हैं।
- नियमित निर्वाचन, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया।
- ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायतों की त्रिस्तरीय प्रणाली स्थापित की गई।
74वाँ संशोधन अधिनियम:
- शहरी स्थानीय सरकारों को 1992 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार के कार्यकाल के दौरान सांविधानिक रूप दिया गया था। यह 1 जून 1993 को लागू हुआ।
- अनुच्छेद 243-त से 243-यछ तक के प्रावधानों से युक्त भाग 9-क जोड़ा गया।
- संविधान में 12वीं अनुसूची जोड़ी गई जिसमें नगरपालिकाओं के 18 कार्यात्मक मद सम्मिलित हैं।
- जनसंख्या और प्रशासनिक महत्त्व के आधार पर विभिन्न प्रकार की नगरपालिकाओं का प्रावधान किया गया।
86वाँ संशोधन (2002)
- 86वें संशोधन ने शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी, जो सामाजिक कल्याण में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति थी।
- अनुच्छेद 21क के अधीन प्रारंभिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया, जिससे 6 से 14 वर्ष की आयु के बालकों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा एक न्यायोचित अधिकार बन गया।
- निदेशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 45 की विषय-वस्तु में परिवर्तन किया गया, जो मूलतः प्रारंभिक बाल्यावस्था देखरेख और शिक्षा से संबंधित था।
- अनुच्छेद 51-क के अंतर्गत एक नया मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया, जिसके अधीन माता-पिता या संरक्षकों को 6 से 14 वर्ष के बालकों को शिक्षा के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता होगी।
101वाँ संशोधन (2016)
- 101वें संशोधन ने स्वतंत्र भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक सुधारों में से एक की शुरुआत की।
- केंद्र और राज्यों दोनों को माल और सेवा कर (GST) लगाने की अनुमति दी गई, जिससे एक एकीकृत राष्ट्रीय बाजार का निर्माण हुआ।
- 2016 के संशोधन से पहले, कराधान शक्तियां केंद्र और राज्यों के बीच विभाजित थीं, जिसके कारण करों की दरें बढ़ती जा रही थीं।
- अनेक अप्रत्यक्ष करों के स्थान पर एकल कर व्यवस्था लागू की गई।
- माल और सेवा कर (GST) से संबंधित अनुच्छेद 246क, 269क और 279क पेश किये गए।
- माल और सेवा कर (GST) परिषद् को एक सांविधानिक निकाय के रूप में स्थापित किया गया।
103वाँ संशोधन (2019)
- 103वें संशोधन ने आर्थिक मानदंडों के आधार पर आरक्षण की एक नई श्रेणी शुरू की।
- स्वतंत्र भारत में प्रथम बार इसने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिये आरक्षण शुरू किया।
- अनुच्छेद 15 में संशोधन से शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का उपबंध है।
- अनुच्छेद 16 में संशोधन से लोक नियोजन में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये 10% आरक्षण का उपबंध है।
- यह आरक्षण अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये विद्यमान 50% आरक्षण के अतिरिक्त है।
104वाँ संशोधन (2020)
- 104वें संशोधन में एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिये आरक्षित सीटों के विवाद्यक को संबोधित किया गया।
- लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिये आरक्षित सीटें समाप्त कर दी गईं, क्योंकि समुदाय को मुख्यधारा के समाज में पर्याप्त रूप से एकीकृत कर दिया गया था।
- लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिये आरक्षण को अतिरिक्त दस वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया।
106वाँ संशोधन (2023)
- 106वाँ संशोधन राजनीतिक प्रतिनिधित्व में लैंगिक समता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।
- लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं, जिनमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित सीटें भी सम्मिलित हैं।
- यह आरक्षण अधिनियम के लागू होने के पश्चात् आयोजित जनगणना के प्रकाशन के बाद प्रभावी होगा।
- यह आरक्षण 15 वर्ष की अवधि के लिये लागू रहेगा, तथा इसका संभावित विस्तार संसदीय कार्यवाही द्वारा अवधारित किया जाएगा।
- इसका उद्देश्य विधायी निर्णय लेने में महिलाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करना है।
निष्कर्ष
प्रमुख सांविधानिक संशोधनों ने लोकतांत्रिक मूल्यों और मूलभूत सिद्धांतों को संरक्षित करते हुए उभरती चुनौतियों का सामना करने हेतु भारत के सांविधानिक ढाँचे को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भूमि सुधारों और राज्य पुनर्गठन से लेकर स्थानीय शासन, आर्थिक सुधारों और सामाजिक न्याय तक, ये संशोधन संविधान की अनुकूलनशीलता और लचीलेपन को दर्शाते हैं।